Monday, 7 September 2009

आशीष रस्तोगी की लघुकथाएँ

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जनगाथा के इस अंक के माध्यम से एकदम नए रचनाकार आशीष रस्तौगी का पदार्पण कथा-साहित्य की दुनिया में हो रहा है। इससे पहले आशीष ने कहीं भी अपनी रचनाओं को प्रकाशन के लिए नहीं भेजा। अपनी रचनाओं की उत्कृष्टता का उन्हें जैसे पता ही नहीं है। मुझे मेरे बेटे और उसके मित्र आकाश के जरिए ये रचनाएँ प्राप्त हुईंगड़े हुए खजाने की तरह। सौभाग्य से आज आशीष का जन्मदिन भी है। जन्मदिन पर ईश्वर से उनके लेखन को और उत्कृष्टता प्रदान करने की प्रार्थना और जीवन-संग्राम में उनकी सफलता हेतु हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आइए पढ़ते हैं इस जवान कलम से उतरी ये लघुकथाएँ :
-बलराम अग्रवाल
॥1॥ मानसून आया
जून का महीना। आसमान से शोले बरस रहे थे। हर व्यक्ति ऊपर की ओर देखता और इन्द्रदेव से प्रार्थना करता; लेकिन लग रहा था कि वह भी पृथ्वीवासियों पर कुपित हो गये हैं, पानी की जगह आग बरसा रहे हैं।
समय कुछ और आगे खिसका। मौसम का मिजाज बदलने-सा लगा। आसमान में बादल छाने लगे। हालाँकि वे अभी बरसे नहीं थे, लेकिन लोगों के दिलों में कुछ ठंडक पहुँचने लगी। बादलों ने गड़गड़ाना शुरू किया तो लोगों की जैसे जिन्दगी ही बदलनी शुरू हो गई।
जो गरजते हैं बरसते नहीं का अपना ही नियम तोड़ बादलों ने पानी छिड़कना शुरू किया तो घाम की चोटों से हाँफ गये लोगों की जान में जान आनी शुरू हुई। रसोईघरों में बरतन खनकने लगे। चाय और पकौड़ियों का…समोसों का दौर शुरू हो गया। कॉपियों से पन्ने फाड़-फाड़कर बच्चे नावें बनाने और नालियों में तैराने की तैयारी करने लगे। सभी के मन में सिर्फ एक ही बात थी—‘बरसो रे…ऽ…बैरी बदरवा बरसो रे…ऽ…!
एकाएक बूँदें थमने-सी लगीं। सभी की निगाहें सूने होते जा रहे आसमान की ओर उठ गयीं। सड़क किनारे की एक छप्परनुमा दुकान से आवाज आई—“अरे इन्द्र देवता, अभी तो चाय की प्याली को होठों से लगाया ही था…और पकौड़ियाँ तो अभी कड़ाही में छनन-छनन नाच ही रही हैं, बाहर निकली तक नहीं। कम से कम एक राउंड तो इनका चला लेने देते!
इसे सुनकर आसपास बैठे हालाँकि सभी लोग हँसने लगे, लेकिन बड़ी हसरत के साथ भागते बादलों की ओर ताकने लगे।
॥2॥ रहम कर
अभी दो दिन पहले की ही बात है। मैं रोज की तरह अखबार पर सरसरी नजर दौड़ा रहा था। एकाएक दो सुर्खियों पर मेरी निगाह टिक गई।
पहली थी
एक उद्योगपति ने अपनी पत्नी के जन्मदिन पर 400 करोड़ का जेट विमान उपहार में दिया।
दूसरी थी
एक किसान ने कर्ज न चुका पाने की वजह से आत्महत्या की। उस पर पूरे 18000 रुपए का कर्ज था।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि देश में यह हो क्या रहा है? इतनी असमानता! आजादी के बाद अमीर जहाँ और-अमीर हो रहा है, वहीं गरीब गरीबी के गर्त में और-ज्यादा धँसता जा रहा है।
