[रमेश
जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक
महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से
उन्होंने 100 लघुकथाएँ चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी
ओर से फिलहाल ‘लघुकथा : मैदान से वितान की ओर’ नाम दे रहा हूँ और
वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इसकी प्रथम 8 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 2018, 4 दिसम्बर 2018, 8
दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018
तथा 17 दिसम्बर 2018 को ‘जनगाथा’ ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी नौवीं किश्त है।
टिप्पणी
बक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी
लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से
ही किया गया है। इन लघुकथाओं पर आपकी बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा। साथ ही, किसी भी समय यदि आपको
लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की
हुई उसकी प्रति आप भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार
अवश्य किया जाएगा—बलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन
की नौवीं कड़ी में शामिल
लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…
41. पृथ्वीराज अरोड़ा—पढ़ाई
42. प्रमोद राय—फ्री
चिप्स
43. प्रियंका गुप्ता—भेड़िए
44. प्रेमकुमार
मणि—ब्लैक होल
45 प्रेमचंद—बाबाजी
का भोग
41
पृथ्वीराज अरोड़ा
पढ़ाई
सियारों और झींगुरों का समवेत स्वर सुनाई दे रहा था|
बदबूदार कमरे में लैम्प की पीली रोशनी में पुलिस अफसर ने नौजवान से सवाल किया, “जब गोदाम को लूटा गया, उस समय तुम कहाँ थे? जब तक तुम
ठीक-ठीक जबाब नहीं देते, तुम्हारी कमर की रस्सी और हाथों की हथकड़ी नहीं खोली जा
सकती।
“मैं कितनी बार बता चुका हूँ कि उस समय मैं उनके साथ
नहीं था|” उसने दृढ़ता से अपनी बात दोहरा दी|
पुलिस अफसर दहाड़ा, “साला कुत्ते का पिल्ला! झूठ बोलता है? लोहे की छड़ लाओ|” पास खड़े सिपाही को हुक्म हुआ|
छड़ आ
गई|
पुलिस अफसर ने चेताया, “तुम्हारी
अभी-अभी शादी हुई है| जानते हो बीवी के साथ भी यही सलूक हो सकता है|”
उसे याद आया
कि विदा लेते हुए पत्नी ने हौले से कहा था, “मेरे कारण घबराना नहीं|”
आजादी और
रोटी दोनों की जरुरत एक जैसी है| सारी स्थिति को भूलकर वह हँस पड़ा, “मैं जानता हूँ|”
उसकी हँसी
पुलिस अफसर को चिढ़ा गई, “हरामजादा हँसता है! सीखचों में बंद
करके डंडा-बेडी पहना दी जायगी| न बैठ सकोगे, न सो सकोगे, न नहा सकोगे| शौच तक ठीक
ढंग से करने के लिए तरसोगे|”
“मैं यह भी जानता हूँ|”
लोहे की छड का एक भरपूर वार हुआ और नौजवान चीत्कार कर
जमीन पर जा गिरा|
दूसरे पुलिस अफसर ने उसे जमीन से उठाया| पानी पिलाकर
उसके कन्धे पर हाथ रखकर धीरे-से कहा, “हम
मान लेते हैं कि उस समय तुम उनके साथ नहीं
थे| अच्छा, यह तो बताओ कि हर रोज वहाँ मजदूरों की झोंड़िपयों में क्या करने जाते हो|”
नौजवान ने सहज भाव से कहा, “पढ़ाने जाता
हूँ|”
“क्या
पढ़ाते हो?”
