Saturday 27 July, 2024

सरहद पार से : पंजाबी लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद

सरहद पार से : पाकिस्तानी पंजाबी लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद

सौजन्य : 'लघुकथा कलश' / पंजाबी लघुकथा महाविशेषांक/अंक 12, जुलाई-दिसम्बर 2023

भाषा/ निज़ाम रिज़वी 

खचाखच भरे हाल में एक पाकिस्तानी वक्ता बहुत ही ओजपूर्ण भाषण दे रहा था-- "भाइयो और बहनो! जैसे रहन-सहन और सामाजिक मूल्य किसी क़ौम के ज़िंदा होने का सबूत होते हैं, वैसे ही इतिहास, संस्कृति और मातृभाषा उनके सामाजिक जीवन का आधार होते हैं। दुनिया में कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता। अपनी जिंदा मातृ भाषा की वजह से ही हम एक जिंदा क़ौम हैं।"

एक सिख हँसते-हँसते हॉल से यह कहते हुए बाहर निकल गया :

"तुम भी ख़ुद को जिंदा क़ौम कहते हो? क़ौमी तराना फ़ारसी में और सरकारी काम अँग्रेजी में..?”

फूल चोर / मोहम्मद मुनीर शेरवानी

प्रिंसिपल साहिब का आदेश था कि कॉलेज के लॉन से फूल तोड़ने वाले से दस रुपये जुरमाना वसूल किया जाएगा; लेकिन वे दोनों फूल तोड़ने से बाज़ न आए।

जुर्माना अदा करते रहे और फूल निम्मो को भेंट करते रहे। निम्मो भी फूलों के गजरे बना-बनाकर बालों में सजाती रही।

एक दिन उन दोनों ने हिम्मत जुटाकर निम्मो से कहा, "हम तुझसे प्यार करते हैं।"

निम्मो ने मासूम-सी बनते हुए उत्तर दिया, "लेकिन मैं तो फूलों से प्यार करती हूँ।"

एक मुट्ठी मिट्टी / मोहसिन अराई

"बापू जी, मैं अगले हफ़्ते एक स्पेशल डेलिगेशन के साथ पाकिस्तान जा रहा हूँ. अगर वहाँ से कुछ मैगवाना हो तो मुझे बता दीजिए।" महिंद्र सिंह ने अपने वृद्ध पिता के पास बैठते हुए कहा।

"सब कुछ तो है भारत में बेटा। यहाँ किस चीज़ की कमी है?"

"फिर भी बापू, वहाँ सामान सस्ता भी है और क्वालिटी भी बढ़िया है। और वहाँ विदेशी सामान भी कम रेट में मिल जाता है।" जोगिंद्र सिंह ने खुलासा करते हुए कहा।

"पुत्तर! अगर ला सकते हो तो लायलपुर के नज़दीकी गाँव चक जुमरा से मेरे लिए एक मुट्ठी मिट्टी ले आना। वाहेगुरु की क़सम, दिल तरस गया है उस मिट्टी को चूमने के लिए।" वृद्ध पिता ने एक ठंडी-लंबी आह भरते हुए बेटे से कहा और अतीत की यादों में खो गया।

पढ़ा-लिखा / वारिस अली शाह

एस.पी. का पद सँभालते ही सबसे पहले मैं अपना कॉलेज देखने गया। गाड़ी से उतारकर मैं उस जगह जा खड़ा जहाँ मैं फ़ाइनल में पढ़ा करता था।

कई साल पहले भी एक बार मैं इसी जगह पर खड़ा हुआ था।

तभी एक चौदह-पंद्रह वर्षीय लड़का मेरे पास आकर घुटनों के बल बैठ गया। मैले-कुचैले कौर फटे-पुराने कपड़े। टाँगें टेढ़ी-मेढ़ी, आँखें भेंगी और जुबान में तुतलाहट।

उसने पूछा, "तू पास हो गया?"

