Friday 30 December, 2011

इक्कीसवीं सदी : पहले दशक की लघुकथाएँ

दोस्तो,
2011 अपना दायित्व निभाकर जा रहा है और 2012 का सूर्य नयी लालिमा से जगत को चमकाने के लिए आने को है। आइए, नवागत का खुले हृदय से स्वागत करें
अनूशहर(जिला:बुलन्दशहर) की एक शाम  चित्र:बलराम अग्रवाल
सन् 2002 में अपनी-अपनी सोच (संतोष गर्ग), अपने आसपास (मनु स्वामी), एक और एकलव्य (मदन लाल वर्मा), कागज़ के रिश्ते (राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु), कीलें (कालीचरण प्रेमी)गुस्ताखी माफ (सुदर्शन भाटिया), घोषणापत्र (जीवितराम सेतपाल), छँटता कोहरा (डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र), जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई (युगल), पश्चाताप की आग (सुदर्शन भाटिया), बदले हुए शब्द (भारती खुबालकर), ब्लैकबोर्ड (मधुकांत), मीमांसा (मथुरानाथ सिंह रानीपुरी), मेरा शहर और ये दंगे (डॉ॰ शैल रस्तौगी), यथार्थ के साये में (आलोक भारती), यह भी सच है (डॉ॰ शैल रस्तौगी), रोटी का निशान (सुखचैन सिंह भंडारी), लुटेरे छोटे-छोटे (सत्यप्रकाश भारद्वाज), शब्द साक्षी हैं (सतीश राठी), सरोवर में थिरकता सागर (वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज), सॉरी सर! (सुदर्शन भाटिया), सुरंगनी (कृष्णा भटनागर), स्याह सच (हृषीकेश पाठक), हजारों-हजार बीज (भगवान दास वैद्य प्रखर)  कुल 25 संग्रहों की सूची प्राप्त हुई है। इनमें से जितने भी संग्रह मेरे पास उपलब्ध हैं उनमें से प्रस्तुत है एक-एक लघुकथा


चिड़िया/सतीश राठी
उड़ती हुई चिड़िया सेठ करोड़ीमल की खिड़की पर जा बैठी और चहकने लगी। हिसाब-किताब कर रहे सेठ जी को उसका चहकना अपने काम में बाधक लगा। सेठ ने उठकर चिड़िया को उड़ा दिया और खिड़की बंद कर दी।
चिड़िया उड़कर एक कवि के दरवाज़े पर जा बैठी। कवि अपनी कविता रचने के रचनाक्रम में इतना तल्लीन था कि चिड़िया की चहकती हुई दस्तक उसकी तल्लीनता को भंग नहीं कर पाई।
तब चिड़िया उड़कर चित्रकार के कला-कक्ष में जा पहुँची। चित्रकार अपने मन की सारी कुंठाओं को केनवास पर अंकित कर रहा था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि चहकती चिड़िया को केनवास के किस कोने पर अंकित करे।
निराश चिड़िया उड़ती हुई एक नेता जी के दरबार में जा पहुँची। नेता जी ने चिड़िया को देखा तो उनकी बाँछें खिल गईं। जेब में हाथ डालकर उन्होंने चुग्गा निकाला और चिड़िया के आगे डाल दिया। चहकती हुई चिड़िया जैसे-ही नेता जी के पास पहुँची, उन्होंने उसे झपट्टा मारकर पकड़ लिया और चिड़िया की गरदन मरोड़ दी।
खानसामे ने उस दिन नेता जी के लिए अव्वल दर्जे का शोरबा बनाया।


मज़ा/सतीश राठी
उसने भीतर से दरवाजे की सिटकनी लगाई। कपड़ों के बटन खोलकर वर्दी ढीली की। सोफे पर बैठकर एक गिलास में दारू डाली और एक साँस में समूची चढ़ा गया। लड़खड़ाते हुए कदमों से वह सजे हुए पलंग की ओर बढ़ा और…एकाएक…तेजी-से झपटकर उसके कपड़े तार-तार कर डाले।
बुरी तरह चौंक गई नई दुल्हन के मुँह से निकला,यह क्या…! ऐसे क्या!!
कुछ नहीं…इसमें… अधिक…मज़ा आता है। जूझते हुए पुलिस इंस्पेक्टर पति के मुँह से गुर्राते हुए शब्द निकले।

