Tuesday, 26 December 2017

डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक की याद-2 / श्याम बिहारी श्यामल

[डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक हमारे समय के महत्वपूर्ण समालोचक रहे हैं। हिन्दी लघुकथा पर उनकी दृष्टि अन्य आलोचकों की तुलना में कहीं अधिक सधी और सटीक रही है। नवें दशक में उन्होंने कुछ विचारोत्तेजक लेख लघुकथा साहित्य को प्रदान किए थे जो हमेशा ही उपयोगी रहेंगे। दिनांक 7-12-2017 की सुबह लगभग 79 साल 10 माह की उम्र में उनके निधन से हुई क्षति अपूरणीय है। हमारे विशेष अनुरोध पर उनके समग्र व्यक्तित्व को याद करते इस संस्मरण को उपलब्ध कराया है वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार भाई श्याम बिहारी श्यामल ने। इस लेख की पहली किस्त 17 दिसम्बर, 2017 को प्रस्तुत की गयी थी। आज प्रस्तुत है इसकी दूसरी यानी समापन किस्तबलराम अग्रवाल]                 
   दिनांक 17-12-2017 को प्रकाशित पोस्ट से आगे………    
हिन्दी साहित्य के मौजूदा मानचित्र या परिदृश्य से परिचित किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे सत्तर से नब्बे के दशकों के दौरान या उसके बाद भी पलामू के सांस्कृतिक जीवन-जगत में डा. व्रजकिशोर पाठक की वाग्मिता के ऐश्वर्य और रचनाशीलता के वैभव से अवगत होने का अवसर मिला हो, आज बड़े स्तर पर उनकी कहीं कोई उपस्थिति का न दिखना केवल और केवल दुखद आश्चर्य ही पैदा कर सकता है। एक ऐसा ज्ञाता जिसकी जिह्वा पर ही संस्कृत के वाल्मीकि-कालिदास ही नहीं अंग्रेजी के वडर्सवर्थ-शेक्शपीयर से लेकर हिन्दी के तुलसीदास-भारतेंदु  व प्रेमचंद-प्रसाद, मुक्तिबोध-अज्ञेय तक बसते हों ! 
श्याम बिहारी श्यामल
कॉलेज में जिस शख्स को सुनने के लिए कक्षा में साहित्येत्तर विषयों के भिन्न कक्षायी छात्र से लेकर फिजिक्स-केमेस्ट्री के प्राध्यापक तक पिछले दरवाजों से धड़धड़ाकर भर जाया करते हों और जिसके मुंह से फूटने का अवसर पाते ही शब्द दृश्यांतरित होकर अतिरिक्त अभिव्यक्ति-क्षमता के नए बल से संस्कारित हो जाते हों, ऐसे व्यक्तित्व की हमारे शब्द संसार की परिधि में एकबारगी संपूर्ण अदृश्यता आखिर क्या संकेत कर रही है ? यह स्वयं उनकी कार्य-भूमिका में किसी व्यवहारगत कमी या बेपरवाही का हश्र है अथवा हमारे साहित्य समाज की किन्हीं घनघोर बाड़ेबंदियों का दहला देने वाला सबूत?

(स्व॰) डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक

व्रजकिशोर पाठक ने लघुकथा आंदोलन के दूसरे उत्थान-काल में अस्सी के दशक के दौरान इस नव्यतर विधा की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। नौवें दशक के प्रारंभिक वर्षों में डालटनगंज से प्रकाशित कृष्णानंद कृष्ण संपादित पत्रिका 'पुन:' के बहुचर्चित लघुकथांक में सम्मिलित उनका आलेख 'हिन्दी लघुकथा का शरीर-विज्ञान और उसकी प्रसव-गाथा' न केवल उल्लेखनीय बल्कि इस विधा का ऐसा महत्वपूर्ण आधार-विश्लेषण है जिसे पढ़े बगैर कोई समीक्षक लघुकथा पर आगे बात कर ही नहीं सकता। उनकी समालोचना-शैली हिन्दी में एक ऐसे नए प्रकार का विश्लेषण रूप प्रस्तुत करती है जिसमें समीक्षकीय माप-तौल की शुष्क तराजू-बटखरी खटर-पटर के मुकाबले सृजनात्मक मनन-मंथन का मधुर मथानी-संगीत अधिक मुखर है।
वह भी एक दौर रहा जब पलामू में कोई भी रचनाकार अपनी कोई किताब छपाने को आगे बढ़ता तो सबसे पहले भूमिका लिखाने उन्हीं के पास पहुंचता। बेशक इस निमित्त दो नाम और भी सबके सामने उपलब्ध होते डा. जगदीश्वर प्रसाद और डा. चंद्रेश्वर कर्ण, लेकिन प्राय: रचनाकारों की पहली पसंद व्रजकिशोर पाठक ही होते। इसकी जो वजह अब समझ में आ रही वह है शेष दोनों आचार्यों की प्रचलित छवियां जो नए लोगों को असहज बना देती थीं। दोनों प्रथमत: से लेकर अंतत: तक आचार्य ही गोचर होते रहते। डा. जगदीश्वर प्रसाद सहज तो रहे लेकिन उनके बारे में बौद्धिक जनमानस में एक यह धारणा बहुत गहरे पैठी रही कि वह अत्यधिक बहुपठित और उद्भट विद्वान हैं। लोग उन्हें बोपदेव कहा करते। इस कारण लोग स्वयं ही आत्मसंशय का शिकार हुए रहते कि ऐसा घनघोर आचार्य भला स्थानीय स्तर के किसी नए रचनाकार को क्या तरजीह देगा !
दूसरे डा. चंदेश्वर कर्ण का तो व्यक्तित्व भी सख्त रहा। वह बहुत अधुनातन शब्दावली में लिखते और बोलने में भी एक-एक शब्द बहुत माप-जोखकर खर्च करते। अपने समकक्षीय रचनाकारों के बीच वह कभी-कभी हंसते-ठठाते भी दिख जाते लेकिन कनीय रचनाकारों के बीच उनकी संजीदगी देखते बनती। हां-हूं से शायद ही कभी आगे बढ़ते।
रचना-मूल्यांकन की उनकी मानक कसौटी ऐसी आला दर्जे की रही कि स्थानीय नयों को इससे खासा दहशत महसूस होती। अस्सी के दशक के शुरुआती दिनों में ही पलामू के सुकंठ गीतकार हरिवंश प्रभात की कविताओं की किताब 'बढ़ते चरण' रामेश्वरम के असु प्रेस से छपकर आई थी। जाहिरन यह पलामू के एक नए रचनाकार की रचनाओं का संग्रह था, किसी गिरिजा कुमार माथुर या श्रीकांत वर्मा की किताब नहीं लेकिन डा. कर्ण ने इसकी बहुत कठोर समीक्षा की। उन्होंने 'बढ़ते चरण को रोको' शीर्षक से इसकी 'पलामू दर्पण' में ऐसी खबर ली कि हरिवंश प्रभात ही नहीं, दूसरे स्थानीय रचनाकार तक सहमकर रह गए थे।
दोनों के विपरीत व्रजकिशोर पाठक की आचार्य वाली छवि हमेशा गौण रही। वह हमेशा रचनात्मक आभा से भरे रहते। नए से नए रचनाकार से एकदम उसी के स्तर पर घुल-मिलकर एकाकार हो जाते। कवि आता तो उसके सामने उनका मधुर गीतकार मुखर हो उठता और गद्यकार पहुंचता तो उनका सजग कथाकार। भूमिका लिखाने पहुंचने वाले शायद ही किसी रचनाकार को उन्होंने कभी निराश लौटाया हो। साधारण से साधारण रचनाओं को भी वह खारिज नहीं करते। सौ की जगह पांच फीसद भी कुछ सप्राण तत्व होता तो वह क्षतिग्रस्त पंचान्बे को तो बेशक चिह्नित कर देते लेकिन सकारात्मक पांच की संभावनाओं को धुनकर रूई के फाहे की तरह लहराकर पेश करते।

Sunday, 17 December 2017

डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक की याद-1 / श्याम बिहारी श्यामल

[डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक हमारे समय के महत्वपूर्ण समालोचक रहे हैं। हिन्दी लघुकथा पर उनकी दृष्टि अन्य आलोचकों की तुलना में कहीं अधिक सधी और सटीक रही है। नवें दशक में उन्होंने कुछ विचारोत्तेजक लेख लघुकथा साहित्य को प्रदान किए जो हमेशा ही उपयोगी रहेंगे। दिनांक 7-12-2017 की सुबह लगभग 79 साल 10 माह की उम्र में उनके निधन से हुई साहित्यिक क्षति अपूरणीय है। हमारे विशेष अनुरोध पर उनके समग्र व्यक्तित्व को याद करते इस संस्मरण को उपलब्ध कराया है वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार भाई श्याम बिहारी श्यामल ने। आभार सहित प्रस्तुत है उसकी पहली किस्त--बलराम अग्रवाल]
  
(स्व॰) डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक
बिहार से अलग हुए झारखंड में गढ़वा और लातेहार के जिला बन जाने के बाद '' से पलाश, '' से लाह और '' से महुआ वाली पलामू की प्राकृतिक त्रि-उत्‍पादाधारित  पुरानी लो‍कप्रिय परिभाषा अब कितनी सार्थक रह गई है, यह अन्‍य लोगों के लिए चिंता-चिंतन या विश्‍लेषण-मनन की बात होगी, हमारे मन-मस्तिष्‍क में तो इस धरती की वह मूल पहचान आज भी कायम है जो प्राय: दो रूपों में अक्षुण्‍ण है। 
पहली तो वह कोयल नदी, जो प्रवाह रहने पर ऐसे कूकती हुई बहती है जैसे बिंधे मन व रुंधे कंठ से वन प्रांतर की कोई जल-पार्वती अपने अछोर जीवन-संघर्ष का अरुण-करुण महाकाव्‍य आलाप रही हो ! अद्भुत नदी, जो निर्जल हो जाने पर भी कभी निर्प्रवाह नहीं होती। सूख जाने पर कहीं स्‍वर्णाभ तो कहीं रजताभ विस्‍तार के रूप में गजब चमचमाने लगती है। कुछ यों जैसे उसकी कौंधें हवा पर प्रवाहित हो रहीं फेनिल राग-ध्‍वनियां हों। …और दूसरी पहचान, डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक; सतत अध्‍ययन-मनन व अपरिमित ज्ञान से रंजित जिनके बुलंद-बिंदास बोल सदा जैसे कानों के सामने ही लहराते रहते हों। जैसे गजब के अध्येता व रचनाकार वैसे ही अनोखे वक्‍ता-बोल्‍ता। जिनके मुख से जब आख्‍यान-व्‍याख्‍यान या भाषण-संभाषण फूटने लगें तो धरती से लेकर आकाश तक शब्‍द-संवेदना की जैसे उर्ध्‍व सलिला ही प्रवा‍हित होने लग जाएं। अफसोस की बात यह कि उन्‍हें वह बड़ा फलक न मिल सका जिसके वह हकदार रहे। यह हिन्‍दी साहित्‍य संसार का अपना दुर्भाग्‍य है कि वह अपनी ही एक प्रतिभा की ऐसी शख्सियत से पूरी तरह वाकिफ नहीं।
व्रजकिशोर पाठक को पहली बार देखने का संदर्भ स्‍मरण में सुस्‍पष्‍ट तो नहीं लेकिन उनकी प्रथम निकटता का आज भी कायम धड़कता अहसास यह बताने को काफी है कि मिलने के पहले से उन्‍हें काफी जान चुका था। वह निश्चित रूप से सन् उन्‍नीस सौ अस्‍सी या उससे एकाध साल पीछे का ही साल रहा होगा। आज के मेदिनीनगर और तब के डाल्‍टनगंज का वही कूकती कोयल नदी वाला तट और वहीं स्थित अपने गिरिवर हाई स्‍कूल का नाति हरित प्रांगण। वह वस्‍तुत: स्‍कूल के वार्षिकोत्‍सव जैसा ही कोई आयोजन रहा। 
श्याम बिहारी श्यामल
स्‍वप्‍नलोक की आभा महसूस होने और उस घोर पिछड़े इलाके में तब प्राय: घनघोर दुर्लभ रही बिजली के बल्‍ब-झालरों से सजा, ऊंचे पेड़ों के साए में बना मंच। ऊपर विराजमान लोगों के बीच उनके निकट होने, उनकी उठी निगाहों को आसपास महसूसते हुए काँपते पाँवों से माइक स्‍टैंड तक पहुँचने, अधपके किशोर स्‍वर में कुछ तुतले किंतु स्‍वरचित काव्‍यांश बाँचने और लौटते हुए अपने नत मस्‍तक पर उनके कुछ आशीर्वचनी शब्‍द बरसने का स्‍मरण आज भी है। वही मुख्‍य अतिथि रहे। उन्‍होंने अपनी मूल विशिष्‍टता के अनुरुप ही खूब मुखर व्‍याख्‍यान दिया था। 
शब्‍द या कथ्‍य-संदर्भ आदि तो अब ध्‍यान में नहीं, लेकिन यह पक्‍का स्‍मरण है कि उनके ठनकते बोलों ने जैसे वहाँ के मौजूद एक-एक चेतन-अचेतन या व्‍यक्ति-अव्‍यक्ति को संपूर्ण सचेतन-ससंज्ञ्य बना दिया था। कुछ यों जैसे सृष्टिकार के हाथ भी जिन हवा-झोंके, पेड़-पत्‍ते, ईंट-दीवारें व धूल-ढेलों को पंच-ज्ञानेंद्रिय-सज्जित न कर सके थे, उन्‍हें वाणी के एक जादूगर ने शब्‍दमय-ध्‍वनिमय और संवेदनापूरित कर जैसे संपूर्ण भावमग्‍न कर डाला हो। 
साढ़े तीन दशक के अंतराल के बाद आज आकलन करते हुए यह महसूस कर रहा हूँ कि बाद में बढ़ी निकटता व कुल कोई दशक भर की प्रत्‍यक्ष संपर्क-अवधि के दौरान उनसे जब-जब जहाँ कहीं भी मिलना हुआ हर संदर्श में सबसे पहले वही गिरिवर-प्रांगण वाली कहकहाती छवि सर्वप्रथम खिंचती और हर संसर्ग-संदर्भ को हमेशा-हमेशा सींचती रही। 
जीएलए कॉलेज के दिनों में स्‍वाभाविक रूप से डॉ॰ व्रजकिशोर पाठक और तत्‍कालीन हिन्‍दी विभागाध्‍यक्ष डॉ॰ जगदीश्‍वर प्रसाद से लेकर डॉ॰ चंद्रेश्‍वर कर्ण तक से कक्षाओं में सामना होता रहा लेकिन तीनों से बतौर रचनाकार सहज संपर्क बाद में विकसित हो सका। दूसरे की तुलना में शेष दो से अधिक और प्रथम अर्थात् व्रजकिशोर पाठक से तो सर्वाधिक। एक दौर ऐसा भी आया जब जिले में पटना या रांची के अखबारों के संवाददाता वाला कार्य करने के दौरान घोर समयाभाव के बावजूद उनसे प्रतिदिन मिलने का क्रम चलता रहा। 
दिन भर की लाख भाग-दौड़ के बावजूद डालटनगंज के बाजार-क्षेत्र में अखबारी साथियों के बीच से शाम होते अचानक गायब हो जाना और वहीं से पाँव-पैदल छहमुहान-बस स्‍टैंड-कचहरी होते चर्च के सामने से गुजर रेललाइन पार करके रेड़मा और अंतत: ढाई-तीन किलोमीटर की दूरी के बाद चरकी भट्ठा के पास उनके घर। अक्‍सर उनके घर के बाहर छोटे-से कैंपस के भीतर ही बैठकी जमती। कभी-कभी मेरे साथ हृदयानंद मिश्र या रामाशीष पांडेय जैसे तब के युवा नेताओं में से भी कोई न कोई खिंचा पहुँच जाता। 
साहित्‍य या समाज के अप्रचलित विषय-संदर्भों पर लंबी खिंचती चर्चा साथ गए व्‍यक्ति को कभी-कभी बहुत भारी भी पड़ने लगती लेकिन डाक्‍टर साहब की रोचक शैली एकबारगी उसे भाग खड़े होने से भी बचाए चलती। नीचे इधर-उधर अनियोजित घास। अंधेरे में इससे उत्‍साह के साथ निकलते और टूटते मच्‍छरों से भरसक बचने के लिए काठ की चौड़ी कुर्सी पर दोनों पाँव ऊपर ही समेटकर बैठना-बतियाना होता। 
कुछ तो खबरिया पेशे का आवारा सूखापन और कुछ हमारी आदतन गाफिली ऐसी कि हम पर अक्‍सर फांकाकशी धूल-गर्द की तरह उड़ती-झझराती रहती। इसका अहसास श्रीमती पाठक को शायद अच्‍छी तरह था। डाक्‍टर साहब तो जिस विषय पर शुरू हो जाते उसे भारतीय फलक से उठाकर देखते ही देखते विश्‍व साहित्‍य के आकाश तक उड़ा ले जाते। ऐसे समय उनके अध्‍ययन-विश्‍लेषण बल का विस्‍मयकारी अहसास होता। हम आदिकवि वाल्‍मीकि की करुणा से महाकवि गोस्‍वामी तुलसीदास, कालिदास, केशव, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध,अज्ञेय और उधर टीएस इलियट, वर्ड्सवर्थ से लेकर एजरा पाउंड व शेक्‍सपीयर या टाल्‍सटाय तक जैसे रचनाकारों के रचना-कौशल या सृजन-संदर्भों के किसी न किसी आयाम से प्राय: प्रतिदिन अवगत-चमत्‍कृत होते चलते। 

