Monday 16 September, 2024

मंटो की चुनी हुई लघुकथाएँ

'सियाह हाशिए' (1955) से चुनी हुई कुछ लघुकथाएँ। प्रस्तुति : बलराम अग्रवाल 


'सियाह हाशिए' का समर्पण पृष्ठ

             उस आदमी के नाम जिसने 

                अपनी खूंरेज़ियों

            का जिक्र करते हुए कहा : 

            जब मैंने एक बुढ़िया को मारा 

             तो मुझे ऐसा लगा--

            'मुझसे क़त्ल हो गया...!!'

।।1।।

करामात

लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।

लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलग कर दिया ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें।

एक आदमी को बहुत दिक़्क़त पेश आई। उसके पास चीनी की दो बोरियां थीं जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं। एक को तो वह जैसे-तैसे रात के अंधेरे में पास वाले कुंए में फेंक आया; लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा तो ख़ुद भी साथ चला गया।

शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएं में रस्सियां डाली गईं।

जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया। लेकिन वह चंद घंटों बाद मर गया।

दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएं में से पानी निकाला तो वह मीठा था।

उसी रात उस आदमी की कब्र पर दीए जल रहे थे।

।।2।।

ग़लती का सुधार

'कौन हो तुम ?'

'तुम कौन हो ?'

'हर-हर महादेव... हर-हर महादेव!'

'हर-हर महादेव!'

'सुबूत क्या है ?'

'सुबूत...? मेरा नाम धरमचंद है।'

'यह कोई सुबूत नहीं।'

'चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।'

'हम वेदों को नहीं जानते... सुबूत दो।'

'क्या ?'

'पायजामा ढीला करो।'

पायजामा ढीला हुआ तो शोर मच गया- 'मार डालो... मार डालो।'

'ठहरो... ठहरो... मैं तुम्हारा भाई हूं... भगवान की क़सम, तुम्हारा भाई हूं।'

'तो यह क्या सिलसिला है ?'

'जिस इलाक़े से मैं आ रहा हूं, वह हमारे दुश्मनों का है... इसीलिए मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ़ अपनी जान बचाने के लिए... एक यही चीज ग़लत हो गई है, बाक़ी मैं बिल्कुल ठीक हूं...'

'उड़ा दो ग़लती को...'

गलती उड़ा दी गई... धरमचंद भी साथ ही उड़ गया।

।।3।।

हलाल और झटका

'मैंने उसकी शहरग (हृदय से मिलने वाली सबसे बड़ी नस) पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया।'

'यह तुमने क्या किया ?'

'क्यों?'

'इसको हलाल क्यों किया ?'

'मज़ा आता है इस तरह।'

'मजा आता है के बच्चे... तुझे झटका करना चाहिए था... इस तरह।'

और हलाल करने वाले की गरदन का झटका हो गया।

।।4।।

घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक लड़की चुनी और बयालीस रुपए देकर उसे खरीद लिया। रात गुज़ार कर एक दोस्त ने उससे पूछा- 'तुम्हारा नाम क्या है?'

लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया- 'हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मजहब की हो...!'

लड़की ने जवाब दिया- 'उसने झूठ बोला था।'

यह सुन कर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा--"उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया है। हमारे ही मजहब की लड़की थमा दी चलो, वापस कर आएँ।'

।।5।।

बंटवारा

एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक़ चुना। जब उसे उठाने लगा तो वह अपनी जगह से एक इंच भी न हिला।

एक शख़्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज़ मिल ही नहीं रही थी, संदूक़ उठाने की कोशिश करने वाले से कहा- 'मैं तुम्हारी मदद करूं ?'

