बलराम
अग्रवाल की लघुकथा 'उसकी हँसी' लीक से हटकर एक क्लासिक लघुकथा है। अर्थों
का गहन ठहराव ही लघुकथा की विलक्षण गति है। मानों रुकना ही चलना है।
लघुकथा का शीर्षक 'उसकी हँसी' में जो लब्बोलुआब है, उसकी चाशनी चटकारते
हुए मैं पहले तो किसी रूमानी विचार में खो गया; फिर मानों
ख़ुद को झटककर पुन: लघुकथा को पढ़ने हेतु उद्यत हुआ ।
‘उसकी हँसी'
लघुकथा के कथानक के बंध एक बृहत प्राकृतिक परिवेश में खुलते हैं। चौराहे पर उत्तर और पूर्व की ओर जाती सड़कों के
बीच। यानी ऐश्वर्ययुक्त, आधिपत्ययुक्त उस कांति में जो ईशान
कोण की महिमा से जाज्वल्यमान है। ईशान कोण की सुहास के आखिरी छोर पर कल्याणजनित
बरगद का सघन वृक्ष है जिसके आश्रय में बरगद की तरह ही
उम्र से पगी एक बुढ़िया अनगिनित वर्षों से अपना डेरा जमाए हुए रह रही है।
बुढ़िया और बरगद के बीच मानकीकरण का पारस्परिक साम्य या वैषम्य यहाँ चर्चा
का विषय नहीं है प्रत्युत लोक प्रचलित धारणा के बूते पर कहूँ तो बुढ़िया और बरगद में वादरायण संबंध
है। यह सम्बंध इस अर्थ में व्याख्यायित किया जा सकता है कि बरगद के पेड़ के नीचे
कुलचे-छोले का ठीया लगाने वाला शंकर नियम से सुबह का सबसे पहला और शाम को घर लौटने
से पहले आख़री पत्ता बनाकर वह बुढ़िया को खाने के लिए दिया करता है । कई सालों से
बरगद के नीचे रह रही बुढ़िया और विगत कई वर्षों से बरगद
के पत्ते पर कुलचे-छोले खा रही बुढ़िया के बरगद के नीचे रैन बसेरे में और बरगद के
पत्ते पर कुलचे-छोले के मध्य वादरायण संबंध है।
इस संबंध का आशय स्पष्ट करने में यह बात यहाँ रखना चाहता हूँ कि यदि मेरे
हाथ में आम के पेड़ की लकड़ी से बनी छड़ी है और मैं प्रवास पर होकर , उस अनजान व्यक्ति के घर का जबरिया
अतिथि बन सकता हूँ, जिसके घर-आँगन में आम का पेड़ खड़ा है।
बरगद के नीचे रहने वाली बुढ़िया अकेली होकर भी अकेली नहीं है क्योंकि वह
वहाँ आसपास में ही अन्य खोमचे वालों की नज़रों में बसी होकर उनकी नज़रों में छायी
रहती है। इसका कारण बुढ़िया से अधिक बुढ़िया के हाथों में रखी वह डिबिया होती है, जिसे वह समय- समय पर अपनी जगह-जगह से
फटी हुई थैली में से निकलकर बड़े चाव से देखती मिलती है! 'उसकी
हँसी' लघुकथा का मर्म भी इसी डिबिया में निहित है; और यही मर्म
लघुकथाकार की सृजनात्मक शक्ति का केन्द्र भी है जिसका परिचय लघुकथा के अंत में
पाठकों को मिलता है।
बुढ़िया के अन्तःकरण में क्या है ? वह डिबिया की ऊपरी परत यानी डिबिया के ढक्कन पर अपनी
दृष्टि केन्द्रित कर हँसती-मुस्काती और फिर ख़ुद से शरमाती-लजाती क्यों मिलती है?