“मैं उन्हें इतिहास नही पढाता, प्रधानमंत्रियों के नाम
नहीं गिनवाता | बजट के घाटे के आँकड़ों से भी परिचित नहीं करवाता|”
“फिर?” सहसा उसी पुलिस अफसर के मुँह से निकल गया|
“आपने कभी अपने बच्चे को भूख से कुलबुलाते देखा है? नहीं
देखा होगा| मैं उन्हें पढ़ाता हूँ कि जब तुम्हारा बच्चा भूख से कुलबुला रहा हो और
पूरी मेहनत के बावजूद उसके वास्ते रोटी का इंतजाम न हो सके, तो उसकी भूख का इंतजाम
कैसे किया जाना चाहिए|”
नौजवान अपनी बात कहकर खामोश हो गया| पुलिस अफसर का नौजवान के कन्धे पर रखा हाथ
बेजान होकर नीचे खिसक गया| अन्दर और बाहर की ख़ामोशी एक-साथ मिलकर एक गहरी खाई की
तरह भयानक हो गई|जन्म : 10-10-1939 निधन : 20-12-2015
42
प्रमोद राय
फ्री चिप्स
मल्टीप्लेक्स के ठीक सामने
पोस्टर-बैनरों से लैस किसी कंपनी की प्रचार गाड़ी खड़ी थी। उसके इर्द-गिर्द एक ही
रंग के कपड़ों में सजी-धजी लड़कियाँ डाँस कर रही थीं। नज़दीक जाने पर पता चला कि
कंपनी के प्रचार के लिए मुफ्त में चिप्स बाँटे जा रहे है। माइक पर एक एनाउंसर ने
बताया, आपको
करना कुछ नहीं है, बस
इस स्लिप में अपना नाम, पता, कॉन्टैक्ट
नंबर वगैरह भरिए और ले जाइए चिप्स या कुरकुरे का एक पैकेट। मैंने बारी-बारी से दो
पैकेट लिए और विजयी मुस्कान के साथ चिप्स का एक पैकेट पत्नी को थमा दिया। पत्नी ने
हिचकिचाते हुए पैकेट खोला और बोली, “लेकिन ये मुफ्त में क्यों बाँट रहे हैं?”
मैंने उसकी नादानी पर खीझते हुए कहा, “तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़
गिनने से। यह मार्केटिंग का जमाना है। प्रचार और प्रोमोशन पर कंपनियाँ किसी भी हद
तक खर्च कर सकती हैं।”
अगले दिन मोबाइल पर आई कॉल के साथ मेरी
नींद खुली।
"हैलो, मैं फलां इंश्योरेंस से बोल रही हूँ।
हमारे पास हेल्थ इंश्योरेंस की एक नई स्कीम है, मार्केट में किसी कंपनी के पास..।"
मैंने कहा, "मेरे पास पहले से हेल्थ इंश्योरेंस है।“
"तो सर प्रॉपर्टी इंश्योरेस?"
"नहीं चाहिए|" मैंने कहा।
"तो सर प्रॉपर्टी इंश्योरेस?"
"नहीं चाहिए|" मैंने कहा।
इसके पहले कि वह कोई और पेशकश करे,
मैंने फोन काट दिया। इस तरह के अनवॉन्टेड कॉल से मैं बहुत पहले से परेशान था और
अक्सर सोचता था कि इन कमबख्तों को मेरा नंबर कहाँ से मिल जाता है। इसी बीच, एक और कॉल आई, "कॉन्ग्रैट्स! आप हमारे लकी ड्रा में
चुने गए चंद विजेताओं में से एक हैं, जिन्हें फलां-फलां मॉल में अत्यंत ही
रियायती दरों पर खरीदारी का ऑफर दिया जा रहा है।" मुझे इस तरह के रियायती
दरों की हाल ही में महँगी कीमत चुकानी पड़ी थी, इसलिए मैंने कॉलर को झिड़कते हुए कहा, "अब फिर फोन मत करना।"
सुबह-सुबह मूड खराब हो चुका था। मैं चाय
की घूँट के साथ गुस्से को निगलने की कोशिश कर रहा था। अचानक मैंने महसूस किया कि
हर चुस्की पर चिप्स का एक अजीबोगरीब जायका मेरे जेहन में तैर रहा है।
संपर्क व फोटो : प्रतीक्षित
43
प्रियंका गुप्ता
भेड़िए
माँ अक्सर अपने नन्हे-से मेमने को
