विभा रश्मि ने आठवें दशक में काफी लघुकथा लेखन किया। उनकी रचनाओं का संग्रह 'अकालग्रस्त रिश्ते' भी प्रकाशित हुआ। परन्तु आठवें दशक के बाद लघुकथा के परिदृश्य से वे एकाएक गायब हो गयीं। डॉ॰ शकुन्तला किरण की पुस्तक 'हिन्दी लघुकथा' के विमोचन के अवसर पर (सम्भवत: 2003 में) अजमेर में उनसे पहली बार मुलाकात हुई थी। तब उन्होंने कहा था कि वे सेवामुक्त होने वाली हैं और उसके बाद लेखन और सिर्फ लेखन ही करेंगी। उसके कई साल बाद एक दिन उनका फोन आया--बलराम भाई, मेरा ब्रीफकेस किसी ने उठा लिया। पुरानी रचनाओं लिखी सभी डायरियाँ उसमें थीं। लेकिन कोई बात नहीं, मैं नए सिरे से लेखन करूँगी। बीच-बीच में जब भी वे अपनी बेटी के पास गुड़गाँव आतीं, फोन जरूर करतीं। पिछले कुछ समय से वह पुन: अपनी बेटी के पास आई हुई हैं। भाई मधुदीप को उन्होंने फोन पर बताया कि गत एक सप्ताह से वह अस्पताल में भर्ती हैं…। ईश्वर से उनके शीघ्र स्वस्थ होने और पुन: रचनाशील होने की हार्दिक मंगलकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं उनकी चार रचनाएँ। ये रचनाएँ उन्होंने 'अविराम साहित्यिकी' के आगामी लघुकथा विशेषांक में चयन हेतु प्रेषित की थीं :
1. आदमखोर शेरनियाँ
घुसपैठिये तारबंदी के पीछे से आये दिन सीमावर्ती गाँव पर
गोलाबारी कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहते थे। आज फिर आतंकी अपने नापाक इरादों
को पूरा करने की मंशा से गाँव में घुस बैठे थे।
गाँव के
अधिकतर परिवार घर छोड़ पलायन कर गये थे। बचे-खुचे बूढ़े, औरतें और बच्चे आतंकियों
को ठेंगा दिखाते वहीं डँटे थे।
जवान व किशोरों को अपहृत कर आतंकी कैम्पों में
अपने ही देश के खि़लाफ़ आतंकी-गतिविधियों को संचालित करने के लिये उनकी खेप तैयार
की जा रही थी।
आज सरफिरे आतंकियों में इधर के दिग्भ्रमित
किशोर भी आये थे।
कुछ बकरवाल पेशे के लोग गर्मियों में अपनी
भेड़ों को पहाडि़यों पे चराने चले गये थे जो जाड़ों से पहले घाटी में नहीं
लौटेंगे। फिर सुरक्षा की जि़म्मेदारी औरतों के हाथ।
रात घिरते ही आगजनी करते, दरवाज़ों की साँकलें
बजाते-तोड़ते, लूटपाट मचाते, लड़कियों की इज़्ज़त से खेलने के लिये वे पागल
कुत्तों की तरह उन्हें ढूँढ़ने लगे।
ढलानों पे बने मकानों का नीचे का हिस्सा ख़ाली
था। एक आतंकी हथियार रख के लकड़ी की सँकरी खड़ी सीढ़ी पर चढ़ गया। उसने पी रखी थी।
जैसे ही वो ऊपर पहुँचा, कुल्हाड़ी ब्रिगेड की घाटी की कमसिनें हिंसक शेरनी बन उस
पर टूट पड़ीं।
निर्जन कोनों से निकल-निकल वे नीम अँधेरे में
इतिहास रच रहीं थीं।
भेड़ों, ढोरों को लेकर बकरवाल सर्दी व
बर्फ़बारी में जब घर लौटेंगे तब घाटी की शेरनियों के किस्से सुनकर वे छाती फुलाये
घूमेंगे और कहवा या हथकढ़ी पीते हुये जश्न मनायेंगे ।
तब कई रात से जागे फ़ौजी जवान हथेली पर जान
लिये रात्रि गश्त लगायेंगे।
2. परछाइयां
पांच वर्ष… तल्ख कुनैनी डोज़ से वैवाहिक जीवन का अंत... आखि़र यही होना थाए रेत की दीवार धंसने लगी…दरारें चैड़ी होती चली गयीं… आज अलगाव की अवधि पूरी करने के लिए वो सुसराल की परिचित देहलीज़ लांघ चुकी थी… वही गली जहाँ नयी-नवेली इकलौती बहू की अगवानी में खूब रौनक की गयी थी। बिरादरी की बड़ी-बूढ़ियों ने झटके से घूँघट पलट कर द्वार पर ही मुंह दिखाई की रस्म अदा कर दी थी। घर व मुहल्ले की शोख़-चंचल युवा ननदों ने आँखों में अपने भविष्य के मधुर सपने सजायें, चुहलबाजी में खूब चुटकियां ली थीं।