संदूक़ उठाने की कोशिश करने वाला मदद लेने को राजी हो गया।

उस शख़्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज़ नहीं मिल रही थी, अपने मज़बूत हाथों से संदूक़ को हिलाया और उठा कर पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया; और दोनों बाहर निकले।

संदूक़ बहुत भारी था। उसके वज़न के नीचे, उठाने वाले की पीठ चटख रही थी और टांगें दोहरी होती जा रही थीं। मगर इनाम की उम्मीद ने उसके शारीरिक श्रम के अहसास को आधा कर दिया था।

संदूक़ उठाने वाले के मुक़ाबले में संदूक़ को चुनने वाला बहुत कमज़ोर था। सारे रास्ते सिर्फ़ एक हाथ से संदूक़ को सहारा देकर वह अपना हक़ बनाए रखता रहा।

जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुंच गए तो संदूक़ को एक तरक़ रख कर सारा श्रम करने वाले ने कहा- 'बोलो, इस संदूक़ के माल में से मुझे कितना मिलेगा ?'

संदूक़ पर पहली नज़र डालने वाले ने जवाब दिया, 'एक चौथाई।'

'यह तो बहुत कम है!'

'कम बिल्कुल नहीं, ज़्यादा है... इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।'

'ठीक है, लेकिन यहां तक इस कमरतोड़ बोझ को उठा के लाया कौन है?'

'अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो ?'

'ठीक है, खोलो संदूक़।'

संदूक़ खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में काट डाला।

।।6।।

बेख़बरी का फ़ायदा

लबलबी दबी। पिस्तौल से झुंझलाकर गोली बाहर निकली। खिड़की में से बाहर झांकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।

लबलबी थोड़ी देर बाद फिर दबी। दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली।

सड़क पर भिश्ती की मश्क फटी। वह औंधे मुंह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में घुल कर बहने लगा। लबलबी तीसरी बार दबी। निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई।

चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी। वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई। 

पांचवीं और छठी गोली बेकार गई। कोई हलाक हुआ न जख़्मी।

गोलियां चलाने वाला भिन्ना गया।

अचानक सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया।

गोलियां चलाने वाले ने पिस्तौल का मुंह उसकी ओर मोड़ा। उसके साथी ने कहा, 'यह क्या करते हो?' गोलियां चलाने वाले ने पूछा, 'क्यों?' ' गोलियां तो ख़त्म हो चुकी हैं!' ' तुम ख़ामोश रहो... इतने से बच्चे को क्या मालूम ?'

।।7।।

मुनासिब कार्रवाई

जब हमला हुआ तो मुहल्ले में कुछ अल्पसंख्यक लोग क त्ल हो गए। जो बाक़ी बचे, जानें बचाकर भाग निकले। एक आदमी और उसकी बीवी अलबत्ता अपने घर के तहखाने में छिप गए।

छिपे हुए मियां-बीवी ने दो दिन और दो रातें हमलावरों के आने की आशंका में गुज़ार दी, मगर कोई नहीं आया। दो दिन और गुजर गए। मौत का डर कम होने लगा। भूख और प्यास ने ज़्यादा सताना शुरू किया। चार दिन और बीत गए। मियां-बीवी को जिंदगी और मौत से कोई दिलचस्पी न रही। दोनों उस शरणस्थली से बाहर निकल आए।

पति ने बड़ी धीमी आवाज में लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ आकृष्ट किया और कहा, 'हम दोनों अपना-आप तुम्हारे हवाले करते हैं। हमें मार डालो।' जिनका ध्यान आकर्षित किया था, वे सोच में पड़ गए-

'हमारे धरम में तो जीव-हत्या पाप है...' उन्होंने आपस में मशविरा किया और मियां-बीवी को मुनासिब कार्रवाई के लिए दूसरे मुहल्ले के आदमियों के सुपुर्द कर दिया।


(प्रकाशित : 'सनद', अक्टूबर-दिसम्बर, 2013/संस्थापक सम्पादक : फ़ज़ल इमाम मलिक)