मन बहुत अशांत हो उठा था। रह-रहकर बस एक ही आवाज भीतर से सुनाई दे रही थीहे ईश्वर! तू और चाहे जो कर, लेकिन इस देश के किसान को आत्महत्या के लिए मजबूर मत कर।
॥3॥ कुत्ता
शाम का समय था। ठेकेदार साहब अपने घर पर बैठकर चाय का मजा ले रहे थे। तभी गेट पर घंटी बजी। दुबला-पतला एक व्यक्ति गेट पर खड़ा था। गेट खुला हुआ ही था।
साहब, मुझे गुप्ताजी ने आपके पास भेजा है। पूछने पर उसने बताया।
ठेकेदार ने उसे अन्दर बुला लिया। अन्दर पहुँचकर वह ठेकेदार से कुछ दूरी बनाते हुए जमीन पर बैठ गया।
घरेलू कामकाज के लिए हम लोगों को एक नौकर की तलाश है। घर में सिर्फ तीन प्राणी हैंमैं, मेरी पत्नी और विदेशी नस्ल का हमारा रूमी।
जमीन पर बैठे आदमी की समझ में वह तीसरा प्राणी एकाएक ही नहीं आया कि कौन है। वह ठेकेदार से उसके बारे में पूछने ही वाला था कि सुती-सी कमर वाला एक कुत्ता वहाँ आया और उसे घूरता हुआ ठेकेदार के समीप सोफे पर बैठ गया।
साहब, मेरे को घर का सारा काम आता है। सारी बात समझकर व्यक्ति बोला।
नाम क्या है तुम्हारा? ठेकेदार ने उससे पूछा।
जी, गरीबू। वह बोला।
तुम्हारे परिवार में कितने लोग हैं?
पाँच लोग हैं साहबमैं, मेरी बीवी और तीन बच्चे…।
ये बातें चल ही रही थीं कि गेट की घंटी पुन: बजी। देखाठेकेदार का एक अन्य मित्र सोहन सिंह घर में घुस रहा था। वह आया और उसी सोफे पर बैठकर कुत्ते से खेलने लगा।
घर और बाजार का सारा काम करना होगा। ठेकेदार गरीबू से बोला,पगार तीन हजार रुपए महीना यानी कि सौ रुपए रोज। जिस दिन भी छुट्टी करोगेसौ रुपया काट लिया जाएगा।
जी। गरीबू ने गरदन हिलाई।
आने-जाने वालों का भी पूरा ध्यान रखना होगामंजूर है? ठेकेदार ने पकाया।
जी। उसने पुन: गरदन हिलाई।
यार ऐसा ही एक पीस मैं भी घर में रखना चाहता हूँ। बातचीत के बीच में ही सोहन सिंह ठेकेदार से बोला,माहवार कितना खर्चा आ जाता होगा?
ठीक-ठाक चलता रहे तो यही करीब दस हजार…। ठेकेदार बोला।
गरीबू की हसरत भरी नजरें ठेकेदार का जवाब सुनते ही रूमी पर जा टिकीं।
॥4॥ आत्मनिर्भर
बहुत भूख लगी है…दो दिनों से कुछ खाया नहीं है…रुपया-दो रुपया दे दो साहब। मंदिर-प्रांगण के बाहर घूम रहे भिखारीनुमा नौजवान ने नंदू के निकट आकर कहा। उसने देखा कि भीख माँगने के लिए हाथ फैलाए खड़ा लड़का हट्टा-कट्टा और मझोली कद-काठी का था।
हट्टा-कट्टा होकर भीख माँगता है? मेहनत-मजदूरी कर, कमाकर खा। नंदू गुस्से में बोला।
अनजान आदमी को शहर में कौन काम पर रखता है साहब? भिखारी बोला।
मैं रखूँगा तुझे, चल। कहते हुए नंदू ने उसको कलाई पर से पकड़ लिया। भिखारी झेंप-सा गया। हाथ छुड़ाता हुआ बोला,एक दिन का कितना पैसा दोगे साहब?
