Wednesday, 25 August 2010

पवन शर्मा की लघुकथाएँ


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घर-परिवार के बीच से कथानक चुनने और उन्हें सार्थक ऊँचाई प्रदान करने में पवन शर्मा सिद्धहस्त हैं। घर-परिवार से जुड़ी उनकी हर लघुकथा सामने घटित होती जान पड़ती है। अभी, हाल में उनकी 100 लघुकथाओं का संग्रह हम जहाँ हैं आया है। प्रस्तुत हैं उक्त संग्रह से तीन लघुकथाएँ:
॥1॥ आग
उसने दो रुपए का नोट निकालकर मोंटू के हाथ में थमाया और कहा,जल्दी में कोई चीज़ नहीं ला पाया…ले लेना।
फिर भाभी के पाँव छुए और बाहर निकल आया।
बाहर निकलते हुए भैया बोले,चल, तुझे बस-स्टैंड तक पहुँचा दूँ।
मैं निकल जाऊँगा। आपके ऑफिस का समय हो रहा है।
चल तो।
भैया ने सड़क पर चलते-चलते पूछा,तेरा पोस्ट-ग्रेजुएशन पूरा हो गया?
हाँ। उत्तर देते हुए वह विस्मित हो गया।
अब आगे?
कुछ नहीं…पूरी तरह घर पर बैठा हूँ। कहते-कहते वह भीतर तक सिकुड़ गया।
अम्मा और बाबू कैसे हैं रे? भैया ने पूछा।
उसके भीतर भक्क-से आग लगती है। पूरे तीन दिन से इनके यहाँ हूँअब चलते वक़्त पूछ रहे है!
ठीक हैं। उसने अपने भीतर की आग दबाई।
बस-स्टैंड में घुसते हुए वह कहता है,बाबूजी कह रहे थे कि अब तीन सौ से घर का खर्चा नहीं चल पाता है। कुछ-और भेज दिया करें।
सामने खड़ी बस का नम्बर देख भैया कहते हैं,यही बस जाएगी। तू यहीं रुक, मैं टिकट लेकर आता हूँ।
उसे लगा कि भैया ने उसकी बात सुनी ही नहीं है। उसके भीतर की आग फिर से सुलगती है।
थोड़ी देर बाद भैया हाथ में टिकट लिए लौटे और बोले,तू बस में बैठ, मैं चलता हूँ।
उसे टिकट थमाते हुए भैया ने जेब में से पचास रुपए का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाया,ले…रख ले…काम आयेंगे।
भैया थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले,बाबूजी से कहना कि शहर में तो पानी भी खरीदकर पीना पड़ता है।
उसके भीतर की आग न जाने क्यों एकदम ठंडी पड़ गयी।
॥2॥ बाप, बेटे और माँ
बूढ़ा बाप दर्द के मारे दुहरा हो गया और पेट पकड़कर बिस्तर पर बैठ गया। तीनों बेटे पलंग के आसपास खड़े अपने बाप को देख रहे थे। तीन दिन से यही हाल है। बड़ा बेटा डॉक्टर की सलाह पर जो भी दवा-गोली दे देता, बाप खा लेता, पर दर्द खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
आज बड़े अस्पताल ले चलते हैं पिताजी कोइलाज करवा लें। बड़ा बेटा बोला।
और नहीं तो क्याकहीं कुछ हो गया तो दुनिया कुछ की कुछ बोलेगी। छोटे बेटे ने कहा।
बाप का दर्द जरा कम हुआ। वह सीधा होकर पलंग पर बैठ गया। उसने पीने के लिए पानी माँगा। छोटा बेटा दौड़कर एक गिलास पानी ले आया। बाप ने गट-गट करते पूरा गिलास खाली कर दिया।
तू चले जाना पिताजी के साथ अस्पताल। आज मुझे ऑफिस जल्दी जाना है। बड़े बेटे ने छोटे से कहा।
मैं! छोटा बेटा चौंका।
और नहीं तो क्या…तू ही चला जा। आज मुझे भी काम है, नहीं तो मैं ही चला जाता। मँझले बेटे ने बड़े का समर्थन किया।
पर मैं तो आज तक अस्पताल नहीं गयाऔर फिर मैं अकेला कैसे सँभाल पाऊँगा पिताजी को? छोटे बेटे ने कहा।
तो फिर पिताजी को कौन ले जाएगा? मँझले बेटे ने प्रश्न किया।
तीनों बेटों ने एक-दूसरे की तरफ देखा।
तुम लोग परेशान मत होओ…मैं तुम्हारी माँ के साथ चला जाऊँगा। बाप ने धीमे स्वर में कहा।
तीनों बेटों के सिर पर से जैसे रखा मनों वज़न हट गया हो!
॥3॥ उतरा हुआ कोट
देखो, दिनेश ने कितना बढ़िया कोट दिया है। अच्छा लग रहा है न? पिताजी कोट पहने हुए कह रहे हैं माँ से। आज सुबह ही लौटे हैं।
हाँ-हाँ…क्यों न लगेगा अच्छा, जब बेटे का उतरा हुआ कोट बाप पहनेगा तो। तुम्हें तो उसने अपने उतरे हुए कपड़े ही दिये हैं पहनने को। नौकरी के इतने साल हो गये…नये सिलवाये हैं कभी? माँ सहज रूप से कहती हैं।
इतनी सहजता से कही गई बात निश्चित रूप से सत्य हैयह तो पिताजी भी जानते हैं।
पिताजी पहने हुए कोट पर हाथ फिराते जाते हैं और खुश होते जाते हैं।
वह जानते हैं कि अपने ऑफीसर बेटे को नाराज करके वह कहीं के नहीं रहेंगे।
पवन शर्मा : संक्षिप्त परिचय