लघुकथा में विशिष्ट रूप से इसी मैयार को पकड़ा गया है और इसी बात को सिद्ध
करने में प्रस्तुत लघुकथा अपनी गति पकड़ती है।
प्राप्त लघुकथा को लघुकथा का संस्कार देने का दायित्व यहीं आकर लघुकथाकार
की लेखनी को घेरता है और लघुकथा का कोई नैसर्गिक और चमत्कारिक हल खोजने में उसका
पथ-प्रशस्त करता मिलता है ।
अभूतपूर्व बिंब के रूप में प्रस्तुत वह डिबिया जिसमें दुनिया-जहान की
खुशियों का आलंबन बंद है, बुढ़िया को प्रतीक्षा है कि उसका कोई ज़िम्मेदार वारिस उसे मिल जाये, जिसे
इस डिबिया को खुशी-खुशी सौंपकर लोक में आने का अपना मक़सद वह पूर्ण कर सके।
बुढ़िया को भलीभाँति पता है कि जब वह डिबिया पर क़रीने से मढ़े काँच वाले
ढक्कन में झाँककर हँसती है तो उसकी हँसी के साथ-साथ सारा आसमान हँस उठता है। उसकी
हंसी में घुंघरुओं की छनछनाहट है जिसको सुनकर सारे लोग , सारी कायनात उसकी और झूमकर देखने
लगती है। उसकी हँसी की खनक और उसकी हँसी के घुंघरुओं की छनक सुनकर गौरैया चहक उठती
है। इतना ही नहीं जग में वीभत्स रूप को पैदा करने वाली चीलें चौकन्नी हो जाती है
और अपशकुन का हौवा खड़ा करने वाले कौए मारे डर के इधर-उधर ताकने लग जाते हैं।
रीतिकालीन रूपाभिव्यंजना के कवि घनानंद की भाषा में कहूँ कि अप्रतिम
सौंदर्य श्री से सम्पन्न नायिका का रूप मानों चेहरे में न समाकर चूता और टपकता हो, निस्बतन इतनी ही बेमिसाल बुढ़िया का
सुंदर रूप अपने ही रूप को टक्कर देने वाले किसी रूप
सुंदरी की तलाश में है, जिसके रूप पर न्यौछावर होकर अपने पास
की ऐसी तिलस्मी डिबिया को उस रूपवती के हाथ में सौंपकर किसी अदृश्य में छुप कर मुक्ति
पा जाये ।
और अंततः वह अलौकिक सुंदरी बुढ़िया की मनवांछित सोच के पटल पर उभरकर आती है ; जो और कोई नहीं अपितु वह उसी शंकर की
दस वर्षीया बेटी होती है , जो शंकर नित्य-प्रति नियम से उस
बुढ़िया को कुलचे-छोले खिलता रहता है ।
शंकर की यह दस वर्षीया बेटी एक दिन बरगद के नीचे पिता शंकर के कुलचे- छोले बेचने
वाले ठीये पर पिता के साथ सुबह-सुबह आती है। इस बार बुढ़िया को कुलचे-छोले का पत्ता
देने शंकर ख़ुद न जाकर अपनी बेटी के हाथों पहुंचाता है। यह सिला लघुकथा लेखक को
अपनी प्रस्तुत लघुकथा को सानंद सम्पन्न बनाने का अभिप्राय बनता है।
अच्छी विरासत छोड़कर जाना और वह भी लोक कल्याण के निमित्त छोड़कर जाना , एक बड़े पुण्य का काम है , मोक्ष भी उन्हीं लोगों की जन्मकुंडली में लिखा गया होता है जो निहितार्थ
को छोड़कर परार्थ की भावना रखते हों।
शंकर की दस
वर्षीया बेटी परी के हाथों से शंकर द्वारा भेजा कुलचे-छोले का पत्ता अपने हाथों में
लेकर बुढ़िया ने परी को अपने समीप बैठने की कहा। फिर बुढ़िया ने परी से उसका नाम
पूछा। परी के श्रीमुख से अपना नाम 'परी'
सुनकर ज़रूर से बुढ़िया को मन ही मन लगा होगा (ऐसा
लघुकथा के भीतर से मुझको आभास हुआ) कि वर्षों से अपने भीतर लोकमंगलकारी जिस बीज को
वह अपने पास की डिबिया में रखे हुए हैं; उसको परी के हाथों
में सुपुर्द करने का मौज़ू समय आ गया है । परी मानों परी नहीं , गो कि ख़ुद बुढ़िया की सौंदर्य सम्पन्न परछाई है। परी को देखकर बुढ़िया
ने अपनी फटी थैली में से अपनी वेशक़ीमती
अचरज़ भरी डिबिया निकालकर उसे परी को दिखाते हुए परी से पूछा। जिसके जवाब में परी
ने सहज ने सहज भाव से बताया—"डिबिया है।"
डिबिया के
बारे में बुढ़िया परी को बताने लगीं—'यह
डिबिया लोहे की ऐसी चादर से बनी है, जिस पर जंग नहीं लगता!
