Tuesday, 17 November 2009

तेलुगु लघुकथाएँ

-->
-->
जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं मूल तेलुगु से श्रीमती पारनन्दि निर्मला द्वारा हिन्दी में अनूदित कुछ लघुकथाएँ। इनका भाषा संपादन मेरे द्वारा किया गया है और ये शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा-संकलन से उद्धृत हैंबलराम अग्रवाल

दासी/सरे राममोहन राय 
मा
-->लिक ने उसे बाजार से खरीदा था। खरीदकर लाती हुई उसने अपने मालिक को बड़े प्रेम से… ममता से देखा था। घर आने के बाद उसके तीन लड़कों और लड़कियों को, बहुओं को, पोते-पोतियों को, अड़ोस-पड़ोस के लोगों को बड़े आदर-भाव से देखा था उस दासी ने।
उसके बाद वह उन लोगों की विश्वासपात्र बन गई।
षडरस भोजन करने का मन होने पर उसने कभी मुँह नहीं खोला। दोनों वक्त मालिक द्वारा दिए गए दो मुट्ठी भात को ही वह बड़े चाव से खाती थी। पीने को पानी न मिलने पर, उस परिवार के सदस्यों के स्नान करने के बाद बचे हुए पानी को कटोरे में डालकर देने से, उसे वह अमृत समझकर पीती थी। उस घर के सदस्यों को देखकर वह खुशी से चहक-चहक उठती थी।
दिन बीतते गए। मकर-संक्रान्ति का त्यौहार आया। मालिक ने पितरों की तुष्टि के लिए पूजा का अनुष्ठान किया। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा भी दी। यह देख वह दासी बहुत ही आनन्दित हुई।
दूसरे दिन कनुवा* नामक पर्व मनाते हैं। मालिक ने उसे अपने हाथों में उठा लिया। यह देख, फौरन उसकी समझ में आ गया कि वे अब क्या करने जा रहे हैं! अपनी बोली में उसने गिड़गिड़ाना-रोना शुरू किया। अब तक अपने दासी होने के दुर्भाग्य पर भी संतोष था उसे, लेकिन…। मालिक को न तो उसकी भाषा ही समझ में आई और न ही उसके रोने-गिड़गिड़ाने पर उसने कोई ध्यान दिया। और तो और, घर के बाकी सब लोगों की आँखें  भी मालिक द्वारा उसे हाथों में उठा लिए जाने से चमक उठी थीं।
पूजा वाली जगह पर लाकर एक तेज और बारीक धार वाले चाकू ने सर्र से उसका गला काट डाला। फस्स की आवाज के साथ खून का फव्वारा उसके शेष शरीर से फूट पड़ा और जमीन पर फैल गया। अलग हुई गरदन और बाकी शरीर, दोनों ही, थोड़ी देर जमीन पर फड़फड़ाकर  शान्त हो गए।
बेचारी दासी!
  • मांसाहारी इस पर्व पर मुर्गी की बलि देकर प्रसाद-रूप में उसका मांस खाते है।

यह है प्रजातन्त्र/श्रीचरण मित्रा
दोनों बेटों को केवल चार दिनों के अन्तराल में घर वापस आया देख माँ अन्नपूर्णा घबरा उठी। वे कोई छोटे बच्चे न थे, उन्हें वोट का हक मिले पाँच-छ: साल बीत गए थे।
माँ…अम्मा…इस लाल कमीज को हमारे प्रेसीडेन्ट साहब ने दिया है। मैंने उनसे कहा था कि पहनने को एक कमीज दें, तो यह कमीज उन्होंने मुझे दी। इसे देकर उन्होंने कहादेख रे, तू इसे पहनकर बिल्कुल देशभक्त लग रहा है। सब तुझे कामरेड कहेंगे। इसे पहनकर मैं मालिक के काम से उनके गाँव जा रहा था…।
तब लाल कामरेड की तरह गए और बुझी लकड़ी की तरह वापस लौटे अपने बेटे से माँ ने पूछा—“फिर क्या हुआ?
मैं अपनी राह अकेला बढ़ा जा रहा था तब एक पुलिस-बाबू मुझे पकड़कर बोलाक्यों रे! कहाँ जा रहा है? नक्सलाइट है क्या? कोई खबर कहीं पहुँचाने जा रहा है?…मेरे बार-बार मना करने पर भी वह मुझे लाठी से पीटने लगा। बोलाअगर तुझको कुछ भी नहीं मालूम है तो कम्यूनिस्टों वाला यह लाल कमीज क्यों पहना है?…यों कहते हुए अपने बूट से उसने मेरे बगल में जोर का ठोकर मारा। उसके पैर पकड़कर प्रार्थना करने, गिड़गिड़ाने पर बड़ी मुश्किल से उसने मेरा पीछा छोड़ा…।
गरीब माँ का हृदय अपने जवान बेटे की इस बेबस हालत को देखकर पानी से बाहर पड़ी मछली-सा तड़प उठा।
मारे दर्द के, दो दिनों तक वह खाना नहीं खा सका। तीसरे दिन, रिक्शा लेकर दूसरा भाई घर से निकला ही था कि चार लोग मारपीट करके जबरन उसे उठाकर ले जाने लगे। उन्हें ऐसा करते देखकर माँ का हृदय फट पड़ा।
क्या हुआ बाबू…क्या हुआ रे? पूछने पर उन चारों में से एक ने उत्तर दिया—“कया कहूँ अम्मा! विजयवाड़ा के लिए सत्याग्रह करते हमारे एक नेता को किसी ने चाकू घोंपकर मार डाला है। चश्मदीदों का कहना है कि मारने वाले ने पीला कमीज पहना था। यह भी पीला कमीज पहने है, इसलिए…
हाय राम! यह कैसा अंधेर है भगवान!! लाल कमीज पहनने से पुलिस वाले मरम्मत करते हैं और पीली कमीज पहनने से जनता पीटने लगती है। इससे तो अच्छे ये घर में पड़ी फटी-पुरानी कमीजें पहनकर ही रह रहे थे…। कहती हुई बुढ़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी।
और उसके बाद फिर एक दिन
बताए गए काम को करने में गधे की तरह लग जाने वाले उन दोनों भाइयों को चुनाव में खड़े होने वाले एक उम्मीदवार ने उनके लाख मना करने पर भी खद्दर की कमीजें सिलवाकर जबर्दस्ती पहना दीं। अब उनकी क्या हालत होने वाली हैयह तो श्रीराम प्रभु ही बता सकते हैं।

