Saturday, 15 December 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-07


[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 101 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  6 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018 , 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी  सातवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  सातवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…
31. दीपक मशाल---अटूट बंधन
भगीरथ जी ने 'अटूट बंधन' का चुनाव किया था; लेकिन उनके द्वारा प्रेषित लघुकथाओं में इसका ड्राफ्ट वे नहीं भेज पाये। उसकी अनुपस्थिति में यहाँ प्रस्तुत है दीपक की एक अन्य चर्चित लघुकथा 'सयाना होने के दौरान'
32. धर्मपाल साहिल-- औरत से औरत तक
33. नीरज सुधांशु—पिनड्रॉप साइलेंस
34. पवन शर्मा-- यह परी ही तो है
35. पारस  दासोतभूख





31
दीपक मशाल
सयाना होने के दौरान
सर्दी की गुनगुनी धूप में छत पर अधलेटा किशोर हैरत में था। जिस डिज़ाइन के बैगी स्वेटर के लिए उसने माँ से सिर्फ चंद रोज पहले ज़िद की थी, वह इतनी जल्दी कैसे तैयार होने वाला है! बाकी कामों के लिए तो कहती रहती हैं कि 'ज़रा सबर करा कर, तुझे तो हमेशा गद्दी पे आम जमाना होता है'
फिर उसने सोचा—'माँ को फुर्सत रही होगी तो बुन दिया। ठीक ही तो है, सर्दियाँ ख़त्म होने से पहले, अब कम से कम एक बार तो पहनकर कॉलेज जा सकेगा। कितना जलेंगें उसके दोस्त इतना शानदार स्वेटर देखकर! और रिया... वो तो वारी-वारी जाएगी उस पर।’
तभी माँ ने कहा—‘‘अब क्या सोचने लगा, जल्दी से कंधे मिलाने दे। सई बैठा तो सुम्मोआर तक तैयार हो जाएगा।’’
वह कंधे मापकर अलग ही हुई थीं कि बगल वाली छत से आवाज़ आई—‘‘आंटी! हो गया क्या? लंबाई वगैरह सब ठीक तो है ना!!’’
देखा, तो दो छतों को अलग करती मुंडेर पर कुहनियाँ टिकाए और हाथ में सलाइयाँ लिए वही लड़की मुस्कुराते हुए खड़ी थी जो बगल वाले मकान में आई थी। यह परिवार पिछले महीने ही किराए पर आया था। महीने भर में तीन-चार बार दोनों का आमना-सामना हुआ होगा। जब भी लड़की ने मुस्कुराकर कुछ कहने की कोशिश की, किशोर ने अज़ीब-सा मुँह बनाया और आगे बढ़ लिया था।
अब उसे समझते देर न लगी कि स्वेटर माँ ने नहीं, उसी लड़की ने बुना है। उसने आव देखा न ताव, ऊन का एक सिरा पकड़कर एक झटके में उसे उधेड़ डाला।
लड़की की आँखें आंसुओं से भर आईं और चेहरा तकलीफ से। तुरंत ही वह धड़ाधड़ छत की सीढ़ियां उतरकर नीचे चली गई।
वह उधड़ा स्वेटर ज़मीन पर फेंककर वहाँ से जाता, इससे पहले माँ ने उसकी शर्ट की आस्तीन भींची और गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा रसीद किया। फिर शोलों-सी आँखों से घूरते हुए कहा—‘‘भाई नहीं है उस बेचारी का... !’’
                                    सपर्क--setuhindi@gmail.com
32
धर्मपाल साहिल