Thursday, 8 July 2010

समकालीन लघुकथा और माँ

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माँ को केन्द्र में रखकर लिखी गई समकालीन लघुकथाओं का एक संकलन कथाकार प्रतापसिंह सोढ़ी के सम्पादन में लघुकथा संसार:माँ के आसपास नाम से आया है। इसमें देशभर के 62 कथाकारों की 101 लघुकथाएँ संकलित हैं। जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं उक्त संकलन से कुछ रचनाएँ:


॥1॥ संबोधन/खुदेजा खान
बाहर से किसी बूढ़े भिखारी ने टेर लगाई,माँ…ऽ…मुट्ठी दे माँ…ऽऽऽऽ…
इतना सुनते ही वो वृद्ध महिला चावल का कटोरा ले उस बूढ़े भिखारी की झोली में डालने के लिए दौड़ पड़ती है।
एक तो ये बूढ़ा भिखारी ऊँचा सुनता है, जब तक बाहर निकलकर दिख न जाए तब तक पुकारता रहता है। उसकी पुकार से वृद्ध पुरुष खीझ उठता—“तुमने बहुत लपका लिया है उसे, असमय आकर ऐसे चिल्लाता है जैसे उसका उधार खाए बैठे हैं। इकट्ठा राशन क्यों नहीं दे देती उसको?
वृद्ध महिला बड़ी धीरता से बोली,इकट्ठा राशन दे भी दूँ, लेकिन वो जो माँ बोलकर बुलाता है, उसमें बड़ी आत्मीयता झलकती है। अब अपने बच्चे तो साथ रहते नहीं, माँ सुनने को तरस जाता है मन। कम-से-कम ये अभागा आकर मेरी ममता को तो छू जाता है।
वृद्ध पति, पत्नी के मर्म को समझकर सम्बोधन की आर्द्रता में भीग गया।
सम्पर्क:धर्मपुरा, चित्रकूट रोड, जगदलपुर(छत्तीसगढ़)

॥2॥ मेरी प्यारी माँ/पारस दासोत
दीपावली का दिन…
माँ! आज तो मैं मिठाई खाकर रहूँगा। माँ! राजा बाबू की सफेद मिठाई-जैसी खाऊँगा, हाँ।
मेरे शेर, मेरे लाल! आज नहीं…आज नहीं।
बच्चा रोने लगा।
राजा बेटे, रोते नहीं। ठहर, मैं अभी तेरे लिए मिठाई लाती हूँ।
इन्हीं शब्दों के साथ माँ रसोई की ओर चली गई। थोड़ी देर बाद, माँ के हाथ में मिठाई थी।
ले, ये ले सफेद मिठाई।
माँ! तू कितनी अच्छी है। क्यों माँ, ये दिवाली रोज क्यों नहीं आती? बच्चे ने मिठाई को अपने मुँह में रखते हुए पूछा।
आएगी-आएगी, रोज-रोज आएगी। बेटे! तू बड़ा होकर काम तो कर!
इस उत्तर के साथ माँ पास ही रखे टिमटिमाते दिये को निहारती, गुड़-आटे से सनी अपनी अंगुलियाँ चाट रही थी।
सम्पर्क:प्लॉट नं 129, गली नं 9, क्वींस रोड, जयपुर(राजस्थान)