एक दिन का नहीं, महीना-भर काम करने का पैसा मिलेगाचार हजार…। उसकी कलाई पर पकड़ को बरकरार रखते हुए नंदू उससे बोला।
चार हजार! भिखारी उपहास-भरे अंदाज में चौंका। बोला,पाँच हजार की नौकरी छोड़े बैठा हूँ साहब। बंदा समझने लगता है जैसे वही हमारा पेट पाल रहा है और हम उसके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं! उस जलालत से यह भीख माँगकर पेट भर लेने का धंधा भला। वैसे भी, यहाँ बैठकर डेढ़-दो सौ रुपया रोज तो बना ही लेता हूँ मैं। कभी-कभी खाना-कपड़ा-फल-मिठाई वगैरा भी मिल जाता है सो अलग। न किसी की चें-चें न चिख-चिख, न गुलामी। अपने काम का खुद मुख्तार हूँ। कहते-कहते नंदू की पकड़ से अपनी कलाई को छुड़ाकर वह वापस अपनी जगह पर जा बैठा।
॥5॥ श्यामपट
यह उन दिनों की बात है जब विजय-चाचा ने काले रंग की नई होंडा सिटी खरीदी थी। उसके प्रति उसके जुनून को देखकर लगता था कि उसे वे चाची से भी ज्यादा प्यार करते थे।
अपनी उस नई प्रियतमा को एक दिन घर की चारदीवारी से निकालकर चाचा ने घर के सामने खुली हवा में खड़ा कर दिया। उनका मंशा उसे शायद पड़ोसियों को दिखाने का भी रहा हो। उसे वहाँ खड़ी करके वे घर के कामकाज में लग गए। अभी कुछ ही मिनट बीते होंगे कि बाहर से आती चाची की तेज पुकारों ने उनका ध्यान आकृष्ट किया।
अरे, मनु के पापा, जल्दी से बाहर आओ…। वे चिल्ला रही थीं।
हाथ का काम जहाँ का तहाँ छोड़-छाड़कर चाचा बाहर की ओर भागे।
क्या हुआ? उन्होंने चाची से पूछा।
वो देखो…। चाची ने कार की ओर इशारा करते हुए कहा।
चाचा ने कार की ओर देखा। पड़ोस के एक छोटे बच्चे ने पत्थर की नोक से कार की पूरी बॉडी पर अंग्रेजी अल्फाबेट ए से जैड तक लिख मारा था। जगह बचती तो उस पर वह गिनतियाँ भी जरूर लिखता। चाचा के गुस्से का न ओर था न छोर। कार के पास ही खड़े उस बच्चे के दोनों कंधों को पकड़कर उन्होंने कहा—“ये क्या किया तूने!
बच्चा उनकी मुख-मुद्रा को देखकर सहम गया। बड़े भोलेपन के साथ बोला—“मम्मी ने मुझे एबीसी याद कराई थी और बोला था कि एक घंटे बाद फिर पूछेंगी। मैंने सोचा कि लिखकर याद करूँगा तो पता चल जाएगा कि कोई लैटर छूटता तो नहीं है। मैंने इसीलिए…।
उसकी बात सुनकर चाचा का गुस्सा काफूर हो गया। बच्चा जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।
॥6॥ आण्टी का ढाबा
मैं उन दिनों मेरठ में रहा करता था। यों खाने-पीने की कोई परेशानी वहाँ पर नहीं थी, लेकिन घर के भोजन की याद फिर भी बहुत आया करती थी। दोस्तों के बीच भी इस बात का जिक्र हो जाया करता था।
इसी तरह की बात चली तो एक दोस्त ने एक दिन आण्टी के ढाबे के बारे में बताया। कहा कि वह एकदम घर जैसा भोजन बनाती है और माँ की तरह ही स्नेह के साथ खिलाती है। तारीफ सुनी तो दोस्त के साथ मैं भी उस दिन आण्टी के हाथ के खाने का स्वाद चखने उसके ढाबे पर पहुँच गया। खाने वालों की जैसे लाइन लगी हुई थी।
दो छोटी दुकानों को मिलाकर आण्टी ने एक ढाबे का रूप दे रखा था। साफ-सफाई भी ज्यादा नहीं थी। करीब दस मिनट इंतजार के बाद हमें दो सीटें खाली मिलीं और उसके बीस मिनट बाद खाने की थाली हमारे सामने आई। इतना समय बरबाद हो जाने पर बड़ी कोफ्त हुई, लेकिन जब खाना खाया तो…इंतजार करने का सारा अफसोस जाता रहा। खाना वाकई एकदम घर जैसा, स्वादिष्ट था। खाना खाने के बाद पैसे दिये तो वह भी वाजिब। उस दिन से सुबह-शाम हर रोज वहीं पर जाना शुरू कर दिया।