मैंने हिकारत से कहा, "पास हो जाऊँगा।"

"न न ऐसे नहीं कहते... कहो कि ख़ुदा पास करेगा। मैं दुआ करूँगा कि तू पढ़-लिखकर एस.पी. बन जाए।" और वह आसमान की तरफ़ देखे हुए दुआ करने लगा।

और मैं शर्मिंदगी से उसकी ओर देखे जा रहा था।

दर्द का रिश्ता / हमीद मोहसिन

कॉलेज से वापिस आया तो देखा कि मेरी माँ बहुत उदास थी। उदासी का कारण पूछा तो वह उठकर दूसरे कमरे में चली

गई। मैं भी पीछे हो लिया। चारपाई पर वह किसी गहरी सोच में डूबी हुई दीवार पर दृष्टि गड़ाए बैठी थी। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने फिर उदासी का कारण पूछा।

माँ उदास-से स्वर में बोली, "मैं अपने दिल की बात किससे करूँ? तेरे अब्बा की मौत के बाद मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं... फिर उसकी आँखों से आंसू बहने लगे।

उन्हें प्यार दिलासा देते हुए मैंने कहा, "मुझे बताओ अम्मी अपने दिल की बातें, मैं सुनूँगा।"

मेरी आँखें भी एकाएक छलक गईं।

कुछ देर के लिए मुझे यूँ महसूस हुआ मानो मेरी माँ, मेरी बेटी बन गई हो।

बैरा / जमील अहमद पाल

उस दफ़्तर के चार चक्कर लगाकर जब मैं फ़ारिग हुआ तो दोपहर के दो बज चुके थे। ज़ोरों की भूख लगी हुई थी और घर पहुँचते-पहुँचते चार बज जाते, इसलिए मैं एक होटल में चला गया। रोटी-सब्ज़ी मँगवा ली। होटल क्या था, एक बहुत बड़ा हॉल कमरा था जहाँ बेतहाशा भीड़ थी। हर कोई खाने या शोर मचाने में व्यस्त था। खाना खाते हुए मुझे पानी की ज़रूरत पड़ी, पर मेज़ पर पानी नहीं था। मैंने गिलास से मेज़ ज़ोर से खटखटाया लेकिन कोई न आया। होटल में काम करने वाले चार-पाँच लड़के अपने-अपने काम में मग्न थे। एकाध को पानी देने के लिए कहा भी, मगर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। मैंने फिर मेज़ खटखटाया, फिर भी कोई न आया। तंग आकर मैंने अपने पास से गुज़र रहे एक लड़के का कॉलर पकड़ते हुए कहा, "अबे सुनता क्यों नहीं? जा पानी लेकर आ!"

लड़के ने एक बार मेरी ओर देखा और चुपचाप कोने में रखे टब से ठंडे पानी का जग भरकर में मेज पर रख दिया। "और कोई हुकम जनाब!"

"बस जा... ग्राहकों की आवाज़ सुन लिया करो।"

लड़का चुपचाप आगे बढ़ गया। मैं उसे जाते हुए देखने लगा। वह काऊंटर पर रुका, जेब से पैसे निकालकर बिल अदा किया और होटल से बाहर निकल गया।

और मैं शर्म से पानी-पानी हो रहा था।

तलाक़ / तबस्सुम मेहताब

"तुम्हारे पति ने तुम्हें तलाक़ दिया, उसका क्या कारण था?"

"उसका स्वाभिमान।"

"क्यों? क्या तुमने उसे धोखा दिया था?"

"नहीं!"

"तो फिर?"

"वह रोज़ मुझे अपने इश्क़ का कोई-न-कोई क़िस्सा सुनाता था। ऐसे हज़ारों क़िस्से थे। एक दिन मैंने यूँ ही मज़ाक में कह दिया कि मैंने भी कभी किसी से प्यार किया था।"

"तो इसमें क्या बड़ी बात है?"