चोट खाया गणित/दार्ल तिरुपति राव
बिटिया! कहाँ तक पढ़ी हो?
बी ए।
केवल बी ए पढ़ने से क्या होता है? बी एड भी कर लिया होता तो अच्छा होता।…कौन-सी श्रेणी में पास किया है?
फर्स्ट क्लास।
इससे क्या? असल चीज तो दिमाग है। किसी बैंक में नौकरी पाने के लिए दिमाग चाहिए, दिमाग।
छुट्टी के दिनों में संगीत भी सीखा है हमारी बिटिया ने। लड़की के पिता ने कहा,थोड़ा-बहुत ललित संगीत भी आता है इसे।
रेडियो-स्टेशन पर गाती है?
नहीं जी, रेडियो में गाने लायक नहीं आता।
फिर क्या फायदा? अरे, गुनगुना तो मैं भी लेता हूँ एकाध गाना। रेडियो में गाना आता हो तो नाम भी मिलता है और पैसा भी।
फुरसत के समय में साहित्यिक पुस्तकें या पत्रिकाएँ पढ़ने का शौक है इसको। बिना मतलब सैर-सपाटे पर निकल जाना या सिनेमा-हाल में घुस बैठना पसन्द नहीं है इसको।
सिर्फ पढ़ती ही है या कहानी-वहानी कुछ लिख भी लेती है? एक ठहाका लगाते हुए उन्होंने पूछा।
नहीं-नहीं, लिखने की आदत नहीं है जी।
हूँ…ऽ…लिखने की आदत नहीं है! अभी कहानियाँ लिख रही होती तो आगे उपन्यास भी लिख सकती थी। निर्माता लोग उपन्यासों के आधार पर ही फिल्में बनाते हैं। अरे हाँ, एक बात पूछना तो मैं भूल ही गया। उम्र कितनी है इसकी?
पच्चीस पूरे कर चुकी है…
इसका मतलब कि सेन्ट्रल गवर्नमेंट, बैंक आदि में आवेदन करने की तो इसकी उम्र निकल गई। अब तो ज्यादा-से-ज्यादा किसी जगह पर सेल्स गर्ल का काम ही कर सकती है। ठीक है, मैं अब चलता हूँ। देख तो लिया ही है न, निर्णय की सूचना हम आपको पत्र द्वारा दे देंगे।
लड़की का पिता अभी कुछ-और बातें करना चाहता था, लेकिन वे सज्जन उठ खड़े हुए और बाहर निकल गए।
कुछ ही दिन बाद वह लड़की एक राष्ट्रीयकृत बैंक में प्रोबेशनल ऑफीसर के पद पर चुन ली गई। उड़ते-उड़ते यह बात उन लोगों तक भी जा पहुँची। एक दिन, लड़की बताने वाले बिचौलिए से रास्ते में उनकी भेंट हो गई। उसे बीच में ही रोककर उन्होंने पूछा,अरे हाँ, उस लड़की का रिश्ता कहीं हुआ या नहीं?
किस लड़की का? बिचौलिए ने पूछा, हालाँकि वह समझ चुका था कि वे किस लड़की के बारे में पूछ रहे हैं। वे भी इस बात को भाँप चुके थे, फिर भी शर्म को ताक पर रखकर उन्होंने अपनी बात स्पष्ट कर दी।
जहाँ तक मुझे मालूम है, उसका विवाह अभी तक नहीं हुआ है। बिचौलिए ने उन्हें बताया।
क्यों? अनजान बनते हुए उन्होंने पूछा, फिर आगे बोले,उस लड़की की जन्मपत्रिका से मेरे बेटे की जन्मपत्रिका शत-प्रतिशत मिलती है। उसने न जाने कितनी लड़कियाँ देखीं, लेकिन उसे बस यही लड़की पसंद है…पता नहीं क्यों?
लेकिन वह लड़की तो फिलहाल विवाह नहीं करना चाहती है। बिचौलिए ने कहा।
क्यों भला? शादी-ब्याह से विरक्ति हो गई है क्या?
नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। बिचौलिया बोला,उसके स्वयंवर में अनेक राजकुमार उसके कदमों पर आ झुके हैं। अपने योग्य ही लड़का मिलने तक वह रुके रहना चाहती है, बस। यह कहते हुए बिचौलिया बिना उनसे विदा लिए आगे बढ़ गया।

स्पर्श/कान्ड्रेगुल श्रीनिवास राव
धीमी गति से चलती उस लॉरी के पीछे दौड़ते हुए शेषगिरि ने ड्राइवर से पूछा,यह तगरपुवलसा जाएगी?
तीन रुपए लगेंगे। उसके स्थान पर क्लीनर ने कहा।
शेषगिरि ने आगा-पीछा न देखा। एक पल भी व्यर्थ किए बिना वह लॉरी में चढ़ गया। लॉरी तेज गति से दौड़ने लगी। चलते-चलते वह अक्किवेड्डिपालेम को पार कर गण्डगुण्डा के समीप पहुँच रही थी। सफेद साड़ी पहने हाथ में टोकरी लिए एक युवती को लॉरी रोकने का इशारा करते देख ड्राइवर ने लॉरी को सड़क के किनारे खड़ा कर दिया।
कहाँ जाना है? क्लीनर ने दरवाजा खोलते हुए पूछा।
चिट्ठीवलसा जाना है। गाड़ी पर चढ़ने का उद्यम करते हुए युवती बोली।
उसे अपनी सीट की ओर आता भाँपकर शेषगिरि थोड़ा सिकुड़कर बैठ गया। वह बोनट पर बैठ गई। लॉरी चल दी। शेषगिरि की एक ही कमजोरी थीस्त्री के सौन्दर्य को आँखों से पी जाना।
ड्राइविंग में निमग्न ड्राइवर, खिड़की के बाहर झाँकता क्लीनर और कन्धे से खिसककर बार-बार नीचे गिरता उस युवती का आँचलसभी शेषगिरि के लिए सहायक सिद्ध हुए। वह उसके उन्नत वक्षस्थल को देखता हुआ भरपूर आनन्द का उपभोग कर रहा था। लगातार उसे देखते रहने से उसके मन में कामेच्छा उत्पन्न हो गई। उसे आलिंगनबद्ध कर उसके स्तनों का भरपूर स्पर्श करने की अपनी भावना को उसने बड़ी मुश्किल से दबाया। युवती का ध्यान उसकी ओर था ही नहीं। उसकी दृष्टि-चेष्टाओं से अनजान वह सामने से क्रॉस करती अन्य गाड़ियों को देखने में मग्न थी।
शेषगिरि की मानसिक हालत लगातार बिगड़ रही थी। कामेच्छा बलपूर्वक उस पर अधिकार जमा लेना चाहती थी। लॉरी जितनी तेजी से दौड़ रही थी, उतनी ही तेजी से शेषगिरि के भावनाएँ भी भड़क रही थीं। अचानक सड़क के मोड़ पर अत्यन्त तेजी से आती एक अन्य लॉरी को देखकर ड्राइवर ने जोरों से ब्रेक को दबाया, लेकिन वह दुर्घटना को टाल नहीं पाया। टायर की…ऽ…च-की…ऽ…च की आवाज में चिल्ला उठे। दोनों वाहन टकरा गए। यह सब पल-भर में ही हो गया। जनता के हाथों पिटाई होने के डर से दोनों लॉरियों के ड्राइवर और क्लीनर लॉरियाँ छोड़कर भाग खड़े हुए। टूटे काँच के टुकड़ों से शेषगिरि को काफी गम्भीर चोटें लगीं। माथे से खून धारा-प्रवाह बहने लगा था। अचेतावस्था हावी होने के कारण उसकी पलकें झपकी जा रहीं थीं।
बोनट पर बैठी उस युवती को भी चोटें आई थीं, लेकिन अपनी चोटों पर ध्यान न देकर उसने शेषगिरि को थाम लिया। उसके माथे से बहते खून को अपने आँचल से पोंछकर उसने घाव को हथेली से दबा लिया। धीरज और साँत्वना देते हुए उसने उसके सिर को अपनी छाती में दबा लिया।
उसके कोमल स्पर्श को पाकर शेषगिरि ने बलपूर्वक अपनी आँखें खोलीं। माँ की छाती पर सिर रखकर थकान मिटाने-जैसा सुख उसने महसूस किया और बालकों-जैसी दृष्टि से आभारपूर्वक उसे निहारते हुए सहसा अचेत हो गया।