औरत से औरत तक

टेलीफोन पर बड़ी बेटी शीतल के एक्सीडेंट की खबर जैसे ही सुनी, वासुदेव बाबू घबराए हुए से संशय भरे मन से अपनी छोटी बेटी मधु को संग लेकर तुंरत समधी के घर पहुँचे। उन्हें गेट से भीतर प्रवेश करते देखकर रोने-पीटनेवालों की आवाजें और तेज हो उठीं। दामाद सुरेश ने आगे बढ़कर वासुदेव बाबू को सँभालते हुए भरे गले से कहा, बाजार से एक-साथ लौटते हुए स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया। शीतल सिर के बल गिरी और बेहोश हो गई। फिर होश नहीं आया। डॉक्टरों का कहना है, उसे ब्रेन हैमरेज हो गया था।’’
वासुदेव बाबू बरामदे में सफेद कपड़े में लिपटी अपनी बेटी की लाश देखकर गश खाकर गिर पड़े मधु, ‘‘दीदी उठो....देखो, पापा आए हैं....दीदी उठो....देखो, पापा आए हैं.... दीदी उठो... ’’ पुकार-पुकार कर रोने लगी। शीतल की सास मधु को अपनी छाती से लगाकर सुबकते हुए बोली,बेटी, हौंसला रख...ईश्वर को यही मंजूर था।’’
पीछे बैठी औरतों में से एक आवाज आई, सुरेश की माँ, रो लेने दो लड़की को, उबाल निकल जाएगा।’’
लेकिन मधु जोर-जोर से रोए जा रही थी और औरतों के ‘वैण’ आहिस्ता-आहिस्ता धीमे पड़ते-पड़ते खुसर-फुसुर में बदल रहे थे। एक अधिक उम्र की औरत ने शीतल की सास का कंधा हिलाया और कान के पास मुँह ले-जाकर पूछा, अरी, क्या यह सुरेश की छोटी साली है’’
‘‘  हाँ बहन!’’ सुरेश की माँ ने दुखी स्वर में कहा।
‘‘  यह तो शीतल से भी अधिक सुंदर है! तुम्हें इधर-उधर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। शीतल की बेटी की खातिर इतना तो सोचेंगे ही सुरेश की ससुराल वाले।’’
इतने में गुरा बोल उठी, छोड़ परे, बच्ची को हवाले करो उसके ननिहाल वालों के। मैं लाऊँगी अपनी ननद का रिश्ता। खूब सुंदर! और फिर घर भर जाएगा दहेज से।’’‘‘
हाय, नसीब फूट गए मेरे बेटे के! बड़ी अच्छी थी मेरी बहू रानी। दो घड़ी भी नहीं रहता था उसके बगैर मेरा सुरेश। हाय रे!’’ सुरेश की माँ चीखने लगी तो पास बैठी भागो ने उसे ढाढस देते हुए कहा, हौसला रख सुरेश की माँ! भगवान का लाख-लाख शुक्र मना कि तेरा बेटा बच गया। बहुएँ तो और बहुत हैं, बेटा और कहाँ से लाती तू’’
शीतल की लाश के पास बैठी मधु पत्थर हो गई।
                                                       सपर्क--प्रतीक्षित
33

नीरज सुधांशु     
      
पिनड्रॉप साइलेंस
सुबह मुँह अँधेरे ही गर्भवती सीमा को लेबर पेन शुरू होने पर गाँव से पास के कस्बे के अस्पताल में लाया गया था।
जैसे-जैसे पास-पड़ौस के लोगों को यह खबर लगी, उनका अस्पताल में ताँता लगना शुरू हो गया। गाँव में आज भी एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होने का रिवाज जिंदा है। कभी मन से तो कभी केवल शक्ल दिखाने के लिए ही सही। और अस्पताल छोटी जगह का हो तो किसी भी समय आने-जाने पर रोक-टोक भी नहीं नहीं होती।
दर्द तेज होने पर अभी-अभी सीमा को पेशेंट रूम से लेबर रूम में शिफ्ट किया गया था।
घर से आये परिजनों व अन्य मिलनेवालों का जमघट भी रूम से निकालकर अब लेबर रूम के बाहर की लॉबी में इकट्ठा हो गया था। बच्चे के होने के इंतजार में बैठे परिजन, खासतौर पर महिलाएं आपस में जोर-जोर से बातें कर रही थीं। कुछ लेबर रूम में झिर्रियों की तलाश कर रही थीं ताकि अन्दर का पता लग सके।
तभी नर्स ने आकर टोका, “देखिए, यह हॉस्पिटल है, इतनी जोर से बात मत कीजिए।”
चेतावनी सुनकर बातें तो बंद नहीं हुई, खुसुर-पुसुर में तब्दील हो गयीं. धीरे-धीरे आवाजों की पिच फिर ऊँची होने लगी.
एक बार फिर नर्स ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘आप लोग समझते क्यों नहीं, शान्ति बनाये रखें।”
“जी सिस्टर जी!” जबाब मिला.
इस चेतावनी का असर भी पाँच मिनट ही रहा.हालात फिर वही हो गये. 
अबकी बार नर्स बुरी तरह झुंझलायी, “आप शोर किये बिना नहीं बैठ सकते तो प्लीज, बाहर चले जाइये. दूसरे मरीजों को भी असुविधा हो रही है।”””
बच्चा हो जाने का समाचार लिए बिना बाहर कैसे चले जाते? सो सब वहीँ जमे रहे। उधर, बार-बार चेतावनी के बेअसर साबित होने के साथ-साथ नर्स की झुँझलाहट व गुस्सा भी बढ़ रहा था.
तभी लेबर रूम से बच्चे के रोने की आवाज आयी और कुछ ही सेर में बाहर आकर दूसरी नर्स ने लडकी पैदा होने की सूचना दी।
खबर सुनते ही अचानक से लॉबी में सन्नाटा पसर गया। सब की जबान को जैसे ताला ही लग गया. इतना सन्नाटा देखकर बहुत देर से बहाल-परेशां नर्स से रहा नहीं गया। बोली, “क्यों, अब क्या हुआ! सांप सूंघ गया क्या?”””
                सपर्क--द्वारा वनिका पलिकेशंस, बिजनौर, उत्तर प्रदेश
34
पवन शर्मा 