डॉ॰ पाठक अक्‍सर अपने गुरुदेव डॉ॰ रामखेलावन पांडेय की किसी न किसी रूप में चर्चा लगभग रोज करते। कभी उनके 'हिंदी साहित्‍य के नया इतिहास' को लेकर, रामचंद्र शुक्‍ल से लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तक के साथ उनकी इतिहास-दृष्टि के भेद का संदर्भ तो कभी हिन्‍दी के विभिन्‍न बड़े समकक्षीय रचनाकारों के साथ उनके मतभेद-विवाद के संदर्भ। गजब दक्षता के साथ वह बात को बात से जोड़ते चले जाते। उनसे कुछ ही घंटों का बतियाना दर्जनों ग्रंथों के बहुविध संदर्भ से जोड़ देता। उनके लंबे अध्‍ययन-मंथन का दुर्लभ अर्क सहज ही जिह्वा तक आ पहुँचने का तृप्ति-सुख।
हाथ आए विषय को वह लगातार ईख की तरह ऐसा पेरते चले जाते और घंटों अथक मथते-फेंटते रह जाते कि पूरा वातावरण मीठी तरलता से छलछलाता रह जाता लेकिन गले के नीचे तृप्ति तभी उतरती जब भाप छोड़ते भरे हुए प्‍लेट हाथ आते। आलू के पतले-लंबे पीले तताए टुकड़े, चूड़े के ललाए कुरकुरे दाने और हरी मिर्च के साथ उसके गल जाने तक खूब भुने प्‍याज के करियाये लरजे सोंधाई छोड़ते क्षीण हिस्‍से। इन सबसे उठता सोंधाई से भरा आह्लाद जगाता स्‍वाद। मात्रा कभी कामचलाऊ नहीं, हमेशा भरपूर। इसके साथ ही लगे हाथ स्‍टील के परिपक्‍व गिलास में पौन ऊंचाई तक ऊपर पहुँची-झाँकती गाढ़े दूध की ललौहीं चाय। उनकी चर्चा को मुक्तिबोध के 'अंधेरे में' से निकलकर चूड़े की सोंधाई व चाय की सांद्रता के शास्‍त्र में प्रविष्‍ट होने में पल भर की भी देर नहीं लगती। गजब यह कि हल्‍के से हल्‍के लगने वाले विषय के संदर्भ को संतृप्‍त करने के लिए वह कभी 'गोदान' से दृष्‍टांत खींच लाते तो कभी 'नदी के द्वीप' या 'शेखर एक जीवनी से'
सबसे खास होता निशा काल में बैठकी की समाप्ति का रूप। साथ में किसी और के आए होने पर तो नहीं लेकिन जिस दिन मैं उनके यहाँ अकेला पहुँचा रहता उस दिन गजब हो जाता। लाख मना करने और श्रीमती पाठक के टोकने के बावजूद डाक्‍टर साहब कमीज डालकर मुझे विदा करने साथ निकल लेते। शाम से ही शुरू चर्चा अविराम अपने नए-नए अध्‍याय बदलती रहती। उनका बाेलना, बोलते चला जाना और मेरा पूछना व सवाल उठाते रहना अबाध। इसी के समानांतर चरकी भट्ठा से निकलकर हमदोनों का कभी छोटे तो कभी बड़े डगों के साथ रेलवे क्रॉसिंग की ओर बढ़ना भी जारी। डेढ़-दो किलोमीटर चलकर जब हम रेल लाइन को लांघ आरा मिल के पास पहुँचते तो डॉक्‍टर साहब मुझे विदा कहकर लौटने लगते। 
इसके बाद मैं उन्‍हें विदा करने को कहकर उनके साथ हो लेता। चर्चा चलती रहती और मैं एक किलोमीटर चलकर उन्‍हें रेड़मा चौराहे पर छोड़कर लौट पड़ता। तब तक जारी चर्चा के खत्‍म न होने का हवाला देकर डॉक्‍टर साहब फिर मुझे रेल लाइन तक छोड़ने लौट चलते। इसके बाद भी अक्‍सर फिर मैं पीछे मुड़कर उनके साथ। कहाँ कुर्सी से उठते हुए बैठकी की समाप्ति की घोषणा का समय रात के दस या ग्‍यारह बजे का और कहाँ परस्‍पर एक-दूसरे को छोड़ने के पथ-परिक्रमा के क्रम में घड़ी की सुइयाँ डेढ़-दो को छूती हुई भोर की ओर इशारा करने लग जातीं। बड़ी मुश्किल से बिलगाव होता। दूसरे दिन की बैठकी की शुरुआत में ही बीती रात का विलंब न दोहराने का संकल्‍प लिया जाता लेकिन यह शायद ही कभी एक बार भी पूरा हो सका हो। 
वह पढ़ाकू ऐसे कि साहित्‍य ही क्‍यों इतिहास-भूगोल, बाग-बगवानी, प्रदूषण-पर्यावरण से लेकर साइंस-अर्थशास्‍त्र आदि तक किसी विषय-संदर्भ की कोई पोथी शाम को पकड़ा आइए और दूसरे दिन सुन लीजिए पृष्‍ठांक संदर्भ के साथ उसकी संपूर्ण सप्रसंग व्‍याख्‍या। सुनने वाला अरुचिकर-अनपेक्षित विषय होने के नाते कभी शुरू में भले कुछ कसमस करता हुआ भी लग जाए लेकिन कुछ ही देर में उस पर उनकी सरस वाणी के जादू का चल जाना व रस-रंग में डूबकर उसका डोलता दिखना भी तय। कविता और उपन्‍यास से लेकर आलोचना तक में उनकी दुर्लभ लेखन-प्रतिभा की एक से एक बानगी। 
इमर्जेंसी के दौर की उनकी कविता 'लंगड़े कुत्‍ते का भाषण' गजब की रचना है जिसमें विकलांग कर दी गई चेतना का प्रतीक बनकर पेश लंगड़ा कुत्‍ता देश की तत्‍कालीन परिस्थितियों को रेखांकित करता हुआ कहता है कि देश में सारे पुल्लिंग शब्‍द स्‍त्रीलिंग हो गए हैं! पी.एच.डी. के लिए साठ के दशक में तैयार उनका शोधग्रंथ 'भारतेंदु की गद्य-भाषा' न केवल आज पेश हो रहे ज्‍यादातर डी.लिट. प्रबंधों पर भारी है बल्कि हिन्‍दी भाषा-साहित्‍य के जनक बाबू हरिश्‍चंद्र के मूल्‍यवान लेखन पर प्रारंभिक गंभीर व्‍याख्‍या-कार्य के रूप में अत्‍यंत वरेण्‍य योगदान भी। 
उन्‍होंने बिहार राष्‍ट्रभाषा परिषद की शोध-पत्रिका में अनेक ऐसे रचनाकारों पर गंभीर पड़ताली आलोचना लिखी है जिन्‍हें अचर्चा की धूल ने युगों-युगों से ढंक रखा था। इस क्रम में बाबू भोलाराम गहमरी पर लिखा विशिष्‍ट शोध आलेख और कवि बोधिदास के भूले-बिसरे काव्‍यग्रंथ 'झूलना' पर किया गया उनका पड़ताली कार्य तो तत्‍काल स्‍मरण में कौंध रहा है। 'हिन्‍दी साहित्‍य के अचर्चित पृष्‍ठ' स्‍तंभ-नाम के साथ छपे उनके ऐसे सारे लेखों को तत्‍काल संकलित किए जाने की आवश्‍यकता है लेकिन यह सब कुछ खोजना और समुचित क्रम-संदर्भादि का निरुपण करते हुए प्रसंगों को खोलते-जोड़ते हुए इंट्रो नोट या पाद टिप्‍पणियों के साथ प्रभावशाली ग्रंथ-प्रस्‍तुति संभव बनाना साहित्‍य के ही किसी श्रमशील अनुरागी के योगदान से संभव है। 
उन्‍होंने मगही में भी काफी कुछ लिखा है। उनका उपन्‍यास 'गांजा बाबा' तब  काफी चर्चे में रहा। यह अपनी भाषा और कहन की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण कृति है किंतु हिन्‍दी की मूल रचना न होने के कारण स्‍वाभाविक रूप से बड़े फलक के अपेक्षित विमर्श या स्‍वीकृति-लाभ से वंचित। उसी तरह मगही में ही उनकी 'मेयादी बोखार' रचना का भी मुझे स्‍मरण है जिसका जब वह स्‍वयं वाचन करते तो एक-एक शब्‍द जैसे अग्नि-कणों की तरह दृश्‍यांश बिच्‍छुरित करते चले जाते। 1988 में मेरे पलामू छूटने के बाद भी डाक्‍टर साहब ने काफी कुछ काम किया है। इसी क्रम में पलामू के अमर शहीदों पर लिखी उनकी कृति 'नीलांबर पीतांबर' खास है। आवश्‍यकता इस बात की है कि उनके समूचे लेखन-कार्य को गंभीरतापूर्वक अनुक्रमित और संपादित कर समग्र रचनावली-रूप में प्रकाशित कराया जाए।
                                                                              समापन किस्त आगामी अंक में………    