(शब्द साक्षी हैं:2002 से)


चाहत/भगवान वैद्य प्रखर
क्या उस कुख्यात तस्कर से गुनाह कबूलवाने के लिए पुलिस ने निम्न स्तर के हथकंडे अपनाए?
जी नहीं। गुनाह कबूलवाने के लिए पुलिस को कुछ नहीं करना पड़ा था।
फिर उसकी मौत कैसे हुई पुलिस कस्टडी में?
पुलिस चाहती थी कि वह अपने गुनाह कबूल कर ले और चुप कर जाए। और वह था कि लगातार बोलता जा रहा था। यहाँ तक कि नींद में भी पुलिस कमिश्नर से लेकर स्थानीय एम॰ एल॰ ए॰, एम॰ पी॰ और पता नहीं किस-किस के नाम लेकर बड़बड़ाता रह्ता था।
फिर?
फिर क्या, पुलिस चाहती थी कि वह गुनाह कबूल कर ले और चुप कर जाए।
(हजारों-हजार बीज:2002 से)

ज़हर/राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु
                                             चित्र : आदित्य अग्रवाल
आपने कुछ सुना? आज रजनी की बहू घर छोड़कर चली गई। पति को भोजन परोसते हुए ममता ने कहा।
क्यों? आश्चर्यचकित मुद्रा में पत्नी को देखते हुए पूछा।
सुना है, रजनी ने अपनी बहू से कहा था कि शादी की मेंहदी अब हल्की पड़ गई है; घर के बर्तन, रसोई, झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोने आदि में सहयोग किया करो। अकेले सरोज से इतना अधिक काम नहीं होता…वह भी तुम्हारी तरह इस घर की बहू है।
अपनी सास का आदेश सुनकर बहू ने क्रोध में कहायदि घर के सारे काम मुझसे करवाने थे तो शादी मुझसे नहीं, किसी नौकरानी से करवा देनी थी। मेरे पिताजी ने इतना दहेज, कपड़े धोने, बर्तन माँजने के लिए नहीं…मैं ससुराल में सुख से रह सकूँ, इसलिए दिया था।
ऑफिस से घर आते ही पत्नी और माँ का विवाद सुनकर धीरेन्द्र ने क्रोध में पत्नी से कहातुम्हें शर्म नहीं आती, माताजी से जुबान लड़ा रही हो! यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो माताजी का कहना मानना होगा। इस घर के सारे कामों को करना होगा, जैसेकि भाभी करती है।
पति को क्रोधित देखकर वह पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गई। लेकिन उनके घर में तीन-चार दिन से भयंकर कलह मची थी। आज झगड़ा उस समय खत्म हुआ, जब बहू घर छोड़कर मायके चली गई। बहू ने रिक्शे में बैठते हुए कहादहेज का सारा सामान मेरे पिताजी आकर ले जाएँगे। तुम लोगों को जेल की हवा न खिलवा दी, तो मेरा नाम भी मालती नहीं।
मोहल्ले के लोग अपनी-अपनी बालकनी में खड़े सास-बहू का विवाद सुन रहे थे।
ममता, उन लोगों के साथ बहुत-ही अच्छा हुआ। उन्हें बहू नहीं, मात्र दहेज चाहिए था। अब दहेज लेने का परिणाम भोगें। राकेश ने भोजन खत्म करते हुए कहा।
(कागज़ के रिश्ते:2002 से)