Saturday 7 September, 2024

विभिन्न शैली प्रयोगों से युक्त ‘पीठ पर टिका घर’ / बलराम अग्रवाल



सुधा गोयल हिन्दी की जानी-मानी वरिष्ठ कथाकार हैं। अनेक उपन्यासों, कहानी संग्रहों, व्यंग्य संग्रहों, काव्य संग्रहों और बालगीत संग्रहों के प्रकाशन के उपरांत ‘पीठ पर टिका घर’ उनकी 94 लघुकथाओं का पहला संग्रह है जो लघुकथा साहित्य क्षेत्र के लिए प्रसन्नता का विषय है। लेखिका के अनुसार, इस संग्रह में उनकी सन् 1986 से लेकर अब (यानी 2024) तक लिखी लघुकथाएँ संग्रहीत हैं।

संग्रह की पहली लघुकथा ‘सप्तपदी का वायदा’ एक बड़े सिनेरियो की कथा है जिसमें से अनगिनत कोंपलें फूटती प्रतीत हो रही हैं; समर्थ कथाकार उसमें से जितनी चाहें कथाएँ निकाल सकते हैं, इसी का विस्तार कर लम्बी कहानी बना सकते हैं। अक्सर कहा जाता है कि लघुकथा अपने अन्त के साथ पाठक-मन-मस्तिष्क में विस्तार पाती है। ‘सप्तपदी का वायदा’ सरीखी अनेक लघुकथाओं के पठन से महसूस होता है कि एक अच्छी लघुकथा अपनी समूची काया में इस गुण को समेटे होती है। विचार, कल्पना और विस्तार के उसमें अनेक बिंदु होते हैं।

फ्रायड ने मन की तीन परतें निर्धारित की हैं; लेकिन उससे बहुत पहले जैन दर्शन मन को छ: प्रकार का बता चुका था। दृष्टिमोह और मिथ्याचार से ग्रसित मोह को जैनाचार्यों ने ‘मूढ़ मन’ माना है। मिथ्याचारों में से एक यह कि ‘लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे!’। यह विचार अनेक सही-गलत भावनाओं को रुद्ध करता है। लेकिन ‘वेलेन्टाइन डे’ के वर्माजी  प्रेम प्रकट करने के दबाव को साथ नहीं ले जाते, अन्तिम समय में व्यक्त कर ही देते हैं। सवाल यह पैदा होता है कि वर्माजी अगर कहकर निकल न लिए होते तो उनकी क्या गत होती? लेकिन लेखिका ने कथा के अन्तिम पैरा को कुछ इस तरह बुना है कि इसका ट्रीटमेंट पहले पैरा की तरह रोषात्मक न रहकर कोमल भावात्मक हो गया है।

कुछ लोग लघुकथा को ‘पंचलाइन’ में सीमित बताते हैं; जबकि सत्य यह है कि लघुकथा का कथ्य अपनी पूरी काया में फैला होता है। उसकी पूरी काया से गुजरे बिना कोई भी सुधी पाठक-आलोचक मात्र अन्तिम लाइनें ही पढ़कर किसी परिणाम पर नहीं  पहुँचना चाहेगा। ‘भगवान की पोशाक’ ऐसी ही लघुकथा है। ‘पंचलाइन’ के पैरोकार इसकी मात्र अन्तिम लाइनें पढ़कर यथार्थ संवेदन बिंदु तक पहुँचने का प्रयास करें।

लघुकथा ‘लक्ष्मी आई है’ पाठक को एक सकारात्मक विचार, कि—समस्त देवियों में मात्र ‘लक्ष्मी’ ही हैं जो बिना भगवान विष्णु (यानी पति) के ही पूजी जाती हैं। वहीं, ‘ये मेरी बेटी है’ भी पाठक को कन्याओं के प्रति लेखिका के भावों के समक्ष नत कर देता है। लघुकथा ‘ब्लैक फंगस’ दाम्पत्य प्रेम और परस्पर सहयोग का अनुपम चित्र प्रस्तुत करती है। ‘वारियर्स’ जीवन के लिए जूझते शरीरों को जूझने के टूल्स मुहैया कराने की कहानी प्रस्तुत करती है और सुकून प्रदान करती है कि धरती और समाज में सभी कुछ अभी मरा नहीं है। ‘पहल’ तथा ‘माँ का अधिकार’ भी स्त्री-सम्मान और स्वाभिमान की दिशा में नयी पहल प्रस्तुत करती हैं। ‘राहें ऐसी भी’ में एक ओर जहाँ कोरोना की विभीषिका का चित्रण है वहीं इन्सानियत के रंग भी हैं जो सिद्ध करते हैं कि दुनिया पूरी की पूरी बदरंग नहीं है। ‘स्मृति शेष’ बताती है कि एक रचनाकार को वास्तविक श्रद्धांजलि देना क्या होता है। ‘छत’ में लेखिका द्वारा श्लेष के प्रयोग से कथा की भावात्मकता को आयाम मिला है; इस प्रयोग ने रचना को अधिक सुन्दर, सम्प्रेषक और कलात्मक बना दिया है।