समझाती, घर से दूर तक अकेले न जाना| गहरा अँधेरा, बिलकुल
काला जंगल जिसमें खूँखार जंगली जानवर बसते हैं|
बाकी तो सब ठीक है, शायद
बख्श भी दें, पर भेड़िया वह जीव है, जिससे
उसे सबसे ज़्यादा होशियार रहना है| अपनी आँख-नाक सब खुले रखने हैं| माँ जब
काम पर जाए तो दरवाज़ा बंद करके घर के अंदर ही रहना है|
मेहमान का भी भरोसा नहीं करना है
बिलकुल| दूर से भी कभी भेड़िए के छुपे होने का
डर हो तो भागकर, घर में घुसकर दरवाज़े-खिड़कियाँ बंद
कर लेने हैं|
माँ ने दुनिया देखी थी, जंगल
देखा था। वो सब जानती थी| मेमना
भी माँ की सब बात मानता था| यह बात भी मान ली| इसलिए
अभी तक कहीं नहीं जाता था| किसी अजनबी तो दूर, जानने
वाले से भी ज़्यादा बात नहीं करता था| माँ के जाते ही घर के सब खिड़की
दरवाज़े बंद कर लेता था|
एक दिन जब माँ काम से लौटी, मेमना
कहीं नहीं मिला| मिले तो बस, कुछ खून के कतरे| माँ
नहीं समझ पा रही थी कि उसके इतने आज्ञाकारी बच्चे का शिकार कैसे हुआ! शिकार
होने तक मेमना भी नहीं समझ पाया होगा| माँ उसे घर के भेड़िए के बारे में
बताना जो भूल गई थी|
संपर्क व फोटो : प्रतीक्षित
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प्रेमकुमार मणि
ब्लैक-होल
स्कूल से लौटा बच्चा बहुत उदास
था। रुटीन यह रहता था कि स्कूल से लौटकर वह अपना बस्ता पटकता था। फिर पानी की
बोतल। उसके चेहरे पर साँवली परत बिछी होती थी—थोड़ी धूल, थोड़ा
पसीना होता था, थोड़ी
थकान होती थी, लेकिन इस सब के ऊपर होता था घर लौटने का
उल्लास। उसकी छोटी-छोटी बाहें माँ की ओर उठती थीं।
आज, चेहरे पर साँवली परत थी.... धूल भी थी.... पसीना भी.... थकान भी..... लेकिन सब के ऊपर होनेवाला उल्लास नहीं था। उस रोज उसने बस्ता पटका नहीं, रखा। बोतल पटकी नहीं, रखी। मानों वह बहुत होशियार हो गया हो। इसी होशियारी में उसने माँ की ओर अपनी बाँहें नहीं उठाई और माँ ने भी होशियारी की, कि उसे छाती से नहीं लगाया।
आज, चेहरे पर साँवली परत थी.... धूल भी थी.... पसीना भी.... थकान भी..... लेकिन सब के ऊपर होनेवाला उल्लास नहीं था। उस रोज उसने बस्ता पटका नहीं, रखा। बोतल पटकी नहीं, रखी। मानों वह बहुत होशियार हो गया हो। इसी होशियारी में उसने माँ की ओर अपनी बाँहें नहीं उठाई और माँ ने भी होशियारी की, कि उसे छाती से नहीं लगाया।
माँ ने नाश्ता कराया, उसने कर
लिया। ठण्डा पानी पिलाया, उसने पी लिया। स्कूली ड्रेस उतारी, उतरवा
ली। धुले वस्त्र पहनाए, पहन लिये। जिद नहीं की कि वही कुरता पहनूँगा
जिस पर तितलियों के प्रिंट हैं।
उसके संगी-साथी आए, वह खेलने
नहीं गया। उसके देखते उसके साथी ने उसकी पतंग नोंच दी, उसने
नहीं डाँटा्। उसका कॉमिक्स चुराया, उसने नहीं टोका। वह बुत बन गया, एक छोटा
बुद्ध।
रात में जब घड़ी की बड़ी सुई बारह
पर थी और छोटी आठ पर, तब उसके पापा आए। छोटे बुद्ध ने पूछा, “क्या
सचमुच पूरी दुनिया, चाँद-सूरज-सितारे
सब के सब एक दिन ब्लेक होल में समा जाँएगे?”