आम आदमी/वेलचेटि सुब्रह्मण्यम
न्होंने ऐसा क्यों किया?
-->
विश्वास कीजिए, भरे हॉल में हर व्यक्ति स्तब्ध रह गया था। दरअसल, उनके इस कृत्य पर विश्वास किया ही नहीं जा सकता था। अगर किसी सामान्य व्यक्ति ने ऐसा काम किया होता तो अलग बात थी, लेकिन यह तो साक्षात् महामहोपाध्याय द्विवेदुल संगमेश्वर शास्त्री गारू ने किया था। इसीलिए तो यह आश्चर्य का विषय बन गया था।
वास्तव में हुआ यह कि एक प्रमुख साहित्यिक पत्रिका द्वारा आयोजित बहुभाषा कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कृत शास्त्रीजी की कहानी को घोषित किया गया था। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित शास्त्रीजी की रचना को इस पुरस्कार का मिलना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उल्टे, इस प्रतियोगिता के लिए शास्त्रीजी जैसे महान लेखक का रचना भेजना ही पत्रिका के लिए गरिमा की बात थी। पत्रिका द्वारा आयोजित पुरस्कार वितरण समारोह में उनके उपस्थित होने ने उसे भव्यता प्रदान कर दी थी। सारा कार्यक्रम ठीक-ठाक ही चला था, लेकिन शास्त्रीजी का वह अचानक व्यवहार किसी की समझ में नहीं आया।
पुरस्कार प्राप्त करने से पूर्व अपना वक्तव्य देते हुए उन्होंने घोषित किया—“सच कहा जाय तो इस सत्कार, सम्मान और पुरस्कार का अधिकारी मैं नहीं हूँ। इस कहानी को मैंने नहीं मेरे घर पर काम करने वाले एक युवक ने लिखा है। अत: मेरा अनुरोध है कि राज्यपाल महोदय के द्वारा ओढ़ाया जाने शाल, दिया जाने वाला सम्मान-पत्र और पुरस्कार की राशि का चेकमुझे नहीं, मेरे साथ आए उस युवक को ही मिलने चाहिएँ। हुआ वस्तुत:यह था कि छ:-सात पत्रिकाओं ने इस सुन्दर कहानी को जब लौटा दिया तब इस साहित्यिक समाज पर इस सत्य को जतलाने के लिए ही मैंने अपने नाम से इस कहानी को इस प्रतियोगिता हेतु भेज दिया था।…
इस वक्तव्य के रूप में अपनी बात कहकर वे अपने आसन पर जा बैठे थे। समारोह में उपस्थित इने-गिने संपादकों के सिवा कोई ऐसा नहीं था, जिसके मुँह से वाह न निकल पड़ी हो।



असहनीय शोर/भामिडि पाटि रामगोपालम
क मकान के मालिक से सुब्बाराम की भेंट हुई। वह किराए के लिए मकान लेने उसके घर गया था। मकान उसको पसंद आया और मालिक ने देना भी स्वीकार कर लिया। लेकिन
-->कहा,एक बात पूछनी हैआपके यहाँ कुत्ता तो नहीं है ना?
नहीं…नहीं है। सुब्बाराम ने कहा।
रेडियो या टी वी है?
जी, नहीं।
ग्रामोफोन या स्टीरियो सेट?
वह भी नहीं है।
संगीत सीखने वाली बहनें या हारमोनियम जैसा कोई बाजा?
नहीं हैं।
अलार्म देने वाली घड़ी?
नहीं।
छोटी-छोटी बातों पर रो पड़ने वाले बच्चे?
नहीं, हमारे अभी बच्चे नहीं हुए हैं।
अच्छी बात है। मकान-मालिक ने कहा,मेरे कहने का मतलब यह नहीं था कि आप नि:संतान रहें। दरअसल बात यह है कि मुझे शोरगुल बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं है।…आप कल ही इस घर में शिफ्ट कर सकते हैं।
उसकी रजामंदी पाकर सुब्बाराम गेट तक गया, फिर लौटकर बोला,साहब, एक विनती है।
कहिए।
मेरे पास एक पेन है जो मेरे पिताजी ने मुझे दिया था। लिखते समय वह पेन बर्र-बर्र की आवाज करता है। दिन में तो कुछ पता नहीं चलता है, लेकिन रात में आवाज जरूर आती है।
-->मैं लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हूँ। मैंने सोचा कि मुझे पहले ही यह बात आपको बता देनी चाहिए इसलिए…। आपको कोई एतराज तो नहीं है न?
बस, सुब्बाराम को वह मकान किराए पर नहीं मिला।

