Saturday, 13 January 2024

उत्सवों का आकाश यानी त्यौहारों की सांस्कृतिक-सामाजिक दुनिया / बलराम अग्रवाल

            

सुधा भार्गव जानी-मानी बाल साहित्यकार, कवयित्री और लघुकथा लेखिका हैं। इनके अलावा उन्होंने यात्रा वृत्तांत भी लिखे हैं और डायरी साहित्य भी। ‘उत्सवों का आकाश’ विभिन्न भारतीय त्यौहारों को केन्द्र में रखकर रची गयी उनकी दस बाल कहानियों का संग्रह है।

पहली कहानी का विषय है—नये साल का आगमन। कहानी का शीर्षक है—नये वायदे, नये कायदे। जैसाकि शीर्षक से स्पष्ट है, सुधा जी अपने गद्य में काव्यात्मक प्रवाह का ध्यान रखती हैं। बालकों के लिए लिखी होने की वजह से तो यह और भी आवश्यक है कि भाषा में सरलता और तरलता दोनों हों। कहानी की शुरुआत उन्होंने यों की है—‘नन्हे-मुन्नो, नया साल सूर्य-रथ पर सवार होकर निकलता है।’ अब, सही बात तो यह है कि प्रत्येक दिन सूर्य के रथ पर सवार होकर निकलता है; लेकिन जब यही बात नये साल की नयी सुबह के बारे में कही जाती है, तब उसके ध्वन्यार्थ अलग और आकर्षक होते हैं। ‘नये वायदे, नये कायदे’ सर्रू नाम के एक छोटे बच्चे की कहानी है। उसके पापा नाश्ते के लिए माँ द्वारा बनाये गये गाजर के हलुए, मठरी और बेसन के लड्डू को चोरी-चोरी अकेले ही चट कर जाते हैं। इसके कारण वह खाना भी नहीं खाते और काम पर निकल जाते हैं। यह बात जब सर्रू को पता चलती है तो वह नाराज हो जाता है। उसे खुश करने के लिए माँ नये सिरे से सारी चीजें बनाकर उसे खिलाती है। नये साल के आगमन पर माँ, सर्रू और पापा—तीनों अपनी-अपनी दिनचर्या को निर्धारित करने हेतु स्वयं से नये वायदे करते हैं जिन्हें वे पूरे साल निभायेंगे। सर्रू की मित्र मंडली के अन्य बच्चे भी उत्साह में भरकर नये वादे करते हैं।

दूसरी कहानी है—वेलेंटाइन डे की रानी। पहली ही पंक्ति में कहती हैं—14 फरवरी का प्रेमोत्सव दिवस प्यार देने और प्यार पाने का दिन होता है। इस कहानी की नायिका यानी मुख्य पात्र ‘चिन्नी’ नाम की पालतू बिल्ली है जो दादी की लाड़ली है। घर में दादी के अलावा मम्मी, पापा और गौरव भी हैं। चिन्नी को गौरव के स्कूल से आने के समय का ध्यान रहता है और वह सही 2 बजे दरवाजे पर टकटकी लगाकर बैठ जाती है। गौरव भी चिन्नी का बहुत ख्याल रखता है। मम्मी से कहकर वह आराम से उसके बैठने-खाने के लिए कुर्सी-मेज का इंतजाम कराता है। दादी अपने पुराने तौलिए से काटकर चिन्नी के लिए दो ‘बिब’ बना देती हैं ताकि खाते हुए वह गंदी न हो। पुराने स्वेटरों से वह उसके लिए शॉल भी बनाती हैं। वेलेंटाइन डे को गौरव घर में अपने दोस्तों के चिराग और पराग के साथ केक काटकर मनाता है। इस अवसर पर पराग की ओर से चिन्नी को गुलाब का एक फूल भी भेंट में मिलता है।

