॥1॥
स्वर्ग का पता
बहुत दिनों बाद आज अर्चना का फोन आया।
मैंने झट से उठाया और रोष में बोलने लगी, “याद आ गई मेरी! कहाँ थी इतने दिन? किसी गोष्ठी में भी नहीं दिख रही!”
उसने शांति से जबाब दिया, “हाँ यार, आजकल बहुत व्यस्त रहने लगी हूँ।”
“कहाँ व्यस्त रहती हो?”
“सुबह-सुबह पूजा-पाठ, फिर भोग लगाकर फ्री होती हूँ तो बच्चों की देखभाल। शाम को सत्संग, पता ही नहीं चलता, कब दिन गुजर जाता है।”
“ओहो, तू कब से इतनी धार्मिक बन गई कि सुबह-शाम मंदिरों के चक्कर लगाती रहती है!”
“मंदिर, वंदिर नहीं; मेरा घर ही मंदिर है।”
“क्या मतलब?”
“तुझे तो मालूम है, सास-ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी 98 साल के हैं और सासु माँ 95 की। अब दोनों अशक्त हो गए हैं। सुबह दोनों को उठाना, चाय-पानी कराना, नहलाना- धुलाना, यही पूजा-पाठ है मेरा। मैं पत्थरों की मूर्तियों को नहीं सजाती, इन जिंदा मूर्तियों की ही साज-सम्हाल करती रहती हूँ।”
“तेरी देवरानी भी तो है, वह कुछ नहीं करती क्या?”
“वह भी करती है। सारा किचिन तो उसने ही सम्हाल रखा है—बच्चों के टिफिन, पूरे परिवार का नाश्ता, भोजन, रात का खाना, वही तो करती है।”
“और वह क्या बता रही थी, शाम को सत्संग?”
“हाँ, रात्रि-भोजन के बाद पूरा परिवार माँ-बाबू जी के कमरे में बैठता है। सभी अपनी- अपनी बातें बताते हैं। कोई समस्या हो तो समाधान हो जाता है। बच्चों की फरमाइशों पर भी गौर हो जाता है।”
“फिर तो बढ़िया है, तेरा घर तो स्वर्ग है बिल्कुल!”
“हाँ, यही बताने को तो फोन किया था। बता, कैसी लगी मेरी यह कहानी—‘स्वर्ग से सुंदर घर’! बिल्कुल मौलिक है।”
तभी उसके बाबू जी की आवाज फोन पर सुनाई दी, “बहू, कब से भूखा बैठा हूँ।”
“अभी फोन रखती हूँ, बाबूजी चिल्ला रहे हैं। एक मिनिट की भी चैन नहीं पकड़ते।”
तभी उसकी सास की आवाज आई—“तुम ज्यादा न चिल्लाओ जी।”
लम्बी साँस छोड़ने की आवाज...फोन कट गया।
॥2॥
मिराज
माँ और छोटे भाई को ट्रेन में बैठाकर रघु सीधे काम पर आ गया।
“ओहो...अभी तो बारह ही बजे हैं! यह घड़ी आज इतना धीमा क्यों चल रही है!! काश, मेरे पास कोई जादू की छड़ी होती जिसे घुमाकर सीधे शाम बना देता।”
घड़ी को बार-बार देखता वह, मन ही मन कहीं खोया-सा था।
शादी के दो दिन बाद ही पत्नी को गाँव में छोड़कर शहर काम पर आ गया था। महीनों तक उसे याद कर कच्चा-पक्का बना, जैसे-तैसे खाता रहा।...
माँ से मनुहार कर पत्नी को शहर ले आने की उसकी गुहार व्यर्थ न गई।
माँ उसके छोटे भाई के साथ पत्नी को लेकर शहर आ गई। नवविवाहिता बहू को घर-गृहस्थी चलाने के गुण सिखाने के लिए पूरे महीने तक, एक कमरे की खोली में रही। अब, उसकी नवब्याहता सामने तो थी, पर उसके सामीप्य से वह कोसों दूर था।
और आज—
पत्नी के सानिध्य के सुनहरे सपनों में डूबता-उतराता, शाम पाँच बजते ही वह कारखाने से निकल, बाजार की ओर बढ़ गया। वहाँ से, खाने के सामान के साथ, बेला के फूलों का एक गजरा भी लेता गया।
जैसे ही घर पहुँचा, अपने साले को आया देखकर उसका दिल धक्क-सा रह गया।
रात, खाना-पीना निपटने के बाद साले ने रघु से कहा, “जीजाजी, आपका काम तो ठीक-ठाक चल रहा है। आपकी गृहस्थी भी यहाँ जम ही गई है। सोचता हूँ, मैं भी शहर आ जाऊँ। आपका इस बारे में क्या ख्याल है?”
