साहित्य का क्षेत्र सभी के लिए समान रूप से खुला है। सम्भवत:
अपनी इसी धारणा के अन्तर्गत मधुदीप एक ऐसा प्रस्ताव लेकर मेरे सामने आए थे जो मेरे
लिए तब सर्वथा नया न होकर भी नया ही था। यह 1988 के मध्य किसी माह की बात है जब
मधुदीप ‘पड़ाव और पड़ताल’ नाम की एक स्वयं द्वारा सम्पादित पांडुलिपि लेकर मेरे पास
आए थे। उनका आग्रह था कि मैं उस पांडुलिपि के आधार लेख के रूप में लघुकथा पर कुछ लिखकर
दूँ। उनके इस आग्रह से पहले मैंने डॉ॰ सतीश दुबे के लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’
पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी ही लिखी थी, बस।
नवलेखन को सहानुभूतिपूर्वक देखना प्रारम्भ से मेरे आचरण में रहा है। लेकिन यह नवलेखन के
साथ-साथ नई विधा का भी मामला था। सर्वथा नई विधा पर आधार लेख लिखना निश्चित रूप से
एक चुनौतीपूर्ण कार्य था; इसलिए मधुदीप के आग्रह को एकाएक टाल देना मैंने उचित
नहीं समझा। ‘हाँ’ कर दी। लघुकथा के कुछेक तत्कालीन रुझानों और रवैयों का अध्ययन
करके मैंने तब ‘लघुकथा : कुछ विचारणीय प्रश्न’ शीर्षक लेख लिखा जो ‘पड़ाव और पड़ताल’
(प्र॰ सं॰ 1988) में प्रकाशित हुआ। मधुदीप
के उस समय तक 6 उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे; यानी वह भी
ठीक-ठाक लेखन के बाद लघुकथा में आए थे, नए मुल्ला नहीं थे। देखा जाए तो इस तरह
‘पड़ाव और पड़ताल’ का सम्पादक और भूमिका लेखक दोनों ही लघुकथा से बाहर के व्यक्ति
थे। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि बाद के अनेक वर्षों तक कुछ कूप-मंडूकों ने आलोचक
के तौर पर लघुकथा में मेरे प्रवेश को ‘बाहरी व्यक्ति’ की घुसपैठ करार दिया। दुर्भाग्य से, वे आज जीवित नहीं हैं: होते तो
देखते कि लघुकथा के बाहर वाले दो व्यक्तियों का रोंपा वह पौधा आज 25 महत्वपूर्ण
शाखाओं वाला ऊँचा और घना वटवृक्ष बन चुका है जिसकी 100 से ऊपर हरी-भरी शाखाओं पर
विभिन्न रंग, रूप और स्वर वाले परिंदे चहचहा रहे हैं और जिसकी विस्तृत छाँह तले
भविष्य में भी कितने ही प्राणी बहुत-कुछ सीख और गुन सकेंगे।
कथाकार मधुदीप |
मधुदीप पहली मुलाकात से ही मुझे संकल्पवान व्यक्ति लगे।
वह उपन्यास और कहानी लेखन से लघुकथा लेखन में आए थे; लेकिन लघुकथा को उन्होंने कभी
भी अपने लेखन की तीसरी विधा नहीं माना, इसके प्रति प्रारम्भ से ही समर्पण-भाव रखा।
लघुकथा लेखन में वह कब आए, मुझे नहीं मालूम। मैं बस इतना जानता हूँ कि उन्होंने
अपने समय के बहुत-से लघुकथाकारों की तरह धड़ाधड़ लघुकथाएँ नहीं लिखीं। उन्होंने अपनी
लघुकथाओं की संख्या पर कम उनकी गुणवत्ता पर ध्यान केन्द्रित रखने का प्रयास अधिक
किया। सन् 1991 में प्रकाशित उनके लघुकथा संग्रह ‘तेरी बात मेरी बात’ में मात्र 30
लघुकथाएँ थीं । उन लघुकथाओं से अलग उस संग्रह के बाद उनकी कोई लघुकथा किसी
पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हुई हो, उसका मुझे ज्ञान नहीं है। मेरा अनुमान है कि ये
ही लघुकथाएँ 1988 में प्रकाशित उनके कथा-संग्रह ‘हिस्से का दूध’ में उनकी कुछ
कहानियों के साथ संग्रहीत थीं; तात्पर्य यह कि 1988 से लेकर 1991 तक की अवधि में उन्होंने कोई
नई लघुकथा नहीं लिखी थी।
अब, सम्भवत: 1913 से, उन्होंने लघुकथा-लेखन की दूसरी
पारी शुरू की है। 25 साल के लम्बे अन्तराल के बाद उनका तन-मन और धन ही नहीं, मजबूत
कलम के साथ पुन: लघुकथा विधा के उन्नयन के लिए कूद पड़ना ही वह कारण है जिसकी वजह
से मेरे इस विश्वास को बल मिला कि मधुदीप एक संकल्पवान व्यक्ति हैं । दूसरी पारी
में लिखित नई लघुकथाओं के साथ वर्ष 2015 में प्रकाशित उनका लघुकथा संग्रह ‘समय का
पहिया…’ इस बात का प्रमाण है कि प्रकाशन और सम्पादन के साथ-साथ वे लघुकथा-लेखन में
भी पूरी शक्ति के साथ संलग्न हैं ।
उनकी पहले दौर की जिन लघुकथाओं के कथ्य मुझे अभी भी
प्रिय हैं उनमें ‘अस्तित्वहीन नहीं’, ‘ऐलान-ए-
बग़ावत’ और ‘हिस्से का दूध’ का नाम मैं विशेष रूप से लेना पसन्द करूँगा। समाज में
व्यक्ति की स्थिति को जितना त्रासद बेरोज़गारी बनाती है, अल्प वित्त पोषण भी उसे
उतना ही दीन-हीन बनाता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज की आधे से अधिक
आबादी आज भी अल्प वित्त पोषित आबादी है। बहुत-से परिवारों में आज भी बच्चे के
‘हिस्से का दूध’ अतिथि की चाय की भेंट चढ़ाना पड़ जाता है। मधुदीप की अधिकतर
लघुकथाओं के कथ्य आर्थिक अभावों की पीड़ा को शब्द देते हैं, तथापि तत्कालीन राजनीति
के घिनौने हो चुके चेहरे पर से नकाब हटाने का प्रयास भी उनकी कुछेक लघुकथाओं में
हुआ अवश्य है।
मैं प्रारम्भ से ही लघुकथा को ‘लेखकविहीन विधा’ कहता और
मानता आया हूँ। अध्ययन सम्बन्धी किंचित अस्पष्टता के कारण बलराम अग्रवाल ने इसका
गलत अर्थ ग्रहण किया और ‘अवध पुष्पांजलि’
पत्रिका के एक अंक में लेख लिखकर ‘लेखकविहीनता’ की मेरी अवधारणा पर अपना विरोध
जताया; लेकिन बाद में मेरे समझाने पर इस सिद्धांत से वह सहमत हो गया। आज स्थिति यह
है कि वह स्वयं मेरी इस अवधारणा का अर्थ और लघुकथा में उसके प्रभाव से दूसरे
लेखकों को परिचित कराने का यत्न करता है। इधर, अपने दूसरे लघुकथा संग्रह ‘समय का
पहिया…’ की कुछेक लघुकथाओं में मधुदीप ने कथा-कथन की ‘सूत्रधार शैली’ का प्रयोग
किया है। यथा, ‘तो पाठको! यह चालीस वर्ष
का किस्सा यहीं समाप्त होता है। अब आप इसे लघुकथा मानें या न मानें, इसका निर्णय
मैं आप पर ही छोड़ता हूँ।’ (समय बहुत बेरहम होता है)। ‘तो पाठको ! आप मुझे कौन-से
विकल्प की सलाह देते हैं? शायद आपकी सलाह ही मुझे उलझन से बाहर निकाल सके।’
(विकल्प)। ‘तो पाठको ! यह किस्सा यूँ समाप्त होता है कि…’ (किस्सा इतना ही है)। यह