यह पारी ही तो है!
अचानक पिताजी ने जाने की घोषणा कर दी,  फिर उन्होंने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया और एक छोटे बक्से में सामान सहेज-सहेजकर रखने लगे| ऐसा अक्सर ही होता है कि पिताजी एकाध माह रहकर जाने की अचानक घोषणा कर देते हैं|  शुरू-शुरू में मैं चौंकता था,  किन्तु अब कोई आश्चर्य नहीं होता| जब तक माँ थी,  पिताजी ने गाँव नहीं छोड़ा था,  किन्तु माँ के गुजर जाने के बाद वे तीनों बेटों के यहाँ कुछ-कुछ रहकर दिन बिताने लगे |
तो क्या आज ही निकल जाएँगे? मैंने पूछा| 
हाँ| वे बोले|
एकाध दिन और रुक जाते!
नहीं,अब नहीं रुकूँगा ...जाऊंगा ही ...काफी दिन रह लिया|
हाँ...मंझला भी राह देख रहा होगा| मैं कहता हूँ|
मंझले के यहाँ नहीं जाऊंगा ...सोचता हूँ कि अब गाँव निकल जाऊं| वहीं रहूँ|
क्यों?
 अब जीवन के आखिरी दिनों में यह अच्छा नहीं लगता कि एकाध महीने रहकर तेरे यहाँ से मंझले के यहाँ ...मंझले के यहाँ से छोटे के यहाँ ...और फिर तेरे यहाँ ...जैसे कि एक पारी-सी बंधी हुई हो| पिताजी कह रहे थे मैं चुपचाप था एक सन्नाटा-सा खिंच आया था मेरे और पिताजी के मध्य|
                                                  सपर्क--94258 37079
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पारस दासोत

भूख
बेटे को पकडते हुए वह चिल्लाई, नाशपीटे ! मैंने तुझ से कितनी बार कहा, ‘दौड़ा मत कर, कूदा मत कर ...तू समझता क्यों नहीं?
यह सब देख-सुन पड़ोसन बोली, अरी बहन...बच्चा है  दौडने-कूदने दो ..तुम्हें मालूम नहीं, दौडने-कूदने से भूख अच्छी लगती है स्वास्थ्य अच्छा रहता है|
अब..वह उत्तर में कुछ नहीं बोली, वह तो बेटे को इस तरह पीटने लगी, मानो समझा रही हो, ‘दौडने-कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है|’
                                         देहावसान 13-9-2014

2 comments:

Niraj Sharma said...

अच्छी लघुकथाएँ। मेरी लघुकथा का चयन करने के लिए हार्दिक आभार।

मधु जैन said...

सभी कथायें बढिया है।अच्छा संकलन।