विष्णुजी के देहावसान की सूचना पूरी तरह से चौंकाने वाली रही। उनकी गत चार जन्मदिन-पार्टियों में तो लगातार उपस्थित रहने का अवसर मिलता रहा। पिछ्ले महीनों में कई बार सोचा कि जाकर एक दिन उनका दर्शन कर आऊँ। दो-चार दिन पहले ही शकुन्तला किरण से बातचीत के दौरान भी उनको देखकर आने का जिक्र हुआ था, लेकिन… मेरा आलस्य, मेरी संवेदनहीनता, मेरा आलस्य। न इनका कोई अंत है और न इनके द्वारा मिलने वाले हर प्रकार के कष्टों का। कष्टकारक हैं, फिर भी ये छूट नहीं पाते, पता नहीं क्यों? यों पता तो है कि ये छूट क्यों नहीं पाते, फिर भी कहा यही जाता है कि पता नहीं क्यों? बात दरअसल यह है कि आलसी आदमी सृष्टि में सिर्फ और सिर्फ एक ही व्यक्ति को प्यार करता है, और वह आदमी कोई दूसरा नहीं वह खुद ही होता है। प्यार करने के मामले में, वैसे तो, एक ही लाइन में कहूँ तो यह कि हर आदमी सबसे ज्यादा खुद को प्यार करता है, किसी और को नहीं। केवल खुद से प्यार न होता तो विष्णुजी को देखने जा पाना इतना दुष्कर तो नहीं था। खुद से प्यार किया इसीलिए तो दिल्ली में रहते हुए भी उनका अंतिम दर्शन तक न कर पाने का दण्ड मिला। निधन का समाचार भी शिमला से मिला—बड़े भाई बद्री सिंह भाटिया जी के द्वारा। विष्णुजी की चिता को एक लकड़ी उनकी ओर से सौंपने का अनुरोध तक मैं पूरा नहीं कर पाया, यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है। शिमला में बैठा उनका प्रशंसक दिल्ली में बैठे अपने छोटे भाई से इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता है।…सिर्फ अपेक्षा।
चिता को अंतिम समिधा सौंपने का सौभाग्य कविवर त्रिलोचन शास्त्रीजी ने अवश्य प्रदान किया था। यमुना विहार में उनके प्रवास के दौरान उनके मुख से जितनी बातें सुनीं, उन्हें कलमबद्ध करना तुरंत आसान नहीं रहा तो बाद में कैसे रहता। उनके सान्निध्य में कुछ दिनों तक कुछेक घण्टे बिताए, वाग्देवी की यही कृपा क्या कम है?
हालाँकि लगभग एक साल बीत चुका; फिर भी, ज्यादा दिन नहीं हुए ऐसा लगता है। जून 2008 के दूसरे सप्ताह की बात है। श्रीयुत उमेश चन्द्र अग्रवालजी(स्वामी:आलेख प्रकाशन, दिल्ली) से आदरणीय विष्णुजी के जन्मदिन (21 जून) पर उनके निवास पर जाने के बारे में बात हुई तो उन्होंने अपनी रजामंदी दे दी। उसके बाद एक दिन फोन आया कि आदरणीय से रा यात्रीजी भी विष्णुजी के दर्शनार्थ जाने के इच्छुक हैं, लेकिन भीड़-भाड़ से बचने और आराम से बातें करने की दृष्टि से उनकी सलाह है कि 21 के बजाय 20 को चला जाए। मुझे इसमें भला क्या एतराज हो सकता था। होता भी तो यात्रीजी केवल मेरे न जाने की वजह से रुक जाने वाले व्यक्ति नहीं थे। मुझे अच्छा ही लगा कि इस बार यात्रीजी भी साथ होंगे। मैंने हाँ कह दी।
20 जून 2008 को हम तीन व्यक्ति(सर्वश्री से रा यात्री, उमेश चन्द्र अग्रवाल और मैं यानी बलराम अग्रवाल) शाहदरा के मेट्रो रेल स्टेशन पर मिले। वहीं पर मालूम चला कि अजित कुमारजी का निवास कोहाट मेट्रो स्टेशन के नजदीक ही है और उनसे भी भेंट करने आने के बारे में यात्रीजी की बात हो गई है। यात्रीजी ने कहा—“बलराम, ‘कोहाट’ उतरकर पहले अजित कुमार से भेंट करेंगे, फिर विष्णुजी के यहाँ जाएँगे।”