Tuesday, 12 December 2017

डॉ. शकुन्तला ‘किरण’ से डॉ लता अग्रवाल की बातचीत-2

अर्जुन का तीर है लघुकथाडॉ. शकुन्तला किरण

साथियो ! लघुकथा के क्षेत्र में आदरणीया डॉ॰ शकुन्तला ‘किरण’ जी एक जाना-पहचाना और सम्मानित नाम है। आप देश के किसी भी विश्वविद्यालय में लघुकथा के लिए
डॉ॰ शकुन्तला किरण


डॉ॰ लता अग्रवाल
पंजीकृत पहली शोधार्थी व पीएच॰ डी॰ शोधोपाधि प्राप्त व्यक्तित्व हैं (राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर सन् 1976 में पंजीकृत व सन् 1982 में पीएच॰ डी॰ उपाधि प्राप्त)| इस नाते इस क्षेत्र में आज जो भी इतिहास उपलब्ध है उसमें आपकी बड़ी भूमिका है | आपके द्वारा लिखित आलोचना पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ लघुकथा के महासागर का ऐसा लाइट हाउस है जिससे उस राह के राहगीर और पोत सदैव दिशा और प्रेरणा पाते रहेंगे |

सुखद संयोग रहा कि अक्टूबर 2017 में अजमेर यात्रा के दौरान मुझे उनका निकट सान्निध्य मिला | दीदी ने नवें दशक से ही साहित्य पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देने से स्वयं को दूर रखा था; किन्तु उस दिन मेरे निवेदन पर (जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी, न ही इस तैयारी के साथ उनसे मिलने गयी थी) उनकी अनुमति से, जो प्रश्न उस समय मस्तिष्क में आये मैंने उनसे किये और उन्होंने सहर्ष उन सबके जवाब भी दिए | उन जवाबों की पहली किस्त इसी ब्लॉग पर कुछ दिन पहले (5-12-2017 को) पोस्ट की गयी थी। आज उस बातचीत की दूसरी और अन्तिम किस्त आपसे साझा कर रही हूँ |डॉ॰ लता अग्रवाल]