आण्टी का व्यवहार, जैसा कि दोस्त ने बताया था, माँ जैसा ही था; लेकिन उसका पति, जिसे सब लोग अंक संबोधित करते थेबड़ा ही खड़ूस किस्म का इंसान था। वह रोजाना ही किसी न किसी ग्राहक से किसी न किसी बात पर उलझता ही रहता। ग्राहकों से नोक-झोक करना उसके लिए आम बात थी लेकिन ग्राहकों के लिए नहीं। उसके व्यवहार से परेशान कई लोगों ने ढाबे पर आना छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद मेरा मन भी उसकी बेमतलब चूँ-चपड़ से ऊब गया, मैंने भी जाना छोड़ दिया।
दो या तीन महीने बाद पता चला कि आण्टी का ढाबा बंद हो गया है।
॥7॥ कार या प्यार
सुबह का समय था। परिवार रविवार की छुट्टी का मजा ले रहा था। पिता अपनी नई चमचमाती कार को बाहर सड़क पर निकालकर बहुत प्यार से साफ कर रहा था। माता रसोईघर में सुबह के नाश्ते की तैयारी में व्यस्त थी। बेटा अपने खिलौनों से खेल रहा था।
खेलते-खेलते बेटे को अचानक कुछ सूझा। खिलौनों को एक ओर सरकाकर वह उठ खड़ा हुआ और बाहर आ गया। बाहर आकर सड़क पर से उसने एक नुकीला पत्थर उठाया और कार पर आइ लव यू पापा लिख दिया।
पिता ने देखा तो आगबबूला हो गया। पत्थर के उसी टुकड़े से चोटें मार-मारकर उसने बालक की उँगलियाँ कुचल दीं। वह दर्द से बिलबिला उठा। माता ने पिता का चीखना-चिल्लाना और बच्चे का रोना-बिलबिलाना सुना तो सब-कुछ छोड़-छाड़कर बाहर की ओर भागी। हालात पर बहस करने में समय बरबाद करने की बजाय उसने बच्चे को गोद में उठाया और क्लीनिक जा पहुँची।
कई उँगलियों की हड्डियाँ टूट गई हैं… डॉक्टर ने देखकर बताया,तीन-चार महीने तो लग ही जाएँगे।
इसी बीच पिता भी वहाँ पहुँच गया। अपने किये पर वह बहुत दुखी था और मन ही मन खुद को कोस रहा था। वह लगातार यही सोच रहा था कि बेटे ने तो उसके प्रति अपना प्यार प्रकट किया था लेकिन उस प्यार के बदला उसने क्या दिया!
अफसोस के उन्हीं क्षणों में उसकी नजर क्लीनिक की दीवार पर लिखे इस स्लोगन पर पड़ गईमनुष्य प्यार करने के लिए बना है और वस्तु इस्तेमाल के लिए। मगर दुर्भाग्य! हम आज वस्तु को प्यार करने लगे हैं और मनुष्य को इस्तेमाल!
आशीष रस्तौगी : संक्षिप्त परिचय
7 सितम्बर, 1984 को जन्मे आशीष ने यूपीटेक के माध्यम से गाजियाबाद के आई एम एस से बी टेक तत्पश्चात एम बी ए किया है और संप्रति एच सी एल की नोएडा स्थित इकाई में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। लेखन के बारे में उनका कहना है किमेरा लेखन मेरे अनुभवों की देन है। मेरी रचनाओं में से कुछ का संबंध मुझसे है तो कुछ का देश की सामाजिक समस्याओं से। कुल मिलाकर मैं महसूस करता हूँ कि लिखना आपको उस दुनिया से जोड़ देता है जहाँ इस दुनिया के दुख आपको नहीं सता सकते।
उनका पता है: ए-27, लोहिया नगर, गाजियाबाद-201001(उ प्र)
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ई-मेल: ashish.rastogi7984@gmail.com

Tuesday, 18 August 2009

श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथाएँ

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जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं कथाकार श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथाएँ। इनकी लघुकथाओं में व्यक्त आम आदमी के संत्रास, पीड़ा, व्यथा पाठक को उस बिंदु पर छूते हैं जहाँ किसी जमाने में कहानी छुआ करती थी। इन्हें पढ़कर पाठक न तो तिलमिला पाता है और न ही हँस या मुस्करा पाता है। वह इनमें व्यक्त उद्वेलनकारी स्थितियों पर सोचने को विवश होता है। इनकी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये चमत्कारपूर्ण शब्दों की भूलभुलैया में पाठक को न घुमाते रखकर कथा को सीधे-सीधे इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि उसी में से संवेदना का कोई गहरा सूत्र पाठक तक पहुँच जाता है। समाज के निरीह, त्यक्त और लगभग विस्मृत पात्रों की स्थिति पर ये न तो आँसू बहाते हैं और न उसे सुधारने के लिए निरा नारा ही हवा में उछालते हैं। यह सारा काम ये पाठक पर ही छोड़ देते हैं। वस्तुत: यही समकालीन लघुकथा का हेतु भी है और यही शक्ति भी।

--बलराम अग्रवाल
--> रोटी की ताकत
लगभग बारह वर्ष का एक लड़का आँख बचा कर खाना खा रही बारात में शामिल हो गया। उसने तरह-तरह के पकवानों से प्लेट भर ली और खाने के लिए एक तरफ खड़ा हो गया।
उसका हाथ तेजी से चल रहा था और मुँह भी। अपने मैले वस्त्रों एवं टूटी हुई चप्पलों के कारण वह शीघ्र ही प्रबंधकों की निगाह में आ गया।
चल भाग साले, बाप का माल है क्या?” देखने वाले ने उसको जोरदार झिड़की दी। इस झिड़की का उसपर कोई असर नहीं हुआ। बस उसके मुँह और हाथ ने और तेजी पकड़ ली।
एक ने उसके हाथ से प्लेट छीनने की कोशिश करते हुए थप्पड़ मारा। छीना-झपटी में प्लेट नीचे गिर पड़ी। भोजन उठाने के लिए वह नीचे झुका तो पीछे से किसी ने जोर की ठोकर मारी। उसका चेहरा दर्द की लकीरों से भर गया। इससे पहले कि एक और ठोकर लगती, वह भाग कर पंडाल से बाहर हो गया।
आज तो मजा आ गया! रोटी बहुत स्वाद है। कितना ही कुछ है। जा तू भी आँख बचा कर घुस जा।बाहर पहुँच कर उसने अपने छोटे भाई से कहा।

उत्सव
सेना और प्रशासन की दो दिनों की जद्दोजेहद अंतत: सफल हुई। साठ फुट गहरे बोरवैल में फंसे नंगे बालक प्रिंस को सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। वहाँ विराजमान राज्य के मुख्यमंत्री एवं जिला प्रशासन ने सुख की साँस ली। बच्चे के माँ-बाप व लोग खुश थे।
दीन-दुनिया से बेखबर इलैक्ट्रानिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा खिंडने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला माहौल मातमी-सा हो गया। टी.वी. संवाददाताओं के जोशीले चेहरे अब मुरझाए हुए लग रहे थे। अपना साजोसामान समेट कर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता के पास समीप के गाँव का एक युवक आया और बोला, हमारे गाँव में भी ऐसा ही…”
युवक की बात पूरी होने से पहले ही संवाददाता का मुरझाया चेहरा खिल उठा, “क्या तुम्हारे गाँव में भी बच्चा बोरवैल में गिर गया?”
नहीं।
युवक के उत्तर से संवाददाता का चेहरा फिर से बुझ गया, “तो फिर क्या?”
हमारे गाँव में भी ऐसा ही एक गहरा गड्ढा नंगा पड़ा है,” युवक ने बताया।
तो फिर मैं क्या करूँ?” झुँझलाया संवाददाता बोला।
आप महकमे पर जोर डालेंगे तो वे गड्ढा बंद कर देंगे। नहीं तो उसमें कभी
भी कोई बच्चा गिर सकता है।
संवाददाता के चेहरे पर फिर थोड़ी रौनक दिखाई दी। उसने इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से कहा, “ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस बोरवैल में गिरे मुझे इस नंबर पर फोन कर देना। किसी और को मत बताना। मैं तुम्हें इनाम दिलवा दूँगा।
साझा दर्द
वृद्धाश्रम में गए पत्रकार ने वहाँ बरामदे में बैठी एक बुजुर्ग औरत से पूछा, माँ जी, आपके कितने बेटे हैं?”
