"अरे, यह कार्य कैसे प्रारम्भ हो ? साधन ही कोई नहीं है और यदि साधन हो भी जाय तो क्या आवश्यक है कि इस कार्य में हमें सफलता ही मिलेगी ?" आदि कितने मूर्खतापूर्ण विचारों का समन्वय हमारे अन्दर हो जाता है। गीतानाथ प्रश्न करते हैं--"क्या हमें कर्म ही नहीं करना चाहिए?" केवल फल (परिणाम) की इच्छा को ही हमें अग्रसर रखना है? इनके उत्तर में मैं तो कहता हूँ कि फलेच्छा से कर्म करने वाले को कभी सफलता नहीं मिलती। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किये गये कर्म के प्रति आत्म-शक्ति के द्वारा जाग रूक रहने से और उसमें आत्म-विश्वास उत्पन्न करने से सफलता मिलती है, कर्मशील व्यक्ति के लिए समस्त साधन उपलब्ध हैं, ध्येयरत मनुष्य के सफलता पैर चूमती है।" इसमें लेशमात्र भी असत्य नहीं। कोई कार्य यदि करना ही है तो लीन होकर क्यों न किया जाय, परिणाम की आसक्ति फिर क्यों ? ध्येय तक जाने के लिए कुछ लुटाना नहीं पड़ता बल्कि, स्वयं लुटना पड़ता है। उद्देश्य और परिणाम दोनों किसी भी दशा में एक नहीं हैं, विचार करने पर ये परस्पर विरोधी भावनायें हैं।
कर्म करने के लिए आत्मनिर्भर होना अति आवश्यक है। जो व्यक्ति आत्म-निर्भर नहीं हैं, वे भला कर्म क्या करेंगे? आत्मशक्ति जिनकी विकसित है, वे न तो किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर होते हैं और न किसी को कोई कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न-मात्र ही करते हैं। अहिंसक भी केवल वे ही व्यक्ति हैं जो बुद्धि विवेक के बल पर प्रत्येक समस्या का उचित समाधान करने की क्षमता रखते हैं। कर्मण्यता, आत्म-शक्ति, आत्म- निर्भरता एवं विवेक शक्ति आदि सम्पूर्ण गुण जिस व्यक्ति में विद्यमान हों उसे हम क्या कहेंगे? उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है।
ऐसी ही एक शक्ति पुनः पुन्य-भूमि भारत पर प्रकट हुई और उस दानवीय शक्ति से मुक्ति दिलाई जो अपनी नीति-विद्या में पारंगत थी। जिसने दो भाइयों के बीच झगड़ा कराकर दोनों के अधिकार हड़प लेना अपना व्यवसाय बना लिया था। दीन-हीन, अभागे किसान मजदूरों की दशा को न निहार, अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए, आँगन में किलकते बच्चों सहित उनकी कुटिया को भस्म कर दिया उनके दिलों को तोड़ दिया, उनके अविकसित अरमानों की चिता पर जिसने अपना खाना पकाया। ऐसी वह कौनसी शक्ति थी जिसने भारत की क्रान्तिकारी भावना को बढ़ा दिया, सम्पूर्ण विश्व में जिसने नया प्रकाश फैला दिया ? कोई न जान सका, न जाने वह कौन सी शक्ति थी जो सदैव के लिए प्राणीमाल के लिए एक प्रेरणा बन कर रह गयी। आज तक जो भी उसे जानने के लिए तत्पर हुआ वह उसी का होकर उसी में लीन हो गया। शक्ति तो जो कुछ भी थी, वह थी ही, परन्तु उसे प्रकट करने का माध्यम एक ऐसा प्राणी था जो स्वभाव से डरपोक परन्तु आत्माभिमानी था। शारीरिक शक्ति न होते हुए भी जिसने आत्म- शक्ति के बल पर, हिंसा, बुद्धि और विवेकशक्ति के आधार पर एक ऐसे समाज की स्थापना की जिसने सदैव के लिए भारत की दासता पर पानी फेर दिया। कुचल दिया उस घमन्डी का सिर जो प्रह्लाद का पिता बन बैठा था। उस विभूति को प्राणी समाज ने युग पुरुष, बापू, राष्ट्रपिता आदि विशिष्ट नामों से स्वीकार किया ।