तीसरी कहानी का शीर्षक है—ओए बल्ले-बल्ले। यह छोटी-सी एक कविता से शुरू होती है। इसमें गुलाल बिखरते मार्च का जिक्र है तो ‘बड़कू’ नामक उसके बड़े भाई अप्रैल का भी जिक्र है। सुधा जी की बाल कहानियों में बड़ी बात यह है कि बातों ही बातों में वे बाल-संस्कार की बात भी कह देती हैं। इस कहानी में, ‘दादू कहते हैं—हरेक के शरीर में होलिका और प्रह्लाद रहते हैं।’ इसी के साथ बैसाखी का भी उल्लेख एक कविता के माध्यम से हुआ है।

चौथी कहानी ‘नाग देवता’ है। कहती हैं—‘बच्चो, मुझे मालूम है कि तुम्हें रिमझिम बरसते पानी में भींगना बड़ा अच्छा लगता है।’ इस तरह सुधा जी वाचक की तरह केवल कहानी नहीं कहती हैं बल्कि बच्चों से संवाद भी स्थापित करती हैं। बालकों को वह हेल-मेल और प्यार-स्नेह सिखाती हुई समझाती हैं कि—‘तुम्हारी बहन जब झूला झूले तो तुम जरूर उसे झोटा देना। पर धीरे-धीरे। वरना वह डर जाएगी। प्यार से उसे झोटा देना तो वह बहुत खुश होगी।’ जुलाई के साथ-साथ वह हिन्दी महीने सावन का नाम बताना भी लेखकीय कर्तव्य समझती हैं। इस कहानी में रिमझिम बारिश और झूला के साथ ही भारतीय त्यौहार ‘नाग पंचमी’ की भी एक कहानी जोड़ी गयी है। वह यह भी बताना नहीं भूलती हैं कि सारे साँप जहरीले नहीं होते और उनके जहर से दवाई भी बनाई जाती है, इसलिए बिना सोचे-समझे साँपों को मार नहीं देना चाहिए।

पाँचवीं कहानी ‘गुल्लक की करामात’ के केन्द्र में राखी का त्यौहार है। भाई-बहन हैं—टीटू और कोयलिया। इसके माध्यम से वह बताती बताती हैं कि—जिन भाई-बहन के हाथ प्यार से मिले रहते हैं, उनके दो नहीं चार हाथ होते हैं।

छठी कहानी ‘मीठी खीर’ की भूमिका में सुधा जी धीरे-से पहले कृष्ण की कहानी बच्चों को बताती हैं। उसके बाद सुनाती हैं मुख्य कहानी। इस कहानी के मुख्य पात्र बालक सारंगी, उसकी दादी और मम्मी हैं। इनके साथ ही एक गरीब बालक को भी कहानी से जोड़ा है। उस बालक के पास दूध और चावल हैं और वह चाहता है कि उन दूध-चावल से वे उसके लिए खीर बना दें। जाहिर है कि उसका अनुरोध स्वीकारा नहीं जाता है और दुत्कार कर भगा दिया जाता है। ऐसे में, सारंगी अपने हिस्से की खीर दादी से लेकर छिपता हुआ कबीरा नाम के उस बालक के पास जा पहुँचता है। उसे देखकर दादी उसकी माँ से कहती है—‘एक दुखिया को खुशी देकर हमारे घर के कन्हैया ने तो सच्चे अर्थों में जन्माष्टमी मनाई है।’

सातवीं कहानी गणेश चतुर्थी पर्व पर केन्द्रित है। इसका शीर्षक है—‘पूत के पाँव पालने’। इस कहानी को सुधा जी ने सीधे पुराण कथा के आधार पर प्रस्तुत किया है। इस कथा में उन्होंने सरस काव्य पंक्तियों का भी प्रयोग किया है।

आठवीं कहानी दशहरा त्यौहार पर केन्द्रित है। इसके शीर्षक ‘घर का भेदिया’ से ही अनुमान हो जाता है कि इसमें सुधा जी ने किस की ओर निशाना साधा होगा। बाल कहानियों के बारे में सुधा जी का सिद्धान्त है—कहानी की कहानी और जानकारी की जानकारी। सही है, बाल कहानियाँ केवल मनोरंजन और रोमांच के लिए ही प्रस्तुत न की जाएँ बल्कि उनसे बालकों के ज्ञान में भी यथेष्ट वृद्धि होनी चाहिए। न केवल सांस्कृतिक और पौराणिक जानकारी बल्कि वैज्ञानिक जानकारी भी।