और आज परिस्थितियाँ अपना चोला बदल चुकी थीं।
तलाक की अर्जी कोर्ट में जा चुकी थी…।
मकान की दहलीज़ लांघ कर वो गली में खड़े तांगे
की पिछली सीट पर उचक कर बैठ गयी थीए अड़ोस.पड़ोस के घरों की खिड़कियों.दरवाजों की
चिकें हिल उठीं..कई जोड़ा रूखीए कुछ नम आंखें लुके-छिपे मौन विदा दे रही थीं।
तांगा चल पड़ा… एक ’रहस्य’ उसने छिपा रखा था।
ट्रेन रात के दस बजे की थी। तब तक थर्ड क्लास
के वेटिंग रूम में ही सही… हफ़्ते भर का कड़वापन कलह की पराकाष्ठा लांघ चुका था।
मां-बाऊ को तार दे दिया गया था।
आँखें जल रही थीं। शायद सुर्ख हो गयी होंगी। गये
सालों इतना बरसी थी कि ऐन वक्त पर साफ़ धोखा दे बैठीं। सारा भीगापन, सारे आंसू लुप्त
हो गये थे।
मौसी के छोटे लाला बाहर खड़े सिगरेट के कश खींच
रहे थे। खाना नहीं खाया था, इसलिए पेट में भूख से ऐंठन शुरू हो गयी थी। चाची ने
खाना साथ बांध दिया था, जो डिब्बे में पड़ा गोबर हो रहा था—भूख प्यास किसे थी!
घाव पुनः पीर उठे थे। व्यथा से भरा रोम-रोम अगर
शब्दों में ढाला जा सकता था तो पन्ने पर पन्ने नहीं रंग जाते क्या? संयुक्त लंबा
परिवार। बड़ी-बूढि़यों के ताने-तिशने, घंटों निकट बैठाकर बेटे से खुसर-फुसर—परिवार
कैसे चलेगा आगे?
जाने क्या पाप किये थे जो ये बां…झ… साड़ी की सरसराहट सुनते
ही कुहनी पर टल्ला मारकर चाची अम्मा को चुप करा देती।
ट्रेन आ गयी थी। खिड़की के निकट बैठते हुए पहली
बार उसे निर्वासिता होने का आभास हुआ। रुलाई का गोला मुँह को आने लगा। ट्रेन चलने
वाली थी। सीटी सुनाई दी।
लाला के किसी से बतियाने का स्वर। झांक कर देखती
है.. आखि़र आना पड़ा न! ‘रहस्य’ ओठों पर आने को हुआ।
‘कह दे’… मन ने कहा भारतीय संस्कारों से बंधी
नारी जाग उठी थी। कुछ कसैलापन घुल गया जिह्वा पर..उसकी जूती जायेगी! खिड़की की ओर
पीठ करके बैठ गयी वो।
‘भाभी…चाय-पानी कुछ…?’ खिड़की के निकट आकर लाला फुसफुसाये।
‘नहीं!’ ऐंटन-भरा उसका स्वर रूखा हो गया था।
सीटी सुनाई दी। ट्रेन खिसकने लगी थी। वो झटके से पलटी। “ला…ला, सुनो, अपने भाई साहब को बुलाना।”
वे दौड़कर खिड़की पर आ गये। अलविदा के समय पुरानी यादें करवट ले उठ बैठी
थीं। जंगला पकड़ वे साथ-साथ चलने लगे।
खिड़की से चेहरा हटाए गले को साफ़ कर उसने ‘रहस्य’ उगल ही दिया—उसे …पहला …माह …माँ बनने…।
स्टेशन के अंत तक वे दौड़ते रहे। आखि़री डिब्बों
की परछाइयाँ उनकी ही तरह हमेशा के लिए दूर होती चली गयीं। ट्रेन के जंगले की
सलाखों पर चेहरा टिका उसने फटे नेत्रों से पीछे छूटते स्टेशन को देखा—स्टेशन के अंत
में प्रश्नों के ढेर में लिपटे, हाँफते हुए पति लघुतर होते चले गये।
3. वर्चस्व
पुरुष स्वर—संसार को मैं चलाने वाला…।
गर्वीली मुस्कान!
हुम्म… लापरवाही का स्त्री स्वर उभरा।
पुरुष—मंगल पर फ़तह की तैयारी, अब आगे-आगे देखती चलो ।
स्वर दर्प से लबरेज़ था।
हो…गा। मुझे क्या?