शैली कुछ पाठकों को उक्त लघुकथाओं में लेखक के आ उपस्थित होने का भ्रम दे सकती है।
मैं स्पष्ट कर दूँ कि लघुकथा में लेखक का आ उपस्थित होना इससे एकदम अलग स्थिति
होती है। लेखक द्वारा पाठक से एकत्व स्थापित करने के प्रयास को रचना में उसका
उपस्थित होना नहीं माना जाता है। लघुकथा में लेखक इससे अलग, एक नहीं अनेक प्रकार
से आ उपस्थित होने की गलती अक्सर ही कर बैठता है। उनमें से एक यह है कि उसकी कथा
के पात्र अपनी नहीं, लेखक की भाषा बोलते हैं; अपने स्तर के अनुरूप नहीं, लेखक की विद्वता
के अनुरूप शब्द बोलते हैं। दूसरी यह है कि रचना के अन्त में लेखक एक समाधानपरक
टिप्पणी लगाकर आलोचक की भूमिका अपना बैठता है। लेखक कब रचना में आ उपस्थित हुआ, इस
बात का पता कभी-कभी स्वयं उसे भी नहीं चल पाता है। उदाहरण के लिए, मधुदीप की
लघुकथा ‘वज़ूद की तलाश’ का यह समापन वाक्य देखें—‘मुझे लगता है, मेरी तलाश पूरी हो
गयी है।’ लघुकथा को क्योंकि आत्मपरक शैली में लिखा गया है, इसलिए लेखक के आ
उपस्थित होने का खतरा किंचित बढ़ गया है। अन्य नामधारी पात्रों की तुलना में लेखक
‘मैं’ में स्वयं को अधिक इन्वॉल्व पाता है, पात्र को स्वयं में महसूस करने या
पात्र की काया में प्रवेश करने में उसे सुविधा महसूस होती है। ‘वजूद की तलाश’ का
यह पात्र यदि ‘मैं’ की बजाय, मान लीजिए ‘राम’ होता तो इस अन्तिम वाक्य को यों लिखा
जाता—‘राम को लगता है, उसकी तलाश पूरी हो गयी है।’ इस तरह के वाक्य निश्चित रूप से
आलोचक के अधिकार-क्षेत्र में दखल के नाते लघुकथा में त्याज्य होने चाहिए।
नि:सन्देह, ‘किस्सागोई’ कथा कहने की एक लोकप्रिय और मनभावन
शैली है, तथापि ‘नैरेशन’ को ‘किस्सागोई’ अथवा ‘किस्सागोई’ को ‘नैरेशन’ नहीं समझ
लिया जाना चाहिए। मधुदीप की दूसरे दौर की
लघुकथाओं में यह सावधानी नजर भी आती है और अधिकतर प्रभावित भी करती है; तथापि मेरा
मानना है कि लघुकथा जैसी लघुकाय कथा-रचना के लेखक को मात्र नैरेशन अथवा उसके
आधिक्य से यथासम्भव बचना चाहिए। ‘किस्सागोई’ शैली में लिखी गई रचनाओं के कथ्य और
भाषा को भी मुख्यत: संवाद ही प्रभावशाली, प्रवहमान, आकर्षक और सम्प्रेषक बनाते
हैं।
मधुदीप की दूसरे दौर की लघुकथाओं में मेरे अनुसार, मुख्यत: ‘ऑल आउट’, ‘एकतन्त्र’, ‘ठक-ठक…ठक-ठक’, ‘दौड़’,
‘मुआवज़ा’, ‘मुक्ति’, ‘मेरा बयान’, ‘महानायक’, ‘धर्म’ का जिक्र स्तरीय रचनाओं के
रूप में किया जाना चाहिए। उन्होंने इस दौर में शैलीपरक कुछ अन्य प्रयोग भी अपनी
लघुकथाओं में लिए हैं। यथा—‘डायरी का एक पन्ना’ को डायरी-शैली में, ‘महानगर का
प्रेम-संवाद’ व ‘साठ या सत्तर से नहीं’ को संवाद-शैली में तथा ‘समय का पहिया घूम
रहा है’ को नाट्य-शैली में लिखा है। मधुदीप की लघुकथाओं में विषय वैविध्य प्रभावित
करता है जो कि इस दौर के कुछ बड़े लघुकथारों में भी कम ही देखने को मिलता है। उनकी
लघुकथाओं के शीर्षकों पर अलग से बात की जा सकती है।
