Wednesday, 12 December 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-06


[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 101 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  5 किश्तें क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018 , 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018 तथा 8 दिसम्बर 2018 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी  छठवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  इस छठवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…

26 जगदीश कश्यप—ब्लैक होर्स
27 जसवीर चावला—लस्से
28 तारा निगम—माँ मैं गुडिया नहीं लूँगी
29 तारिक असलम ‘तस्नीम’—सिर उठाते तिनके
30 दामोदर दीक्षित—व्यापारिक बुद्धि
26 
जगदीश कश्यप
ब्लैक होर्स  
ड्राइंगरूम में फैल रही मादक कहकहों की गूँज के बीच वह बोला,  “क्यों नहीं... क्यों नहीं सर !  अभी इन्तजाम हो जाता है , आप फिक्र न करें, मैं अभी आया ।”
वह रसोई में आया तो पत्नी बदहवास-सी शायद तड़की हुई दाल फिर गरम कर रही थी ।
“क्यों, खाना कब खाओगे?
“तुम ऐसा करो, एक प्लेट सलाद और बना लो; और हाँ,  माँ को तो बुलाओ.... कहाँ है?
“अपने कमरे में; क्यों...”
“जरा बुलाओ तो... आज तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो !”
“देखो, ज्यादा मत पी लेना... आप पहले ही... ”  पतिव्रता पत्नी कुछ और कहना चाहती थी, पर पति की लाल आँखें देखकर वह पल्लू से पसीने वाला मुँह  पोंछती हुई निकल गई । माँ रुद्राक्ष की माला जपते हुए बेटे तक आई तो शराब की तीखी गंध से दो कदम दूर रुकती हुई बोली, “हाँ, बोल, क्या काम है... खाना-वाना हो गया ?
“वो तो हो जायगा ।  माँ, मेरी प्यारी माँ,  साहब आज बहुत खुश हैं…  जरा एक बात कहनी थी…  पिताजी से कुछ मँगवाना था !” ऐसा कहते ही वह खिसियाये अन्दाज में मुस्कराया और डगमगाता हुआ खड़ा होने की कोशिश करने लगा ।
माँ को अब उसके इस अन्दाज पर गुस्सा नहीं आता है । इन दो सालों में ही उसने जर्जर पुश्तैनी मकान को तुड़वाकर नया बनवा लिया है, जिसे गिरवी रखकर लड़की के हाथ पीले किए थे । बच्चे महँगे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं । बहू को भी मनपसन्द साड़ियों से लाद दिया है; और सबसे बड़ी बात यह है कि लोग-बाग उसे ‘आवारा निखट्टू’ की बजाय ‘अफसर’ कहने लगे हैं ।  बाप तो जिन्दगी भर ‘बड़ा बाबू’ रहा और उसी पद पर रिटायर हुआ ।
“क्या सोच रही हो माँ ?  अभी उन लोगों को खाना भी खिलाना है ।”
तभी पिता उसके सामने आ खड़े हुए तो उसने चेहरा झुका लिया । बेटे की मादक हालत देखकर वे बोले,  “क्यों, क्या हुआ ? रवि, खाना-वाना नहीं हुआ ?
“वो पापा, साहब के लिए... ”
“हाँ-हाँ, क्या लाना है, बोल… क्या लाना है?” और उन्होंने पत्नी को थैला लाने का आदेश दिया । उसे यकीन था कि शराब का नाम सुनते ही पिताजी उबल पड़ेंगे—‘तेरी ये जुर्रत ! बाप से शराब मँगवाए!! अरे, इससे तो अच्छा होता कि मैं मर जाता ।  मैंने जिन्दगी-भर बीड़ी को हाथ नहीं लगाया ।…  बेईमानी-रिश्वत के पैसे की शान दिखाता है ! थूकता हूँ तेरी ऐसी तरक्की पर… ’ मगर पिताजी बोले, “देखो बेटे, तुम अपने साहब के पास जाकर बैठो । ला रवि की माँ, थैला दे मुझे । बता, किस ब्रैंड की लानी है?
उसका नशा हिरन हो गया और वह बस इतना कह पाया—“ब्लैक होर्स!”    
                                   जन्मतिथि—1 दिसम्बर, 1949 निधन—17 अगस्त, 2004