औरत बोली, “ न बेटा, न बेटी। मेरे तो कोई औलाद नहीं।
पत्रकार बोला, “आपको बेटा न होने का गम तो होगा। बेटा होता तो आज आप इस वृद्धाश्रम में न होकर अपने घर में होती।
बुजुर्ग औरत ने उत्तर में थोड़ी दूर बैठी एक अन्य वृद्धा की ओर इशारा करते हुए कहा, “वह बैठी मेरे से भी ज्यादा दुखी। उसके तीन बेटे हैं। उससे पूछ ले।
पत्रकार उस दूसरी बुढ़िया की ओर जाने लगा तो पास ही बैठा एक वृद्ध बोल पड़ा, “बेटा, इस वृद्धाश्रम में हम जितने भी लोग हैं, उनमें से इस बहन को छोड़ कर बाकी सभी के दो से पाँच तक बेटे हैं। परंतु एक बात हम सब में साझी है…”
वह क्या?” पत्रकार ने उत्सुकता से पूछा।
वह यह कि हम में से किसी के भी बेटी नहीं है। बेटी होती तो शायद हम यहाँ नहीं होते।वृद्ध ने दर्दभरी आवाज में कहा।

साझेदार
घर की मालकिन का कत्ल कर सारी नकदी गहने साधव ने थैले में समेट लिए। वह जब मकान से बाहर निकला तो अकस्मात लोगों की निगाह में गया। चोर-चोरका शोर मच गया तो हड़बड़ाहट में उससे चोरी का स्कूटर भी स्टार्ट नहीं हो पाया। लोगों से बचने के लिए वह पैदल ही भाग लिया।
पूरा दम लगाकर भागते साधव को लग रहा था कि पीछे दौड़ रहे लोग शीघ्र ही उसकी गरदन मरोड़ डालेंगे। अपने बचाव हेतु वह शीघ्रता से पुलिस-थाने में दाखिल दो गया।
साधव के पीछे लगी भारी भीड़ को देख थानेदार को लगा कि वह उसे नहीं बचा पायेगा। उसने उसे दूसरे रास्ते से बाहर निकाल दिया। जब साधव थाने से बाहर निकला तो उसके थैले का वज़न पहले से कम हो गया था।
लोगों को थानेदार की करतूत का पता लग गया। वे फिर से साधव के पीछे हो लिए।
साधव को अपनी जान फिर से संकट में घिरी लगी। प्राण बचाने हेतु वह पूरी शक्ति लगा दौड़ा और बड़े नेता की कोठी में प्रवेश कर गया।
जब तक लोग नेता की कोठी पर पहुँच कोई कारवाई करते, तब तक साधव को पिछले दरवाजे से कार द्वारा भगा दिया गया।
साधव जब घर पहुँचा तो उसके थैले में मात्र कुछ गहने ही बचे थे।
अनमोल ख़ज़ाना
अपनी अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को मिलती तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती। इस सामान में एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया भी होती। सुंदर तथा कलात्मक डिबिया। इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती। उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था। मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती। वह कहती, इसमें मेरा अनमोल ख़ज़ाना है, जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी।
एक दिन पत्नी जल्दी में अपना लॉकर बंद करना भूल गई। मेरे मन में उस चाँदी की डिबिया में रखा पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना देखने की इच्छा बलवती हो उठी। मैने डिबिया बाहर निकाली। मैने उसे हिला कर देखा। डिबिया में से सिक्कों के खनकने की हल्की-सी आवाज सुनाई दी। मुझे लगा, पत्नी ने डिबिया में ऐतिहासिक महत्त्व के सोने अथवा चाँदी के कुछ सिक्के संभाल कर रखे हुए हैं।
मेरी उत्सुकता और बढ़ी। कौन से सिक्के हैं? कितने सिक्के हैं? उनकी कितनी कीमत होगी? अनेक प्रश्न मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। थोड़ा ढूँढ़ने पर डिबिया के ताले की चाबी भी मिल गई। डिबिया खोली तो उसमें से एक थैली निकली। कपड़े की एक पुरानी थैली। थैली मैने पहचान ली। यह मेरी सास ने दी थी, मेरी पत्नी को। जब सास मृत्युशय्या पर थी और हम उससे मिलने गाँव गए थे। आँसू भरी आँखों और काँपते हाथों से उसने थैली पत्नी को पकड़ाई थी। उसके कहे शब्द आज भी मुझे याद हैं–‘ले बेटी ! तेरी माँ के पास तो बस यही है देने को।
मैने थैली खोल कर पलटी तो पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना मेज पर बिखर गया। मेज पर जो कुछ पड़ा था, उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थेतीन सिक्के दो रुपये वाले, तीन सिक्के एक रुपये वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले। कुल मिला कर दस रुपये।
मैं देर तक उन सिक्कों को देखता रहा। फिर मैने एक-एक कर सभी सिक्कों को बड़े ध्यान से थैली में वापस रखा ताकि किसी को भी हल्की-सी रगड़ न लग जाए।
माँ का कमरा
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- मां, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बसंती गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। जो होगा देखा जावेगाकी सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
एक ज़रूरी काम है मां, मुझे अभी जाना होगा।कह, बेटा मां को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.
