दोस्तो, बीसवीं सदी के प्रारम्भिक पहले वर्ष यानी सन् 2001 में, मेरी जानकारी के अनुसार कुल 10 हिन्दी लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए—अन्यथा (कमल चोपड़ा), अभिमन्यु की जीत (राजेन्द्र वर्मा), इधर उधर से(बीजेन्द्र कुमार जैमिनी) केक्टस (मोइनुद्दीन अतहर), जंगल की आग (सी॰ रा॰ प्रसाद), सच्चा सुख (आशा मेहता), तरकश का आखिरी तीर (अतुल मोहन प्रसाद), दो सौ ग्यारह लघुकथाएँ (उषा जैन शीरीं), राजा नंगा हो गया (सुनीता सिंह) तथा सलीब पर टँगे चेहरे(सुरेन्द्र कुमार अंशुल)। इनमें से मेरे पास पास केवल तीन संग्रह ही उपलब्ध थे—अन्यथा, अभिमन्यु की जीत तथा राजा नंगा हो गया। उनमें से प्रस्तुत हैं निम्नलिखित चार लघुकथाएँ—
उनकी सज़ा/कमल चोपड़ा
ऐसा नहीं था कि कभी कोई कार नहीं देखी था; पर इतनी लंबी और चमचमाती कार उसने पहली बार देखी थी। उसने कार के चारों तरफ एक चक्कर लगाया तो उसे लगा जैसे वह कार नहीं किसी दूसरे ग्रह से आया कोई जादुई उड़न-खटोला है।
उसने कार पर हाथ फिराया; शीशों और लाइटों को छूकर देखा। उस अजीब-से सुख से उसका मन खुशी से नाच उठा।
ज्योंही उसने कार के दरवाज़े के हैंडिल को खींचा, दरवाज़ा खटाक-से खुल गया। कार का मालिक शायद दरवाज़े को लॉक करना भूल गया था। छोटू को लगा जैसे किसी स्वर्ग का दरवाजा उसके सामने खुला पड़ा है। थोड़ा झिझकते-सहमते हुए वह कार में ड्राइवरवाली सीट पर जा बैठा। अंदर ए॰सी॰ ऑन नहीं था पर ठंडक अभी बाकी थी। उसने इधर-उधर लगे बटनों से छेड़छाड़ शुरू कर दी। स्टीरियो ऑन हुआ तो धीमे, पर इतने मधुर संगीत ने जैसे उसकी सुध-बुध ही हर ली। उसको लगा जैसे वह इस स्वर्ग का बादशाह है।
अचानक उसकी नज़र साइड में लगे कार के शीशे पर पड़ी। उसने देखा—सामने बिल्डिंग से एक सूट-बूट और काले चश्मेवाला आदमी चला आ रहा है। यह होगा मालिक। वह झट से निकला। दरवाज़ा बंद कर भागने को ही था कि उस आदमी ने उसे पकड़ लिया और तड़ाक से उसके एक थप्पड़ जड़ दिया,“क्या चुरा रहा था साले, बोल? क्या चुरा रहा था?”
ज्योंही कारवाला आदमी कार के अंदर झांककर देखने लगा कि सारी चीजें सही-सलामत हैं या नहीं, छोटू अपनी बाँह छुड़ाकर दूर जा खड़ा हुआ और ऊँची आवाज़ में बोला,“चोर नहीं हूँ मैं…मैं तो यहाँ बैठकर भुने हुए चने बेचता हूँ जहाँ तुमने ये कार खड़ी कर दी। मेरा जो नुकसान हुआ वो…? हम घर के सारे लोग सारा दिन काम करते हैं, तब भी हमारे तो खर्चे पूरे नहीं होते, तुम कार कहाँ से ले आए? मैं तो दो मिनट कार को देख रहा था कि तुमने मुझे थप्पड़ मार दिया! तुम जो सारा दिन इसका मज़ा लेते हो, तुम्हें क्या सज़ा होनी चाहिए?”