पापा ने खुश होते हुए कहा, “हाँ।” और फिर खुश होकर पूछा, “क्या तुम्हें स्कूल में ब्लैक होल के बारे में पढ़ाया गया बेटे?”
पापा ने खुश होते हुए कहा, “हाँ।” और फिर खुश होकर पूछा, “क्या तुम्हें स्कूल में ब्लैक होल के बारे में पढ़ाया गया बेटे?”
जब उसने कहा, “हाँ।” तब पापा
प्रसन्न हुए। उल्लास के साथ अपनी पत्नी को बुलाते हुए कहा, “सुनती हो, कहा था न, बहुत
अच्छा स्कूल है। अभी से ही ब्लैक होल के बारे में पढ़ाया गया। हम लोगों ने तो इसके
बारे में यूनिवर्सिटी में कुछ जाना था।”
पिता की ‘हाँ’ ने बच्चे
को बहुत उदास कर दिया। बच्चे की रोटी उदास हो गई। बच्चे का दूध उदास हो गया।
उसने घड़ी की ओर देखा और उसे लगा, घड़ी की सुइयाँ
टिक्-टिक् करती ब्लैक होल की ओर जा रही हैं।
उसने घड़ी की ओर से मुँह फेर लिया। उसने पंखे की ओर देखा और उसे लगा—पंखे
की गति ब्लैक होल की ओर जा रही हे। उसने पंखे की ओर से मुँह फेर लिया।
उसने पापा की ओर देखा और उसे
लगा—पापा की मुस्कान ब्लैक होल की ओर जा रही है। उसने पापा की ओर से मुँह फेर
लिया।
वह तेजी से उठा और जाकर माँ की
गोद में गड़ गया। उसकी उदासी, उसके डर, रुलाई
में फूट पड़े। माँ समझ ही नहीं पा रही थी कि बेटे को आखिर हुआ क्या है! डरा हुआ
बेटा, गोद में
गड़ता ही जा रहा था। जब वह खूब गड़ चुका और खूब रो चुका, तब माँ
की ओर मुँह उठाकर करूण-भाव से बोला, “माँ, जब
दुनिया ब्लैक होल में समाने लगेगी, तुम मुझे अपनी गोद में छुपा लेना।”
और एक बार फिर वह माँ की गोद में गड़ गया।
और एक बार फिर वह माँ की गोद में गड़ गया।
संपर्क : सूर्य विहार, पटना-800025
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बाबाजी का भोग
रामधन अहीर के द्वार पर एक साधु आकर बोला, ‘‘बच्चा तेरा
कल्याण हो, कुछ साधु पर
श्रद्धा कर।’’
रामधन ने जाकर स्त्री
से कहा, ‘‘साधु द्वार पर आए हैं, उन्हें कुछ दे दे।’’
स्त्री बरतन माँज रही थी, और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज
भोजन क्या बनेगा? घर में अनाज का
एक दाना भी न था। चैत का महीना था। किंतु यहाँ दोपहर ही को अंधकार छा गया था। उपज
सारी की सारी खलिहान से उठ गई। आधी महाजन ने ले ली, आधी जमींदार के प्यादों ने वसूल की।
भूसा बेचा तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गाँठ अपने हिस्से में
आई। उसी को पीट-पीट कर एक मन-भर दाना निकाला था। किसी तरह चैत का महीना पार हुआ।
अब आगे क्या होगा? क्या बैल खाएँगे, क्या घर के प्राणी खाएँगे, यह ईश्वर ही जाने! पर द्वार पर साधु
आ गया है, उसे निराश कैसे
लौटाए!!! अपने दिल में
क्या कहेगा?