॥3॥ हक़ अदा कर दिया/मुइनुद्दीन अतहर
बुढ़िया के तीन बेटे थे, तीनों सरकारी विभाग में अच्छे पदों पर आसीन थे। अच्छी आय थी।
आज उनकी माँ का तीजा था। मस्जिद में क़ुरआन-ख्वानी हो रही थी। पढ़ने वालों को बाँटने के लिए लाई, चना, चिरौंजी, काजू, किशमिश तथा मिश्री मिश्रित बड़े-बड़े दाने बनाए गए थे।
दसवें तथा बीसवें में रिश्तेदारों तथा मोहल्ले वालों को खूब अच्छा-अच्छा खाना खिलाया गया। किसी परिचित ने पूछा,मियाँ, फकीर नहीं दिख रहे हैं! क्या उन्हें नहीं बुलाया गया?
जवाब मिला,फकीर लोग आजकल बुलाने वालों की हैसियत देखकर आते हैं। इसलिए उन्हें नहीं बुलाया गया।
जिस अभागी माँ को तीनों बेटों ने जीवन में कभी अच्छा खाना नहीं खिलाया, माँ को माँ की तरह नहीं रखा, आज उन तीनों बेटों ने अपनी माँ के चालीसवें में दिल खोलकर खर्च किया। रिश्तेदारों तथा मोहल्ले वालों को बिरयानी व मुर्ग-मुसल्लम खिलाया गया। जिस माँ को कभी अच्छे कपड़े नसीब नहीं हुए, आज गरीबों को उनके नाम से कपड़े बाँटे जा रहे हैं। एक छोटे-से बिना हवा-पानी वाले कमरे में रहने वाली माँ की कब्र को खूब सजाया-सँवारा गया। कब्र की पहचान के लिए माँ के नाम का संगमरमर का पत्थर भी लगाया गया तथा इत्र की खुशबू छिड़ककर गुलाब के गजरों से लाद दिया गया।
तीनों भाइयों का कहना था—“हमने अपना हक़ अदा कर दिया।
सम्पर्क:1308, अजीजगंज, पसियाना, शास्त्री वार्ड, जबलपुर(मध्य प्रदेश)
प्रतापसिंह सोढ़ी : संक्षिप्त परिचय
प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। साहित्य की सभी विधाओं में लेखन। अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। लघुकथा संग्रह शब्द संवाद प्रकाशित। मासिक पत्रिका शहादत एवं संप्रति, कविता संकलन काव्यकुंज, लघुकथा संकलन समप्रभ तथा लघुकथा संसार:माँ के आसपास का सम्पादन।
सम्पर्क:5, सुखशान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इंदौर(मध्य प्रदेश)
मोबाइल:09753128044

Wednesday, 16 June 2010

नींव के नायक


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माह में अशोक भाटिया द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन नींव के नायक प्रकाश में आया है। नींव के नायक में माधवराव सप्रे, प्रेमचन्द, माखनलाल चतुर्वेदी, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, जयशंकर प्रसाद, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, छबीलेलाल गोस्वामी, जगदीशचन्द्र मिश्र, सुदर्शन, रामवृक्ष बेनीपुरी, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, यशपाल, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामधारी सिंह दिनकर, उपेन्द्रनाथ अश्क, रावी, विष्णु प्रभाकर, जानकीवल्लभ शास्त्री, रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाई, दिगंबर झा, आनन्द मोहन अवस्थी, शरद कुमार मिश्र शरद, ब्रजभूषण सिंह आदर्श, श्यामनन्दन शास्त्री, पूरन मुद्गल, युगल, सुरेन्द्र मंथन तथा सतीश दुबे यानी 29 कथाकारों की कुल 177 लघुकथाएँ संगृहीत हैं। पुस्तक में उनका शोधपूर्ण लेख सन् 1970 तक की लघुकथाएँ भी है जिस पर चर्चा अलग से की जा सकती है। जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं उक्त सकलन से तीन लघुकथाएँ:
जमा-खर्च/अयोध्या प्रसाद गोयलीय
हमारे मुहल्ले में एक बुजुर्ग थे। खरी-खरी कहने में किसी से चूकते नहीं थे। उनसे बात करते हुए लोग घबराते थे। एक रोज एक युवक रोते हुए आकर बोला,ताऊजी, लाला काल कर गए।
आपने अन्यमनस्क भाव से जवाब दिया,अच्छा हुआ।
युवक सकते में रह गया कि यह इन्होंने क्या कहा? मेरे पिताजी मर गए, सहानुभूति प्रदर्शित करने की बजाय कहते हैं, अच्छा हुआ। मनोव्यथा दबाकर बोला,अभी रात को ले जाने का इरादा है।
वे उसी तरह बोले,सुबह भी ले जा सको तो गनीमत है।
यह क्यों ताऊजी?
भाई अपना खाता देख लो। किसी की अर्थी को कन्धा दिया होगा तो उन्हें भी कन्धा देने वाले मिलेंगे। वर्ना झल्ली वालों से लाश उठवानी पड़ेगी।
और सचमुच उनका कहा सत्य हुआ।
मुहल्ले के दो-चार रईसों की आदत थी कि मुर्दनी में साथ न जाकर कारों-ताँगों से सीधे श्मशान-घाट पहुँच जाते थे। न अर्थी को कन्धा देते, न हाथ लगाते थे। उनका यह व्यवहार लोगों को खटकता तो था, परन्तु कहने का साहस नहीं होता था। उस रोज उक्त बुजुर्ग उन्हें सुनाकर कहने लगा,भाई, अबकी इनके यहाँ किसी की मौत हुई तो हम भी टैक्सी में श्मशान-घाट आयेंगे।
तब से उन रईसों ने मोटरों-ताँगों में श्मशान-घाट जाना छोड़ा। (1951)
संस्कृति/हरिशंकर परसाई
भूखा आदमी सड़क के किनारे कराह रहा था। एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुँचा और उसे दे ही रहा था कि एक दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया। वह आदमी बड़ा रंगीन था।
पहले आदमी ने पूछा,क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते?
रंगीन आदमी बोला,ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते। तुम केवल उसके तन की भूख समझ सकते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ। देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय ऊपर। हृदय की अधिक महत्ता है।
पहला आदमी बोला,लेकिन उसका हृदय पेट पर ही तो टिका हुआ है। अगर पेट में भोजन नहीं गया, तो हृदय की टिक-टिक बंद हो जाएगी!
रंगीन आदमी हँसा; फिर बोला,देखो, मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी!
यह कहकर वह उस बूढ़े के सामने बाँसुरी बजाने लगा। दूसरे ने पूछा,यह तुम क्या कर रहे हो? इससे क्या होगा?
रंगीन आदमी बोला,मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ। तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राग से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी।
वह फिर बाँसुरी बजाने लगा।
और तब वह भूखा उठा। उसने बाँसुरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी। (1956)
स्नेह का स्वाद/शरद कुमार मिश्र शरद
मकान के आँगन में नन्हे-मुन्ने शिशु आँख मिचौनी खेल रहे थे। खेलते-खेलते एक बच्चा धक्का खाकर जमीन पर आ गिरा। उसके होठों से खून निकल आया, फिर भी वह रोया नहीं। उसने एक बार अपने चारों ओर देखा और यह अनुभव कर कि उसे किसी ने नहीं देखा, झट खड़ा हो खेलने लगा।
बच्चों की किलकी सुनी तो माँ ने बाहर झाँककर देखा और चिल्लाकर बोली,पप्पू, इधर चलो, चोट लग जाएगी।
हम नहीं आते अम्मा, खेल रहे हैं। कहकर वह फिर दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते एक बार फिर ठोकर खाई तो गिर पड़ा। माँ उसे उठाने दौड़ी तो रो पड़ा।
अब क्या था, ज्यों-ज्यों माँ बच्चे को चुप करने की चेष्टा करती, त्यों-त्यों वह और अधिक रोता, हालाँकि इस बार उसे चोट क्या खरोंच भी न आई थी। फिर भी वह हिड़कियाँ भर रहा था। माँ पुचकार रही थी, मुँह चूम रही थी, और बच्चा स्नेह का स्वाद ले रहा था! जिद्दी हो रहा था। (1957)