(‘अन्यथा’: 2001 से)
जुर्माना/राजेन्द्र वर्मा
फटी पॉलिथीन और गत्ते-टट्टर से बनी खोलियों में ज़िंदगी से लड़ते लोग। रात दो बजे का वक्त।
“साले, धंधा करता है!” दो सिपाहियों ने डंडा फटकारा।
“नहीं साहब, यह मेरी बीवी है। परसों गाँव से आई है।”
“हाँ साहब, यह मेरा आदमी है।”
“चुप कर, साली।”
“साब’जी, ये ठीक कह रहे हैं।” पड़ोसियों ने भी समर्थन किया; लेकिन उनकी बात सिपाहियों के नशे में घुल गई।
“अच्छा, चल थाने। वहीं होगा फैसला कि कौन किसका क्या है।” सिपाहियों ने गालियों के बीच धमकाया।
काफी मान-मनौव्वल के बाद भी जब मुक्ति नहीं मिली, तो वे चल पड़े। थोड़ी दूर चलने के बाद एक सिपाही ने दया दिखाते हुए प्रस्ताव किया कि अगर वह अभी दो सौ रुपए जुर्माना भर दे, तो छूट सकता है।
वह तेजी-से अपनी खोली की ओर भागा। खोली में सौ रुपए थे। बाकी का इंतजाम करने में थोड़ी देर लग गई।
जब वह लौटा तो वहाँ सन्नाटा था। इधर-उधर देखकर वह आगे बढ़ने ही वाला था कि किसी के कराहने की आवाज़ आई। यह आवाज़ किसी और की नहीं, उसकी पत्नी की ही थी। सारा माजरा उसकी आँखों में घूम गया—जैसे-ही वह लौटा होगा, उन दरिंदों ने उसकी पत्नी को झाड़ियों में घसीटा होगा, फिर…।
पत्नी को सहारा देते हुए संज्ञा-शून्य-सा वह इस लुटेरे शहर से कहीं दूर, बहुत दूर चले जाना चाहता था।
चोर/राजेन्द्र वर्मा
रात के दो बजे थे। एक आदमी सुनसान सड़क पर निकला।
“कौन है बे?” सिपाही ने कड़ककर पूछा।
“चोर!” घबराए हुए आदमी के मुँह से अनायास निकला।
“स्साले, हमसे मजाक करता है?”
“नहीं साहब, सच कहता हूँ।”
“अच्छा, जा भाग जा।”
आदमी चला गया।
“जब चोर था, तो जाने क्यों दिया?” दूसरे सिपाही ने खैनी मलते हुए कहा।
“अरे, जो सच बोलता हो, वह भला चोर कैसे हो सकता है!!…और, अगर छोटा-मोटा चोर हुआ भी, तो क्या फर्क पड़ता है जब बड़े-बड़े चोर ससुर हम पर हुकुम चलाय रहे हैं।”
दूसरा सिपाही चुपचाप खैनी पीटने लगा।
(‘अभिमन्यु की जीत’:2001 से)
ताबीज़/सुनीता सिंह
शहर से बहुत दूर गंगा के दियारा क्षेत्र का छोटा-सा गाँव। नाम है मुसहरी टोला। उस टोले का एक आदमी फेकना दो-तीन वर्षों के बाद आज परदेस से गाँव आया था; लेकिन उस गाँव के परिवर्तन को देखकर वह चकित था।
टूटी-फूटी झोंपड़ी, भूखे-नंगे लोग, धूल में लेटते गंदी-गंदी गालियाँ बकते लड़के-बच्चे। उस गाँव को ऐसा छोड़कर फेकना परदेस गया था। किंतु आज, उसे बहुत आश्चर्य हो रहा था कि इतने कम समय में इतना बदलाव कैसे आ गया? कहीं लोग देश-विदेश की ताजा घटनाओं पर बहस कर रहे हैं, कहीं सरकारी योजना एवं अपने गाँव की स्थिति को सुधारने की बात हो रही है। हर गली साफ-सुथरी है। लोगों की मानसिकता एवं रहन-सहन का स्तर सब-कुछ बदला-बदला-सा देख रहा था फेकना। उसे लगा कि शायद कोई जादुई करिश्मा हुआ हो। उत्सुकतावश उसने सरदार के समीप जाकर पूछा—“काका, मैं जिस गाँव को परदेस जाते समय छोड़कर गया था, उसमें और आज में काफी अंतर देख रहा हूँ। आखिर इसके पीछे राज़ क्या है?”
पाखंडी सरदार ने हँसते हुए कहा—“बेटा, आज से ढाई साल पहले एक संत आया था। वह एक ताबीज़ दे गया है। तुम आए हो तो तुम भी इसे धारण कर लो।”
फेकना उस ताबीज़ के लिए व्यग्र हो उठा और कहा—“काका, मुझे भी यह ताबीज़ दो न।”
सरदार धीरे-से उठा। घर के भीतर गया और कुछ ही क्षण बाद फेकना के हाथ में कलम और किताब आ गयीं।
(‘राजा नंगा हो गया’:2001 से)
1 comment:
NAYE LAGHU KATHA SANGRAHON KEE
JAANKAAREE ACHCHHEE LAGEE HAI .
CHARON LAGHU KATHAAYEN STARIY HAIN.
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