डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे |
राष्ट्र एक
बहुआयामी सांस्कृतिक अवधारणा है। जिसका आभ्यान्तरिक रचाव राष्ट्र में वासित
मानवता, धार्मिक-सरोकार, रीति-रिवाज, रहन-सहन, भाषागत व्यवहार, वैचारिक-विनिमय
इत्यादि कारकों से परिपूरित है। उक्त सांस्कृतिक विषयक विभिन्न कारकों की सजगता ही
राष्ट्र का शरीर है।
राष्ट्र का स्वरूप स्थायी न होकर परिवर्तनशील बना रहता है। सन् 1947 से लगायत अद्यतन अनेकानेक विकासशील
रास्तों पर डग भरते हुए भारत-राष्ट्र का वर्तमान रूप हमारे सामने है। गोया कि
तरक्कियों की तस्वीरें, सभ्यताओं के लवाजमें, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर
प्रतिस्पर्धाओं के मायने,
विस्तृत हुए विशाल नगरों के
कायावी/मायावी आकर्षण, यह सब ऐसी बातें हैं, राष्ट्र के तारतम्य में जिन पर
गम्भीरता से बोला जा सकता है। बरअक्स इसके लिखा भी जा सकता है। लेकिन अधिकांशत: प्रामाणिकता बतौर लेखन के आती है।
किसी भी राष्ट्र का प्रतिबिंब उस राष्ट्र के साहित्य में दमकता है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध इत्यादि हिन्दी साहित्य की प्रचलित विधाओं के अतिरिक्त वर्तमान
में हिन्दी-लघुकथा-विधा सिरमौर बनी हुई है। हिन्दी साहित्य की अन्य सद्यः स्फुट
विधाओं की भाँति हिन्दी लघुकथा भी अपने तट से अपने ‘वतन’ का पता देने लगी है।
विशाल राष्ट्र की अस्मिता को दर्शाने में जहाँ हजारों पन्नों में लिखा साक्ष्य भी
कमतर जान पड़ रहा है, वहाँ हिन्दी लघुकथा लेखन की छोटी-सी
धरती पर विशाल राष्ट्र का कैनवास रचती मिल रही है।
ऐतिहासिक क्रम में भारतेन्दु बाबू का स्रोत पकड़कर हिन्दी की प्रायः सभी
मान्य विधाओं की विकासगत धाराओं का अध्ययन होता रहा है, लेकिन आधुनिक काल को पल्लवित करने में
एक बड़ा नाम मुंशी प्रेमचंद का आता है, जिनके
कथा साहित्य में बहुतायत रूप में राष्ट्रीय धड़कनों का धड़कता आभास केन्द्रित है। इस
दृष्टि से हिन्दी लघुकथा में राष्ट्रीय चेतना को मुखरित बनाने के क्रम में कथा
सम्राट प्रेमचंद अग्रगण्य है। प्रेमचंद की लघुकथा ‘राष्ट्र का सेवक’ अपनी मूल चेतना
में जात-पाँत, धर्म-अधर्म, ऊँच-नीच के घिनौने भाव को दरकिनार करती
हुई भारतीय राष्ट्रीयता का आदर्श विवेचित करती मिलती है। लेकिन समभाव और समानता का
उत्कट भाव जगाने वाले उद्घोषक की अपनी बेटी अछूत को अपना जीवन साथी बनाना चाहती है, तो उद्घोषक पिता अपनी बेटी के निर्णय
से मुँह फेर लेता है। इस तरह राष्ट्रीय चेतना की डगर पर बढ़ाया पहला कदम ही चोटिल
हो जाता है। आदर्श बघारने वालों की कथनी और करनी का अन्तर प्रस्तुत करने वाली
‘राष्ट्र का सेवक’ लघुकथा अंजाम गिनाने में भले ही नाकाम सिद्ध हुई मिलती है, लेकिन असमानता के आकाश में समभाव का एक