Saturday, 1 May 2010

मधुदीप की लघुकथाएँ

-->रिष्ठ कथाकार मधुदीप 30 अप्रैल 2010 को सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुके हैं। दिशा प्रकाशन के प्रबन्धक एवं उपन्यासकार के तौर पर वह गत कई दशकों से समाज एवं साहित्य की सेवा में भी रत हैं जिससे निवृत्ति वे शायद न ले पाएँ। फिलहाल, सरकारी सेवा से निवृत्ति के अवसर पर उन्हें शतश: शुभकामनाएँ।
लघुकथाकार के रूप में मधुदीप की विशेषता यह है कि उनके पात्र किसी दुविधा अथवा दवाब में नहीं जीते। इसका तात्पर्य यह बिल्कुल भी नहीं है कि वे अपने समय और सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित नहीं हैं; बल्कि ऐसा इसलिए होता है कि वे निर्णय लेने में सक्षम हैं। यद्यपि उनके सामने हिस्से का दूध के पति जैसी परिस्थिति भी उत्पन्न होती है और खुरंड के उस व्यक्ति जैसी भी जिसकी उम्मीदों पर कारखाने की तालाबन्दी पानी फेर देती है। बावजूद इस सबके उनके पात्र एलान-ए-बगावत, तनी हुई मुट्ठियाँ, अतित्वहीन नहीं जैसे जुझारू चरित्र के कारण समकालीन लघुकथा में अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम हैं। जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं उनके कथा-संग्रह मेरी बात तेरी बात से तीन लघुकथाएँ:

अस्तित्वहीन नहीं
उस रात कड़ाके की ठंड थी। सड़क के दोनों ओर की बत्तियों के आसपास कोहरा पसर गया था।
रोज़ क्लब के निकास-द्वार को पाँव से धकेलते हुए वह लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। झट दोनों हाथ गर्म पतलून की जेबों के अस्तर छूने लगे।
बरामदे में रिक्शा खड़ी थी। उसकी डबल सीट पर पतली-सी चादर मुँह तक ढाँपे चालक गठरी-सा बना लेटा था। घुटने पेट में घुसे थे।
रिक्षा देखकर उसका चेहरा चमक उठा।
खारी बावली चलेगा…? वह रिक्शावाले के समीप पहुँचा।
उधर से चुप्पी रही।
चल, दो रुपए दे देंगे। युवक ने उसके अंतस को कुरेदा।
दो रुपैया से जियादा आराम की जरूरत है हमका।
साले! पेट भर गया लगता है… नशे में बुदबुदाता हुआ जैसे ही वह युवक आगे बढ़ा…
तड़ा…ऽ…क!!! रिक्शेवाले का भारी हाथ उसके गाल पर पड़ा।
क्षणभर को युवक का नशा हिरन हो गया। वह अवाक्-सा खड़ा उसके मुँह की ओर देख रहा था।
रिक्शावाला सीना फुलाए उसके सामने खड़ा था।