‘तमाचा’ एक शानदार-जानदार लघुकथा है। बेशक स्त्री विमर्श के खाने में रखकर भी इसका आकलन किया जा सकता है। जानबूझकर इसके कथानक का खुलासा यहाँ कर रहा हूँ, पाठकीय जिज्ञासा को बनाये रखने की दृष्टि से। ‘सौदा’ बताती है कि आतंकी घटनाओं की सफलता के पीछे कई बार पुलिस-आतंकी सहयोग भी काम करता है।

‘दया’ तथा ‘कोट और बीस रुपये’ जैसे कथ्यों पर कई लघुकथाएँ कई लघुकथाकारों द्वारा पूर्व में भी लिखी जाती रही हैं। कमल चोपड़ा की ‘साँसों के विक्रेता’ और चित्रा मुद्गल की ‘व्यवहारिकता’ के केन्द्र में यही कथ्य है। दरअसल दान अथवा दया का प्रारूप और पात्रता हम परम्परा से ग्रहण करते आये हैं, पात्र की आवश्यकता से न हम दान को जोड़ते हैं न उसके प्रति दया को। ‘आशीर्वाद’ बताती है कि धूर्तता की किस हद तक चालाक लोग  जरूरतमंद नौजवानों के श्रम का दोहन करते हैं।

लघुकथा ‘बँटवारा’ में चारों बेटों को ‘बेरोजगार’ दर्शाने का उद्देश्य समझ में नहीं आया। कथा में सम्पत्ति का बँटवारा करते समय चारों बेटे परस्पर झगड़े भले ही न हों, माँ के प्रति गैर-जिम्मेदारी का भाव अवश्य प्रकट कर देते हैं। लघुकथा का अन्तिम वाक्य—‘सामान उतारकर चारों बेटे क्षोभ और घृणा से थूककर चले गये’ भी यही दर्शाता है कि उन्हें पिता द्वारा छोड़ी गयी धन-सम्पत्ति को पाने का लालच नहीं था। ‘घड़ियाल’ बताती है कि ‘नारी चेतना मंच’ नारी के प्रति वस्तुत: कितने हृदयहीन हैं; लेकिन सवाल यहाँ भी पैदा होता है कि ‘घड़ियाल’ जैसी कथाएँ कहीं वंचित नारी के पक्ष में ईमानदारी से कार्य कर रही संस्थाओं को निरर्थक ही हतोत्साहित करने का कार्य तो नहीं कर रही हैं?  

‘पीठ पर घर’ में लेखिका ने बिम्ब का तथा ‘निर्णय’ में भाषा की सांकेतिक शक्ति का बहुत सुदर और सफल प्रयोग किया है। ‘दुहिता’ बेटी के प्रति पारम्परिक भाव, शिक्षा और शब्दावली के मुँह पर करारा तमाचा मारती है। ‘दो नोटों की कहानी’ तथा ‘विषबीज’ आदि कुछ लघुकथाएँ मानवेतर पात्रों को लेकर रची गयी हैं। ‘देवी उवाच’ बोध-शैली की कथा है तो ‘प्रैक्टीकल’ और ‘तथास्तु’ में पौराणिक कथा-पात्रों को आधार बनाया गया है तथा ‘चाणक्य’ के रूप में एक किंवदन्ती को प्रश्रय दिया गया है । ‘माटी की गुड़िया’ में लेखिका ने दृष्टांत शैली को अपनाया है।  तात्पर्य यह कि लेखिका ने ‘पीठ पर टिका घर’ में लघुकथाओं को विभिन्न शैलियों में प्रस्तुत करने के प्रयोगों का सार्थक निर्वाह किया है।