टेस्ट/वाई के मूर्ति
श्रीराम की शादी हाल ही में हुई थी। उसने एलूर में पत्नी के साथ नया घर बसाया था।
-->
बाप रे बाप! क्या गर्मी है!! घर आते ही परेशान होते हुए उसने पंखे का स्विच ऑन किया और कुर्सी पर जा बैठा।
पंखे की हवा से मेज पर पड़ा अन्तर्देशीय पत्र उड़कर उसकी गोद में आ गिरा। उठाकर देखा तो उसे खुला पाया। पता चला कि वह आज की ही डाक से आया था। भेजने वाले की जगह पर सुशीला लिखा हुआ था। बस, उसका पारा सातवें आसमान पर जा चढ़ा।
सीता…ऽ…ओ सीता…! वह जोर-से चिल्लाया।
पति की आवाज सुनकर सीता ने भाँप लिया कि वह गुस्से में है, लेकिन उसके गुस्से का कारण उसकी समझ में नहीं आया। वह लगभग दौड़ती हुई-सी आई और पति की ओर देखने लगी मानो पूछ रही हो कि क्या बात है?
इस लिफाफे को किसने फाड़ा है? श्रीराम बरसा।
मैंने। सिर झुकाए सीता ने धीमे-से उत्तर दिया।
छि:-छि! मेनर्सलेस ब्रूट! क्या तुम्हारी अक्ल मारी गई है? तुमने इसे क्यों फाड़ा? तुम्हें यह भी पता नहीं है कि दूसरे का पत्र पढ़ना असभ्यता है? देखो, इन्सान के रूप में पैदा होना ही काफी नहीं है, मेनर्स को जानना और निभाना भी आना चाहिए। जो इन्हें निभाना नहीं जानता वह इन्सान नहीं, जानवर है जानवर।
बात यह है जी कि…मैंने सोचा था कि कहीं कोई अर्जेण्ट मैटर न हो…इसलिए… आँसुओं को बरबस रोकती सीता ने भर्राए स्वर में कहा।
क्यों झूठ बोलती हो? तुमने क्या खोलते समय यह नहीं देखा कि प्रेषक के स्थान पर सुशीला लिखा हुआ है? तुमने सोचा होगा कि न जाने यह सुशीला कौन है! यही जानने के लिए तुमने इसे खोला। यही बात है न?
सीता चुप रही।
जानती हो, यह सुशीला कौन है? यह मेरी चचेरी बहन है। यहाँ से दूर अपरा में रहती है। अपना अच्छा-बुरा मुझे लिखकर अपना मन हल्का कर लेती है। तुम्हें क्या जरूरत आ पड़ी थी इसे खोलकर पढ़ने की? देखो, किसी का भी पत्र खोलकर पढ़ना मुझे कतई पसंद नहीं है। तुमको यही मेरी आखिरी चेतावनी है। जाओ।
बिना चूँ-चाँ किए वहाँ से चली गई भारत देश की मध्यवर्गीय गृहिणी सीता! उसके चले जाने के बाद आराम से श्रीराम ने पत्र को पढ़ना शुरू किया।
एक दिन, दफ्तर की छुट्टी थी, अत: वह घर पर ही था। पत्नी अपनी बहन के घर विजयवाड़ा गई हुई थी। अभी दो दिन भी नहीं बीते थे। घर में उसका जी ऊब रहा था इसलिए वह मेटिनी शो देखने जाने के लिए तैयार होने लगा। इतने में ही पोस्ट आवाज सुनाई दी। बाहर निकलकर उसने पोस्टमैन से चिट्ठी ली। चिट्ठीसीता धर्मपत्नी श्रीराम के नाम थी, बाकी पता भी यहीं का था। भेजने वाले का नाम देखावासू लिखा था।
एकबारगी उसे झटका लगा। यह वासू कौन है? जहाँ तक मुझे मालूम है, सीता के रिश्तेदारों में वासू नाम का कोई व्यक्ति नहीं है। फिर, यह कौन है? सीता का कोई बॉय-फ्रेंड या कॉलेज-फेंड तो नहीं है? जरूर इसका सीता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा, अन्यथा इतना साहस न करता कि सीधे घर के पते पर पत्र लिख भेजता। संयोग से घर पर हूँ इसलिए यह मेरे हाथ लग गया। पता नहीं कितने अरसे से यह चक्कर चल रहा है!यों सोचते हुए एकबारगी गुस्से से पागल हो गया श्रीराम। अन्तत: लिफाफे के मुँह को फाड़कर उसने पढ़ना शुरू किया
पतिदेव को नमस्कार! आप अपने उसूल के कितने पक्के हैं, यही देखने के लिए यह एक छोटा-सा टेस्ट था। लेकिन बेचारे! इस टेस्ट में पास न हो सके। दुखी न होइए। कम-से-कम अब-से अपने उसूल को निभाने का प्रयत्न कीजिए। आप अपने उसूलों के पक्के रहें, इसीलिए देवीमाता के मंदिर में आपके नाम से पूजा-अर्चना करवा रही हूँ। तो फिर छुट्टी लूँ?                                                                                                                                               आपकी पत्नी
            सीता
पत्र को पढ़कर श्रीराम बेहोश-सा हो गया।