डॉ लता अग्रवाल : दीदी, कहा जाता है कि लघुकथा इकहरे, एकांगी कथ्य की विधा है। इसका क्या अर्थ है ?
जैसाकि  ‘लघुकथा’ नाम से पता चलता है, यह कम शब्दों में कही जाने वाली कथा-विधा है | इसमें कथ्य के एक पहलू पर ही लेखक अपना काम करता है | यद्यपि कथ्य के एक ही पहलू पर अनेक कहानियाँ भी लिखी जाती रही हैं; फिर भी, कहानी कुछ ऐसे विस्तारों की ओर जाने को बाध्य होती जिनके बिना उसकी काया को विस्तार देना कहानीकार के लिए असम्भव होता है। ऐसी हर बाध्यता से मुक्त रचना ही ‘लघुकथा’ कहलाती है और सही अर्थों में वही एकांगी प्रस्तुति होती भी है।
डॉ लता अग्रवाल : लघुकथा में ‘समापन बिंदु’ और ‘अंत’ दो अलग स्थितियाँ कही जाती हैं। ये किस तरह अलग होती हैं
तात्त्विक दृष्टि से देखा जाए तो, किसी भी लघुकथा का ‘समापन’ नहीं होता, और न ‘अंत’ ही होता है। मेरा प्रारम्भ से ही मानना रहा है कि लघुकथा जहाँ समाप्त होती है, वहीं से पाठक के मनो-मस्तिष्क में पुन; शुरू होती है। फिर वह कथा चिन्तन को और तत्जनित प्रतिक्रिया को जन्म देती है, और कुछ नहीं तो दूसरी कथा को जन्म देती है। इसीप्रकार यह क्रम चलता रहता है | फिर भी, कुछ लघुकथाओं में समापन और अंत की स्थिति देखने को मिलती है जिसे रचना को देखे बिना यहाँ समझाना सम्भव नहीं है।
डॉ लता अग्रवाल : प्राचीन काल से लेकर अब तक, समकालीन हिन्दी लघुकथा में मानवीय सम्वेदना की प्रस्तुति को आप किस-किस रूप में रेखांकित करेंगी ? तात्पर्य यह कि उसके रूप में क्या-क्या परिवर्तन नजर आते हैं?
साहित्य में एक विधा के रूप में लघुकथा छोटी से छोटी अनुभूति को विराट मानवीय संवेदना के स्तर पर गहराई से मूर्त रूप प्रदान करती है | मर्म को छू लेना लघुकथा की ऐसी  विशेषता है जिसका निर्वाह वह आदिकाल से अब तक करती आ रही है | वही लघुकथा जीवित रहती है जिसका मर्म जीवित हो।
डॉ लता अग्रवाल : एक सफल लघुकथा में दृश्य विधान का क्या महत्व है?
बहुत महत्वपूर्ण रोल है | दृश्य विधान नाट्यशास्त्र का विषय है। यह न केवल लिखित साहित्य पर अपना फोकस रखता है वरन श्रव्य या पठनीय साहित्य में भी अपनी भूमिका का निर्वाह उतनी ही गंभीरता और प्रभावपूर्ण ढंग से करता है | दृश्यात्मकता किसी वस्तु के अवलोकन के कई द्वार खोल देती है। लघुकथाकार के पास शब्दों की वह शक्ति होनी चाहिए जिससे वह जो रच रहा है, उसे पाठक की आँखों के सामने मूर्त कर सके | दृश्यात्मकता रचना और रचनाकार दोनों की उत्कृष्टता का पैमाना है |
डॉ लता अग्रवाल : आपकी दृष्टि में कौन-से विषय हैं जो अभी भी लघुकथा में अछूते हैं और जिन पर तत्परता से काम होना चाहिए ?
आज हर क्षेत्र में पुराने मानक अक्षम साबित हो रहे हैं। कारण, जिन्दगी का केनवास बहुत विस्तार पा गया है | यही बात लेखन पर भी लागू होती है | लघुकथा में पारिवारिक, सामाजिक मुद्दों पर बहुत लेखन हुआ है, राष्ट्रीय मुद्दों पर भी | किन्तु आज आवश्यकता है इन मुद्दों पर गहराई से चिन्तन करने की। चिन्तन में उथलापन होगा तो रचना में भी गहराई नहीं आ पाएगी। लघुकथा के कथ्यों को विश्वस्तर पर ले जाने की बात भी यदा-कदा सामने आती रहती है| इस बारे में किसी आलोचक का एक कथन मुझे याद आ रहा है। उन्होंने शायद कहा था— कथ्य-चुनाव के मामले में लघुकथाकारों को एक प्रक्रिया से गुजरना चाहिए। वे पहले स्थानीयता से जुड़ें, फिर राष्ट्रीयता से और उसके बाद अन्तरराष्ट्रीयता से।
डॉ लता अग्रवाल : जी दीदी, अजमेर में हुए ‘शब्द निष्ठा’ सम्मान के दौरान आदरणीय बलराम अग्रवाल जी ने यह बात कही थी।
तो इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा नहीं कि इस दिशा में कोई काम ही नहीं हुआ, बहुत हुआ है। अनेक युवा भी इसी प्रक्रिया को अपना रहे होंगे, सही दिशा में सक्रिय होंगे | फिर भी, आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो समस्याएं, चिन्तन उभरकर आ रही हैं उनकी ओर से आँखें मूँदना गलत होगा। उन पर चिंतन और मंथन को जारी रखने की आवश्यकता है |
डॉ लता अग्रवाल : शैली किसी भी कथ्य के सम्प्रेष्ण को प्रभावी बनाती है। लघुकथा में कौन–कौन सी शैली कथ्य और तथ्य को बेहतर संप्रेषित करने की क्षमता रखती है
बेशक, शैली किसी भी कथ्य के सम्प्रेष्ण को प्रभावी बनाती है; लेकिन कब, कौन-सी शैली अपनायी जाए, इसका निर्धारण भी एक कला है। शैली का सम्बन्ध सम्बन्धित कथ्य और उसके लेखक से है। किसी एक शैली को प्रभावशाली मान लेना कथाकार के अपने हित में भी नहीं है।
डॉ लता अग्रवाल : बहुत-सी लघुकथाएँ मात्र विवरणात्मक अथवा व्याख्यात्मक शैली में लिखी मिल जाती हैं। प्रभाव और सम्प्रेषण की दृष्टि से इस शैली को  कितना अपनाया जाना चाहिए ?
लघुकथा कम शब्दों में कही जाने वाली गद्य कथा-विधा है। अपनी पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ में इसे परिभाषित करते हुए मैंने लिखा है—‘शाब्दिक मितव्ययता के सन्दर्भ में, लघुकथा एक प्रकार से एक प्रबुद्ध अर्थशास्त्री का ऐसा निजी बजट है जिसे वह सकारात्मक सोच-समझ के साथ इस प्रकार बनाता है कि प्रत्येक पैसे का (लघुकथा के सन्दर्भ में—प्रत्येक शब्द का) सार्थक उपयोग हो सके।’ इसमें अनावश्यक स्थूल विवरण, अस्वाभाविक बडबोलापन रचना को छितरा और प्रभावहीन बनाता है। लघुकथाकार को शिल्प के छितरेपन से बचना चाहिए।  इसके स्थान पर द्वंद्व, प्रतीक एवं संकेतों के माध्यम से बात कहने पर बल देना चाहिए|
डॉ लता अग्रवाल : लघुकथा में 'आत्मकथात्मक शैली' का प्रयोग किया जाना चाहिए अथवा नहीं; यदि हाँ, तो किस रूप में और किस हद तक ? क्या इस शैली में लिखी लघुकथा को लेखक की सीधी उपस्थिति की कथा माना जाएगा?
कथा-विधा में प्रयुक्त होने वाली या प्रयुक्त हो सकने वाली कोई भी शैली लघुकथा में अवांछित नहीं है—आत्मकथात्मक शैली भी नहीं। इस शैली की रचनाएँ जाहिर है कि ‘प्रथम पुरुष’ में लिखी जाती हैं। इस बारे में बलराम अग्रवाल का एक वक्तव्य पिछले दिनों कहीं पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा था—‘ 'प्रथम पुरुष' में लिखी रचनाओं में से अधिकतर में 'मैं' पात्र को लेखक ग्लोरीफाई ही अधिक करता देखा जाता है। कारण? 'मैं' जबकि एक स्वतंत्र पात्र होना चाहिए, फिर भी अधिकतर लेखक अपने आप को उससे जोड़ने का मोह संवरण कर लेते हैं और अपने ऊपर लानत-मलानत भेजने से कतराते हैं।’ उनका मानना है कि ‘कही जाने वाली घटना से स्वयं जुड़ा होने के बावजूद लिखी जाने वाली घटना से लेखक स्वयं को दूर रखे।’ मेरा भी मानना है कि लेखक अगर कथा-घटना से स्वयं को दूर नहीं रखेगा तो निश्चित रूप से अपनी उपस्थिति लघुकथा में दर्ज करके उसकी प्रस्तुति को कमजोर करने का कारण बन जाएगा।
डॉ लता अग्रवाल : क्या संवाद को लघुकथा में 'प्रभाव की बैसाखी' कहना उचित होगा ?
संवाद को प्रभाव की बैसाखी नहीं बल्कि उसकी व्याप्ति कहना अधिक न्यायसंगत होगा। संवाद सहज लगें, पात्र के अनुकूल हों, संक्षिप्त हों; किन्तु अर्थ की दृष्टि से उनमें विस्तार हो|
डॉ लता अग्रवाल : लघुकथा दृश्यांकन है, चित्रांकन है, चरित्रांकन है या यह तीनों
तीनों। जब चरित्र की बात होगी तो उसके आसपास का चित्र भी कथा में झलकेगा ही। जब चित्र की बात होगी तो पात्र उसका अभिन्न अंग होगा इसलिए यह कहना सही नहीं होगा की लघुकथा चित्र या चरित्र में से किसी एक का ही प्रतिनिधित्व करती है |
डॉ लता अग्रवाल : क्या प्राचीन लेखन को देखते हुए लघुकथा में नये पिलर खड़े करने की आवश्यकता आप महसूस करती हैं ?
बिलकुल। यदि किसी विधा में समय के साथ नवीनता बनाये रखना है तो नये पिलर तो खड़े करने होंगे न। नये पिलर ही किसी विधा को नया आधार और नयी ऊँचाई देते हैं। वे नये वातायनों का निर्माण करते हैं जिनसे समयानुकूल ताजी हवा और रोशनी अन्दर आ सके। जो विधाएँ नयेपन से कतराती हैं, वे रुग्ण होकर अन्तत: नष्ट हो जाती हैं। 
डॉ लता अग्रवाल : कालजयी लघुकथा आप किसे कहेंगी यानी आपकी दृष्टि से उसमें क्या गुण-धर्म होने चाहिएँ?
किसी भी विषय अथवा घटना को जबरन लघुकथा में धकेलने का प्रयास इस विधा को कृत्रिम और कमजोर बनाता है अत: जब तक लेखक के भीतर का द्वंद्व कागज पर नहीं उतरेगा, प्रभावशाली लघुकथा नहीं लिखी जा सकेगी | वस्तुत: लघुकथा घटना या विषय में नहीं उस गूँज में होती है जो कथा के बाद पाठक के मनो-मस्तिष्क में विस्तार पाती है | इस बात को ध्यान  में रखकर लिखी गई कथा निश्चय ही कालजयी रचना होगी |
डॉ लता अग्रवाल : आप हिन्दी लघुकथा के विचार पक्ष की माइलस्टोन हैं और आपका रचना पक्ष भी स्तरीय है। उसके बाद राजनीति में शीर्ष स्थान पर रहीं। उसे भी त्यागकर गत लगभग तीन सदी से आप आध्यात्मिक साधना की राह पर अग्रसर हैं। इन तीनों ही क्षेत्रों के अनुभव आपको हैं। यदि क्रम में रखना हो तो निश्चित ही आप अध्यात्म को प्रथम और राजनीति को तृतीय स्थान पर रखेंगी। क्यों
प्रथम—हम आध्यात्म को जीवन का उद्देश्य मानते हैं, जो साधना द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है। द्वितीय—साहित्य पर आए; इसका उद्देश्य भी स्वान्त: सुखाय, सर्वहिताय रहा है। सही कहा—अंत में रखना चाहूँगी राजनीति को; क्योंकि आज न केवल नेता और कार्यकर्ता बल्कि दल भी राष्ट्रीय हितों से दूर हैं।
डॉ लता अग्रवाल : जैसे कि कहा जाता है :
               * "अतीत की स्मृतियों का ताना बाना हैसंस्मरण।"
               * "ध्रुपद की तान हैकहानी।"
               * "जज्बात और अल्फ़ाज़ का बेहतरीन गुंचा हैग़ज़ल।"
               लघुकथा के लिए ऐसा एक वाक्य आप क्या निर्धारित करना पसन्द करेंगी ?
"अर्जुन का तीर है लघुकथा।"
डॉ लता अग्रवाल : अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों को लेकर लघुकथा में कोई काम हुआ है या हो सकता है या होना चाहिए