रुदन
अर्से से बीमार पति को एक रात धरती पर उतार लिया गया। सारा परिवार रोने-पीटने लगा था। नीरा को गहरा सदमा पहुँचा था। वह जड़ हो गई। उसकी रुलाई नहीं फूट रही थी। प्रतिदिन वह गीता का पाठ करती थी, वह शायद इसी का प्रभाव रहा हो।
सियापे के मध्य दूर कोने में बैठी सास-ननद उसे सुनाते हुए बत्तियाने लगी थीं
रोयेगी क्यों? इसकी तो मुराद पूरी हो गयी! वे सिसक रही थीं।
पीहर में जाकर मौज उड़ाएगी, रोये इसकी जूती! इसके मन में तो लड्डू फूट रहे हैं।
इसका क्या, दूसरा कर लेगी। राँड तो वो जिसका मर जाए भाई… ननद ने घृणित स्वर में कहा।
अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी, नीरा का हृदय फटने लगा और वह दहाड़ मार-मारकर रोने लगी।
अब सास-ननद के साथ सारा मोहल्ला उसे ढाढ़स बँधा रहा था।

बंद दरवाज़ा
उसके शरीर पर फटी-पुरानी मर्दानी कमीज़ थी जो अपना असली रंग खो चुकी थी। उसकी तरह मटमैली ही थी, बस। उसके धूल से भरे मैले पाँवों पर, पसीना आने से कुछ आधुनिक चित्र-से बन गए थे। मन्दिर के मुख्य-द्वार पर खड़ी वह बड़े चाव से नाक की गन्दगी निकाल-निकालकर फेंक रही थी।
यहाँ क्यों खड़ी है हरामजादी! कोई मन्दिर में आयेगा तो तेरी गन्दी परछाई उस पर पड़ेगी। चल दूर हो यहाँ से…। पण्डित की क्रोध उगलती लाल आँखें देख वह आठ वर्षीया बच्ची सहम गयी थी।
मेरी माँ अन्दर गई है। उसका डरा-सा स्वर बस इतना ही उभर पाया था।
पण्डितजी की लाल आँखें खुमार से मुँदने लगी थीं।
अच्छा, कोई बात नहीं। यहीं पर खेल ले। कहते हुए पण्डित तेज कदमों से अन्दर की ओर चल पड़ा।
दरवाज़ा खटाक-से बंद हुआ।
नन्हीं बच्ची बंद दरवाजे को देर तक निहारती रही।

मधुदीप : संक्षिप्त परिचय
मूल नाम: महावीर प्रसाद
जन्म : 1 मई 1950 को हरियाणा के गाँव दुजाना में
शिक्षा: कला स्नातक
मौलिक कृतियाँ: 7 उपन्यास, 1 कहानी संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह व 1 बाल उपन्यास
संपादित कृतियाँ: 2 लघुकथा संकलन तथा 3 कहानी संकलन
हिमप्रस्थ पुरस्कार से सम्मानित
सम्प्रति: निदेशक, दिशा प्रकाशन
सम्पर्क: 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035
मोबाइल: 9312400709

Friday, 23 April 2010

अशोक भाटिया की लघुकथाएँ



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जंगल में आदमी के बाद कथाकार अशोक भाटिया का दूसरा लघुकथा संग्रह अंधेरे में आँख आया है। इस संग्रह में उनकी कुल 95 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं उक्त संग्रह से तीन लघुकथाएँ
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॥1॥ पसीने की कहानी