Monday, 5 October 2009

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथाएँ

--> -->
जनगाथा के इस अंक में हिन्दी व पंजाबी लघुकथा-लेखन में समान रूप से सक्रिय डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथाएँ प्रस्तुत है। ये लघुकथाएँ भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल के सौजन्य से प्राप्त हुई है जो स्वयं भी हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं की लघुकथाओं के साथ लेखन, संपादन, आलोचना और अनुवाद सभी स्तरों पर जुड़े हुए हैं। श्याम सुन्दर अग्रवाल जी की लघुकथाओं को आप अगस्त 2009 के जनगाथा में पढ़ चुके हैं। दीप्ति जी की लघुकथाओं में मानव-मन की गहरी गुफाओं के दर्शन होते हैं। ऐसी गुफाएँ जो पाठक में अपने और भीतर…और भीतर प्रविष्ट होने की जिज्ञासा उत्पन्न करती हैं और किसी भी बिन्दु पर उसे हताश नहीं होने देतीं। पंजाब के इन दोनों ही कथाकारों की लघुकथाओं से लघुकथा कहने की (न कि लिखने की) कला को जाना जा सकता है। प्रयत्न रहेगा कि जनगाथा के माध्यम से देश अन्य प्रांतों के लघुकथा-लेखन से पाठकों को परिचित कराया जाता रहे। -बलराम अग्रवाल
गुब्बारा
गली में से गुब्बारेवाला रोज गुजरता। वह बाहर खड़े बच्चों को गुब्बारा पकड़ा देता और बच्चा माँ-बाप को दिखाता। फिर बच्चा खुद ही पैसे दे आता, या उसके माँ-बाप। इसी तरह एक दिन मेरी बेटी से हुआ। मैं उठकर बाहर गया और गुब्बारे का एक रुपया दे आया। दूसरे दिन फिर बेटी ने वैसा ही किया। मैने कहा, बेटे, क्या करना है गुब्बारा? रहने दे न!पर वह कहाँ मानती थी, रुपया ले ही गई। तीसरे दिन जब रुपया दिया तो लगा कि भई रोज-रोज तो यह काम ठीक नहीं। एक रुपया रोज महज दस मिनट के लिए। अभी फट जाएगा।
मैने आराम से बैठकर बेटी को समझाया, बेटे! गुब्बारा कोई खाने की चीज है? नहीं न! एक मिनट में ही फट जाता है। गुब्बारा अच्छा नहीं होता। अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते। हम बाजार से कोई अच्छी चीज लेकर आएंगे।
अगले दिन जब गुब्बारेवाले की आवाज गली से आई तो बेटी बाहर न निकली और मेरी तरफ देखकर कहने लगी, गुब्बारा अच्छा नहीं होता। भैया रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊँ कि वह चला जाए।
वह आप ही चला जाएगा।मैने कहा। वह बैठ गई।
उससे अगले दिन गुब्बारेवाले की आवाज सुनकर वह बाहर जाने लगी तो मुझे देख बोली, मैं गुब्बारा नहीं लूँगी।और वह वापस आई तो, अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते न? राजू तो अच्छा बच्चा नहीं है। गुब्बारा तो मिनट में फट जाता है। कहती हुई अपनी मम्मी के पास रसोई में चली गई और उससे बोली, मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो न!
-0-
हद
एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ।
साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है।
तुम इस बारे में कुछ कहना चाहते हो? मजिस्ट्रेट ने पूछा।
मैने क्या कहना है, सरकार! मैं खेतों में पानी देकर बैठा था। ‘हीर’ के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नज़र नहीं आई।
-0-
दूसरा किनारा
काफिला चला जा रहा था। शाम के वक्त एक जगह पर आराम करना था और भूख भी महसूस हो रही थी। एक जगह दो ढाबे दिखाई दिए। एक पर लिखा था–‘हिंदु ढाबा’ और दूसरे पर ‘मुस्लिम ढाबा’। दोनों ढाबों में से नौकर बाहर निकल कर आवाजें दे रहे थे। काफिले के लोग बँट गए। अंत में एक शख्स रह गया, जो कभी इस ओर, कभी उस ओर झांक रहा था। दोनों ओर के एक-एक आदमी ने, जो पीछे रह गए थे, पूछा, किधर जाना है? हिंदु है या मुसलमान? क्या देख रहा है, रोटी नहीं खानी?
वह हाथ मारता हुआ ऐं…ऐं…अं…आं करता हुआ वहीं खड़ा रहा। जैसे उसे कुछ समझ में न आया हो और पूछ रहा हो, ‘रोटी, हिंदु, मुसलमान।’
दोनों ओर के लोगों ने सोचा, वह कोई पागल है और उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ गए।
कुछ देर बाद दोनों ओर से एक-एक थाली रोटी की आई और उसके सामने रख दी गईं। वह हलका-सा मुस्काया। फिर दोनों थालियों में से रोटियां उठाकर अपने हाथ पर रखीं और दोनों कटोरियों में से सब्जी रोटियों पर उँडेल ली। फिर सड़क के दूसरे किनारे जाकर मुंह घुमाकर खाने लगा।
-0-
मुसीबत
शाम को बारिश शुरू हुई और सुबह तक रुकी ही नहीं। ठंड भी काफी बढ़ गई। नरेश का रजाई से बाहर निकलने को मन नहीं कर रहा था।
बच्ची उठ कर स्कूल के लिए तैयार हो गई थी। बारिश में भी आटो वाला आया और वह स्कूल चली गई।
अब आप उठ जाओ, तैयार नहीं होना?आखिर पत्नी ने नरेश को टोक दिया।
बारिश तो रुके, चले जाएंगे। वहाँ भी क्या करना है।
अच्छा, तैयारी तो करो ताकि बारिश रुकने पर जा सको।
पत्नी ने नाश्ता बना कर माँ को दिया और फिर नरेश से बोली,आप भी नाश्ता कर लो, फिर जो मन में आए करना।
नरेश ग्यारह बजे दफ्तर पहुँच सका। उस समय तक केवल अरोड़ा ही आया था।
इस सुहावने मौसम में आप क्या करने आ गए?अरोड़ा बोला।
क्यों? ड्यूटी पर तो आना ही था।
ड्यूटी कहीं भागी तो नहीं जा रही थी। आज तो घर में ठंड एंज्वाय करने का दिन था।
तो फिर आप किस खुशी में आ गए?
हमारी तो मजबूरी थी,अरोड़ा ने ठंडी साँस ली, पत्नी प्राईवेट स्कूल में है। हमारी तरह सरकारी ऐश थोड़े ही है। अब देखो गर्ग साहब नहीं आए न, आएंगे भी नहीं। आप भी घर जाकर मजे करो। यहाँ मैं देख लूँगा।
गर्ग साहब की बात छोड़,नरेश बोला,अपने यहाँ भी मुसीबत है। माँ आई हुई है गाँव से।नरेश ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
-0-
माँ की जरूरत