स्वर में लापरवाही।
मैं श्रेष्ठ हूँ। तुम तो सदियों से मेरे इशारों पर नाचती एक
बाँदी…।
स्वर में सामंती शासकों जैसी तर्ज़ सुनाई दी।
परछाई फिर बोली—मेरे बस्स, दो हाथ एक मन, एक मुस्कान…एक कोख।
मेरी शक्ति…तुम्हारी धरा पर चौखट तक।
भारी स्वर के साथ
पुरुषत्व फैल गया, बस्स…इस पर इतना गुमान।
मेरे अविष्कारों-खोजों का तो तुम्हें गुमान ही नहीं…।
वो बोलता रहा तब तक, जब तक थक ना गया।
और स्त्री चिरमयी मुस्कान के साथ नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान देती
रही।
4॰ अवमूल्यन
अचानक उस नगर की भीड़-भरी सड़क पर शाही हाथी जुलूस के शोर,
थकान और जयकारों के बीच चिंघाड़ता हुआ धराशायी
हो गया। गिर पड़ा और अंतिम सासें गिनने लगा। चारों ओर भगदड़ और अ़फरा-तफ़री मच
गयी।समाचार आग की लपटों की तरह फैल गया और शाह तक जा पहुँचा। शाही हाथी के नीचे
पूरे आधे दर्जन राहगीर आ दबे और कुछ गम्भीर रूप से घायल हो गए। नगर भर के चिकित्सकों के दल गजराज की नब्ज़
टटोलने और बीमारी की खोज-बीन करते रहे। दोपहर तक हाथी की अंतिम सांस भी निकल गयी
और वह मृत घोषित कर दिया गया।
नगर भर में तहलका मच गया। नगर के कोने-कोने से
जन-समुदाय शाही हाथी के दर्शनार्थ आकर पुष्प-मालाएँ अर्पित करते रहे। मृत गजराज का
दाह-संस्कार करने के लिए विशाल शरीर को जब हटाया गया तो पूरे छः मृत राहगीरों के
शव प्राप्त हुए, जिनकी शिनाख्त
नहीं हो सकी...।
तीन दिनों तक सम्पूर्ण नगर गजराज की आकस्मिक
मृत्यु के कारण शोक-मनाता रहा। तीन दिन के पश्चात् सभी अपने-अपने नित्य कार्यों
में जुट गये।
मुर्दाघर से तीन दिन बाद अपहचाने शवों को
निकाला गया और उनका सामूहिक दाह-संस्कार चुपचाप कर दिया गया।
किसी के कानों में खबर तक नहीं हुई है। दीवारों
ने भी अपने कान बन्द कर लिए थे।
विभा
रश्मि
जन्म—यू॰पी॰ में 1952
शिक्षा—एम॰ ए॰ बी॰एड॰
कोलकाता एवं राजस्थान विश्वविद्यालय।
प्रकाशन—प्रथम
कहानी ‘उपहार’ 1974 में कलकत्ता से प्रकाशित। कहानी संग्रह ‘अकाल ग्रस्त
रिश्ते’ (1976) कोलकाता से
प्रकाशित।
सारिका,
कथायात्रा, मधुमति, साहित्य गुंजन, जगमग दीप ज्योति, बस्तर पाति, साहित्य नेस्ट,
कुतुबनुमा आदि देश के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन। कहानियों का
आकाशवाणी से 1985 से निरंतर
प्रसारण। विभिन्न कविता व लघुकथा संग्रहों में कविताएँ एवं लघुकथाएँ प्रकाशित। ‘कुहू
तू बोल’ हाइकु संग्रह प्रेस में। कविता
संग्रह व लघुकथा संग्रह पर कार्य ।
फेस बुक पर ‘सरस्वती
दीप साहित्य हाइकु ताँका’ के अंतर्गत व
हिन्दी हाइकु साहित्य नेट मैग्ज़ीन में हाइकु प्रकाशित।
सेंट मेरीज़
कान्वेंट से अवकाश प्राप्त।
पुरस्कार व सम्मान—सर्वश्रेष्ठ
शिक्षिका 1995, कोलकाता में
महाविद्यालयी कविता लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, सामाजिक कार्यए अंधविद्यालय में सेवाकार्य व कहानी सुनाना। राजस्थान लेखिका
सम्मेलनों में पत्रवाचन व भागीदारी।
संप्रति—स्वतंत्र
लेखन।
मो॰नं॰ — 09414296536
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विभा रश्मि जी के परिचय के साथ सुन्दर लघु कथा प्रस्तुति हेतु आभार!
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