“जी।” मैंने कहा। यात्रीजी जैसे व्यक्तित्व की कृपा से ही भाई स्वयं प्रकाश से उनके भोपाल निवास पर भेंट हुई थी और लघुकथा-कहानी पर बड़ी सार्थक चर्चा हुई थी। अब उन्हीं के कारण अजित कुमारजी से भेंट करने का अवसर मिलने वाला था।
कोहाट उतरकर हम अजित कुमारजी के निवास पर पहुँचे। वह यात्रीजी का इंतजार कर रहे थे। अच्छी गर्मजोशी के साथ उन्होंने हमारा स्वागत किया। अपने पुराने दिनों के बहुत-से ऊँचे-नीचे संस्मरण उन्होंने सुनाए। तार-सप्तक की कवयित्री अपनी बहन सुश्री कीर्ति चौधरी, जिनका उन्हीं दिनों लंदन में देहांत हुआ था, को याद करके आँखें नम कीं। कहा कि पति-पत्नी दोनों की शारीरिक अक्षमता के चलते अब कहीं जाया-आया नहीं जा सकता। व्यस्त और कष्टभरी दिनचर्या के बारे में बताया। बच्चनजी(हरिवंशराय) के साथ बिताए दिनो के संस्मरणों पर केन्द्रित ज्ञानपीठ से आने वाली उस पुस्तक के बारे में बताया जो अब आ चुकी है। दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनी नियुक्ति के पीछे की राजनीति का खुलासा किया और एक खास बिन्दु को याद करके अफसोस भी जाहिर किया। गरज यह कि उन्होंने हर बात खुले दिल से की। मैं उनके सामने नया व्यक्ति था, लेकिन कोई संकोच, कोई छिपाव उन्होंने नहीं बरता।
और उस समय, जब यात्रीजी ने यह बताकर कि हमें अब विष्णुजी के घर भी जाना है, वहाँ से उठ खड़े होने का प्रयत्न किया तो अजित कुमारजी ने अनुरोध किया कि हम अगर दस-पन्द्रह मिनट और रुक सकें तो वह भी इस गंगा में डुबकी लगाने के इच्छुक हैं। हृदय की गहराई से उन्होंने कहा कि वह अनेक बार विष्णुजी से भेंट करने के लिए जाने के बारे में सोचते हैं, लेकिन जा नहीं पाते।
“अब, आप लोगों का सान्निध्य मिल रहा है तो मैं भी हो आऊँगा।” वह बोले,“मिसेज लौटकर आती ही होंगी, उसी गाड़ी में हम चले चलेंगे।”
यह अनुरोध किसी भी तरह टाल सकने वाला नहीं था। हम पुन: बैठ गए।
गाड़ी आ गई। हम लोग बैठे और विष्णुजी के निवास की ओर चल दिए।
विष्णुजी का महाराणा एन्क्लेव, पीतमपुरा लगभग वहीं रहने वाले अजित कुमारजी और उनके ड्राइवर के लिए भी बहुत आसान नहीं रहा। रास्ते में एक-दो बार पूछताछ करनी ही पड़ी। मैं पिछले वर्ष भी यहाँ आ चुका था, लेकिन इस बार भी विष्णुजी के निवास की ओर ले जाने वाले रास्तों से खुद को उतना ही अनजान पाया जितना कि पिछली या कहूँ कि पहली बार में पाया था। बहरहाल, ड्राइवर काफी समझदार था और एक ही बार की पूछताछ में सारे मोड़ समझ गया। दोबारा किसी से कुछ भी पूछे बिना उसने हमें विष्णुजी के निवास के बाहर उतार दिया।
हम अन्दर दाखिल हुए। सबसे आगे यात्रीजी और पीछे-पीछे हम सब। अनिता दीदी (विष्णुजी की बड़ी बेटी) वहीं पर थीं। वह बहुत आत्मीय हैं। उनकी मुस्कराहट मुझे विष्णुजी की सौम्यता की याद दिला देती है।