27

जसवीर चावला

लस्से 
लस्सा डाल दिया बहेलिए ने । बहुत-सी कैल (विलुप्त प्राय: चिड़िया) मुनिया उतरीं । उतरीं तो पंख चिपक गये, और उडना नहीं हो पाया ।
चिड़ीमार ने खेप लूटकर टोकरी भर ली, बाज़ार ले गया । चिड़िया की गर्दन उंगली से मरोड़, पैर से चांप देता, पंखों को ऐसे उतार देता जैसे नाक पौंछते हैं । पूरी टोकरी का माल सौ के भाव शराबी को सौंप दिया ।
घुघनी जैसी तली छोटी-छोटी मुनियाँ जायकेदार तो हैं ही, कई औरतों की गर्मी होती है उनमें| इससे बढ़िया चखना क्या होगा?
शराबी जंगल गया । साहब को भेंट किया । जंगल महकमा हरकत में आया । लस्सा डाला गया । आदिवासियाँ उतरीं महुआ बीनने । पंख चिपक गये और उड़ना नहीं हो पाया । ठेकेदार ने गाड़ी में बिठाया, साडियाँ दे गर्दन मरोड़ी, थाने को रुपये दे चांप दिया । पंख ऐसे उतारे, जैसे नाक पोंछते हैं । टोकरी का माल हजारों के भाव राजधानी पहुँचा । वहाँ छँटाई हुई, पंखों के रंग और डिजाइन देखे गये । आवाज सुनी गई अलग-अलग पिंजरों में बंद हो गईं—मंत्रियों, अमीरों, बड़े अफसरों के घर वातानुकूलित पिंजरों में सफर करने लगीं। कई पिंजरे विदेश जा उड़े। पुरानी पिंजरों से निकाल हवा में छोड़ दी गईं। जिसे पसन्द की डाल, सितारा होटल मिले, बैठी । बाकी लस्सों पर उतरीं। उतरीं तो पंख  चिपक गये, और उडना नहीं हो पाया ।  लस्सेवालों ने खेप लूट टोकरी भर ली! खेपों की बोली लगी । कई ऊँचे कैबरे-घरों, चकलों में रुकीं । कई गिरजाघरों में रुकीं । वहाँ से आम घरों में पहुँचीं । कई महानगरों में इमारतें बनाने में लगीं । कई औद्योगिक शहरों में सड़कें बनाने लगीं । कई दफ्तरों, उद्योग धंधों में बँट गईं ।  ठेके पर कई कोठे चढ़ गईं । उतरीं, तो पंख  चिपक गये, और उड़ना नहीं हो पाया ।