सूत्र/मनोज सोनकर
                        चित्र : बलराम अग्रवाल
मनोरंजन होटल शहर के बीचों-बीच स्थित है। इसके पश्चिम में लहराता समुद्र है। पूर्व में हरा-भरा बाग है। उत्तर में खेल का मैदान है और दक्षिण में सुंदर पहाड़ी है। अपनी आकर्षक स्थिति, उज्ज्वल सफाई आत्मीय सेवा के लिए यह बहुत प्रसिद्ध है। मोटा शरीर, छोटी आँख, नाटा कद, खिचड़ी बाल, सुनहरे चश्मे के धनी सुदर्शन इसके मालिक हैं। वे वेटर से मालिक बने हैं। कुछ लोग उनकी व्यापारिक सूझबूझ की प्रशंसा करते हैं। कुछ लोग उनकी सफलता से जलते हैं।
वे शराब कभी अकेले नहीं पीते; चार-पाँच लोगों के साथ पीते हैं। वे शराब पी रहे हैं और चार-पाँच लोग उनका साथ दे रहे हैं।
धंधा तो धंधा है, हर कीमत पर इसे बढ़ना चाहिएजो यह सूत्र नहीं जानता, वह व्यापार की दुनिया में बहुत जल्दी डूब जाता है। होटल अप्सरा डूब गया, होटल जिप्सी डूब गया, होटल पंचरंग डूब गया, होटल नवरंग डूब गया, होटल सतरंग डूब गया, होटल नजारा डूब गया, होटल सहारा डूब गया। इन लोगों ने धंधे का सूत्र समझा ही नहीं और डूब गये। होटल सितार और होटल गिटार भी डूबने वाले हैं।
होटल सितार और गिटार क्यों डूबने वाले है? चंदन ने पूछा।
ये भी धंधे का सूत्र भूल गये हैं। धंधा तो धंधा है, इसे हर कीमत पर बढ़ाना चाहिए। इस सूत्र को न मैं भूला था, न भूला हूँ और न भूलूँगा। इसी सूत्र ने मुझे वेटर से मालिक बनाया है। सुदर्शन तीन पैग उतार चुके हैं।

मनोरंजन होटल में एक अरब पिछले पाँच सालों से लगातार बरसात के मौसम में आ रहा है। गोरा रंग, लंबा कद, तगड़ा बदन, बड़ी-बड़ी लाल आँखों के धनी इस अरब से सुदर्शन की खूब पटती है। इस साल भी बरसात के मौसम में वह हाजिर है। अरब औरतों का बेहद शौकीन है। सुदर्शन लगातार उसका शौक पूरा करते आ रहे हैं। काली, गोरी, साँवली, लम्बी, मध्यम और नाटी औरतें उसे वे परोस चुके हैं। उन सबकी मुँहमाँगी कीमत भी वसूल चुके हैं। अरब कभी मोल-भाव नहीं करता है। जितना भी माँगो, नगद दे देता है। उसकी इस विशेषता पर सुदर्शन फिदा है।

सुदर्शन और अरब शराब पी रहे हैं।
आप बरसात के मौसम में ही क्यों आते हैं? सुदर्शन ने पूछा है।
रेगिस्तान देख-देखकर आँखें थक गई हैं। बरसात देखकर दिल और दिमाग को सुकून मिलता है। तबियत खुश हो जाती है। बदन में खून का दौरा तेज हो जाता है। जवानी जोश मारने लगती है। सेक्स जागता है और खूब जागता है।
सेक्स तो किसी भी मौसम में जाग सकता है। वे मुस्कराए हैं।
मेरा सेक्स तो बरसात के मौसम में ही जागता है। देखो! अब जागना शुरू हो गया है, जोर-जोर से जागना शुरू हो गया है। आप औरत का इंतजाम शुरू करो। इस बार एकदम नयी औरत चाहिए। मैं पुरानी औरत के साथ नहीं सोऊँगा। किसी भी औरत के साथ दो बार सोना मुझे अच्छा नहीं लगता। नई औरत का इंतजाम करो।
लेकिन पैसा ज्यादा लगेगा। सुदर्शन ने अंदाजा है।
पैसे की परवाह मत करो। जो भी लगेगा, दूँगा।
पच्चीस हजार लगेगा।
पच्चीस क्या, पचास दूँगा; लेकिन औरत नई होनी चाहिए।
सुदर्शन ने कई जगह फोन घुमाया ह॥
लड़कियाँ बाहर गई हैं, लड़कियाँ बुक हो चुकी हैं, वह बीमार है, वह तो भाग गई…। उत्तर मिला है।
पच्चीस क्या, पचास दूँगा; लेकिन औरत नयी होनी चाहिए!अरब कौंधा है।
अचानक उनकी आँखों में कॉलेज जाने वाली सीमा उभरी है। सीमा उनकी बेटी है। 
(हलफनामा:2002 से)