मधुदीप के व्यवहार में कुछ महत्वपूर्ण भाव मुझे देखने को मिलते हैं। इनमें
पहला है—कुछ अच्छा कर दिखाने की ज़िद। अब से लगभग 28 वर्ष पहले, 1988 में मैंने
विक्रम सोनी और उनके लेखन पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी थी। उसके एक अंश को यहाँ
उद्धृत कर रहा हूँ—‘प्रत्येक साहित्य-आन्दोलन में कुछ वास्तविक
प्रतिभा-सम्पन्न लेखकों के साथ लेखक बने अलेखकों की भी एक भीड़ होती है, जिसमें कुछ कदम
चलकर पुराने लोग अदृश्य होने लगते हैं और नए सम्मिलित होते रहते हैं। ऐसे अलेखक,
निष्ठाहीन रचनाकार एक भीड़ बन जाते हैं और प्रतिभा-सम्पन्न रचनाकारों
को अपनी संख्या की शक्ति से छिपा देना चाहते हैं, किंतु यह
भीड़ धीरे-धीरे छँटने लगती है, क्योंकि दूर तक चलने की क्षमता
इसमें नहीं होती। यह भीड़ आन्दोलन को अपयश का भागी बनाती है, रास्ते
में काँटे बोती है, किंतु अनजाने में लाभ भी पहुँचाती है;
और वह यह कि यह भीड़ ही साहित्यिक आन्दोलन अथवा नई साहित्यिक
प्रवृत्ति को देश के कोने-कोने तक, जन-जन तक पहुँचाती है और
पाठकों का एक बड़ा वर्ग निर्मित करती है।’ लघुकथा लेखकों की इस भीड़ में हम अनेक ऐसे
नाम गिना सकते हैं जो प्रतिभा दिखाने के बावजूद या तो इस विधा में नहीं टिक पाए या
समूचे लेखकीय परिदृश्य से ही गायब हो गये। लम्बे समय तक स्वयं मधुदीप उक्त भीड़ का
हिस्सा बने रहे; लेकिन उनके अन्दर के वास्तविक लेखक ने अन्तत: अँगड़ाई ली और आगे की मुहिम के लिए उठ खड़ा हुआ। उनके
अन्दर के इस भाव को ही मैंने ‘कुछ अच्छा कर दिखाने की ज़िद’ कहा है। इस ज़िद के चलते
ही अपने संयोजन और सम्पादक में प्रकाशित ‘पड़ाव और पड़ताल’ के प्रथम 15 खंडों में
उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर अब तक के लगभग समूचे इतिहास को किसी न
किसी रूप समेट लिया है। दूसरा है—लघुकथा के लिए समर्पण भाव, जिसके बारे में अब
अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रह गयी है। तीसरा और अत्यधिक महत्वपूर्ण भाग है—अहंकारविहीनता
और सम्पादकीय स्पष्टता। यह लेख लिखे जाने तक ‘पड़ाव और पड़ताल’ के 19 खंड मुझ तक
पहुँच चुके हैं। मैं हैरान हूँ उनमें आए ‘समर्पण पृष्ठ’ और सम्पादकीय स्वरूप लिखे प्रारम्भिक पृष्ठों
की सामग्री को देखकर। इतने बड़े काम का श्रेय स्वयं लेने की बजाय इस व्यक्ति ने उसे
विभिन्न रचनाकारों को अर्पित किया है। सामान्य चलन जब कि यही है कि कार्य का
यथायोग्य श्रेय कोई भी व्यक्ति किसी अन्य को देना ही नहीं चाहता, सब-कुछ स्वयं लूट
लेना चाहता है। इतिहास में नाम लिखाने की इस लिप्सा से मधुदीप को मैं दूर खड़ा पाता
हूँ। इतिहास साक्षी है कि लिप्सा से यह
दूरी ही किसी व्यक्ति को इतिहास में बनाए रखती है। मैं देख रहा हूँ कि ‘पड़ाव और
पड़ताल’ श्रृंखला के जिन खण्डों का सम्पादन मधुदीप ने किया है, एक नजर उन के समर्पण