बेटा हैरान हुआ, “मां, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!”
हां मां, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आंखों में आंसू आ गए।
वापसी
पत्नी के त्रियाहठ के आगे मेरी एक न चली। अपने खोये हुए सोने के झुमके के बारे में पूछने के लिए, उसने मुझे डेरे वाले बाबा के पास जाने को बाध्य कर दिया।
पत्नी का झुमका पिछले सप्ताह छोटे भाई की शादी के अवसर पर घर में ही कहीं खो गया था। बहुत तलाश करने पर भी वह नहीं मिला।
बाबा के डेरे जाते समय रास्ते में मेरी पत्नी बाबा जी की दिव्य-दृष्टि का बखान ही करती रही, पड़ोस वाली पाशो का कंगन अपने मायके में खो गया था। बाबाजी ने झट बता दिया कि कंगन पाशो की भाभी के संदूक में पड़ा दीख रहा है। पाशो ने मायके जाकर भाभी का संदूक देखा तो कंगन वहीं से मिला। जानते हो पाशो का मायका बाबाजी के डेरे से दस मील दूर है।
मैं कहना तो चाहता था कि ऐसी बातें बहुत बढ़ा-चढा कर की गईं होती हैं। परंतु मेरे कहने का पत्नी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था, इसलिए मैं चुप ही रहा।
पत्नी फिर बोली, “…और अपने गब्दू की लड़की रेशमा। ससुराल जाते समय रास्ते में उसकी सोने की अंगूठी खो गई। बाबाजी ने आँखें मूँद कर देखा और बोल दियानहर के दूसरी ओर नीम के वृक्ष के नीचे घास में पड़ी है अंगूठी।…और अंगूठी वहीं से मिली।
गाँव के बाहर निकलने के पश्चात बाबा के डेरे पहुँचते अधिक देर नहीं लगी। बाबा अपने कमरे में ही थे। हमने कमरे में प्रवेश किया तो सब सामान उलट-पुलट हुआ पाया। बाबा और उनका एक शागिर्द कुछ ढूँढने में व्यस्त थे।
हमें देख कर बाबा के शागिर्द ने कहा, “बाबा जी थोड़ा परेशान हैं, आप लोग शाम को आना।
मैने पूछ लिया, “क्या बात हो गई?”
बाबा जी की सोने की चेन वाली घड़ी नहीं मिल रही। सुबह से उसे ही ढूँढ रहे हैं।शागिर्द ने सहज भाव से उत्तर दिया।
वापसी बहुत सुखद रही। पत्नी सारी राह एक शब्द भी नहीं बोली।
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श्याम सुंदर अग्रवाल : संक्षिप्त परिचय :
8 फरवरी 1950 को कोटकपूरा (पंजाब) में जन्मे श्याम सुन्दर अग्रवाल ने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की है। लेखन, संपादन और अनुवाद के माध्यम से वह हिन्दी और पंजाबी दोनों भाषाओं में समान रूप से सक्रिय हैं। इनके द्वारा मौलिक रूप से लिखित, संपादित एवं अनूदित कृतियों का विवरण निम्न प्रकार है:-
मौलिक : ‘नंगे लोकां दा फिक्रतथामारूथल दे वासी’(लघुकथा संग्रह, पंजाबी में)
संपादित : 23 लघुकथा संकलन पंजाबी में तथा 2 संकलन हिंदी में।
अनुवाद : 4 लघुकथा संग्रह( हिंदी से पंजाबी भाषा में अनुवाद)
संपादन : पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका मिन्नी’ (1988 से निरंतर)
संपर्क : बी-1/575, गली नं:5, प्रताप सिंह नगर, कोटकपूरा (पंजाब)-151204
दूरभाष: 01635222517,01635320615 मोबाइल:09888536437
ई.मेल: sundershyam60@gmail.com