"अर्थ, धर्म और काम—ये तीनों आदिकाल से ही सामान्य जन की चिन्ताओं से जुड़े रहे हैं इसलिए जन-साहित्य का, जिसमें लघुकथा भी शामिल है, हिस्सा भी लगातार बनते रहे हैं। पूर्वकालीन लघुकथाओं में दर्शन के माध्यम से ‘मोक्ष’ की ओर भी मनुष्य का ध्यान आकर्षित किया जाता रहा है। ‘मोक्ष’ प्रचलित अर्थों में समकालीन लघुकथा का ध्येय नहीं है अलबत्ता सड़ी-गली मान्यताओं और मानसिक गुलामी की जंजीरों से ‘मुक्ति’ उसका विषय अवश्य है और हमेशा रहेगा।"
                                             'संरचना - 10' (जनवरी-दिसंबर 2017) में प्रकाशित

Tuesday, 5 December 2017

डॉ॰ शकुन्तला किरण से डॉ॰ लता अग्रवाल की बातचीत-1

     कम शब्दों में बहुत-कुछ कहने की कला है लघुकथा         डॉ॰ शकुन्तला किरण



[साथियो ! लघुकथा के क्षेत्र में आदरणीया डॉ॰ शकुन्तला ‘किरण’ जी एक जाना-पहचाना और सम्मानित नाम है। आप देश के किसी भी विश्वविद्यालय में लघुकथा के लिए पंजीकृत पहली शोधार्थी व पीएच॰ डी॰ शोधोपाधि प्राप्त व्यक्तित्व हैं (राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर सन् 1976 में पंजीकृत व सन् 1982 में पीएच॰ डी॰ उपाधि प्राप्त)| इस नाते इस क्षेत्र में आज जो भी इतिहास उपलब्ध है उसमें आपकी बड़ी भूमिका है | आपके द्वारा लिखित आलोचनात्मक पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ लघुकथा के महासागर का ऐसा लाइट हाउस है जिससे उस राह के राहगीर और पोत सदैव दिशा और प्रेरणा पाते रहेंगे |
डॉ॰ शकुन्तला किरण

डॉ॰ लता अग्रवाल
सुखद संयोग रहा कि अक्टूबर 2017 में अजमेर यात्रा के दौरान मुझे उनका निकट सान्निध्य मिला | दीदी ने नवें दशक से ही साहित्य पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देने से स्वयं को दूर रखा था; किन्तु उस दिन मेरे निवेदन पर (जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी, न ही इस तैयारी के साथ उनसे मिलने गयी थी) उनकी अनुमति से, जो प्रश्न उस समय मस्तिष्क में आये मैंने उनसे किये और उन्होंने सहर्ष उन सबके जवाब भी दिए | यहाँ प्रस्तुत है उस लम्बी बातचीत की पहली किस्त| दूसरी किस्त शीघ्र ही इसी ब्लॉग पर जारी की जाएगी।डॉ॰ लता अग्रवाल]                                                    