विष्णुजी शैय्या पर लेटे हुए थे, लेकिन जाग रहे थे। हम सब ने लगभग एक साथ ही उनका अभिवादन किया।
“नमस्कार…नमस्कार…” लेटे-लेटे ही हाथों को जोड़कर अभिवादन को स्वीकार करते विष्णुजी ने कहा,“बहुत दिनों बाद कोई साहित्यकार मिलने आया है।”
उनका यह वाक्य सुनते ही मुझे कुछ ही दिनों पहले जनसत्ता में छपा भाई प्रेमपाल शर्मा का वह लेख याद हो आया, जिसमें विष्णुजी की इस मर्मान्तक पीड़ा को स्वर दिया गया था और जिस पर लम्बी चर्चा हुई थी। उस चर्चा में किन्हीं अति-विद्वान महाशय ने यहाँ तक वमन किया था कि साहित्यकार खुद जनता के बीच नहीं जाते हैं अत: जनता के उनके पास न आने का उन्हें अफसोस नहीं होना चाहिए। उन महाशय को यह ख्याल ही नहीं रहा कि चर्चा विष्णुजी के बारे थी। उन विष्णुजी के बारे में, जो थे ही जनता के बीच के लेखक।
इस दौरान यात्रीजी विष्णुजी के समीप बैठकर यात्रीजी ने गहन आत्मीयता के साथ उनका दायाँ हाथ अपने हाथ में थाम लिया था। बिल्कुल इस अन्दाज में जैसेकि विष्णुजी के शारीरिक कष्ट स्वयं उनके हों और जैसेकि उनका वश चले तो विष्णुजी को वे कोई कष्ट न झेलने दें।
उससे कुछ ही दिन पहले अपने निवास के बरामदे में संतुलन बिगड़कर गिर जाने की वजह से विष्णुजी के कूल्हे की हड्डी में फ्रेक्चर आ गया था। इसी कारण उन्हें लेटे रहना पड़ रहा था।
जितनी देर हमने विष्णुजी से दो-चार बातें कीं, उतनी देर में आ0 भाभीजी(विष्णुजी की पुत्र-वधू, अतुल प्रभाकर की पत्नी) हम लोगों के लिए चाय-आदि ले आईं। हमने सबसे पहले नाश्ते की प्लेट्स में रखे स्वीट-पीसेज़ को चम्मच से काटकर एक दिन पहले ही विष्णुजी के जन्मदिन का केक काटने की औपचारिकता पूरी की और विष्णुजी को जन्मदिन की बधाई दी।
“ईश्वर करे कि आप सौ बरस जिएँ।” हममें से अधिकांश ने कहा।
यह बेहद औपचारिक दुआ थी। हिन्दी भवन में मनाये गए उनके जन्मदिन के एक समारोह में बोलते हुए प्रबुद्ध पत्रकार प्रभाष जोशीजी ने मंच से बोलते हुए कामना की थी कि—“मेरी इच्छा है कि विष्णुजी शतक मारें, शतक-वीर कहलाएँ…शतक से भी आगे जीएँ।”
यह सम्भवत: 2006 की बात है। विष्णुजी ने उस वर्ष उम्र के 94 वर्ष पूरे किए थे। इतनी उम्र का व्यक्ति ही बता सकता है कि यहाँ पहुँचने के बाद उम्र का एक-एक रन कितना भयावह होता है। अगर प्रभाषजी की दृष्टि से ही देखा जाए तो एक बात पक्के तौर पर कही जा सकती है। यह कि विष्णुजी को वक्त ने रिटायर्ड-हर्ट करने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे क्रीज से हटे नहीं, डटे रहे। उन्होंने पूरा प्रयत्न किया कि वे प्रभाषजी जैसे प्रखर क्रिकेट-दृष्टियुक्त हितैषी की कामना का मान रखें; लेकिन वह रन-आउट हो गए। अपना 97वाँ रन पूरा करने हेतु क्रीज में पहुँचने से मात्र 71 दिन पहले वक्त ने उनकी गिल्लियाँ बिखेर दीं। हमारी ओर से खेलता लगने वाला वक्त एकाएक कब विरोधी टीम का खिलाड़ी बन बैठेगा, कोई नहीं जानता।