संपर्क सूत्र :9417237593



28

तारा निगम

माँ, मैं गुड़िया नहीं लूँगी                        
मैं बाजार गई थी । सोचा, ऋचा और विवेक के लिए कुछ ले लूँ । मैंने विवेक के लिए क्रिकेट का सामान ले लिया; क्योंकि मुझे मालूम है, उसे क्रिकेट बहुत पंसद है; और ऋचा के लिए एक सुंदर-सी गुड़िया खरीद ली।
विवेक अपना सामान पाकर खुशी-खुशी बाहर चला गया । ऋचा गुड़िया को एकटक निहारती खड़ी रह गई।
मैंने पूछा, ‘‘बेटी! तुम्हें गुड़िया पसंद नहीं आई?’’
‘‘माँ! आपने मेरी पसंद-नापसंद पूछी ही कहाँ!’’
‘‘इसमें पूछने की क्या बात है, लड़कियाँ तो गुड़िया से ही खेलती हैं ।’’
‘‘भैया से तो पूछती हो न ?’’
मैं अवाक् रह गई, ‘‘ऋचा बेटे, तेरे लिए इतनी बड़ी और सुन्दर गुड़िया लाई हूँ, अच्छी तो है न !’’
‘‘अच्छी है लेकिन..’’
‘‘माँ, यह वही करेगी, जो मैं करूँगी । मैं सुलाउँगी, तो यह सो जाएगी । मैं जो कपड़े पहना दूँगी, पहन लेगी । मैं इसे डाँटूँगी, मारूँगी तो चुपचाप सह लेगी । जब कहीं ले जाउँगी, तभी जाएगी । जब मैं चाहूँगी, गोद में लेकर प्यार करूँगी; नहीं चाहूँगी तो नहीं करूँगी । ये कोई विरोध नहीं करेगी, माँ । हमेशा चुप रहेगी ।’’
‘‘यह तो अच्छा है… तू जैसा करेगी, यह वैसा ही करेगी ।’’
‘‘नहीं माँ, मुझे गुड़िया नहीं चाहिए ।’’

संपर्क सूत्र एवं फोटो : प्रतीक्षित



29

तारिक असलम ‘तस्नीम’

सिर उठाते तिनके  
सूर्य की पहली किरण अभी किशनू की झोपड़ी तक पहुँचने भी नहीं पाई थी कि किसी ने उसकी झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया । अनमना-सा जम्हाई लेते हुए वह बाहर निकला ।
           दरवाजे के सामने जमींदार के मुँहलगे हरिया को देखा, तो उसका माथा ठनक गया । फिर उसके यह कहने पर कि ‘मालिक ने उसे तुरंत बुलाया है’ वह कुछ सोचता रहा; फिर पूछ लिया,  “का रे हरिया! काहे को बुलाया है कोई खास बात?                                                                             
“हूँ! तुमसे खास बात ही करनी होगी न मालिक को । लाट साहब की औलाद है तू तो ! तेरे से तो भेंट भी नहीं होती जल्दी ।” 
हरिया के मुँह से उसने यह सब सुना तो वह भी मुँह ऐंठकर बोला, “अरे हरिया! तू जानता है न, मैं तेरे मालिक की नजर में इस गाँव का क्रान्तिकारी, नक्सलाईट, छँटा हुआ गुंडा, बदमाश हूँ  रे । फिर मुझे अपने द्वार पर बुलाकर काहे इज्जत पर बट्टा लगावत है ?                                  
“मुझे नहीं सुननी तेरी बात । चलकर मालिक से बात कर ।” और वह मुड़ गया । किशनू भी पीछे-पीछे कुछ लोगों को इशारे कर चला ।
जमींदार ने उसे आते हुए देखा तो अपनी मूँछें ऐंठने लगा । वह चुप रहा । अन्ततः मालिक ने ही पूछा, “का रे! कहीं काम-धाम हो रहा है कि नहीं ?           
“कर तो रहा हूँ !” उसका संक्षिप्त-सा उत्तर था                                               
“सुना है—पाँच मील दूर कमाने जाता है ? मेहरारू भी तेरे साथ ही जाती है ! बड़ी मेहनती है.... मगर क्या हम मर गए जो बेचारी को इतनी दूर ले जाता है !! हमारी हवेली में क्यों नहीं भेजता !?” फिर ठहर कर बोले, “नई-नवेली दुल्हनिया को मुँह दिखाई के लिए भी नहीं लाया ! क्या इरादा है तेरा, गाँव में रहना है कि नहीं ?    
“रहना नहीं है तो जाना कहाँ है ! मगर मेरी महरारू किसी के घर काम नहीं… ई हमें पसन्द नहीं।”                                                      
“क्या कहा रे ! स्साला हरामी… मादर... ”                                             
“पहले जबान को लगाम दो मालिक, वरना बहुत बुरा होगा, समझ लो!”        
“क्या कर लेगा तू मेरा साला ? ढेढ़… कमीणा की औलाद ! हमारे ही टुकड़ों पर पलकर हमें ही धमकी देता है ! पकड़ लो ई दोगला को । तोड़ दो कुत्ते के हाथ पैर!……”
“ठहर जाओ भईया!!” तभी एकाएक यह आवाज गूँजी । सबने आँखें फाड़कर हैरत से देखा…            हाथों में भाला, लाठी, गंडासा लिए अनगिनत लोग चारों ओर से जमींदार को घेर चुके थे । उसका चेहरा झुका व पसीने में तरबतर था । 