‘टिफिन’ अल्प समय में पनप गये विश्वास और अपनेपन की ओर से सावधान रहने की शिक्षा देती कथा है तो ‘प्रार्थना’ ईश्वरीय न्याय की पुष्टि करती है। ‘खोटे सिक्के’ एक ओर बहू-बेटों की ओर पारम्परिक मोह की तस्वीर पेश करती है तो दूसरी ओर विवाहित महिलाओं के प्रति एक सवाल भी पेश करती है; यह कि बहू भी यथार्थत: किसी परिवार से आयी बेटी ही होती है, तब (सास से सब-कुछ मिल जाने के बावजूद) बहू के रूप में उसका चरित्र नकारात्मक क्यों हो जाता है और (कुछ भी न मिल पाने के बावजूद) माँ को वह साथ किस तरह रख लेती है? ‘तमाशा’ गरीबी और मुफलिसी से लड़ते नट परिवारों की दुखद गाथा है। ‘विकल्प’ और ‘समाधान’ जीवन के कटु यथार्थ को हमारे सामने रखती हैं। ‘सेहरा या पगड़ी’ बदल चुकी समाज व्यवस्था में एक सार्थक विकल्प सम्मुख रखती है। ‘हकीकत’ लुटेरों की न सही, आम परिवारों की हकीकत प्रस्तुत करने में अवश्य सफल रही है। लघुकथा ‘मन्त्र’ डेरों, पीठों और गद्दियों का सच व्यक्त करती है। पुलिस की लोक-प्रचलित छवि पर मुहर लगाती है लघुकथा ‘गश्त’। ‘जनवाद’ के खोखलेपन को उजागर करती है—‘वास्तविक जनवाद’। कथ्य में नयापन न होने के बावजूद ‘अनुभव’ एक आवश्यक-सा पैगाम वरिष्ठ नागरिकों को देती है। वरिष्ठों की चिंताजनक हालत के ही एक अन्य यथार्थ को प्रस्तुत करती है लघुकथा ‘अपनों से हारी’। ‘उपचार’ का कथानक पाठक को वितृष्णा से भर देती है। ‘शिक्षा का दर्द’ शिक्षित बेरोजगारों की दुर्दशा का कच्चा चिट्ठा खोलती है। ‘कारोबार’ कोरोना काल में कोरोना की नहीं, व्यवसायियों की आसुरी वृत्ति का चित्र प्रस्तुत करती है।

‘मोनोग्राम’,‘कारण’, ‘सप्तपदी’, ‘नई गेंद’, ‘हलो-हलो’, ‘विचाराधीन’, ‘व्यंजन विशेषांक’, ‘काले सिर वाली’, ‘चित्र’, ‘तूफान क्यों आते हैं’, ‘कनीज़ की अर्ज’, ‘लौकी’,  ‘कब होगा सर्कस’ को हल्के-फुल्के पलों हेतु चुहल की संज्ञा भी दी जा सकती है। कथाकार को ऐसे पलों को भी शब्द देने की क्षमता और साहस से लैस होना चाहिए, भारतेंदु हरिश्चन्द्र और हरिशंकर परसाई की परम्परा से हमने यह जाना है। ‘कवि और दिया’, ‘दीया और बिजली’ गद्य-काव्य परम्परा की रचना है। ‘टिप’, ‘रिटर्न गिफ्ट’, ‘परीक्षा भवन में’, ‘अनाम रिश्ते’, ‘पुन: जीवन मिला’ जैसी कुछ रचनाएँ संस्मरण शैली में लिखी गयी हैं या कहें कि निजी संस्मरणों को ही लेखिका ने इन कथाओं के रूप में कलमबद्ध किया है। लघुकथा ‘साक्षात्कार’ भले ही एक यथार्थ की ओर संकेत करती हो, लेकिन एक गलतबयानी भी करती-सी लगती है। ‘अब वह भी फैशनपरस्त आधुनिका है’ कहकर लेखिका ने समस्त फैशनपरस्त आधुनिकाओं को लांछित कर दिया है। कुछेक शाब्दिक बदलावों के साथ असावधानीवश यही लघुकथा ‘इन्टरव्यू’ शीर्षक से पृष्ठ 100 पर पुन: स्थान पा गयी है।