यद्यपि 2006 में भी विष्णुजी पूर्णत: स्वस्थ नहीं थे, लेकिन चल-फिर लेते थे। सुनाई कम देने लगा था, लेकिन बोलने में कठिनाई का अनुभव नहीं करते थे। परन्तु 2008 में हमारे मिलने जाने के समय वे बहुत अस्वस्थ थे। हालाँकि उस समय भी उन्होंने कहा था कि बोलने में उन्हें कोई परेशानी नहीं है, मस्तिष्क ठीक-ठाक काम कर रहा है; लेकिन शरीर के दूसरे-दूसरे अवयव थक गये हैं। शायद इसीलिए उस समय उनके द्वारा आयु का शतक पूरा करने की हमारी कामना मुझे बहुत अव्यवहारिक महसूस हुई। घर का कोई व्यक्ति, विशेषत: वह जिसने 70-80-90 साल पूरे कर लिए हों, जब खाट पकड़ लेता है, तब उसके तीमारदारों को कैसा महसूस होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। किसी भी व्यक्ति की उपयोगिता उसके प्रोडक्टिव, उसके रचनाशील रहने तक ही रहती है। सक्रिय रचनाशीलता का ह्रास यानी एक व्यक्ति के रूप में लेखकीय उपयोगिता का, उसके बाजार-मूल्य का ह्रास। गत अनेक वर्षों में हमने परलोक सिधार गए अनेक साहित्यकारों की गति देखी है। पता नहीं कितने विमर्शों में उलझे हम ‘सम्मान’ शब्द के अर्थ भूल ही गए हैं।
‘जनगाथा’ के इस अंक में राजस्थान की लघुकथा-यात्रा पर केन्द्रित सामग्री को रोककर श्रद्धेय विष्णु प्रभाकर को श्रद्धांजलिस्वरूप उनकी कुछ बाल-मन की लघुकथाएँ प्रस्तुत हैं।
विष्णु प्रभाकर की बाल-मन की लघुकथाएँ
शैशव
घर लौटकर वह देखता है कि उसकी मरणासन्न पत्नी के पलंग के पास उसका तीन वर्षीय पौत्र ध्यानस्थ बैठा कह रहा है, “हे भगवान! मेरी अम्मा को अच्छा कर दो।”
इस दृश्य पर वह चकित था और उसकी पत्नी तरल।
दो क्षण बाद वह दवा देने उठा तो उस बालक ने कहा, “मैं दूँगा दवा अम्मा को।”
पत्नी और-भी गदगद हो आयी। बोली, “अब मैं अच्छी हो जाऊँगी।”
लेकिन प्रभु ने बालक की गुहार अनसुनी कर दी। पत्नी अच्छी नहीं हुई। उसकी शव-यात्रा में बालक ने उसपर चँवर ढुलाया और घण्टा बजाया। कई दोन तक कहता रहा, “चँवर ढुलाकर, घण्टी बजाकर अम्मा को भगवान को दे आए। वह फिर आवेंगी।”
कुछ दिन बाद बालक के पिता बीमार हो गए। बालक मस्ती में शोर मचाता घूम रहा था। उसने कहा, “बेटे, शोर मत मचाओ, तुम्हारे पापा बीमार हैं।”
बालक ने तुरन्त सहज-भाव से पूछा, “वैसे ही बीमार हैं, जैसे अम्मा बीमार थीं? उन्हें भी भगवान के पास ले जावेंगे, घण्टी बजाकर, चँवर ढुलाकर।”
जैसे पृथ्वी डोली हो, वह सहम आया। चाहा कि एक थप्पड़ जड़ दे उसके गाल पर; लेकिन तभी उसकी दृष्टि बालक की आँखों पर जाकर अटक गयी। वहाँ तो शैशव बैठा मुस्करा रहा था, वीतराग-नि:संग।
तो अच्छा
बहुत पुरानी बात है। उसका बच्चा कई बार उससे क्रिकेट खेलने का सामान लाने के लिए कह चुका था। वह बार-बार उसको टाल देता था। एक दिन जब वह काम कर रहा था तो वह बालक उसके पास आया और क्रोध में भरकर बोला,“मैं कई दिन से तुमसे खेलने का सामान लाने के लिए कह रहा हूँ, लेकिन तुम लाते नहीं।”
“उसने सहसा बालक की ओर देखा और कहा,“हाँ, मैं ला नहीं सका।”
“क्यों नहीं ला सके?”