नौवीं कहानी के केन्द्र में दीपावली पर्व है। इसका शीर्षक है—‘घर-घर जन्मो राम’। अलटू-पलटू और रामा-लाखा नाम के बच्चे इस कहानी के मुख्य पात्र हैं। इनमें पलटू बड़ा भाई है और अलटू छोटा। ये दोनों इस कदर शरारती हैं कि दिवाली के मौके पर छोड़े जाने वाले पटाखों को जलाकर किसी के भी ऊपर फेंक देते हैं। इसी कारण रामा-लाखा से इनका झगड़ा भी हो जाता है; लेकिन कहानी के अन्त में सब के बीच सुलह हो जाती है। सब प्रेम से दीवाली-पूजन करते हैं।

और अन्त में, दसवीं कहानी दिसम्बर माह की 25 तारीख को मनाये जाने वाले त्यौहार ‘क्रिसमस’ को केन्द्र में रखकर रची गयी है। शीर्षक है—‘लो मैं आ गया’। एक छोटे से घर में मंकी और टंकी नाम के दो लड़के रहते हैं। दिसम्बर की रात दस बजे दरवाजे पर खट-खट की आवाज सुनकर वे चौंक जाते हैं। मंकी झांककर देखता है कि बाहर उसी की उम्र का एक लड़का खड़ा ठंड से काँप रहा है। दोनों भाई मनमौजी नाम के उस लरके को शरण देते हैं। अपनी चारपाई पर उसे सुलाकर खुद जमीन पर सो जाते हैं। सुबह उठकर जो देखते हैं तो मनमौजी गायब! कमरे के बाहर वे सजे-धजे एक पेड़ को खड़ा देखते हैं। पूछने पर वह पेड़ बताता है कि वही मनमौजी है। कहानी इसी तरह बड़े रोचक ढंग से आगे बढ़ती है। पेड़ इस कहानी में सेंटा क्लाज की भूमिका निभाता है।

कुल मिलाकर ‘उत्सवों का आकाश’ रोचक और ज्ञानवर्द्धक बाल कहानियों का पुलिंदा है। इसके लिए लेखिका सुधा भार्गव साधुवाद की अधिकारी हैं। पुस्तक के भीतर विषयानुरूप श्वेत-श्याम चित्र हैं लेकिन वे किसी चित्रकार से न बनवाकर इन्टरनेट से उठाये लगते हैं। मात्र 96 पृष्ठ की पेपरबैक पुस्तक की रुपए 230/- कीमत बहुत अधिक प्रतीत होती है। इस तरह के अनाप-शनाप मूल्य पुस्तकों को बाल-पाठकों से दूर रखने का काम करते हैं।

समीक्षित पुस्तक—उत्सवों का आकाश (बाल कहानी संग्रह); लेखक—सुधा भार्गव; प्रकाशक—श्वेतांशु प्रकाशन, डी-14 नियर रामलीला पार्क, पाण्डव नगर, दिल्ली-110092; प्र॰ संस्करण—मई 2023; कुल पृष्ठ—96; मूल्य—रुपए 230 (पेपरबैक)

 

 

 

समीक्षक सम्पर्क—एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)

मोबाइल—8826499115  

Thursday, 11 January 2024

पठनीय और विचार उत्प्रेरक ‘तूफान गुजरने के बाद’ / बलराम अग्रवाल

           

प्रत्येक लेखक, वह चाहे कवि हो चाहे कथाकार, उसकी स्मृति में अतीत चक्कर काटता है। उस अतीत का कोई हिस्सा कब ज्यों का त्यों अथवा रचना के रूप में उतरने का दबाव रचनाकार पर डालने लगेगा, कहा नहीं जा सकता। अतीत की बहुत-सी अच्छी-बुरी स्मृतियाँ अचेतन मन में आराम से सोई रहने में ही भलाई समझती हैं; लगभग यह गुनगुनाती-सी कि—‘सोई हुई यादो मुझे इतना न सताओ, अब चैन से रहने दो मेरे पास न आओ।’