"नहीं, कभी नहीं। शहर में आदमी, आदमी नहीं रहता…कोल्हू का बैल बनकर रह जाता है!” कहते हुए रघु का स्वर तल्ख और तेज हो गया।
उसका साला अचरज से उसकी ओर देख उठा। वह उस सीधे-सादे आदमी के मुँह से निकले शब्दों के तीखेपन का कारण खोजने की कोशिश कर रहा था।
एकाएक रघु का हाथ, पहन रखी अपनी पेंट की जेब में चला गया और झटके के साथ ऐसे बाहर निकला जैसे जेब में बैठे साँप ने डस लिया हो। उसमें रखा गजरा मुरझा चुका था!
॥3॥
तलाक
सत्तर से ऊपर हो गया, फिर भी उन जोड़ों का इंतजार करता हूँ।
बचपन में, जब स्कूल के बरामदे में टाट-पट्टी पर दीवार के सहारे बैठकर स्लेट पर लिखने बैठता, तब नजरें उन पर ही रहती। उनके फुदकने के साथ मन भी फुदकता रहता। झुंड के झुण्ड आतीं, लाइन में बैठकर चहचहाहट करती रहतीं। थोड़ी-सी ही आहट पर फुर्र से उड़ जातीं, पर थोड़ी ही देर में लौटकर आ जातीं।
बताया गया—यह गौरैया है। फिर पहचानने लगा था कि उनमें कौन नर है कौन मादा। बैठे-बैठे उनकी कभी थोड़ी बहुत लड़ाई भी होती। देखने में बहुत आनंद आता। चोंचें भिड़ाते दो नर तेज चहचहाहट करते और जीतने वाला अपना जोड़ा बना लेता। उनके प्रणय निवेदन, भाव-भंगिमाओं को भी समझने लगा था। घर बनाने के लिए दोनों साथ-साथ तिनकों को इकट्ठे करते।
मेरी पढाई पूरी हुई। मैंने भी अपना जोड़ा बना लिया। दोस्तों-मित्रों के भी जोड़े बने। उनके बच्चों की शादी में भी शगुन और शुभकामनाएँ देकर आया।
आज, बहुत दिनों बाद, पेड़ पर गोरैया का जोड़ा आया। देखकर, मन प्रफुल्लित हो गया। पक्षियों की यह प्रजाति खुद विलुप्ति की कगार पर है, पर दिखती हमेशा जोड़े में ही है।
जिन्हें आशीर्वाद देकर आया था, उन्होंने भी काश्मीर, स्विट्जरलैंड में खूब चोंचे लड़ाईं, पर मोबाइल से चिपके रहे।
उन्होंने कभी गौरैया को नहीं देखा।
॥4॥
मानवीय कहर
‘भुखमरी से जूझ रही बच्ची और उसकी मौत का इंतजार करते गिद्ध’ की फोटो से केविन कार्टर को संसार में ख्याति मिली।
वह भी एक ऐसे ही दृश्य की तलाश में रेगिस्तान, नदी, पहाड़ एक कर रहा, गाँवों की, शहरों की खाक छान रहा ।
वह युद्ध में कुपोषण एवं चिकित्सीय अभाव में हड्डियों का ढाँचा बचे बच्चों, बारूदी बरसात से जख्मी, पट्टी बंधे कटे-फटे जिस्म और भूखे बच्चों को देखती माँ की पथरा गई पनीली आँखें, भूख से बिलबिलाती बेघर भीड़ को देख रहा। भूखमरी से निपटने के ऊँट के मुँह में जीरा जैसे होते प्रयास, प्रतिशोध की आग में जल रहे रसद को रोक प्रतिरोध कर रहे परिवारों को देख रहा, पर उसका कैमरा क्लिक नहीं कर रहा।
तलाश कर रहा ऐसी आँखों को, जिनमें इंसानियत नजर आये, जिन्हें वह कैमरे में कैद कर सके।
॥5॥
अव्यक्त
पत्नी ने कहा—“संध्या के घर चलना है। पंद्रह दिन पहले उसके पति का स्वर्गवास हो गया था।”
हम दोनों शाम को उसके घर पहुँचे।
वह दरवाज़े पर ही मशीन रखे, गुनगुनाते हुए सिलाई कर रही थी।
पत्नी के मुँह से सांत्वना के दो शब्द निकलते, उसके पहले ही वह बोल पड़ी—
“अच्छा ही हुआ, इनकी गत सुधर गई। चार महीने से खटिया पर पड़े थे। कोई रिश्तेदार झाँकने भी नहीं आया। उनकी देखभाल में ही पूरा दिन खटती रहती थी। ऊपर से दवाइयों का खर्चा अलग। अकेला लड़का क्या-क्या करता बेचारा। उसकी कमाई तो राशन-पानी को भी पूरी नहीं पड़ती।”
पत्नी की नजर उसके चेहरे पर जमी थी। वह थोडा़ रुककर बोली—“अब, सभी का एक-एक पैसा चुका दूँगी।”
पत्नी ने कहा, “हम लोगों ने जो सहयोग किया था संध्या, वह कोई कर्जा नहीं है।"
उसने कहा, “जिसे सहयोग करना चाहिए था, वह तो जिंदगीभर बोझ बना रहा! नहीं तो यह सिलाई का काम क्यों करती? पर अब...अब इसमें मन लगने लगा है। थोड़ी चैन की साँस ले पा रहीं हूँ।”
उसे खुश देखकर हम वापिस चल पड़े। रास्ते में पत्नी बोली, “अब उसकी गृहस्थी की चादर उसके सिर तक पहुँच गई है।”
मैंने कहा, “हुनर कोई भी हो, आड़े वक्त पर काम आता ही है।”
पत्नी बोली, “अपने पैरों पर खड़े होने का सुख उनकी आँखों से झलक रहा था।” और उसने मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया।
॥6॥
धड़कनें
कब आये, खाना खाया कि नहीं, लेटे हैं या सो रहे हैं!...