कर लो पता अपने काम का, साथ ही उन्हें चेयरमैन बनने की बधाई भी दे आओ, इस बहाने।
पत्नी ने कहा तो भारती चला गया, वरना वह तो कह देता था,‘ देख,‘गर काम होना होगा तो सरदूल सिंह खुद ही सूचित कर देगा। हर चार-पाँच दिन के बाद मुलाकात हो ही जाती है।’
तबादलों की राजनीति वह समझता था। कैसे मंत्री ने विभाग संभालते ही सबसे पहले तबादलों का ही काम किया। बदली के आदेश हाथ में पहुँचते ही भारती ने अपनी हाज़िरी-रिपोर्ट दी और योजना बनाने लगा कि क्या किया जाए– वहाँ रहे, बच्चों को साथ ले जाए या फिर रोजाना आए-जाए। बच्चों की पढ़ाई के मद्देनज़र आख़िरी निर्णय यही हुआ कि अभी यहीं रहते हैं और ‘दंपति-केस’ के आधार पर एक अर्जी डाल देते हैं। और तो भारती के वश में कुछ था भी नहीं। फिर पत्नी के कहने पर एक अर्जी राजनीतिक साख वाले पड़ोसी सरदूल सिंह को दे आया था।
सरदूल सिंह घर पर ही मिल गया। वह भारती को गर्मजोशी से मिला। भारती को भी अच्छा लगा। आराम से बैठ, चाय मँगवा कर सरदूल बोला, छोटे भाई! वह अर्जी मैने तो उस वक्त पढ़ी नहीं, वह अर्जी तूने अपनी तरफ से क्यों लिखी? माता जी की तरफ से लिखनी थी। ऐसा कर, एक नई अर्जी लिख, माता जी की तरफ से। लिख कि मैं एक बूढ़ी औरत हूँ, अकसर बीमार रहती हूँ। मेरी बहू भी नौकरी करती है…बच्चे छोटे हैं, देर-सवेर दवाई की ज़रूरत पड़ती है…मेरे बेटे के पास रहने से मैं……। कुछ इस तरह से बात बना। बाकी तू समझदार है। मैने परसों फिर जाना है, मंत्री से भी मुलाकात होगी।उसने आत्मीयता दिखाते हुए कहा।
भारती ने सिर हिलाया, हाथ मिलाया और घर की तरफ चल दिया। माँ की तरफ से अर्जी लिखी जाए। माँ को मेरी ज़रूरत है…माँ बीमार रहती है…कमाल! बताओ अच्छी-भली माँ को यूँ ही बीमार कर दूँ। सुबह उठ कर बच्चों को स्कूल का नाश्ता बना कर देती है। हम दोनों तो ड्यूटी पर जाने की भाग-दौड़ में होते हैं। दोपहर को आते हैं तो खाना तैयार मिलता है। मैं तो कई बार कह चुका हूँ कि माँ बर्तन साफ करने के लिए नौकरानी रख लेते हैं, पर माँ नहीं रखने देती। कहती है,‘ मैं सारा दिन बेकार क्या करती हूँ।’…कहता लिख दे, बेटे का घर में रहना ज़रूरी है। मेरी बीमारी के कारण मुझे इसकी ज़रूरत है। कोई पूछे इससे कि माँ की हमें ज़रूरत है कि…। नहीं-नहीं, माँ की तरफ से नहीं लिखी जा सकती अर्जी।
-0-
मूर्ति
वह बाज़ार से गुजर रहा था। एक फुटपाथ पर पड़ी मूर्तियाँ देख कर वह रुक गया।
फुटपाथ पर पड़ी खूबसूरत मूर्तियाँ! बढ़िया तराशी हुईं। रंगो के सुमेल में मूर्तिकला का अनुपम नमूना थीं वे!
वह मूर्तिकला का कद्रदान था। उसने सोचा कि एक मूर्ति ले जाए।
उसे गौर से मूर्तियाँ देखता पाकर मूर्तिवाले ने कहा, ले जाओ, साहब, भगवान कृष्ण की मूर्ति है।
भगवान कृष्ण?उसके मुख से यह एक प्रश्न की तरह निकला।
हाँ साहब, भगवान कृष्ण! आप तो हिंदू हैं, आप तो जानते ही होंगे।
वह खड़ा-खड़ा सोचने लगा, यह मूर्ति तो आदमी को हिंदू बनाती है।
क्या सोच रहे हैं, साहब? यह मूर्ति तो हर हिंदू के घर होती है, ज्यादा महँगी नहीं है।मूर्तिवाला बोला।
नहीं चाहिए।कहकर वह वहाँ से चल दिया।
-0-
माँ
मम्मी, मम्मी! मेरा शार्पनर कहाँ है?
मौम! कुछ खाने को बना दो।
मौम…
बेटा बार-बार कुछ माँग रहा था।
तू आवाज देने से न हटना। तू एक ही बार नहीं माँग सकता सब कुछ। बता, क्या मौम-मौम लगा रखी है?
वह भी परेशान थी, अपने सर्वाइकल के दर्द से और ऊपर से नौकरानी भी देर से आई थी। उसकी प्रतीक्षा कर वह आधा काम स्वयं ही निपटा चुकी थी।
कभी खुद भी उठना चाहिए।उसने बेटे को जूस का गिलास देते हुए कहा।
राजेश अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। वह उठ कर बेटे के कमरे में आ गया। वैसे माँ-बेटे की बातें वह वहाँ बैठा सुन ही रहा था।
कुछ देर बाद बेटा उठकर बाहर माँ के पास जाकर बोला,मम्मी, पापा कहते हैं…
अब उन्हें क्या चाहिए? उन्हें कह रुकें पाँच मिनट, एक ही बार फ्री होकर चाय बनाऊँगी।
नहीं मम्मी! पापा कहते हैं…माँ बनना आसान नहीं होता।
अच्छा! अब तुम्हें पढ़ाने आ गए। क्यों? पिता बनना आसान होता है? दूसरे की तारीफ करो और अपना काम निकालो। ये नहीं कि काम में हाथ बंटा दें।उस ने उसी रौ में बात को जारी रखा और उसकी ओर मुँह करके बोली, पूछना था न, माँ बनना क्यों कठिन है?
पूछा था मम्मी!
अच्छा तो फिर क्या जवाब मिला?
पापा कहते, तुझे जन्म देने के लिए तेरी माँ का बड़ा आपरेशन हुआ,बच्चे ने आँखें तथा हाथ फैलाकर कहा, मम्मी के पेट को चीरा देना पड़ा। मम्मी! पापा कहते, पता नहीं कितने टाँके लगे। बड़ी तकलीफ हुई…।
बच्चे की बात सुन, माँ ने उसे कसकर सीने से लगा लिया।
-0-
डॉ. श्या सुन्दर दीप्ति: संक्षिप्त परिचय
जन्म : 30 अप्रैल 1954, अबोहर (जिला: फिरोज़पुर),पंजाब।
शिक्षा : एम.बी.बी.एस., एम.डी.(कम्युनिटी मैडीसन), एम.ए.( समाज विज्ञान व पंजाबी), एम.एस-सी.(एप्लाइड साइकोलजी)
प्रकाशित पुस्तकें
मौलिक : ‘बेड़ियाँ’, ‘इक्को ही सवाल’(लघुकथा संग्रह, पंजाबी में), तथा विभिन्न विधाओं से संबंधित 33 और पुस्तकें।
संपादित : 27 लघुकथा संग्रह (पंजाबी व हिंदी में) तथा 10 अन्य पुस्तकें।
संपादन : पंजाबी त्रैमासिक ‘मिन्नी’ का वर्ष 1988 से तथा पत्रिका ‘चिंतक’ का वर्ष 2000 से निरंतर संपादन।
संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, मैडीकल कॉलेज, अमृतसर।
संपर्क : 97, गुरु नानक एवेन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर (पंजाब)-143004
दूरभाष : 0183-2421006 मोबाइलः 09815808506
ईमेलः drdeeptiss@yahoo.co.in