ॠता शेखर ‘मधु’ द्वारा सम्पादित, उन सहित 29 लेखकों-लेखिकाओं की कलम से नि:सृत, ‘तूफान गुजरने के बाद’ की सभी रचनाओं को न तो कहानी कहा जा सकता न संस्मरण और न ही अतीत रुदन। रुदन तो खैर इनमें से एक भी रचना है ही नहीं। सब की सब कुछ न कुछ लोहा लिए हुए हैं। सब की सब करुणा से सराबोर हैं। इसीलिए वे आपको रुलाती भी हैं और आपकी संवेदना को सहलाती भी हैं। ‘सम्पादक की दृष्टि से’ इन्हें देखते हुए ॠता जी ने पहला ही वाक्य यह लिखा है कि—‘कहानियाँ, जो काल्पनिक नहीं सच हैं।’ 

अंजू शर्मा की संघर्षगाथा पढ़ते हुए लगा कि उन्होंने अपनी नहीं मेरी गाथा लिखी है। किशोर अवस्था से लेकर युवावस्था तक मैंने भी पटरी लगाई, पुलिस कान्स्टेबिल के डंडे खाये, म्युनिस्पैलिटी की रसीद काटने वालों की झिड़कियाँ सुनीं; और भी पता नहीं क्या-क्या। इन स्मृतियों को पढ़ने का एक लाभ यह भी है ये आपके भीतर की आग को कुरेद देती हैं, चिंगारियों को उभरकर ऊपर आने को उकसाती हैं। अर्चना चावजी की रचना बताती है कि सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कितना बड़ा गुण है। लम्बा संघर्ष करने के बाद बच्चे का कैम्पस सलेक्शन खुशी और सम्मान का जो उपहार संघर्षमयी माँ को देता है, असफल साक्षात्कार वह सब एक ही पल में मटियामेट कर देता है। एकबारगी लगता है कि सब चौपट; लेकिन नहीं। बच्चा नये सिरे से उठ खड़ा होना शुरू करता है और ‘इसरो’ जैसी संस्था में वैज्ञानिक का सम्मानजनक पद पा लेता है। इसे पढ़कर मुझे अनायास ही एक शे’र याद हो आया—

तुंदी-ए-वादे-मुखालिफ से न घबरा ऐ उकाब।

ये तो चलती है तुझे ऊँचा उड़ाने के लिए।  (तुंदी-ए-वादे-मुखालिफ यानी तीव्र तूफान की विपरीतता)  

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने अपनी गाथा ‘गूँज’ के अन्त में लिखा भी है—‘तूफान केवल विध्वंस का प्रतीक नहीं होते, कभी-कभी उनमें निर्माण की गूँज भी होती है।’

एक ओर मधु जैन की कहानी ‘जीवन के रंग’ की वह युवती है जो कमर से नीचे के समूचे अंगों से अपाहिज हो चुके पति की प्राण-पण से देखभाल करती है और दूसरी ओर सुरिन्दर कैले की कहानी ‘मैं नहीं बताऊँगी’  के घायल मेजर शेरसिंह के बचपन की प्रेमिका डॉक्टर मनमीत जो किसी अन्य के साथ सगाई करके अलग जीवन साथी का चुनाव करती है।

‘ये कैसा रिश्ता’ (मनोरमा जैन ‘पाखी’) की शामली को भाग्य की मारी लड़की ही कहा जा सकता है। समूचे संघर्षों के बावजूद, वह सही समय पर साहस नहीं दिखा पाती, वैसा विद्रोह नहीं कर पाती जैसा उसने पढ़ाई जारी करने के लिए विद्यालय का फार्म भरते समय किया था; और सम्भवत: इसी कारण दुर्भाग्य से उबर नहीं पाती और कह सकते हैं कि नष्टप्राय हो जाती है।