पृष्ठों पर डालते हैं—‘उन सभी लघुकथाकारों को जो इस पड़ाव तक मेरे सहयात्री रहे हैं’
(खण्ड—1): ‘यह खण्ड 2013 ई॰ के नाम जिसने मुझे इस विधा में पुन; सक्रिय किया’ (खण्ड—3); ‘यह खण्ड 1976 ई॰ के नाम जहाँ से मैंने लघुकथा
का सफर शुरू किया था’ (खण्ड—5); ‘यह खण्ड भाई
बलराम अग्रवाल को समर्पित, जिन्होंने ‘पड़ाव और पड़ताल’ श्रृंखला को आगे बढ़ाने के
लिए सबसे पहले सहयोग भरा हाथ आगे बढ़ाया’ (खण्ड—7); ‘यह खण्ड मेरी दिनांक 29 नवम्बर से 5 दिसम्बर
2014 तक इन्दौर एवं उज्जैन की साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा की मधुर स्मृति को
समर्पित’ (खण्ड—9); ‘यह खण्ड लघुकथा के
सहयात्री भाई मधुकान्त को समर्पित’ (खण्ड—11);
‘लघुकथा के सहयात्री भाई कुमार नरेन्द्र के लिए’ (खण्ड—13); ‘यह खण्ड नई
दिल्ली विश्व पुस्तक मेला-2013 की उस शाम को समर्पित है जब (डॉ॰) कविता सिंह ‘पड़ाव
और पड़ताल’ के 1988 में प्रकाशित खण्ड को तलाश करती हुई दिशा प्रकाशन के स्टॉल पर
आई थीं। शायद उसी समय ही मैंने इस श्रृंखला को आगे बढ़ाने का मन बना लिया था।’
(खण्ड—14) ‘यह खण्ड शकुन्तदीप को समर्पित है, जिसके मानसिक और आर्थिक सहयोग के
बिना लघुकथा की इस श्रृंखला को आगे बढ़ा पाना सम्भव नहीं था।’ (खण्ड—15); ‘यह खण्ड
मैं अपने पूज्य पिताजी (स्व॰) भगवानदास जी की पावन स्मृति को समर्पित करता हूँ’ (खण्ड—16);
‘यह खण्ड समकालीन लघुकथा के प्रारम्भिक हस्ताक्षर रमेश बतरा की स्मृति को समर्पित
है जिसके असमय चले जाने से लघुकथा विधा की अपूरणीय क्षति हुई’ (खण्ड—17); ‘यह खण्ड
आदरणीय विष्णु प्रभाकर की स्मृति को समर्पित है जिन्होंने इस विधा को प्रतिष्ठा
दिलवाने में अपनी सम्पूर्ण क्षमता से योगदान दिया’ (खण्ड—18)। इस श्रृंखला के जिन
खण्डों का सम्पादक अन्य लोगों ने किया है, इसमें उनके समर्पण पृष्ठों का उल्लेख
नहीं है, भले ही श्रृंखला संयोजक होने के नाते उन्हें भी मधुदीप ने ही लिखा हो।
कहने का तात्पर्य यह कि मधुदीप श्रेय को
सम्बन्धित व्यक्ति में ही नहीं। तत्सम्बन्धी परिस्थिति, समय और स्थान में बाँटने
के विशुद्ध भारतीय या कहें कि विशुद्ध मानवीय संस्कार से युक्त हैं। यह संस्कार व्यापक दृष्टिबिध से
उत्पन्न होता है। यही कारण है कि वे अपनी पूरी शक्ति से इस विधा के उन्नयन में जुट
पा रहे हैं। किसी समय मैंने कहा था—इक्कीसवीं सदी लघुकथा की होगी। मधुदीप के लेखन
और सम्पादन ने मेरे कथन को पुष्ट करने की ओर सार्थक कदम बढ़ाया है। इस कार्य में उनकी
सफलता के लिए मैं हृदय से अनन्त मंगलकामनाएँ प्रस्तुत करता हूँ।
(लेख साभार 'लघुकथा का समय' से)
(लेख साभार 'लघुकथा का समय' से)
सम्पर्क—डॉ॰ कमल किशोर गोयनका, ए-98, अशोक विहार फेज़ 1, दिल्ली-110052
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