अब नहीं बनती ऐसी डिबियाएँ।’ और! फिर उसे खोलकर ऊपर वाले ढक्कन को परी की ओर बढ़ाते
हुए बुढ़िया ने परी से पूछा—"देख, ये
क्या है ?" "दर्पण है।" परी ने जवाब में उसे कहा । परी की जिज्ञासा को अपनी ही ओर से स्वतः अपने
विचारों में लाकर बुढ़िया इस डिबिया के ढक्कन के बारे में परी को बताने लगीं—"जितना
चमकदार यह मेरी शादी के वक़्त था, उतना ही आज भी है। कभी ख़राब
होने वाला नहीं है इसका मसाला ! जब तेरी उम्र की थी तब ससुराल से मिली थी दरपन
वाली यह डिबिया।" बुढ़िया ने अतीत में खोते हुए कहा,
"मैं तब बहुत सुंदर थी, बिल्कुल
तेरे जैसी।"
"तुम आज भी उतनी ही सुंदर हो।" परी बुढ़िया को उसके अद्यतन सुंदर होने का जवाब देकर ख़ुद भी बुढ़िया की मोहक हँसी के साथ खिलखिलाकर हंसने लगीं । लघुकथा में यही वह क्षण तादात्म्य का क्षण साबित होता है, जब परी और बुढ़िया, दोनों का एक साथ मारे हँसी के चहक उठना उन दोनों को दो तन एक प्राण की विशाल तस्वीर की शक़्ल में निरूपित कर देता है। इस महती समय में बुढ़िया और परी की उम्र का अंतर मिट जाता है। मैं और तू का भेद ख़त्म हो जाता है। बुढ़िया और परी के इस महामिलाप की घड़ी में प्रकृति भी विहँस उठती है। बुढ़िया और परी की समवेत हँसी का अनहद नाद दिग-दिगंत में ऐसा आलोड़ित हुआ कि चारों दिशाओं से सिमटकर बादल बरगद के आगे आ खड़े हुए। हवाएँ शहनाई बजाने लगीं, पत्तियाँ झूम-झूमकर नाचने लगीं, बरगद का समूचा पेड़ बारिश में भीगने लगा ।
"तुम आज भी उतनी ही सुंदर हो।" परी बुढ़िया को उसके अद्यतन सुंदर होने का जवाब देकर ख़ुद भी बुढ़िया की मोहक हँसी के साथ खिलखिलाकर हंसने लगीं । लघुकथा में यही वह क्षण तादात्म्य का क्षण साबित होता है, जब परी और बुढ़िया, दोनों का एक साथ मारे हँसी के चहक उठना उन दोनों को दो तन एक प्राण की विशाल तस्वीर की शक़्ल में निरूपित कर देता है। इस महती समय में बुढ़िया और परी की उम्र का अंतर मिट जाता है। मैं और तू का भेद ख़त्म हो जाता है। बुढ़िया और परी के इस महामिलाप की घड़ी में प्रकृति भी विहँस उठती है। बुढ़िया और परी की समवेत हँसी का अनहद नाद दिग-दिगंत में ऐसा आलोड़ित हुआ कि चारों दिशाओं से सिमटकर बादल बरगद के आगे आ खड़े हुए। हवाएँ शहनाई बजाने लगीं, पत्तियाँ झूम-झूमकर नाचने लगीं, बरगद का समूचा पेड़ बारिश में भीगने लगा ।
यही वह
शाश्वत पल था, जिसमें गांठें खुलने को थीं।
यही वह सनातन बेला थीं, जिसमें का पर्व सजने वाला था। यही वह
कभी न मिटने वाला ध्रुव सत्य था, जिसकी क्रियान्विति इसी
मुहूर्त में फलदायी होने वाली थी । दसों दिशाओं को हाज़िर नाज़िर करते हुए
विश्वकल्याण के निमित्त वर्षों से हस्तांतरण बाबत