“क्योंकि पैसे नहीं हैं।”
बालक और भी उग्र होकर बोला,“सारा दिन मेज पर बैठे-बैठे लिखते रहते हो, इतने पैसे भी नहीं कमा सकते कि मेरे लिए खेल का सामान ला सको?”
उसने उदासीनता से कहा,“हाँ, नहीं कमा सकता।”
“तो कितना कमा सकते हो?”
“उतना, जितने में अपना और तुम-सबका पेट भरा जा सके।”
यह कहकर उसने बालक की ओर देखा कि वह और-भी उग्र हो उठेगा। लेकिन आश्चर्य, वह उतना ही शान्त हो आया और अपने स्वर में अत्यन्त करुणा भरकर बोला,“तो अच्छा।”
लेकिन बालक जितना शान्त हुआ, उसका पिता सहसा उतना ही अशान्त और उग्र हो उठा। उसका रोम-रोम जैसे उत्तेजित हो उठा हो। उसके जी में आया कि बालक का गला घोंट दे—इस दुष्ट का इतना साहस कि उससे सहानुभूति प्रकट करता है!
यह सब पलक मारते न मारते हो गया। जब उसे होश आया तो वह बालक जा चुका था। लेकिन वह इतना उद्विग्न हो उठा कि उस दिन कुछ काम न कर सका। उसका वह ‘तो अच्छा’ उसके लिए चुनौती बन गया।
शैशव का भोलापन
अपनी मेज पर बैठा लिखने में व्यस्त था। पास के कमरे में बच्चे खेल रहे थे। सहसा सुनता हूँ, मेरे भाई की पाँच वर्षीय बेटी मेरे छह वर्षीय बेटे से कह रही है,“मैं तुमसे शादी करूँगी।”
“कर लेना।” मेरे बेटे ने तुरन्त उत्तर दिया।
मैं कुछ सोच पाऊँ कि आठ वर्षीय बड़ा बेटा तुनककर बोल उठता है,“कर लेना? कैसे कर लेना? तू नहीं कर सकता शादी।”
मेरा छोटा बेटा भी भड़क उठता है, “क्यों नहीं कर सकता? मैं करूँगा।”
बड़ा बेटा सहसा बुजुर्ग हो उठा, “देख, पिताजी ने अम्मा से शादी की है न?”
“हाँ, की है।”
“अम्मा का घर कहाँ है—इलाहाबाद। पिताजी यहाँ दिल्ली में रहते हैं। तभी उनकी शादी हुई। तुम दोनों तो एक ही घर में रहते हो। तुम्हारी शादी कैसे हो सकती है?”