1. डॉ लता अग्रवाल - दीदी, आप भारत की पहली लघुकथा शोधार्थी रही हैं, इसके लिए बधाई स्वीकार करें।कृपया हमारे लघुकथाकार परिवार को बताएँ कि शोध के लिए ‘लघुकथा’ को विषय के रूप में चुनने का ख्याल आपको कैसे आया ?
डॉ शकुंतला किरण जीधन्यवाद लता | दरअसल मुझे यह सुझाव मुझे स्व. प्रोफेसर कृष्ण कमलेश जी से मिला | मैंने स्वयं इस सम्बन्ध में कभी नहीं सोचा था| किन्तु जब कमलेश जी ने सुझाव दिया, ‘क्यों न लघुकथा पर शोध करो’ तब लगा, चलो पढ़कर देखते हैं | पढ़ा, तो बहुत रोचक विषय लगा और इस तरह यह मेरे शोध का विषय बना |
2. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा की वर्तमान समय में क्या उपादेयता है ?
डॉ शकुंतला किरण आप देख रही हैं आज हिंदी लघुकथा गद्य के सभी कथात्मक स्वरूपों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में न केवल सक्षम सिध्द हुई है अपितु अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों जैसे, प्रकाशन प्रसारण, मंच, संचार क्रांति आदि पर लिखी और पढ़ी जाने वाली सर्वाधिक लोकप्रिय विधा साबित हुई है | यही इसकी उपादेयता सिध्द करती है |
आपने अपने समय में देखा होगा—प्रसाद जी की कथा चाहे वह ‘आकाशदीप’ हो या 65-70 के दौर के किसी अन्य कहानीकार की कोई रचना, जब उसमें नायक-नायिका का वर्णन होता है अक्सर प्रकृति-वर्णन के साथ वातावरण का भी फैलाव मिलता रहा है । उस समय वह सब पढ़कर अच्छा भी लगता था लेकिन आज के पाठक का टेस्ट अलग है |
पहले लोग ‘चन्द्रकान्ता संतति’ बड़े शौक से पढ़ते थे; किन्तु इस यांत्रिकी युग में पाठक साहित्य का आनन्द भी लेना चाहता है और समय की बचत भी चाहता है | यही सब है, जो लघुकथा की मांग करता है |
3. डॉ लता अग्रवाल - साहित्य का उद्देश्य होता है समाज को नीति की राह दिखाना। क्या लघुकथा भी ऐसे ही किसी उद्देश्य को लेकर चलती है ?
डॉ शकुंतला किरणइसे मैं इस तरह कहूँगी की साहित्य सदैव अपने युग का प्रतिनिधित्व करता है। वर्तमान में बदली हुई मानसिकता के साथ कथा-साहित्य का उद्देश्य भी शिक्षात्मक एवं मनोरंजनात्मक से अधिक सामाजिक यथार्थ से पाठकों को अवगत कराना भी हो गया है, जिसके अंतर्गत गलत व्यवस्थाओं पर चोट करना, समाज के साथ व्यक्ति के बाह्य और आंतरिक परिवेश की विकृतियों को उघाड़कर  दिखाना उन पर चोट करना, ओढ़े हुए मुखौटों को नोच फेंकना हो गया है। लघुकथा इन सब उद्देश्यों की पूर्ति करती है |
4. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा अपने समापन के बाद पाठक के मस्तिष्क को झकझोरती  है’ आपके ही इस कथन पर आपके विचार चाहेंगे।
डॉ शकुंतला किरणलघुकथा पाठक को कुछ सोचने पर विवश करे। जैसे आपकी लघुकथा ‘गरीब का लंच बॉक्स’ सोचने पर विवश करती है कि हमारे बाहरी आवरण कितने खोखले हो गये हैं | हम मासूम बच्ची को भी अपनी संवेदनहीनता का शिकार बनाने से नहीं चूक रहे , तो लघुकथा कम से कम पाठक के ह्रदय को कुछ सोचने पर विवश करे, उसे एक चिन्तन बिंदु सौंपे |
5. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा के स्वरूप में कथ्य और तथ्य में परस्पर  तादात्म्य  कहाँ तक होना चाहिए ?
डॉ शकुंतला किरणदोनों का समान रूप से महत्व है | देखिये, तथ्य और कथ्य दोनों लघुकथा के महत्वपूर्ण अंग हैं | आपके पास तथ्य है तो उसे कथा में ढालने के लिए कथ्य की आवश्यकता होगी | इसके लिए आपको प्रभावी प्रस्तुतिकरण  हेतु समस्त परिस्थितियों का निर्माण करना होगा ताकि तथ्य प्रभावशाली बने | पुन: आपकी लघुकथा ‘गरीब का लंचबॉक्स’ से समझने का प्रयास करते हैं |आपके पास तथ्य है—‘एक गरीब लड़की’, जिसे सरकारी योजना के तहत एक सम्पन्न निजी स्कूल में प्रवेश तो मिल जाता है किन्तु स्कूल के शिक्षक और छात्र उसके स्तर का उपहास करते हुए सच को स्वीकार नहीं करना चाहते  |’ यह तथ्य है। इसे सीधे-सीधे कहने पर यह बात पाठकों को इतनी प्रभावित नहीं करेगी  | आपने इसके लिए स्कूल का माहौल रचा, मीरा और कुछ पात्र तैयार किये उनमें एक निक्कू भी है | फिर लंच बॉक्स को लेकर एक शिक्षक के द्वारा संवाद कहलवाए और अंत में कथा को चरमोत्कर्ष देने के लिए निक्कू के ड्राइवर द्वारा वह लंचबॉक्स दिलवाया, जो पाठक के मन में मीरा के प्रति गहरी संवेदना छोड़ गया | यह है तथ्य और कथ्य का संतुलन। यदि केवल मात्र तथ्य या फिर कथ्य ही प्रमुख होगा तो बात न पाठक के मर्म को नहीं छुएगी, न ही इतनी प्रभावोत्पादक होगी |  
6. डॉ लता अग्रवाल - आजकल लघुकथा के शब्द सीमा में निरंतर विस्तार हो रहा है इससे नव लेखकों में बहुत भ्रम की स्थिति है |क्या इसका कोई निश्चित प्रारूप या शब्द सीमा है आपकी दृष्टि में ?
डॉ शकुंतला किरण जी मेरी दृष्टि में, कभी कोई  लघुकथा किसी एक निश्चित शब्द सीमा में नहीं बांधी जा सकती | यह तो कथ्य की मांग पर निर्भर है | आपको मकान बनाना है या अस्पताल ? यह पहले तय करना होगा फिर उसके अनुरूप ही आप भूमि एवं भवन निर्माण के नक्शे का चयन करेंगे न ? तो यह कथ्य की मांग पर निर्भर करता है | हाँ ! इतना अवश्य कहूँगी कि प्रत्येक कथ्य के लिए अलग विधा है। यदि कथ्य लम्बे हैं तो कहानी, मनोरंजन प्रधान हैं तो चुटकुले हैं तथा  तीखेपन के लिए व्यंग्य आदि विधाएं  हैं । हर कथ्य लघुकथा के लिए उपयुक्त नहीं होता । लघुकथा में बात संक्षिप्त , प्रभावशाली तथा  शब्दों के आडम्बर से दूर अपेक्षित है |
7. डॉ लता अग्रवाल - क्या कहानी का ही संक्षिप्त रूप माना जा सकता है लघुकथा को ?
डॉ शकुंतला किरण जी ‘कथ्य’ किसी भी रचना की आत्मा होता है | कहानी और लघुकथा के कथ्य में प्रवृत्तियों और विस्तार की संभावनाओं का अंतर होता है | आप कहेंगे हाथी और चींटी की आत्मा में भला क्या अंतर ? तो कहानी का कथ्य बहिर्मुखी होता है—कमल के फूल की तरह, वहीँ लघुकथा अन्तर्मुखी होती है ठीक आक के फूल की तरह | विस्तार की सम्भावना कथ्य में निहित होती है | जैसे बीज पर निर्भर होता है कि वह दो फीट का गुलाब बनेगा या बीस-तीस फीट का देवदार| हम गुलाब को देवदार नहीं बना सकते, न ही देवदार का आकार गुलाब जितना छोटा कर सकते हैं, यदि किसी तरह प्रयास भी किया जाय तो यह उसकी नैसर्गिकता को समाप्त करना होगा   |
लघुकथा और कहानी में वही अंतर है जो एक तार और पत्र में है। पत्र की तुलना में तार में बहुत कम, सीमित और सार्थक शब्द होते हैं; किन्तु उनका प्रभाव पत्र से ज्यादा होता है | इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि कहानी एक पत्र है और लघुकथातार | हालाँकि वर्तमान यांत्रिक परिस्थितियों के सापेक्ष पत्र एवं तार की महत्ता बहुत कम हो गई है | 
8. डॉ लता अग्रवाल - अक्सर नव लघुकथाकार कहानी के विषय को लेकर ही लघुकथा रच डालते हैं इससे कैसे बचें ?
डॉ शकुंतला किरण - बहुत आसान है । देखिये, जिस तरह एक कमरे की दीवार पर लगे वल्ब के प्रकाश का दायरा लगभग पूरा कमरा होता है फलस्वरूप प्रकाश का घनत्व कमरे में चारों तरफ फ़ैल जाने के कारण कम हो जाता है किन्तु  वहीँ वल्ब टेबल लेम्प पर लगकर टेबल के लघु दायरे में सिमटकर सघन प्रकाश देता है | ठीक इसी तरह कहानी में जीवन की अनेक घटनाएँ जुडी होती है अथवा हो सकती हैं, परिणाम स्वरूप कहानी में  फैलाव बढ़ जाता है और फैलाव के मध्य किसी एक घटना का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता | वहीं, लघुकथा किसी एक काल-विशेष की घटना को प्रस्तुत करती है | फलस्वरूप उसके प्रभाव में घनत्व एवं प्रखरता होती है |
9. डॉ लता अग्रवाल - आपकी दृष्टि में एक सार्थक लघुकथा की क्या कसौटी है ?
डॉ शकुंतला किरणजो पाठकीय सोच को चिन्तन दे, उसके अंतर्मन को झकझोर कर सोचने पर विवश करे वही सार्थक लघुकथा है मेरी दृष्टि में | बस शब्द कम से कम हों, शैली प्रभावशाली हो, कथ्य और तथ्य का सुंदर समन्वय हो | यहाँ स्व. डॉ सतीश दुबे जी की एक लघुकथा ‘पासा’ का जिक्र करना चाहूँगी, पत्नी द्वारा पूछे गये हर प्रश्न के जवाब में पति के द्वारा सिर्फ हाँ, हूँ करने के कारण पहले तो महज औपचारिक संवाद लगते हैं; किन्तु जैसे ही पत्नी कहती है—‘ आज तुम्हारी क्लास फैलो कुसुम आई थी’ पति के जिव्हा पर लगा कर्फ्यू हट जाता है और वह उसके बारे में सब-कुछ जानने को आतुर हो पत्नी पर प्रश्नों की झड़ी लगा देता है, उत्तर में पत्नी का एक वाक्य—‘मैंने उससे ये सभी बाते पूछी थी मगर वह भी हाँ, हूँ ही करती रही’ |