स्त्री ने कहा—“क्या
दे दूँ, कुछ तो रहा नहीं?”
रामधन—“जा, देख तो मटके में, आटा-वाटा मिल जाय तो ले आ।”
स्त्री ने कहा—“मटके झाड़-पोंछ कर तो कल ही चूल्हा
जला था। क्या उसमें बरक्कत होगी?”
रामधन—“तो मुझसे तो यह
न कहा जाएगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है। किसी के घर से माँग ला।”
स्त्री—“जिससे लिया
उसे देने की नौबत नहीं आई, अब और किस मुँह
से माँगू?”
रामधन—“देवताओं के लिए
कुछ अँगोवा निकाला है न, वही ला, दे आँऊ!”
स्त्री—“देवताओं की
पूजा कहाँ से होगी?”
रामधन—“देवता माँगने
तो नहीं आते? समाई होगी करना, न समाई हो न करना।”
स्त्री—“अरे तो कुछ
अँगोवा भी पंसेरी दो पंसेरी है? बहुत होगा तो आध
सेर। इसके बाद क्या फिर कोई साधु न आएगा। उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा।”
रामधन—“यह बला तो
टलेगी, फिर देखी जाएगी।”
स्त्री झुँझला कर उठी
और एक छोटी-सी हाँड़ी उठा लाई, जिसमें मुश्किल से
आध सेर आटा था। यह गेहूँ का आटा बड़े यत्न से देवताओं के लिए रखा हुआ था। रामधन कुछ
देर खड़ा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे
में रखकर बाहर आया और साधु की झोली में डाल दिया।
महात्मा ने आटा लेकर
कहा—“बच्चा, अब तो साधु आज
यहीं रमेंगे। कुछ थोड़ी-सी दाल दे, तो साधु का भोग
लग जाय।”
रामधन ने फिर आकर
स्त्री से कहा। संयोग से दाल घर में थी। रामधन ने दाल, नमक, उपले जुटा दिए। फिर कुएँ से पानी
खींच लाया। साधु ने बड़ी विधि से बाटियाँ बनाई, दाल पकाई और आलू झोली मे से निकालकर
भुरता बनाया। जब सब सामग्री तैयार हो गई, तो रामधन से बोले—“बच्चा, भगवान के भोग के लिए कौड़ी-भर घी चाहिए। रसोई पवित्र न होगी, तो भोग कैसे लगेगा?”
रामधन—“बाबाजी, घी तो घर में न होगा।”
साधु—“बच्चा, भगवान का दिया तेरे पास बहुत है।
ऐसी बातें न कह।”
रामधन—“महाराज, मेरे गाय-भैंस कुछ नहीं है, घी कहाँ से होगा?”
साधु—“बच्चा, भगवान के भंडार में सब-कुछ है, जाकर मालकिन से कहो तो?”
रामधन ने जाकर स्त्री
के कहा—“घी माँगते है, माँगने को भीख, पर घी बिना कौर नहीं धँसता!”
स्त्री—“तो इसी दाल में
से थोड़ी लेकर बनिये के यहाँ से ला दो। जब सब किया है, तो इतने के लिए उन्हें नाराज
करते हो?”
घी आ गया। साधुजी ने
ठाकुरजी की पिंडी निकाली, घंटी बजाई और भोग
लगाने बैठे। खूब तनकर खाया, फिर पेट पर हाथ
फेरते हुए द्वार पर लेट गए। थाली, बटली और कछुली
रामधन घर में माँजने के लिए उठा ले गया।
उस रात रामधन के घर
चूल्हा नहीं जला| खाली दाल पकाकर ही पी ली।
रामधन लेटा, तो सोच रहा था—मुझसे तो यही अच्छे!
जन्म : 31
जुलाई, 1880 निधन : 08 अक्टूबर, 1936
2 comments:
पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा भीतर तक हिला देने वाली लघुकथा है
भेड़िये और ब्लैक-होल ने मुझे बहुत प्रभावित किया। सादर
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