छोटा बेटा जैसे सोच में पड़ गया। दो क्षण सन्नाटा छाया रहा फिर वह मेरी भतीजी से कहता है,“हाँ, यह शादी नहीं हो सकती। मैं नहीं करूँगा तुमसे शादी।”
मैं साँस रोके भतीजी की प्रतिक्रिया की राह देखता हूँ कि जैसे तूफान आ जाता है। मेरी भतीजी चीख उठती है, “कैसे नहीं करेगा शादी, तुझे करनी होगी…।” और यह कहते-कहते अपने हाथ के खिलौने को मेरे छोटे बेटे के सिर पर दे मारती है और तीर की तरह भागती चली जाती है।
अब जो मेरी हँसी छूटती है तो मुझे यह भी पता नहीं रहता कि वे बच्चे भी जोर-जोर से हँस रहे हैं…हँसे जा रहे हैं।
शैशव की ज्यामिती—तीन कोण
माँ समझा-समझाकर परेशान हो गई। उसके चार वर्षीय बेटे टिंकू की शरारतों का अन्त नहीं था। सन्ध्या को पिता लौटे तो उसने बेटे की शरारतों की कहानी सुनाते हुए कहा,“हमारा बेटा बिगड़ता जा रहा है, उसे सँभालिए।”
किसी कारणवश पिता उस समय स्वयं बहुत त्रस्त थे। पत्नी की शिकायत सुनकर वे एकाएक क्रोध से उबल उठे। आव देखा न ताव, तैड़-से एक थप्पड़ टिंकू के गाल पर जड़ दिया,“बदतमीज, दिन पर दिन बिगड़ता जा रहा है।”
टिंकू एकदम जोर से चीख उठा, लेकिन तभी सहसा उसकी दृष्टि पापा के हाथ पर गयी। पाया कि उसमें चोट लगी है और जोर थप्पड़ मारने के कारण उसमें से खून रिसने लगा है। तब रोते-रोते वह एकाएक बोल उठा, “पापा, आप मुझे थप्पड़ न मारें। डण्डे से मारें।”
बच्चे शरारती होते ही हैं, पर अंशु कुछ अधिक ही उत्पाती था। कभी तो उसका उत्पात सीमा लाँघ जाता। उसके ममी-पापा उसे खूब प्यार करते थे, पर जब उसकी शरारतें थमती ही नहीं थीं तो वे उसे पीट भी देते थे।
ऐसे ही अवसर पर एक दिन उसके पापा ने उसके गाल पर जोर-से दो थप्पड़ जड़ दिए। एक बार तो अंशु सहम गया, लेकिन दूसरे ही क्षण गाल पर हाथ रखे-रखे और रोते-रोते उसने कहर-भरी दृष्टि से पापा की ओर देखा और कहा, “प्यार भी करते हो, मारते भी हो। हम नहीं बोलेंगे तुमसे। कुट्टी! कुट्टी!!”
और वह भागा-भागा कमरे से बाहर निकल गया।
मण्टू अपनी दादी का बहुत प्यारा था। इसलिए मरते समय वे विशेष रूप से मण्टू के पिता से कह गयी थी, “बच्चों डाँटना मत। प्यार से रखना।”
मण्टू के पिता स्वयं भी मण्टू को कम प्यार नहीं करते, परन्तु जब मण्टू की शरारतें सीमा लाँघ जाती हैं तो विवश होकर खंग-हस्त हो उठते हैं। ऐसे ही एक दिन जब बहुत समझाने पर भी मण्टू ने शरारत करना बन्द नहीं किया तो उन्होंने खीझकर उसके गाल पर तड़ाक-तड़ाक से दो तमाचे जड़ दिए।
मण्टू तड़प उठा, पर दूसरे ही क्षण उसने आग्नेय नेत्रों से पिता की ओर देखा और चीखकर कहा, “भगवान के पास जाते हुए अम्मा कह गयीं थीं—बच्चों को डाँटना मत, प्यार से रखना; और आप मुझे इतने जोर से मारते हैं। मैं अम्मा के पास चला जाऊँगा।”
और वह चीख-चीख कर रो उठा।
मोहब्बत
गाँव के प्राइमरी स्कूल में वह मेरा सहपाठी था। मेरा सहपाठी था। मेरी उसके साथ विशेष रूप से छनती हो, ऐसा नहीं था। फिर भी, एकाएक वह घटना घट गई। ईद का दिन था। उस गाँव में ऐसा रिवाज था कि उस दिन हिन्दू लोग अपनी गाय-भैंसों का दूध मुसलमानों को बाँट देते थे। बहुत सवेरे काम समाप्त हो जाता था। हमारी गाय-भैंसों का दूध भी उस दिन बँट चुका था। तभी मैंने देखा—मेरा सहपाठी लोटा लिए चला आ रहा है। लोटा खाली था। मैंने पूछा,“तुम्हें दूध नहीं मिला?”