छेद करने में पत्थर जरूर उछालती है।
प्रेमचंद की दूसरी लघुकथा ‘गमी’ है, जो
गहन-विषाद के साथ भारतीय राष्ट्रीय चेतना का एक ऐसा परिशिष्ट खोलती है जिस पर अमल
करके एक और जहाँ बढ़ती जनसंख्या की बाढ़ को रोका जा सकता है, वहीं दूसरी ओर सीमित पारिवारिकता के
आनंद को बटौरा जा सकता है। प्रस्तुत ‘गमी’ लघुकथा की तरंग आधुनिक समय के ‘हम दो
हमारे दो’ रूपी किनारे को पोषित करती प्रतीत होती है। वस्तुतः प्रस्तुत लघुकथा
राष्ट्रीय चेतना का सार्वकालिक रूप बुनती मिलती है। परिवार में तीसरी संतान का आना, न केवल उसके पोषण के लिहाज से आर्थिक
संकट पैदा कर देता है, अपितु एक तरह से तीसरी संतान के जन्मते
ही पारिवारिक आनंद की मृत्यु हो जाती है।
हिन्दी लघुकथा क्षेत्र में व्यापक लेखन बीसवीं सदी के आठवें दशक से सामने
आता है। आपातकाल के बाद भारतीय राष्ट्रीयता का गौरवधारी परिवेश स्थान-स्थान से इस
तरह खंडित हुआ, जिनसे उत्पन्न दरारों में कहीं
साम्प्रदायिकता का अप्रीतिकर रूप, कहीं
राजनैतिक स्वार्थपरता, कहीं असीमित भ्रष्टाचार, कहीं मानवीय आदर्शों का अवमूल्यन, जैसी अनेक दुरावस्थाएँ पनपीं जिनसे
भारतीय राष्ट्रीयता का उत्स धराशाही होता गया। ऐसे जटिल मुकामों से संश्लिष्ट होकर
हिन्दी लघुकथा लेखन के पटल पर कई चिन्तन परक लघुकथाकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज
कराई, जिनमें एक नाम डा. कमल चोपड़ा का आता
है। कमल चोपड़ा की अनेक-अनेक लघुकथाऐं साम्प्रदायिकता के उलट सामाजिक समभाव का
आदर्श रूप स्थापित कर भारतीय राष्ट्रीय चेतना का नया अध्याय खोलती है। कमल चोपड़ा
की अनेक लघुकथा ‘पवित्र स्थान’ समाज की फिजाँ बिगाड़कर राजनैतिक तौर पर रोटियाँ
सेंकने वाले उन्हीं धर्मावलम्बियों को दोषी ठहराती है, जो अपने ही धर्म के मन्दिर के सामने
जानवर के कटे हुए अंगों को फेंक देते हैं। लेकिन मंदिर का सहिष्णु पुजारी मंदिर में आने वाले दर्शनार्थ भक्तों के आगमन
के पूर्व ही मंदिर के आगे पड़े जानवर के अंगों को उठाकर नदी में प्रवाहित कर
राष्ट्रीय चेतना के उज्जवल पक्ष को उद्घाटित करता है।
लघुकथाकार मधुदीप की लघुकथा ‘तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त!’ राष्ट्र की
प्याली में अराजकताओं की उबाल खाती कॉफी का अरुचिकर स्वाद प्रस्तुत करती है। देश
की गत्र्त में जाती अर्थव्यवस्था, देश
को लूटकर खाने वाले नेतागण,
हमारे सैनिकों के सिर काटते हुए दुश्मन और देश में पनपते हुए भ्रष्टाचार को गिनाते हुए वर्तमानकालिक राष्ट्रीय
मानसिकता में अराजकता के विरूद्ध चेतना जगाती मिलती है।
डॉ. अशोक भाटिया की लघुकथा ‘देश’ एक अलग प्रकार की चेतना का आयाम रचती है।
पाकिस्तान से हुए दो युद्ध की विभीषिकाओं के सदमें से आज की पैंसठ-सत्तर साल की