निशा महाराणा की ‘दो हंसों का जोड़ा’ एक शिक्षा देती है कि ‘कई बार नादानीवश अपनी बहनों और सहेलियों की सहायता के चक्कर में (महिलाएँ) अपनी जिन्दगी को दाँव पर लगा बैठती हैं।’ दूसरी ओर ‘सूनी तीज’ (रीता मक्कड़) की सरोज है जो ब्रेस्ट कैंसर की अपनी बीमारी का पता चलने पर अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिन्ता से मुक्त होने की खातिर अपने जीवित रहते ही पति का विवाह अपनी छोटी बहन से कराकर मुक्ति की साँस लेती है।

निवेदिता श्रीवास्तव ‘निवी’ की कहानी ‘किन्नर मन’ बताती है कि ‘किन्नर मन होना गलत है, शरीर नहीं।’ पूजा अनिल की ‘मेरी बहादुर बच्ची’ विजातीय युवक से प्रेम विवाह कर लेने वाली एक युवती और उसकी माँ आदि को त्रास दिये जाने की व्यथा है। पूर्णिमा शर्मा की ‘अन्तहीन संघर्ष’ एक महिला के पति की मृत्यु के बाद अनेक संघर्षों से गुजरने की कथा है।

ॠता शेखर ‘मधु’ ने एक ऐसे पिता को रेखांकित किया है जो बदचलन बेटे को घर और सम्पत्ति से निष्कासित कर नाराज बहू को घर वापस ले आता है। ‘आतंक के घेरे से’ (सीमा वर्मा) की दीदी सिर-चढ़े अपने बिगड़ैल पति को उस समय झापड़ मारकर उसकी औकात समझा देती है जब वह अपने ससुर यानी दीदी के पिता पर हाथ उठा देता है।

शोभना चौरे की ‘गुलाब माँ’, एक जुझारू महिला के जीवन की गाथा है तो शील रानी निगम की ‘वात्सल्य’ एक बिगड़ी हुई दत्तक पुत्री के दुर्व्यहार की, ‘अनावरण’ देश पर जान न्यौछावर करने वाले बेटे के पिता के साहस की कहानी है तो शुचि मिश्रा की ‘माँ’, माँ बनने की अनुभूतियों का ऐसा यथार्थ चित्रण है जिसे कोई माँ ही कर सकती है।

सुधा भार्गव की रचना ‘कहर की रात’ पति को तिल-तिल मृत्यु के आगोश में जाते देखने वाली असहाय पत्नी की दारुण कथा है। ‘अनिता जायसवाल की कहानी’ (सुनीता पाठक) दिव्यांग और अनाथ एक ऐसी युवती की सत्यकथा है जो अनाथालय में पली-बढ़ी और पढ़ी है तथा इन दिनों एक आर्मी स्कूल में संगीत शिक्षिका के तौर पर कार्य करती हुई शासकीय सेवा में जाने की तैयारी में रत है। सुरेश सौरभ की ‘आप के अहसासों में रहूँगी’, उपमा शर्मा की ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’, उषा किरण की ‘शरबती बुआ’, डॉ॰ वन्दना गुप्ता की ‘सीमा रेखा’ कहानियाँ भी पठनीय हैं।

उपासना सियाग की ‘जीत’ सास और पति की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी ऐसी युवती की कथा है जो अपने साहस के बल पर शासकीय सुरक्षा पाने में कामयाब हो जाती है और निर्बाध अपने शिशु का लालन-पालन कर पाती है।

कुल मिलाकर ‘तूफान गुजरने के बाद’ एक पठनीय और विचार उत्प्रेरक पुस्तक है जिसके संचयन और सम्पादन के लिए ॠता शेखर ‘मधु’ बधाई की पात्र हैं।

सम्पादक : ॠता शेखर 'मधु'
समीक्षित पुस्तक—तूफान गुजर जाने के बाद ; सम्पादक—ॠता शेखर ‘मधु’; प्रकाशक—श्वेतवर्ण प्रकाशन, 212 ए, एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट, सुपर एमआईजी, सेक्टर 93, नोएडा-201304 (उप्र), कुल पृष्ठ—176; मूल्य—रुपए 249 (पेपरबैक)

समीक्षक—डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)