उसने उत्तर दिया,“मुझे आने में देर हो गई। दूध सब बँट गया।”
सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मन में करुणा-सी पैदा हुई। करुणा तो उसे अब कहता हूँ, तब की उस अनुभूति को शब्द नहीं दे सकता। उम्र भी तो हम दोनों की यही नौ-एक साल की रही होगी। उस पर वह बहुत गरीब था। मैंने कहा, “जरा रुको।”
और मैं भागा-भागा अन्दर गया। अपनी माँ से सारी बातें कहीं। कहते-कहते स्वर कुछ भीग आता शायद। माँ ने मेरी ओर देखा। बोली,“दूध तो बेटा सब खत्म हो गया। तुम दोनों भाइयों के लिए बचा रखा है, बस…”
मैंने बिना सोचे तुरन्त कहा, “वही दे दो।”
माँ ने एक बार फिर मेरी ओर देखा। कुछ कहा भी, लेकिन अन्तत: वह दूध सईद को दे दिया। वह खुशी-खुशी चला गया। बात यहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। लेकिन जैसा कि रिवाज है, मुसलमान मित्र उस दिन सिवैयाँ बनाते हैं और अपने सब रिश्तेदारों और दोस्तों में बाँटते हैं। दोपहर को देखा कि सईद फिर हमारे दरवाजे पर खड़ा है! मैंने पूछा, “क्या बात है सईद?”
उसने भोलेपन-से जवाब दिया, “सिवैयाँ बनाई थीं न, तुम्हारे लिए लाया हूँ।”
मेरे चाचा पास ही खड़े थे। वे मुस्कराए। बोले, “तुम्हारे घर की सिवैयाँ क्या हम खा सकते हैं? किसने दी हैं?”
माँ भी वहीं खड़ी थीं। वह समझ गईं। बोलीं,“बेटे, हम लोग तुम्हारी पकाई हुई सिवैयाँ नहीं खा सकते। तुम बहुत अच्छे हो। इन्हें वापिस ले जाओ।”
सईद की कुछ भी समझ में नहीं आया। वह कभी मेरी ओर देखता, कभी मेरी माँ की ओर। माँ ने उसे फिर प्यार-से समझाया। अनबूझ-सा वह जाने के लिए मुड़ा, लेकिन न जाने क्या हुआ, कटोरा उसके हाथ से वहीं गिर पड़ा और सिवैयाँ चारों ओर बिखर गईं।
हठात मैंने सईद की ओर देखा। मुझे लगा—वे सिवैयाँ नहीं थीं, इन्सान की मोहब्बत थी जो मेरे दरवाजे पर पैरों से रौंदी जाने के लिए बिखरी पड़ी थी।
पिरीन पियारे पिराणनाथ
वह ग्यारह वर्ष का भी नहीं था, तब की बात है। उत्तर प्रदेश के एक प्रसिद्ध नगर में किसी नातेदार के पास ठहरा हुआ था। सड़क के एक किनारे उनकी बैठक थी। उस पार दुमंजिले पर कोई परिवार रहता था। उस परिवार की केवल स्त्री की याद है। कभी-कभी खिड़की से झाँकते देखता था। एक दिन इशारे से उसने उसे ऊपर बुलाया। आज उसकी जो मूर्ति उसके मस्तिष्क में उभरती है, वह इतनी ही है कि वह स्वस्थ थी। उसके गदराए हुए गालों पर निखार था और आँखों में थी चंचलता। बड़े प्यार-से उसने कहा,“एक चिट्ठी पढ़ दोगे?”