Monday, 7 September 2009

आशीष रस्तोगी की लघुकथाएँ

-->
जनगाथा के इस अंक के माध्यम से एकदम नए रचनाकार आशीष रस्तौगी का पदार्पण कथा-साहित्य की दुनिया में हो रहा है। इससे पहले आशीष ने कहीं भी अपनी रचनाओं को प्रकाशन के लिए नहीं भेजा। अपनी रचनाओं की उत्कृष्टता का उन्हें जैसे पता ही नहीं है। मुझे मेरे बेटे और उसके मित्र आकाश के जरिए ये रचनाएँ प्राप्त हुईंगड़े हुए खजाने की तरह। सौभाग्य से आज आशीष का जन्मदिन भी है। जन्मदिन पर ईश्वर से उनके लेखन को और उत्कृष्टता प्रदान करने की प्रार्थना और जीवन-संग्राम में उनकी सफलता हेतु हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आइए पढ़ते हैं इस जवान कलम से उतरी ये लघुकथाएँ :
-बलराम अग्रवाल
॥1॥ मानसून आया
जून का महीना। आसमान से शोले बरस रहे थे। हर व्यक्ति ऊपर की ओर देखता और इन्द्रदेव से प्रार्थना करता; लेकिन लग रहा था कि वह भी पृथ्वीवासियों पर कुपित हो गये हैं, पानी की जगह आग बरसा रहे हैं।
समय कुछ और आगे खिसका। मौसम का मिजाज बदलने-सा लगा। आसमान में बादल छाने लगे। हालाँकि वे अभी बरसे नहीं थे, लेकिन लोगों के दिलों में कुछ ठंडक पहुँचने लगी। बादलों ने गड़गड़ाना शुरू किया तो लोगों की जैसे जिन्दगी ही बदलनी शुरू हो गई।
जो गरजते हैं बरसते नहीं का अपना ही नियम तोड़ बादलों ने पानी छिड़कना शुरू किया तो घाम की चोटों से हाँफ गये लोगों की जान में जान आनी शुरू हुई। रसोईघरों में बरतन खनकने लगे। चाय और पकौड़ियों का…समोसों का दौर शुरू हो गया। कॉपियों से पन्ने फाड़-फाड़कर बच्चे नावें बनाने और नालियों में तैराने की तैयारी करने लगे। सभी के मन में सिर्फ एक ही बात थी—‘बरसो रे…ऽ…बैरी बदरवा बरसो रे…ऽ…!
एकाएक बूँदें थमने-सी लगीं। सभी की निगाहें सूने होते जा रहे आसमान की ओर उठ गयीं। सड़क किनारे की एक छप्परनुमा दुकान से आवाज आई—“अरे इन्द्र देवता, अभी तो चाय की प्याली को होठों से लगाया ही था…और पकौड़ियाँ तो अभी कड़ाही में छनन-छनन नाच ही रही हैं, बाहर निकली तक नहीं। कम से कम एक राउंड तो इनका चला लेने देते!
इसे सुनकर आसपास बैठे हालाँकि सभी लोग हँसने लगे, लेकिन बड़ी हसरत के साथ भागते बादलों की ओर ताकने लगे।
॥2॥ रहम कर
अभी दो दिन पहले की ही बात है। मैं रोज की तरह अखबार पर सरसरी नजर दौड़ा रहा था। एकाएक दो सुर्खियों पर मेरी निगाह टिक गई।
पहली थी
एक उद्योगपति ने अपनी पत्नी के जन्मदिन पर 400 करोड़ का जेट विमान उपहार में दिया।
दूसरी थी
एक किसान ने कर्ज न चुका पाने की वजह से आत्महत्या की। उस पर पूरे 18000 रुपए का कर्ज था।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि देश में यह हो क्या रहा है? इतनी असमानता! आजादी के बाद अमीर जहाँ और-अमीर हो रहा है, वहीं गरीब गरीबी के गर्त में और-ज्यादा धँसता जा रहा है।
मन बहुत अशांत हो उठा था। रह-रहकर बस एक ही आवाज भीतर से सुनाई दे रही थीहे ईश्वर! तू और चाहे जो कर, लेकिन इस देश के किसान को आत्महत्या के लिए मजबूर मत कर।
॥3॥ कुत्ता
शाम का समय था। ठेकेदार साहब अपने घर पर बैठकर चाय का मजा ले रहे थे। तभी गेट पर घंटी बजी। दुबला-पतला एक व्यक्ति गेट पर खड़ा था। गेट खुला हुआ ही था।
साहब, मुझे गुप्ताजी ने आपके पास भेजा है। पूछने पर उसने बताया।
ठेकेदार ने उसे अन्दर बुला लिया। अन्दर पहुँचकर वह ठेकेदार से कुछ दूरी बनाते हुए जमीन पर बैठ गया।
घरेलू कामकाज के लिए हम लोगों को एक नौकर की तलाश है। घर में सिर्फ तीन प्राणी हैंमैं, मेरी पत्नी और विदेशी नस्ल का हमारा रूमी।
जमीन पर बैठे आदमी की समझ में वह तीसरा प्राणी एकाएक ही नहीं आया कि कौन है। वह ठेकेदार से उसके बारे में पूछने ही वाला था कि सुती-सी कमर वाला एक कुत्ता वहाँ आया और उसे घूरता हुआ ठेकेदार के समीप सोफे पर बैठ गया।
साहब, मेरे को घर का सारा काम आता है। सारी बात समझकर व्यक्ति बोला।
नाम क्या है तुम्हारा? ठेकेदार ने उससे पूछा।
जी, गरीबू। वह बोला।
तुम्हारे परिवार में कितने लोग हैं?
पाँच लोग हैं साहबमैं, मेरी बीवी और तीन बच्चे…।
ये बातें चल ही रही थीं कि गेट की घंटी पुन: बजी। देखाठेकेदार का एक अन्य मित्र सोहन सिंह घर में घुस रहा था। वह आया और उसी सोफे पर बैठकर कुत्ते से खेलने लगा।
घर और बाजार का सारा काम करना होगा। ठेकेदार गरीबू से बोला,पगार तीन हजार रुपए महीना यानी कि सौ रुपए रोज। जिस दिन भी छुट्टी करोगेसौ रुपया काट लिया जाएगा।
जी। गरीबू ने गरदन हिलाई।
आने-जाने वालों का भी पूरा ध्यान रखना होगामंजूर है? ठेकेदार ने पकाया।
जी। उसने पुन: गरदन हिलाई।
यार ऐसा ही एक पीस मैं भी घर में रखना चाहता हूँ। बातचीत के बीच में ही सोहन सिंह ठेकेदार से बोला,माहवार कितना खर्चा आ जाता होगा?
ठीक-ठाक चलता रहे तो यही करीब दस हजार…। ठेकेदार बोला।
गरीबू की हसरत भरी नजरें ठेकेदार का जवाब सुनते ही रूमी पर जा टिकीं।
॥4॥ आत्मनिर्भर
बहुत भूख लगी है…दो दिनों से कुछ खाया नहीं है…रुपया-दो रुपया दे दो साहब। मंदिर-प्रांगण के बाहर घूम रहे भिखारीनुमा नौजवान ने नंदू के निकट आकर कहा। उसने देखा कि भीख माँगने के लिए हाथ फैलाए खड़ा लड़का हट्टा-कट्टा और मझोली कद-काठी का था।
हट्टा-कट्टा होकर भीख माँगता है? मेहनत-मजदूरी कर, कमाकर खा। नंदू गुस्से में बोला।
अनजान आदमी को शहर में कौन काम पर रखता है साहब? भिखारी बोला।
मैं रखूँगा तुझे, चल। कहते हुए नंदू ने उसको कलाई पर से पकड़ लिया। भिखारी झेंप-सा गया। हाथ छुड़ाता हुआ बोला,एक दिन का कितना पैसा दोगे साहब?
एक दिन का नहीं, महीना-भर काम करने का पैसा मिलेगाचार हजार…। उसकी कलाई पर पकड़ को बरकरार रखते हुए नंदू उससे बोला।