क बहुत अमीर आदमी था। उसके पास बहुत बड़ा महल था। देशी-विदेशी लंबी कारें थीं। एक और दो नम्बर की अकूत संपत्ति थी। जीवन में सुख की खोज भी, मानो उसी ने की थी।
लेकिन उसकी एकमात्र समस्या थी कि उसे पसीना बहुत आता था। घर में एयर-कंडीशनर लगे थे। फिर भी; घर से बाहर निकलने या पाखाना जाते समय वह पसीने से नहा उठता था। उसकी आस्तीनों और पैरों के नीचे से पसीना बहुत निकलता था। ऐसे में उसके कपड़े और परफ्यूमसब बेकार हो जाते थे। वह सोच में डूब गया…इस पहाड़ को कैसे पार करे! दसों दिशाओं में खास आदमी दौड़ाए गए। कई तरह की दवाएँ आज़मा कर देख लीं। पर पसीना जस का तस था। ठाठ-बाट में उसकी रुचि कम होती गई। उसकी चिंता बढ़ती गई। उसकी सेहत गिरने लगी।
आखिर उसके मंत्रियों ने आपात-बैठक करके, एक उपाय निकाला। सारे राज्य में विज्ञापित करवा दिया कि जो भी उसका पसीना बहना बंद कर देगा, उसे मुँह-माँगा ईनाम दिया जाएगा।
कई वैद्य और डॉक्टर आए। सभी ने अपनी-अपनी समझ से उसके लिए दवाएँ बना कर दीं। पर उसका पसीना था कि बंद होने का नाम ही न लेता था।
इसी चिंता में वह दिनों-दिन सूखता चला गया। आखिर एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। तब कहीं जाकर उसको पसीना आना बंद हुआ।
॥2॥ शेर और बकरी:दूसरी लघुकथा
रपेट मांस खाकर शेर बकरी की तलाश में निकल पड़ा। भटकता हुआ वह जंगल से बाहर निकल गया। थोड़ी दूरी पर एक कस्बा था। शेर उधर ही चल पड़ा। कस्बे के बाहर कुछ बकरियाँ एक घाट पर पानी पी रही थीं। शेर ने कुछ देर प्रतीक्षा करना ही ठीक समझा। पानी पीकर सारी बकरियाँ चल पड़ीं। सिर्फ एक बकरी रह गई।
शेर चुपके-से उसके निकट जाकर बोला,थोड़ा-सा पानी मैं भी पी लूँ?
बकरी ने सोचा,मुझे कितना महत्व दे रहा है!…इतना तो चुनावों में विधायक भी जनता को नहीं देता!! उसने आँख झपककर स्वीकृति दे दी, हालाँकि घाट उसका नहीं था।
इस प्रकार शेर ने शिकार के लिए नए घाट पर अपनी जगह बना ली।
॥3॥ एक बड़ी कहानी
ढ़ने की सनक आदमी से पढ़वा लेती है। मक़सद है पढ़ना। कहाँ तक पढ़ा, कैसे पढ़ायह महत्व नहीं रखता।
पिछले दिनों मुझे कुरआन शरीफ पढ़ने की ललक लगी। मैं रामचरितमानस, गीता और गुरुग्रंथ साहिब तो पढ़ चुका हूँ। पर अब हालात ऐसे हैं कि पढ़ने के लिए समय ही नहीं निकाल पाता। दफ्तर के बाद घर की चिल्ल-पौं से ही फुरसत नहीं मिलती।
मैंने क़ुरआन शरीफ जैसे-तैसे पढ़ने के बाद सोचा कि अब मित्रों से इस पर चर्चा की जाए। रामजीलाल मुझे गाहे-बगाहे मिल जाता है। सुबह वह राशन की दुकान पर मिल गया। मैंने उसे बताया कि पिछले दिनों मैंने क़ुरआन शरीफ पढ़ा है।
मैं आगे कुछ कहता कि उससे पहले ही वह बोला—“अरे! हिन्दू होकर मुसलमानों का धर्मग्रंथ पढ़ता है? तू सच्चा हिन्दू नहीं हो सकता। और अपना सामान उठाकर वह तेजी से मुड़ गया।
दोपहर को, जब मैं शहर के मशहूरइरफान टेलर से कमीज लेने गया, तो उसे भी बताया कि वक्त की कमी के बावजूद मैंने खाना खाते, चाय पीते हुए दो महीनों में ही पूरा क़ुरआन शरीफ पढ़ लिया है।
दरअसल, इरफान उस वक्त खाली था सो बातचीत का मौका था।
पर वह बोला—“जनाब, आपने यह अच्छा नहीं किया कि खाने-पीने के साथ इतने पाक ग्रंथ को पढ़ा। इसे पढ़ने की बाकायदा एक तहजीब होती है!
मेरे पास चुप रह जाने के अलावा कोई चारा न था।
क़ुरआन शरीफ में क्या है, क्यों है?इस पर चर्चा का इंतजार है। आप में-से है कोई?
डॉ अशोक भाटिया : संक्षिप्त परिचय
जन्म : 5 जनवरी, 1955 को अंबाला छावनी(हरियाणा) में
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), पी-एच डी
मौलिक पुस्तकें : समकालीन हिन्दी समीक्षा(आलोचना, 1979), जंगल में आदमी(लघुकथा संग्रह, 1990), समुद्र का संसार(बाल साहित्य, 1991/हरियाणा साहित्य अकादमी से प्रथम पुरस्कृत), समकालीन हिन्दी कहानी का इतिहास(शोध, 2003), सूखे में यात्रा(कविता संग्रह, 2003), हरियाणा से जान-पहचान(बाल साहित्य, 2004),
संपादित पुस्तकें : श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएँ(1990), चेतना के पंख(1995), पेंसठ हिन्दी लघुकथाएँ (2001), श्रेष्ठ साहित्यिक निबंध(2002), निर्वाचित लघुकथाएँ(2005), अनुवाद, अनुभूति और अनुभव(2006), विश्व साहित्य से लघुकथाएँ(2007)
अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संपर्क : 1882, सेक्टर 13, करनाल-132001(हरियाणा)
फोन : 0184 2201202 मोबाइल: 9416152100