योग्य पात्र न मिलने के अभाव में अपनी फटी पुरानी झोली में सँभाले रखी डिबिया को,
वह बुढ़िया अपनी ही परछाई मानकर परी को
यह कहकर थमा देती है कि डिबियानुमा इस विरासत की असली हक़दार परी ही है ।
अपनी भीतरी
आकृति में यह लघुकथा लोक गाथाओं जैसी बन पड़ी है। इस लघुकथा की रचनात्मकता को जानकर
यूँ लगता है जैसे बलराम अग्रवाल ने इसे क़लम की एक साँस में किसी जादू की तरह समय
की भित्ति पर उकेर दिया हो ।
इस लघुकथा
का अंत भी किसी दार्शनिक पृष्ठ की तरह खुलकर सामने आता है, जब बुढ़िया इस महती
डिबिया को परी के सुपुर्द कर लोक से अंतर्धान हो जाती है ।
करिश्मा घटना था जो घट गया । निराश, हताश और खुशियों से मेहरूम अब से दुनिया नहीं रहेगी क्योंकि जब तक अहले दुनिया में बुढ़िया थीं तब कोई नैराश्य ज़माने में नहीं था । अब बुढ़िया के जाने के बाद भी कोई खुशियों का अभाव इस दुनिया में नहीं रहेगा।
क्योंकि..... क्योंकि बुढ़िया की वह लोककल्याणकारी डिबिया नई पीढ़ी की प्रतीक 'परी' के हाथों में सुरक्षित है।
करिश्मा घटना था जो घट गया । निराश, हताश और खुशियों से मेहरूम अब से दुनिया नहीं रहेगी क्योंकि जब तक अहले दुनिया में बुढ़िया थीं तब कोई नैराश्य ज़माने में नहीं था । अब बुढ़िया के जाने के बाद भी कोई खुशियों का अभाव इस दुनिया में नहीं रहेगा।
क्योंकि..... क्योंकि बुढ़िया की वह लोककल्याणकारी डिबिया नई पीढ़ी की प्रतीक 'परी' के हाथों में सुरक्षित है।
लघुकथा के
अंत में बुढ़िया का लोक से अचानक अंतर्धान हो जाने की लीला को प्रत्यक्षदर्शी लोग पहले
तो अचंभित हुए, तदन्तर जिस स्थान से बुढ़िया अंतर्धान
होती है उस स्थान की बिखरीं मिट्टी को वे समेटने लगते हैं। शायद जानते हैं,
यह कि परी भी इसी बरगद के नीचे अपना डेरा डाल कर भवितव्य में इस प्रतीक्षा
में बैठी मिलेगी कि बुढ़िया से मिली डिबिया का हस्तांतरण आगे आने वाले समय में उसे
भी किसी हाथों में करना होगा; उन हाथों वाली शख्सियत को, जो
बुढ़िया और खुद परी की तरह सुंदर और बेहद सुंदर हो। यहाँ सौंदर्य के जिन प्रतिमानों
की कल्पना की गयी है, उन्हें विस्तार से लिखा जा सकता है।
मैंने
बलराम अग्रवाल पर कभी नहीं लिखा है; अलबत्ता उनकी लघुकथाओं पर मेरा लिखा मेरा लेख 'पड़ाव और पड़ताल' के खंड दो में प्रकाशित है। मेरे
कहने का आशय यह कि बलराम अग्रवाल को मैं बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं से ही जानता
हूँ। तक़रीबन चार हज़ार लघुकथाओं को पढ़ चुकने का मैं दावेदार हूँ, मगर मेरे हाथों में पाठालोचन की दृष्टि से हाथ आयी लघुकथा 'उसकी हँसी' मेरी समझ में इकट्ठी हुई मेरी चुनिंदा
लघुकथाओं में से एक है ।
और अब, बलराम अग्रवाल की संदर्भित लघुकथा 'उसकी हँसी' :
और अब, बलराम अग्रवाल की संदर्भित लघुकथा 'उसकी हँसी' :