पुस्तक को पढ़ते हुए लगातार यह लगता रहा कि हिन्दी प्रकाशन क्षेत्र से प्रूफ रीडिंग का शायद जनाजा ही उठ गया है। इसमें ‘ढ़ंग’, ‘आर्विभाव’, ‘प्रवृति’, ‘आलिफ’, ‘घारस’, ‘सामारिक’, ‘द्रश्यांकन’, ‘चर्तुवेदी’, ‘र्मूधन्य’, ‘हतप्रथ’, ‘होगें’, ‘आस्मिता’, ‘ढ़ोता’, ‘व्रद्धा’, ‘लेगें’, ‘उदंड’, ‘बाबर्चियों’, ‘माद्धिम’, ‘रूक’, ‘बीबी’ (सही शब्द ‘बीवी’), ‘टिपिन’, ‘आर्शीवाद’, ‘हिफिनों’(सही शब्द ‘टिफिनों’), ‘र्गुराते’, ‘शारिरिक’, ‘ख्वाव’, ‘हितैबी’, ‘ढ़ीली’, ‘सीड़ी’, ‘रूपया’, ‘आधिक’, ‘एडजस्ट मेंट’, ‘र्निणय’, ‘ग्रहणियां’, ‘करूण’, ‘र्निधारित’, ‘लहुलुहान’, ‘सिद्धी’, ‘र्दीघ’, ‘नि:विश्वास’, ‘सौंपों’, ‘र्निधन’, ‘र्निबल’, ‘बिमारियों’, ‘र्बोड’, ‘बच्चे-बढ़े’  (सही शब्द ‘बच्चे-बूढ़े’), ‘ढ़ाई’, ‘माक्स’, ‘जरुरत’, ‘स्वंय’, ‘सम्बन्धि’ सरीखे शब्द आसानी से मिलते जा रहे हैं जो सिद्ध करते हैं कि प्रकाशक ने संग्रह के प्रकाशन का दायित्व गम्भीरतापूर्वक नहीं निभाया है। एक ही शब्द की वर्तनी एक जगह कुछ तो दूसरी जगह कुछ और नजर आ रही है। उदाहरण के लिए, ‘दीया’ को एक जगह ‘दीया’ तो दूसरी जगह ‘दिया’ तथा उसके बहुवचन को ‘दीये’ के स्थान पर ‘दिए’ लिखा गया है। जरा सोचिए कि किसी पुस्तकालय की शोभा बनकर यह पुस्तक हिन्दी वर्तनी का क्या रूप देशी-विदेशी पाठकों के सम्मुख रखेगी।

और अन्त में एक बात और…

सुधा गोयल जी को उनके बेहतरीन लघुकथा लेखन के लिए बार-बार बधाई; लेकिन पुस्तक का नाम उनके द्वारा लिखित ‘चिन्तन’ में कुछ और गया है और मुखपृष्ठ तथा फोलियो पर कुछ और!!! प्रकाशक द्वारा आखिर किस आपाधापी में इस लघुकथा संग्रह को छापा गया है।

पुस्तक—पीठ पर टिका घर (लघुकथा संग्रह); कथाकार—सुधा गोयल;                      प्रकाशक—नमन प्रकाशन, नई दिल्ली-110002;        प्रथम संस्करण—2024;           आईएसबीएन—978-93-95356-40-4; कुल पृष्ठ—132; मूल्य—रुपये 350/- (हार्डबाउंड)