Friday, 2 April 2010

सुधा भार्गव की लघुकथाएँ

-->॥1॥ दूध के दाम
शादी के करीब 15 वर्ष बाद अविनाश के घर में बच्चे की किलकारी सुनाई दी। उसका रोना भी कानों में शहद घोलता। शिशु चार मास का भी नहीं हो पाया था कि माँ का दिन का चैन और रात की नींद कपूर की तरह उड़ गए। घड़ी-घड़ी बच्चा रोता,दिन में मुरझाया-सा रहता।
लेडी डाक्टर ने बताया,बच्चे का माँ के दूध से पेट नहीं भरता है। कम से कम छह मास तक उसका दूध पीता तो अच्छा था। अब गाय का दूध या डिब्बे का दूध पिलाना पड़ेगा।
दुर्भाग्यवश दोनों दूध बच्चा हजम न कर पाया और उसका पेट गड़बड़ा गया। अंत में लेडी डाक्टर ने सुझाव दिया,माताश्री दुग्ध केंद्र चले जाइये। वहाँ कुछ कुछ व्यवस्था हो ही जायेगी।
केंद्र की अध्यक्षा ने एक मोटी-ताजी महिला को अविनाश के साथ कर दिया जो उसके बच्चे की दुग्धपान की आवश्यकता को पूरी कर सके। निश्चित हुआ कि वह रोज 200 रुपये लेगी। अच्छी खुराक के साथ 4 लीटर दूध भी पीना उसके लिए जरूरी है।
अधर में लटके अबिनाश को किनारा मिला। वह महिला बड़े प्यार से उस बच्चे का ध्यान रखती। उसका नाम गोमती था। ग्वाले से अकसर वही दूध लिया करती। पिछले दो दिनों से उसने आना बंद कर दिया था। गृहिणी ने ग्वाले को बुलाया।
बड़ी मिन्नतों के बाद तो वह आया और बोला,मेमसाहब, हम कितने दिनों से बोल रहे हैंदूध का दाम बढ़ाओ, दाम बढ़ाओ। सरकार तक मदर डेरी के दूध-दही के दाम बढ़ाने जा रही है।
तुम्हारी और सरकार की बराबरी है क्या? उसे तो देश सँभालने के लिए पैसा चाहिए।
हम बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानते, सरकारी लोग देश को सँभाले हैं या स्वयं को। पर इतनी बात जरूर है कि हमें अपने खेत, जानवर, बीवी-बच्चे सबको सँभालना है। साथ में गाय-भैंस भी हैं।
पशुओं के चारे की क्या कमी है? उन्हें तो जंगल में छोड़ देते हो।
जंगल…जंगल नेता लोगों ने कहाँ छोड़े? आपकी ये शानदार इमारतें पशुओं का चारा चर गईं। चारा भी खरीदना पड़ता है। उसने कहा। फिर बोला,छोड़िये मेमसाहब! आप ये सारी बातें नहीं समझेंगी। इस महीना से हम 16 की जगह 22 रूपये किलो के हिसाब से दूध देंगे। साफ बात…एक बात।
पास में खड़ी गोमती उनका वार्तालाप बड़े ध्यान से सुन रही थी। ग्वाले के जाने के बाद वह बोली,माई जी, दाम तो हमारे दूध के भी बढ़ाने होंगे। मानुष दूध तो सबसे ज्यादा कीमती है।
बच्चे के रोने की आवाज सुनकर वह उसकी ओर दौड़ी। जाते-जाते सुना गई—“देखा माई जी, लल्ला हमारे बिना एक मिनट नहीं रह सके।
॥2॥ पहनूँगी इन्हें
मौसी ,ये चूड़ियाँ रख लो।
अरे, ये तो बड़ी सुन्दर हैं, तूने बनाई हैं संतो?
हाँ ,इन्हें मैं अपनी शादी के समय पहनूँगी। मेरी कलाई पर खूब फबेंगी। माँ को नहीं बताना वरना वह पहन डालेगी। कहते -कहते संतो हाँफने लगी। खाँसी का जोर आया, ढेर-सा खून उगल दिया। मौसी घबरा उठी। गर्म पानी से कुल्ले कराकर उसे चाय पिलाई। सीने में सेक आते ही संतो तो सो गयी पर मौसी भयभीत हिरनी-सी उसे घूरने लगी।
नींद टूटने पर संतो, मौसी की नजरों का सामना नहीं कर पाई।
संदेह की चादर ने उसे ढक दियाकहीं मेरी बीमारी का पता तो नहीं लग गया! I
मौसी की घुटन बाहर आई—“बेटी, अपनी सेहत का ध्यान रखना, कहीं तेरा
सपना अधूरा रह जाये।
कोई ख़ास बात नहीं है। दवा तो रोज पीती हूँ। उसने झूठ का पैबंद लगाने की कोशिश की।
सच कुछ और ही था। चूड़ी के कारखाने में काँच की धूल उसके फेंफडों में जम कर रह गयी थी। उसे लगता, काँच के महीन टुकड़े उसके अंग-अंग को छेदे जा रहे हैं जिन्हें वह निकाल पाती है न सहन कर पाती है।
गहरी साँस छोड़ते हुए मौसी ने सुझाव दिया,कुछ दिन की छुट्टी ले ले।