दुबले-पतले साधारण शरीर पर वस्त्र केवल नाम मात्र को था । लाठी के सहारे चलने वाला वह शरीर स्वयं औरों का सहारा था। फिर भी वह किसलिए प्रत्येक मनुष्य के आकर्षण का विषय बन गया ? यह उसकी अपनी विशेषताएँ थीं। जिनके द्वारा संपूर्ण भारत ने विदेशी राज्य को हिलाकर रख दिया गया यह उसकी प्रबल आत्म-शक्ति का परिचायक एवं अपूर्व प्रमाण था। सत्य की प्रतिष्ठा के लिए उसने नये-नये अनौखे उदाहरणों को संसार में सदैव के लिए छोड़ दिया। उसने सभी प्राणियों को एकत्रित कर, अपने सुगठित, सुविचारों से परिपक्व कर अपने विश्व-व्यापी आन्दोलन का श्री-गणेश किया । समस्त प्राणियों में समन्वय की भावना का संचार कर दिया। परिणाम की ओर ध्यान न देकर सबके साथ अनेकानेक रुकावटों का निर्भयता-पूर्वक सामना करते हुए अपने लक्ष्य की ओर चला गया। न जाने कितने दीन-हीन और समाज द्वारा निष्कासित लोग उसकी शरण आये और उसने धैर्यपूर्वक उनको गले से लगाकर नवीन मार्ग में बढ़ने की प्रेरणा दी। तो क्या ऐसा करने पर समाज ने उसकी भर्त्सना की? नहीं, यह उनके बस की बात नहीं थी, फिर तो समाज के लोगों में एक नवीनता चमकी और ऊँच-नीच का भेद जानने वाले स्वयं उसकी छत्रछाया में नीच जाति को गले लगाने के लिए दौड़ पड़े और जिन लोगों ने उसकी भत्सना की, उनकी चिन्ता न कर वह ध्येय की ओर बढ़ता चला गया ।
समाज ने उसमें किसी नई शक्ति का अनुभव किया, प्रातःकालीन सूर्य की भांति, समस्त चराचर जातियाँ उसको नमस्कार कर स्वयं को धन्य अनुभव करती हैं। जैसे अब उसके प्रकाश में ही जगत् के सारे कार्य पूर्ण हो रहे हों। उसके प्रकाश में सज्जनों का मार्ग आलोकित हुआ और दुर्व्यसनों में फंसे अज्ञानियों को भय लगा। उन्होंने छुटकारा पाना चाहा, परन्तु हाय ! सूर्य केवल प्रकाश ही दे सकता है। उसके आगमन की सूचक प्रातः कालीन लालिमा ही होती है, संध्या का अन्धकार नहीं। प्रत्येक भारतीय में देशत्व का प्रकाश प्रज्ज्वलित हो गया। कोटि-कोटि मस्तक उसके आदर हेतु झुक गये, परन्तु वह तो जैसे सागर था, जिसका अथाह जल कभी छलकता नहीं, उसे अभिमान की बू नहीं थी। अपने शरीर, अपने मन और मस्तिष्क पर उसका पूर्णतः नियंलण था। उसका प्रत्येक कार्य समस्त समाज के लिए था, परन्तु फिर भी वह न जाने कितने लोगों की आँखों का काँटा बनकर खटकने लगा, न जाने क्या-क्या भावनाएँ उत्पन्न हुईं उस आत्मसम्मान की मूर्ति के अपमान के लिए। अन्धकार में कार्य करने वाले सदैव प्रकाश से डरते रहे हैं, प्रकाश उनकी मृत्यु का संदेश होता है। परन्तु क्या कितने भी प्रयत्न करने से प्रकाश समाप्त हो जायगा ? प्रकाश कभी समाप्त नहीं होता । एक दीपक, अनेकानेक दीपकों को प्रज्ज्वलित कर अपना प्रकाश संसार में छोड़ ही जाता है। महापुरुषों के कार्य में सदैव ही अन्धकार-प्रिय लोगों ने बाधाएँ उत्पन्न की हैं परन्तु वे उनको ध्येय तक पहुँचने से न रोक सके। अनेकों बार उनका असम्मान करने का प्रयत्न किया गया किन्तु ज्ञानकोष में सम्मान अथवा असम्मान नाम का कोई शब्द ही नहीं था। अपने विचार में तो वह "समाज से प्रकट हुआ और समाज में लीन होऊँ" के भाव सँजोए था। शायद यही होना था और यही हुआ, परन्तु 'उसके दीप अभी तक जल रहे हैं औरों के दिलों में।' उसका कहना था--
ध्येय की ओर चलो, ध्येय की ओर बढ़ो।
ध्येय को लेकर चलो, ध्येय को लेकर बढ़ो।। •••
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