पीढ़ियाँ एकबारगी उबर चुकी हैं लेकिन अपने देश में लड़की के साथ बस में हुई दरिन्दगी
की खबर एक वृद्ध स्त्री को हिलाकर रख देती है। यहाँ राष्ट्रीय चेतना का स्वर
मानवीय संवेदनाओं के बूते से प्रकट होता है।
डॉ. बलराम अग्रवाल की अनेकानेक लघुकथाओं में राष्ट्रीय चेतना के स्वर
भास्वरित हुए हैं। उनकी ‘खोई हुई ताकत’ लघुकथा राष्ट्रीयता के पक्ष में जोश और
जुनून के साथ खड़ी मिलती है। लघुकथा का नायक मसूद मियाँ खोई हुई ताकत का शर्तिया
इलाज करने वाले एक डाक्टर के क्लीनिक में आशापूर्ण कदमों से दाखिल होता है। वह डाक्टर
से नपुंसकता का नही प्रत्युत वृद्धावस्था की वजह से शिथिल पड़े अपने जज्बे का इलाज
कराना चाहता है कि बहत्तर बरस के हो चुकने के बाद भी वह उन अराजकताओं से लड़ सके जो
आज भी देश को गुलाम बनाई हुई है। बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘गुलमोहर’ प्रतीक रूप
में वह सब कहती है कि आजादी के इतने बरस बाद भी भारतीय राष्ट्रीयता का वह मुखर रूप
हमारे सामने नहीं है। जिसको देखने में शहीदों ने बलिदान किये हैं। बलराम अग्रवाल
की एक अन्य लघुकथा ‘यह कौन सा मुल्क है’ जो बताती है कि हमारा वर्तमान राष्ट्र एक
ऐसी भीड़ है जो मस्तिष्क के उपयोगी बूते से नही अंगों-प्रत्यंगों से चलायमान है, जहां चेतना नही मगर दिशाहीन दिशाओं में
मस्तिष्क विहीन धड़ों की रेलमपेल है। कोई मंसूबा कारगार नही है। राष्ट्र केवल अंधों
की बेमतलब की दौड़ रह गया है।
राष्ट्रीय चेतना से प्लावित अशोक जैन की लघुकथा ‘पैंतरे’ चुनाव के मौसम
में किराये पर हल्ले करने वाली भीड़ को इंगित करती है। राजकुमार निजात की ‘ब्लास्ट’
लघुकथा नेताजी का जन्मदिन स्कूल में बालकों के मध्य मनाने की दूषित परंपरा को
रेखित करती है, ताकि आज के बच्चे कल के नागरिक न बनकर
नेताजी की फौज के रूप में दिखाई पड़े। श्याम बिहारी ‘श्यामल’ की लघुकथा
‘राजनीतिज्ञ’ डाकू से नेता बने व्यक्ति पर केन्द्रित है ध्वनित करती है कि डाकू के
रूप में लूट-खसौटकर जंगल में छुपने से बेहतर है कि नेता के रूप में जनता को लूटकर
एशोआराम से शहर में रहा जा सकता है। प्रतापसिंह सोढ़ी की लघुकथा ‘दंगा-फसाद’ ऐसे
मौका परस्त लोगों को केन्द्र में रखकर लिखी गई है जो परदे के पीछे से राष्ट्रीय
अस्मिता को विखण्डित करने का खेल खेलते हैं। डॉ. शकुन्तला किरण की लघुकथा
‘इमरजेंसी में राष्ट्रीय चेतना के भाव को जगाया न जाकर थोपे जाने की बात होती है, ‘‘जीजी, कल पन्द्रह अगस्त है, स्कूल
में कुछ बोलना है, आजादी के बारे में कुछ रटवा दो।’’
संपर्क : डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, शशीपुष्प, 74-जे/ए, स्कीम नं. 71, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
मो.नं. 9407186940/9329581414
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