कैसे ले लूँ! चूड़ियों की काट-छाँट में मेरा जैसा किसी का हाथ नहीं। संतो का जवाब था,मालिक तारीफ करते नहीं अघाता। दिन के हिसाब से मुझे मजूरी मिलती है, माँ तो एक दिन घर नहीं बैठने देगी।
संतो हँसते हुए चली गई। पर वह हँसी दिनोंदिन लुप्त होती गयी और जीवन के सोलह बसंत देखने से बहुत पहले तेरह वर्ष की उम्र में ही एक दिन निर्दयी समाज से उसने छुटकारा पा लिया। जीते-जी उसकी साध पूरी हो सकी लेकिन मृतक शरीर को चिता पर लेटाते समय लोगों ने देखाउसकी कलाई में मीने की दर्जन भर लाल-हरी चूड़ियाँ झिलमिला रही थीं।
॥3॥ आतंकवादी
पिंटू अपनी दादीजी के साथ टी.वी. में समाचार सुन रहा थाशहर में आतंकवादियों ने डेरा जमा लिया है। सावधान रहें।
दादी माँ, ये आतंकवादी कौन होते हैं?”
बड़े बुरे लोग होते हैं। खुद खुश रहते हैं दूसरों को खुश रहने देते हैं। अपनी बात मनमाने के लिए दूसरों को डराते-धमकाते रहते हैं। दादी ने बताया।
पिंटू, काफी देर हो गयी है। अब अपने कमरे में जाकर सो जाओ।पास में बैठे पापा ने आज्ञा दी।
पापा देखोआतंकवादी!
हाँ-हाँ देख रहा हूँ। पर तुम यहाँ से उठ जाओ। पापा के स्वर से लगता था कि ज्वालामुखी बस फटा, अब फटा।
पिंटू बेमन से उठा और पापा को घूरते हुए जाने लगा। सोने का उपक्रम किया मगर नींद कहाँ! अचानक उसके दिमाग में कौंधापापा आतंकवादी तो नहीं!
सुबह स्कूल में अपने साथी से पिंटू बोला,शिन्तू, हमारे घर में आतंकवादी घुस आया है, क्या किया जाये?”
समस्या तो गंभीर है।
कल टी.वी. में भी आतंकवादी थे।
तब आज टी.वी. खोलकर देखना। पता चल जायेगा कि उसने आतंकवादियों के साथ क्या किया।
शाम को पिंटू टी.वी. खोलकर समाचार सुनने लगादो आतंकवादी पकड़े गये हैं और पुलिस की हिरासत में हैं अगर आपको किसी पर आतंकवादी होने का शक हो तो तुरंत सूचना दें। फोन न. है55555555।
पिंटू ने आनन् -फानन में डायल घुमा दिया—“जल्दी आइये, आतंकवादी के आने का समय हो गया है।
आपका पता क्या है?”
चाट वाली गली, फ्लैट नम्बर 111।
संध्या समय एक तरफ से पिंटू के पापा की कार आकर रुकी। दूसरी ओर से पुलिस के जवान जीप से धड़-धड़ करते हुए उतर पड़े। कुछ ने घर को घेर लिया, कुछ अन्दर घुस गये, कुछ घर के बाहर खड़े रहे। पिंटू के पापा भौंचक्के!
क्या यह आपका घर है?” पुलिस अधिकारी ने पूछा।
जी हाँ! पिंटू के पापा ने जवाब दिया।
हमें सूचना मिली है कि इस घर में आतंकवादी आने वाला है।
आतंकवादी!
शोर-शराबा सुनकर पिंटू घर से बाहर निकल आया। चिल्लाया—“पुलिस अंकल, यही आतंकवादी हैं।
बेटा, मैं…मैं तो तुम्हारा पापा हूँ!
नहीं-नहीं, आप आतंकवादी हैं। डाँट पिलाकर, आँखें दिखाकर सबको डराते हैं। मुझे तो मारते भी हैं।… ये किसी को भी खुश होता नहीं देख सकते। पुलिस अंकल, जल्दी पकड़िए…वरना ये भाग जायेंगे!

संक्षिप्त परिचय:सुधा भार्गव
शिक्षा--बी ,ए.बी टी ,रेकी हीलर
शिक्षण--बिरला हाई स्कूल कलकत्ता में २२ वर्षों तक हिन्दी भाषा का शिक्षण कार्य |
साहित्य सृजन--
विभिन्न संकलनों में तथा पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लघुकथा, कविता, यात्रा-संस्मरण, निबंध आदि प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें--
रोशनी की तलाश में --काव्य संग्रह
बालकथा पुस्तकें--
१ अंगूठा चूस
२ अहंकारी राजा
३ जितनी चादर उतने पैर--सम्मानित-राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान !
आकाशवाणी दिल्ली से कहानी, कविताओं का प्रसारण
सम्मानित कृति--रोशनी की तलाश में
सम्मान--डा .कमला रत्नम सम्मान
पुरस्कार--राष्ट्र निर्माता पुरस्कार(प. बंगाल--1996)
अभिरुचिदेश-विदेश भ्रमण, पेंटिंग, योगा, अभिनय, वाक् प्रतियोगिता
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