चौराहे पर उत्तर और पूर्व की
ओर जाने वाली सड़कों के बीच, ईशान में,
काफी पीछे बरगद
का घना पेड़ था। कहीं से आकर एक बुढ़िया कई सालों से उसके नीचे रहने
लगी थी।
उसी पेड़ के
नीचे कुलचे-छोले का ठीया लगाने वाले शंकर का एक नियम था। सुबह को सबसे पहला और शाम
को घर लौटने से पहले आखिरी पत्ता वह बुढ़िया के लिए बनाता था।
आसपास के
सभी खोमचे वाले देखा करते, कि खाली समय में बुढ़िया फटी-सी अपनी झोली से एक गोल
डिबिया निकालती थी। वह धीमे से उसे खोलती और अपलक ऊपर वाले ढक्कन को निहारती। कभी
शरमाती, कभी मुस्कराती और कभी खिलखिलाकर हँस पड़ती।
वह हँसती
तो जैसे सारा आसपास हँस उठता। उसकी हँसी में घुँघरुओं-सी छनछनाहट थी। वे छनछनाते
तो आसपास का हर व्यक्ति उस ओर देख उठता। पेड़ पर बैठी गौरैयाँ चहक उठतीं। चीलें
चौकन्नी हो जातीं। कौए, डरकर इधर-उधर ताकने लगते।
उस दिन
शंकर की दस वर्षीया बेटी साथ आ गयी थी। उसने कुलचे-छोले का पत्ता उसके हाथ में
थमाकर कहा, “परी, पेड़ के नीचे बैठी उस दादी को दे आ।”
परी गयी तो
पत्ता पकड़कर बुढ़िया ने उसे निकट बैठा लिया। नाम पूछा और कहा, “बैठ, तुझे एक चीज़
दिखाती हूँ…” यों कहकर उसने झोली से डिबिया निकालकर दिखाई, “बता, क्या है ये?”
“डिबिया
है।” परी ने सहज भाव से बताया।
“लोहे की
ऐसी चादर से बनी है, जिस पर जंग नहीं लगता।” बुढ़िया बोली, “अब नहीं बनती ऐसी
डिबियाँ; और…।” फिर उसे खोलकर ऊपर वाले
ढक्कन को उसकी ओर बढ़ाते हुए पूछा, “देख, ये क्या है ?”
“दर्पण
है।” परी ने बताया।
“जितना
चमकदार यह शादी के वक्त था, उतना ही आज भी है। खराब होने वाला नहीं है इसका मसाला।
जब तेरी उम्र की थी, तब ससुराल से मिली थी दरपन वाली यह डिबिया ।” बुढ़िया ने अतीत
में उतरते हुए कहा, “मैं तब बहुत सुन्दर थी—एकदम तेरे जैसी।”
“आप तो अब
भी बहुत सुन्दर हो।” परी बोली, “एकदम मेरे जैसी।”
इतना सुनना
था कि बुढ़िया की हँसी छूट गई, जोर की हँसी। उसके साथ ही परी भी खिलखिलाकर हँस पड़ी।
दोनों ऐसा हँसीं कि चारों दिशाओं से सिमटकर बादल बरगद के द्वारे आ खड़े हुए। हवाएँ
शहनाई बजाने लगीं। पत्तियाँ झूम-झूमकर नाचने लगीं। समूचा पेड़ बारिश में भीगने लगा।
“मुझे
सालों से तेरा इन्तजार था।” हँसी और बारिश के बीच डिबिया को परी के हाथों में
थमाते हुए बुढ़िया बोली, “इसकी तू ही सही हकदार है, ले सम्भाल।”
इतना कहकर
वह कब, लम्बी यात्रा पर निकल गयी, परी को पता ही नहीं चला !
डॉ.
पुरुषोत्तम दुबे
'शशीपुष्प', 74 जे/सेक्टर ए, स्कीम नम्बर 71,
इंदौर
452
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81414
कथाकार बलराम अग्रवाल
कथाकार बलराम अग्रवाल
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