संपर्क सूत्र  :7632030300



30.   

दामोदर दीक्षित

व्यापारिक बुद्धि
वह व्यापारी था –पुराना व्यापारी । एक बार उसे एक क्लर्क की जरुरत पड़ी ।  इन्टरव्यू में कई लोग आए, जिनमें से एक योग्य व्यक्ति का चयन कर लिया गया । तनख्वाह तय हुई, एक हजार रुपये ।
व्यापारी का काम बढ़ता गया । कुछ समय बाद उसे एक अन्य क्लर्क की जरुरत पड़ी । इस बार पिछली बार की अपेक्षा, इन्टरव्यू में दुगनी संख्या में लोग आए ।  देश में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या में भी लगभग इतनी ही बढ़ोतरी हुई थी ।  उसने ठोक-बजाकर एक नवयुवक का चयन किया, पर उससे साफ कह दिया— “पांच सौ रुपये वेतन मिलेगा; मंजूर हो तो बोलो ।”
मरता क्या न करता ! युवक ने हामी भर दी ।
            समय और सरका । व्यापारी को एक और क्लर्क की जरुरत पड़ी । बेकारी अब तक और बढ़ चुकी थी । बहुत से लोग इन्टरव्यू के लिए आए । सिफारिशें भी रिकोर्ड तोड़ आईं । व्यापारी ने सोच-समझकर वेतन ठहराया—दो सौ रूपये ।
आपको जानकर शायद हैरत हो, एक नवयुवक इतने पर भी काम करने को तैयार हो गया ।
            समय और गुजरा । आप ठीक समझे, व्यापारी को एक अन्य क्लर्क की जरुरत महसूस हुई । इस बार उसकी सेवा शर्त थी कि उसी का चयन किया जायगा जो दो वर्ष तक मुफ्त काम करेगा । उसके बाद वेतन जरुर दिया जायगा, पर कितना !  यह काम देखकर तय किया जायगा । व्यापारी को आशंका थी कि इस शर्त पर काम करने को कोई तैयार न होगा; पर उसकी आशंका एक युवक ने निर्मूल कर दी ।
व्यापारी का व्यापार दिन दूना रात चौगुना बढता जा रहा है । कुछ समय बाद उसे फिर क्लर्क की जरुरत पड़ेगी । उस समय उसकी सेवा शर्तें क्या होंगी, इसे जानने के लिए आपको व्यापारी के पास जाने की, उसके मन में पैठने की जरुरत नहीं है । सेवा शर्तों की जानकारी खुद मुझे है… उसी को नियुक्त किया जाएगा जो दो वर्षों तक पाँच रूपए प्रति माह की दर से पैसा देगा । हाँ, दो वर्ष बाद उसे वेतन जरुर-से-जरुर दिया जायेगा । पर कितना !  यह काम देखकर तय किया जायगा ।
संपर्क सूत्र एवं फोटो : प्रतीक्षित

2 comments:

Niraj Sharma said...

सभी शानदार लघुकथाएँ। साधुवाद

शोभना श्याम said...

आखिरी तो कुछ अति हो गयी । बाकी सब उत्कृष्ट