बेटी/सुखचैन सिंह भंडारी
                                           चित्र : बलराम अग्रवाल
आज पिताजी ने शराब के नशे में फिर माँ को पीटा। हरामजादी तक की गाली दे डाली।
मै यह सब पिछले सोलह वर्षों से देखती आ रही थी। पिताजी माँ को पाँव की जूती समझते थे। वह किसी न किसी बात से नाराज़ होकर माँ को थप्पड़ तक मार देते। गालियाँ देना तो उनका नित्य का काम था।
आज मुझसे यह सब सहन न हुआ। मैं तेज़-तेज़ कदमों से चलती पिताजी के कमरे में आ गई। पिताजी पी रहे थे। मैंने कुछ तीखी आवाज़ में कहा,पिताजी, आप माँ को क्यों मारते हैं?
यह सुनकर उन्होंने मुझे एक बार घूरकर देखा और फिर क्रोध से बोले,वो स्साली मुझे दारू पीने से रोकती है। मैं इस घर का मालिक हूँ। जो चाहूँ करूँ।
पिताजी, कल को जब मैं ब्याही जाऊँगी और मेरा पति भी मुझे इसी तरह पीटे, गालियाँ बके तो आपको कैसा लगेगा?
मैं उस स्साले की टाँगें तोड़ दूँगा। तुम मेरी बेटी हो, मेरी। ठाकुर रणबीर सिंह की बेटी। उन्होंने अपनी छाती पर हाथ मारकर जोर से कहा।
तो क्या, माँ किसी की बेटी नहीं? और इतना कहकर मैं कमरे से निकलकर माँ के पास आ गई। थोड़ी देर बाद मैंने देखापिताजी आँखों में आँसू लिए माँ से माफी माँग रहे थे।
(रोटी का निशान:2002 से)

5 comments:

राजेश उत्‍साही said...

सतीश राठी की 'मज़ा' थोड़े में बहुत कुछ कह देती है। लेकिन 'चिडि़या' बहुत कुछ नहीं कह पाती।
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सुखचैनसिंह भंडारी की '‍बेटी' क्‍लाइमेक्‍स पर पहुंचकर दम तोड़ देती है।
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मनोज सोनकर की 'सूत्र' वास्‍तव में संक्षिप्‍त कहानी लगती है।
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राजेन्‍द्र मोहन त्रिवेदी की 'जहर' बेअसर है।
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भगवान वैद्य 'प्रखर' की 'चाहत' को समझने के लिए दिमाग लगाना पड़ता है।
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लघुकथाओं के साथ फोटो अच्‍छे हैं।

सुधाकल्प said...

नये साल में नई पुस्तक -खलील जिब्रान के प्रकाशित होने की आपको बहुत -बहुत बधाई .

रूपसिंह चन्देल said...

बलराम,

तुम बहुत श्रम कर लेते हो. संग्रहों से चुनकर लघुकथाओं को प्रकाशित करना कठिन काम होता है. इसके लिए सम्पादक को समग्र सामग्री से गुजरना होता है. तुम्हारा चयन बेहतरीन है. बधाई.

चन्देल

भगीरथ said...

प्रत्येक संग्रह की अच्छी लघुकथा का उल्लेख जरूरी है पर कमजोर रचनाएं को शामिल न करे तो अच्छा होगा

सुधाकल्प said...

लघुकथा चिड़िया -

इंसान का एक सच है .किसी की उपेक्षा या अपेक्षा ,सद्व्यवहार या दुर्व्यवहार उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है .

मजा -पुरुषसत्ता व अपना वर्चस्व बनाये रखने के प्रयास पर करारा व्यंग .

बेटी -इस लघुकथा में उम्मीद की एक किरण है -नई पीढ़ी बहुत कुछ कर सकती है .

बलरामजी ,अच्छा लगा जानकर कि आपको फोटो ग्राफी का भी शौक है .चित्रानुसार मेरे शहर में नये सूरज की रोशनी में प्रकृति बस नहाना ही चाहती है .अब तक तो इसने अपनी सुनहरी चादर से पूरी वसुंधरा को ढक लिया है .