अब तक झिझक रहा था वह, लेकिन अपना गुण प्रकट करने का अवसर पाकर वह तुरन्त बोला, “हाँ-हाँ, मुझे पढ़ना आता है।”
वह मुस्कराई और अन्दर जाकर एक पत्र ले आई। किसी नारी के कच्चे अक्षरों में, लाइनदार कागज पर, दोनों ओर लिखा हुआ एक पत्र था। उस ‘पिरीन पियारे पिराण्नाथ’ से शुरू होनेवाली चिट्ठी को पूरा पढ़ जाने के बाद भी उसकी कुछ समझ में नहीं आया। अनबूझ-सा उस स्त्री की ओर देखता खड़ा रहा। अत्यन्त गम्भीरता-से वह बोली,“तुम्हारे मकान के बायीं ओर वाले घर में जो लड़की रहती है, उसी ने यह पत्र लिखा है।”
उसने बुद्धिमान बनने का गौरव झेलते हुए कहा, “किसको लिखा है?”
वह बोली, “तुम्हारे मकान के दाईं ओर जो मन्दिर है, उसी के पुजारी के लड़के को। लड़की उसे छिपे-छिपे प्यार करती है। दोनों बड़े…”
उसने और क्या-क्या कहा, उस बालक को ठीक याद नहीं है। पर, कहकर वह एकटक इस तरह उसकी ओर देखने लगी थी जैसे कोई गहन रहस्य प्रकट कर रही हो और उस पत्र पर उसकी प्रतिक्रिया जानने को अतिशय उत्सुक हो। पर वह निपट अबोध गूँगा खड़ा ही रहा और वह धीरे-धीरे बोलती रही। फिर एकाएक रुककर बोली, “कुछ खाओगे?”
और वह एक कटोरे में कुछ ले आई। उसे अपने पास खींचकर पुचकारा भी। पर उसने खाया नहीं। लेकिन आज भी, लगभग 60 वर्ष बाद, वह चेहरा उसके मस्तिष्क में उसी तरह अंकित है। भरा हुआ मुख, गदराए कपोल, बड़ी-बड़ी चंचल आँखें और रहस्यमय आत्मीयता से पूर्ण गहन-गम्भीर वाणी। उस मूढ़ और गूँगे बालक को प्रेम का रहस्य समझाती हुई वह नारी या तो अत्यन्त भोली थी या अत्यन्त प्यासी।
वह बच्चा थोड़े ही न था
वह एक लेखक था। उसके कमरे में दिन-रात बिजली जलती थी। तभी प्रकाश मिलता था। एक दिन क्या हुआ कि बिजली रानी रूठ गई। वह परेशान हो उठा। पाँच घण्टे हो गए।
तभी ढाई वर्ष का शिशु उधर आ निकला। मस्तिष्क में एक विचार कौंध गया। बोला, “बेटे, बिजली रानी रूठ गई है, जरा बुलाओ तो उसे।”
शिशु ने सहज-भाव-से पुकारा, “बिजली रानी, देर हो गई, जल्दी आओ।”
और संयोग देखिए, वाक्य पूरा होते न होते वह कमरा बिजली के प्रकाश में नहा उठा।
पापा वायुयान चालक थे। उस दिन वे समय पर घर नहीं लौटे। एक घण्टा, दो घण्टा, पूरे चार घण्टे हो गए। रात हो आई। मम्मी परेशान हो उठी।
तभी छोटी बच्ची भी पापा को पूछती-पूछती वहाँ आ पहुँची। मम्मी बोली, “बेटी, तुम्हारे पापा अभी तक नहीं आए। बहुत देर हो गई। तुम उन्हें पुकारो तो।”
बच्ची ने सहज-भाव-से पुकारा, “पापा, देर हो गई, अब आजाओ।”
तभी दरवाजे की घण्टी बज उठी। पापा खड़े मुसकरा रहे थे।कैसा अदभुत संयोग था यह!
उसकी पत्नी बहुत दूर चली गई थी। वहाँ—जहाँ से डाक भी नहीं आती। एक दिन उसने सोचा—यदि मैं सच्चे मन से पुकारूँ, तो क्या वह लौट नहीं आएगी?
वह सचमुच उसे बहुत प्यार करता था और उसका अभाव उसे बहुत खलता था। इसलिए एक दिन उसने पुकार लिया, “प्रिये, तुम लौट आओ, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पा रहा।”
पर वह नहीं आई।
वह गणित से अतीत बच्चा थोड़े ही न था।