पति,पत्नी के संक्षिप्त संवाद और भाषा की ऐसी कसावट कि एक शब्द या विराम चिन्ह तक भी वाक्य से  हटा लिया जाय तो पूरी कथा लड़खड़ा जाए| किन्तु इस छोटी-सी कथा में जीवन के कई पहलू खुलकर पाठक के सामने आ जाते हैं | कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की कला है लघुकथा |
10. डॉ लता अग्रवाल - अपने शोध ग्रन्थ में आपने कहा है – “लघुकथा एक प्रकार से कम आय वाले अर्थशास्त्री का अपना निजी बजट है जिसे वह प्रबुद्धता के साथ बहुत सोच-समझकर इस प्रकार बनाता है कि प्रत्येक पैसे का सदुपयोग हो|” यह पैसे के सदुपयोग की कला के बारे में आपसे जानना चाहेंगे ?
डॉ शकुंतला किरणजी, यहाँ दो बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगी — प्रथम, कम आय वाला साथ ही अर्थशास्त्री भी ; दूसरा, उसका अपना निजी बजट, सरकारी नहीं। एक तो वह अर्थशास्त्री है, मतलब सोच-समझ कर खर्च करने वाला; दूसरा यह बजट उसका अपना है, सरकारी नहीं| अमूमन लोग सरकारी पैसे के लिए इतने गंभीर नहीं होते। क्योंकि पता है—पैसा सरकार का है। यहाँ अपनी जेब से खर्च की बात है तो स्वत: ही सावधान रहता है |जैसे, एक व्यक्ति, जिसकी आमदनी कम है, वह परिवार को चलाने के लिए एक-एक पैसे का सदुपयोग करता है | वह पैसे खर्च करता है उन्हें व्यर्थ उड़ाता नहीं है, लघुकथाकार भी शब्दों का अर्थशास्त्री है|
11. डॉ लता अग्रवाल - कथ्य में विविधता लाने के लिए नव लघुकथाकारों को कोई नुस्खा ?
डॉ शकुंतला किरणविषय में वैविध्य तो है, बस आवश्यकता है लेखक की दृष्टि उसके गंतव्य तक पहुँचनी चाहिए | यह विषय अनुभवगत या वास्तविक लगना चाहिए , कोरी कल्पना के आधार पर न हों |
12. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा की भाषा कैसी होना चाहिए ?
डॉ शकुंतला किरण जीआम आदमी की भाषा जिसे आसानी से समझा जा सके, साथ ही पात्रगत भाषा हो | आप स्वयं सोचिये—एक अनपढ़ व्यक्ति के मुख से पंडिताऊ भाषा, एक बुजुर्ग ग्रामीण महिला के मुख से अंग्रेजी के शब्द, एक शराबी अथवा निम्न तबके के व्यक्ति द्वारा शालीन भाषा क्या सहज लगेगी ...? नहीं न| इससे कथा में स्वाभाविकता का वो रस नहीं आ पायेगा | पात्र शराबी या निम्न प्रवृत्ति का व्यक्ति है तो वैसे शब्द हमें लेने होंगे | यथा, ‘चल बे साले ...उल्लू के पट्ठे ...या फिर अनपढ़ व्यक्ति द्वारा—माई बाप ! म्हारी मजबूरी समझो को नी; ग्रामीण महिला—‘म्हारी तो किस्मत ई बदल गी’ कथा को गतिशीलता देने के लिए यह पात्रगत भाषा बहुत आवश्यक हो जाती है|
13. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा में बिम्ब और प्रतीकों के प्रयोग को आप कहाँ तक आवश्यक मानती हैं ?
डॉ शकुंतला किरणप्रतीक और बिम्ब का प्रयोग उतना ही हो जितना आवश्यक हो,सहजता से आयें | बात को घुमावदार और कथा में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए इनका सायास प्रयोग मैं आवश्यक नहीं मानती |
14. डॉ लता अग्रवाल - फेंटेसी का लघुकथा में क्या स्थान है ?
डॉ शकुंतला किरण जीमैं लघुकथा में कल्पनावाद के पक्ष में नहीं। कारण, इसका स्वरूप छोटा है अत: कल्पना के लिए इसमें कोई गुंजाईश नहीं | छोटे से रूप में आप क्या - क्या कल्पना करेंगे | यह तो लेखक को तय करना है कि वह क्या कहना चाहता है ? छोटी बात है तो लघुकथा, उससे छोटी है तो हायकू | अगर उसके मस्तिष्क में कल्पना-लोक या वास्तविक जगत की अनुभूतियाँ  है तो इसके लिए कहानी और उपन्यास हैं न | वैसे भी, आज पाठक का अधिकांश समय तो फेसबुक, लेपटोप और कम्प्यूटर आदि ने ले लिया है। आप यह सोचिये—कम समय में, कम शब्दों में, प्रभावी तौर पर आप क्या दे सकते हैं पाठक को ?
15. डॉ लता अग्रवालसंवाद को रोचक और जीवंत बनाने के लिए कोई मार्गदर्शन दें ?
डॉ शकुंतला किरण जीपुन: कहूंगी पात्र के व्यक्तित्व को मद्देनजर संवादों की रचना की जाय। उन्हें संक्षिप्त करने के लिए थोड़ा-सा होमवर्क किया जाय तो निश्चित ही संवाद अच्छे बन पड़ेंगे |
16. डॉ लता अग्रवाल - कथा में पात्र प्रमुख होना चाहिए या घटनाएँ ?
डॉ शकुंतला किरणघटना नहीं है तो पात्र क्या कहेंगे ? यदि पात्र नहीं है तो घटना कैसे दर्शाई जाएगी ? यह वही बात हो गई—‘एक था राजा, एक थी रानी, दोनों मर गये खत्म कहानी |’ घटना में जीवन्तता लाने के लिए पात्रों की रचना करनी होती है | पात्रों से कहलवाने के लिए घटना गढ़नी पड़ती है | तभी कोई बात पाठक को प्रभावित करती है | दोनों तराजू के दो पलड़ों की तरह अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं |
17. डॉ लता अग्रवाल - आंचलिक परिवेश को चित्रित करते समय लेखक को किन बातों की सावधानी रखना चहिये ?
डॉ शकुंतला किरण जीआंचलिक परिवेश पाठक को नजर भी आना चाहिए | लघुकथा दृश्य सामग्री तो है नहीं, इसे केवल पात्रों के माध्यम से ही अनुभव कर सकते हैं | अत: पात्रों के संवाद या उनकी उपस्थिति के साथ उनके परिधान एवं परिवेशगत चित्रण में दूरदृष्टि एवं सजगता अपेक्षित है |
18. डॉ लता अग्रवाल - शीर्षक का चुनाव करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
डॉ शकुंतला किरण लघुकथा का शीर्षक कथ्य से सम्बन्धित, प्रभावोत्पादक साथ ही रोचक हो |
19. डॉ लता अग्रवाल - नवांकुर लघुकथा लेखकों के लिए क्या सन्देश है ?
डॉ शकुंतला किरणकेवल इसलिए न लिखें की लिखना है,  बजाय इसके कि जो बात, घटना आपको भीतर तक कचोटे; लगे कि इसे शब्द देने ही पड़ेंगे, तब लिखें |
20. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा का उद्देश्य चरित्र एवं विसंगतियों की ओर संकेत करना मात्र है न कि उनका उपचार बताना | ऐसा क्यों?  साहित्य का लक्ष्य तो सर्व कल्याण होता है।
डॉ शकुंतला किरणसर्व कल्याण के लिए  हितोपदेश की कहानियाँ, वेद पुराण के प्रसंग , नैतिक कथाएं, धर्मग्रंथों के उद्दरण ये सब चरित्र निर्माण को आधार बनाकर ही रचे गये हैं | दूसरे, जरा गौर से देखें तो इन लघुकथाओं में भी जब पाठक को उसकी अंतर्चेतना झकझोरती है तो अपने आप वह समस्या के समाधान के बारे में भी सोचता है | अत: यह काम पाठक को ही सौंपे तो बेहतर है |
21. डॉ लता अग्रवालनव-लघुकथाकारों से किस नवाचार की अपेक्षा आप रखते हैं ?
डॉ शकुंतला किरणउनके अपने अनुभव हैं, अनुभूतियां है जो उन्हें  विवश करेंगी। अनुभूति का वेग जितनी तीव्रता लिए होगा, उतना सार्थक लेखन होगा | लेखन में कोई क्षेत्र निश्चित हो, यह मैं उचित नहीं मानती | लेखन को टारगेट बनाकर या सीमा में बांधकर नहीं लिखना चाहिए |
22. डॉ लता अग्रवाल - लघुकथा का भविष्य कैसा देख रही हैं आप ?
डॉ शकुंतला किरणबहुत उज्जवल ! आज लघुकथाओं को लेकर जगह- जगह  प्रतियोगिताएं हो रही हैं, सम्मेलन हो रहे हैं, संगोष्ठियाँ हो रही है, मंच पर पठन हो रहा है , विधागत पत्र- पत्रिकाएँ निकल रही है, लघुकथा विशेषांक निकल रहे हैं, लोग इस बारे में सोच रहे हैं, भले ही वह लेखक बनने की धुन या अन्य किसी धुन में हो रहा है, हलचल तो हो रही है | मतलब लघुकथा प्रभावित कर रही है लेखक और पाठक दोनों को | तो निश्चय ही इसका भविष्य उज्ज्वल लग रहा है |         'दृष्टि' के महिला लघुकथाकार अंक(जनवरी-जुलाई 2018) में प्रकाशित

संपर्क 
डॉ शकुंतला ‘किरण’                                                 
निदेशक, मित्तल  हास्पिटल,                          
पुष्कर रोड, अजमेर (राजस्थान ) – 305004         
shakuntalakiranmittal@gmail.com                                                                            डॉ लता  अग्रवाल
73, यश विला, 
भवानी धाम फेस-1नरेला शंकरी,  
भोपाल – 462041        
agrawallata8@gmail.com