"यही तो बड़ी बात है... अपनी रंगीन मिजाजी की रंग-बिरंगी कहानियाँ सुनाने वाले ने मेरे मज़ाक को बेहयाई, धोखा, फरेब और चरित्रहीनता कहा... और मुझे तलाक़ दे-दिया।"

हमदर्दी / अहमद शहज़ाद ख़ावर

"चौधरी साहिब! आप यहाँ कचहरी में? क्या बात है?"

"नहीं कोई ख़ास बात नहीं। वो आज छोटे बेटे की तारीख़-वारीख थी।”

"कैसी तारीख़?"

“अरे यार, एक दिन पीछे पड़ गया कि बंदूक़ लेकर पार्क में जाऊँगा। वहाँ खेल-खेल में कुछ फ़ायर-वायर दे मारे। उसमें एक विधवा भाटियारन का बेटा और एक दूसरा लौंडा मारा गया।”

"दो लोग मर गए?”

"हाँ! एक के घर वालों को तो चुप करा दिया लेकिन उस भाटियारन बुढ़िया ने केस कर दिया। कहती है कि मेरा इकलौता बेटा था। कोई उससे पूछे कि क्या इकलौता बेटा नहीं मरता? बहुत समझाया कि दूसरे को पचास दिया है तू साठ ले ले। चार दिन की ज़िंदगी बची है, मौज करना। लेकिन मानती ही नहीं। इसलिए तो इन लोगों की गरीबी दूर नहीं होती।”

मनीऑर्डर / अफ़ज़ाल अहमद अनवर

“हैलो सलीम! मैं रशीद बोल रहा हूँ। रुपये तो तुम्हें मिल ही गए होंगे, कल रात भिजवा दिए थे। वो दोस्त ही। क्या जो ज़रूरत के वक़्त काम न आए! कल मैं तुम्हारे सामने वकील से बात कर रहा था न? दरअसल एक पार्टी ने मुझपर मुकद्दमा किया हुआ है, मुझे अपने दो ख़ास बंदों की गवाहियाँ चाहिए।”

"लेकिन रशीद, मैं तो मुकद्दमे के बारे में कुछ भी नहीं जानता।”

"तुम फ़िक्र मत करो, मेरा वकील तुम्हें सब-कुछ समझा देगा।”

अब्बाजान को मनीऑर्डर भेजना बहुत ज़रूरी था, अतः मेरे पाँव तेज़ी से डाकखाने की ओर बढ़ने लगे।

रशीद मुझे झूठी गवाही देने को कह रहा है। असमंजस में हूँ कि गवाही दूँ या नहीं। मेरी अंतरात्मा मुझे कह रही है कि तुम झूठी गवाही दे ही नहीं सकते।

डाकख़ाने पहुँचकर मैं मनीऑर्डर फ़ॉर्म भरने लगा। लेकिन पता लिखते हुए मेरा हाथ रुक गया। मैंने पूरी हम्मत जुटाकर अब्बाजी का पता लिखने की बजाय रशीद के ऑफ़िस का पता लिख दिया और साथ ही लिखा,

"तुमारे रुपये लौटा रहा हूँ, क्योंकि मैं झूठी गवाही नहीं दे सकता।"

मातृभाषा / हाफ़िज़ अब्दुल रहमान 'अदब'

दो वर्ष में यह उसका अट्ठारहवाँ खत था जिसका उसके पिता शर्फ़दीन ने कोई जवाब नहीं दिया था। 

जब वह दो वर्ष  बाद छुट्टी पर आया तो उसने पिता से रोष जताया कि उसके किसी खत का जवाब क्यों नहीं दिया।

शर्फ़दीन ने कहा,

"मैंने तो यहाँ से पंजाबी में ख़त भेजता था, पर तुम अँग्रेज़ी में जवाब देते थे। मैंने समझा कि हमारे बेटे ने हमें भुला दिया है। इसलिए मैंने इस पाँच दरियाओं की धरती से वायदा किया है कि अब मैं अपने किसी बेटे को परदेस नहीं भेजूंगा।"

 ('लघुकथा कलश' की घोषणा ; सभी लघुकथाएँ 'पच्छमी पौणां' से साभार)


संपादक : योगराज प्रभाकर

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