चार हजार! भिखारी उपहास-भरे अंदाज में चौंका। बोला,पाँच हजार की नौकरी छोड़े बैठा हूँ साहब। बंदा समझने लगता है जैसे वही हमारा पेट पाल रहा है और हम उसके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं! उस जलालत से यह भीख माँगकर पेट भर लेने का धंधा भला। वैसे भी, यहाँ बैठकर डेढ़-दो सौ रुपया रोज तो बना ही लेता हूँ मैं। कभी-कभी खाना-कपड़ा-फल-मिठाई वगैरा भी मिल जाता है सो अलग। न किसी की चें-चें न चिख-चिख, न गुलामी। अपने काम का खुद मुख्तार हूँ। कहते-कहते नंदू की पकड़ से अपनी कलाई को छुड़ाकर वह वापस अपनी जगह पर जा बैठा।
॥5॥ श्यामपट
यह उन दिनों की बात है जब विजय-चाचा ने काले रंग की नई होंडा सिटी खरीदी थी। उसके प्रति उसके जुनून को देखकर लगता था कि उसे वे चाची से भी ज्यादा प्यार करते थे।
अपनी उस नई प्रियतमा को एक दिन घर की चारदीवारी से निकालकर चाचा ने घर के सामने खुली हवा में खड़ा कर दिया। उनका मंशा उसे शायद पड़ोसियों को दिखाने का भी रहा हो। उसे वहाँ खड़ी करके वे घर के कामकाज में लग गए। अभी कुछ ही मिनट बीते होंगे कि बाहर से आती चाची की तेज पुकारों ने उनका ध्यान आकृष्ट किया।
अरे, मनु के पापा, जल्दी से बाहर आओ…। वे चिल्ला रही थीं।
हाथ का काम जहाँ का तहाँ छोड़-छाड़कर चाचा बाहर की ओर भागे।
क्या हुआ? उन्होंने चाची से पूछा।
वो देखो…। चाची ने कार की ओर इशारा करते हुए कहा।
चाचा ने कार की ओर देखा। पड़ोस के एक छोटे बच्चे ने पत्थर की नोक से कार की पूरी बॉडी पर अंग्रेजी अल्फाबेट ए से जैड तक लिख मारा था। जगह बचती तो उस पर वह गिनतियाँ भी जरूर लिखता। चाचा के गुस्से का न ओर था न छोर। कार के पास ही खड़े उस बच्चे के दोनों कंधों को पकड़कर उन्होंने कहा—“ये क्या किया तूने!
बच्चा उनकी मुख-मुद्रा को देखकर सहम गया। बड़े भोलेपन के साथ बोला—“मम्मी ने मुझे एबीसी याद कराई थी और बोला था कि एक घंटे बाद फिर पूछेंगी। मैंने सोचा कि लिखकर याद करूँगा तो पता चल जाएगा कि कोई लैटर छूटता तो नहीं है। मैंने इसीलिए…।
उसकी बात सुनकर चाचा का गुस्सा काफूर हो गया। बच्चा जान बचाकर भाग खड़ा हुआ।
॥6॥ आण्टी का ढाबा
मैं उन दिनों मेरठ में रहा करता था। यों खाने-पीने की कोई परेशानी वहाँ पर नहीं थी, लेकिन घर के भोजन की याद फिर भी बहुत आया करती थी। दोस्तों के बीच भी इस बात का जिक्र हो जाया करता था।
इसी तरह की बात चली तो एक दोस्त ने एक दिन आण्टी के ढाबे के बारे में बताया। कहा कि वह एकदम घर जैसा भोजन बनाती है और माँ की तरह ही स्नेह के साथ खिलाती है। तारीफ सुनी तो दोस्त के साथ मैं भी उस दिन आण्टी के हाथ के खाने का स्वाद चखने उसके ढाबे पर पहुँच गया। खाने वालों की जैसे लाइन लगी हुई थी।
दो छोटी दुकानों को मिलाकर आण्टी ने एक ढाबे का रूप दे रखा था। साफ-सफाई भी ज्यादा नहीं थी। करीब दस मिनट इंतजार के बाद हमें दो सीटें खाली मिलीं और उसके बीस मिनट बाद खाने की थाली हमारे सामने आई। इतना समय बरबाद हो जाने पर बड़ी कोफ्त हुई, लेकिन जब खाना खाया तो…इंतजार करने का सारा अफसोस जाता रहा। खाना वाकई एकदम घर जैसा, स्वादिष्ट था। खाना खाने के बाद पैसे दिये तो वह भी वाजिब। उस दिन से सुबह-शाम हर रोज वहीं पर जाना शुरू कर दिया।
आण्टी का व्यवहार, जैसा कि दोस्त ने बताया था, माँ जैसा ही था; लेकिन उसका पति, जिसे सब लोग अंक संबोधित करते थेबड़ा ही खड़ूस किस्म का इंसान था। वह रोजाना ही किसी न किसी ग्राहक से किसी न किसी बात पर उलझता ही रहता। ग्राहकों से नोक-झोक करना उसके लिए आम बात थी लेकिन ग्राहकों के लिए नहीं। उसके व्यवहार से परेशान कई लोगों ने ढाबे पर आना छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद मेरा मन भी उसकी बेमतलब चूँ-चपड़ से ऊब गया, मैंने भी जाना छोड़ दिया।
दो या तीन महीने बाद पता चला कि आण्टी का ढाबा बंद हो गया है।
॥7॥ कार या प्यार
सुबह का समय था। परिवार रविवार की छुट्टी का मजा ले रहा था। पिता अपनी नई चमचमाती कार को बाहर सड़क पर निकालकर बहुत प्यार से साफ कर रहा था। माता रसोईघर में सुबह के नाश्ते की तैयारी में व्यस्त थी। बेटा अपने खिलौनों से खेल रहा था।
खेलते-खेलते बेटे को अचानक कुछ सूझा। खिलौनों को एक ओर सरकाकर वह उठ खड़ा हुआ और बाहर आ गया। बाहर आकर सड़क पर से उसने एक नुकीला पत्थर उठाया और कार पर आइ लव यू पापा लिख दिया।
पिता ने देखा तो आगबबूला हो गया। पत्थर के उसी टुकड़े से चोटें मार-मारकर उसने बालक की उँगलियाँ कुचल दीं। वह दर्द से बिलबिला उठा। माता ने पिता का चीखना-चिल्लाना और बच्चे का रोना-बिलबिलाना सुना तो सब-कुछ छोड़-छाड़कर बाहर की ओर भागी। हालात पर बहस करने में समय बरबाद करने की बजाय उसने बच्चे को गोद में उठाया और क्लीनिक जा पहुँची।
कई उँगलियों की हड्डियाँ टूट गई हैं… डॉक्टर ने देखकर बताया,तीन-चार महीने तो लग ही जाएँगे।
इसी बीच पिता भी वहाँ पहुँच गया। अपने किये पर वह बहुत दुखी था और मन ही मन खुद को कोस रहा था। वह लगातार यही सोच रहा था कि बेटे ने तो उसके प्रति अपना प्यार प्रकट किया था लेकिन उस प्यार के बदला उसने क्या दिया!
अफसोस के उन्हीं क्षणों में उसकी नजर क्लीनिक की दीवार पर लिखे इस स्लोगन पर पड़ गईमनुष्य प्यार करने के लिए बना है और वस्तु इस्तेमाल के लिए। मगर दुर्भाग्य! हम आज वस्तु को प्यार करने लगे हैं और मनुष्य को इस्तेमाल!
आशीष रस्तौगी : संक्षिप्त परिचय
7 सितम्बर, 1984 को जन्मे आशीष ने यूपीटेक के माध्यम से गाजियाबाद के आई एम एस से बी टेक तत्पश्चात एम बी ए किया है और संप्रति एच सी एल की नोएडा स्थित इकाई में मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। लेखन के बारे में उनका कहना है किमेरा लेखन मेरे अनुभवों की देन है। मेरी रचनाओं में से कुछ का संबंध मुझसे है तो कुछ का देश की सामाजिक समस्याओं से। कुल मिलाकर मैं महसूस करता हूँ कि लिखना आपको उस दुनिया से जोड़ देता है जहाँ इस दुनिया के दुख आपको नहीं सता सकते।
उनका पता है: ए-27, लोहिया नगर, गाजियाबाद-201001(उ प्र)
-->
ई-मेल: ashish.rastogi7984@gmail.com