मैं तो खटती रहती हूँ, दिन भर, सिर दर्द के मारे फटा जा रहा था, पर किससे कहूं।
बच्चे जब से बाहर गये, मेरा तो अब कोई नहीं! इनके पास समय कब होता है, कब मेरी सुनते हैं, मुझे तो अब पता ही नहीं।
हाय राम! झक मार के डाक्टर के पास गई—
“ब्लड प्रेशर 100-140... कोई खास बात नहीं, एक गोली रोज खानी पड़ेगी।…कहाँ हैं सिंग साब! आपका ख्याल नहीं रखते!! बजन भी बढता जा रहा है, अच्छा नहीं है, कुछ कंट्रोल करो।"
मैं कुछ भी नहीं बोली।
जब सब-कुछ बढ़ रहा है, धन दौलत, रुपया-पैसा, मान-सम्मान, शुगर, ब्लड प्रेशर, वजन! मेरा कुछ और भी बढ़ रहा है—अभिमान, स्वाभिमान!
कम हो रही हैं तो दिल की धड़कनें, जो कभी एक-दूसरे के लिए धड़कती थीं...
डॉक्टर उन्हें नहीं नाप पाया!
॥7॥
अनाम
“ऐ, ओय! अरे सुन! क्या नाम है तेरा?”
उसने फावड़ा जमीन पर रखते हुए कहा, “नाम जानकार क्या करेंगे साहब, बुलाना तो आपको ‘ओय’ कहकर ही है।” “!:?”
“ज्यादा बकवास न कर। मालूम है, नगर निगम से मैंने ही बुलाया है तुझे! चल इधर आ जल्दी।”
फावड़ा वहीं छोड़कर, उनके पास आ गया, “जी कहिए।”
“यह नाली अच्छे से साफ कर दे।”
“आपके घर के सामने की ही नही, कालोनी की सारी नाली साफ करने आया हूँ।”
“ज्यादा बकवास न कर; जल्दी काम पर लग जा।”
“जी साब जी, आज कौन-सा दिन है ?”
“आज गांधी जयंती है; पर तुझे क्या ?”
कुछ सोचते हुए, “सुना है गांधी जी अपना संडास खुद साफ करते थे। उनके मन में ऊँच नीच का भाव नहीं था।”
“हाँ, परंतु इससे तुझे क्या करना है?”
“उन्होंने जिन्हें पाठ पढ़ाया वे तो भूल गए, अब हमें ही तो याद रखना है।”
चौंकते हुए, “क्या याद रखना है?”
“यही कि बाहर की और अंदर की गंदगी हमें ही साफ करना है।”
परिचय : पवन जैन
बी एससी, एम ए, एलएल बी।
593 संजीवनी नगर, जबलपुर म प्र
jainpawan9954@gmail.com
Mobile no, 9425324978
पंजाब नैशनल बैंक में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए प्रबंधक के पद से सेवा निवृत हुए।
वर्तमान में स्वतंत्र लेखन, प्रमुखतः लघुकथा, पुस्तकों की समीक्षा।
विभिन्न साहित्यिक समूहों / पटलों पर लघुकथा की कार्यशाला का आयोजन।
समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित।
लघुकथा श्री 2019
प्रसंग लघुकथा अलंकरण 2020
प्रसंग लघुकथा सृजन सम्मान 2021
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर 2021
कादम्बरी सम्मान 2023
क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान 2023
पर्पल पेन संस्था दिल्ली, साहित्य साधक सम्मान 2023
प्रकाशित कृति— ‘फाउण्टेन पेन’ लघुकथा-संग्रह।
पंजाब नेशनल बैंक, प्रधान कार्यालय नई दिल्ली द्वारा मौलिक पुस्तक लेखन योजना के अंतर्गत पुरस्कृत।
प्रमुख पत्र, पत्रिकाओं एवं संकलनों में लघुकथाएँ प्रकाशित। कुछ कथाएँ पंजाबी, नेपाली एवं उड़िया भाषा में अनुवादित एवं प्रकाशित।
कुछ सांझा संकलनों में सम्पादन सहयोग।
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