दोस्तो, 'जनगाथा' पर कई माह बाद कोई रचना डाल पा रहा हूँ और इसका श्रेय शोभा रस्तोगी की इस बेहतरीन लघुकथा 'दिन…अपने लिए' को है। शोभा रस्तोगी को आप 'जनगाथा' में पहले भी पढ़ और सराह चुके हैं। उनके फोटो व परिचय के लिए http://jangatha.blogspot.in/2012/08/blog-post_27.html पर क्लिक करें। बाकी बातें बाद में, सबसे पहले पढ़िए यह लघुकथा :
आज उसका मन बहुत उदास था। अकेला था। पति चार-रोज टूर पर थे। अपनी भी तीन दिवसीय छुट्टी थी। बच्चे हॉस्टल में थे। बर्तन सफाई निबटा मेड भी निकल ली थी। हाँ, अपने कई
काम पेंडिंग पड़े थे। नौकरीपेशा औरतों के काम सदा लटके ही रहते हैं। एक को पूरा करते न करते चार नए
खड़े हो जाते। मेहमान, बाज़ार, ऑफिस वर्क,
थकान ...छुटपुट तो निबटाती रहती।
किचन
में जा घुसी। सोचा—आज अपने मन का कुछ बनाऊँ। दूसरों की फरमाइश तले अपना हो ही नहीं पाता कभी।
क्या बनाऊं....डोसा, इडली…..कौन करे इत्ता झंझट। पूरी आलू बनाऊँ….? फ्राइड? गैस प्रॉब्लम
..फिर दाल चावल ...वही रोज का?..क्या
फिर? भेलपूरी ..ब्रेड पिज़्ज़ा ..ठीक है। यही सही है ......?
एक जने के लिए क्यों पसारा फैलाऊँ? ...ब्रेड पे बटर- जैम की कोटिंग ही जँचेगी। दूध के साथ मस्त रहेगा। चार पल
आराम नाल बैठ। ....... कभी खुद से खुद की बात की है ?...... दिया है अपने को अपना साथ? ...... फुर्सत से निहारा
है स्वयं को?....नहीं न ...? तो आज यही सही ...सेल्फ डे मनाया जाए।
दूध-ब्रेड ले टी. वी. खोला। वही—सास बहू के फैशनपरस्त सीरियल्स....ऊँह
.....न्यूज लगाती है। हत्या, लूटपाट, रेप, दलाली....मंत्री
गिरफ़्तार...जाँच कमेटी .....'ओह ..मुआ कुछ तो ढंग का दिखाओ
... ' ऑफ कर देती है। डी. वी. डी. पर फिल्म लगाती है----कौन सी लगाऊं? ...ये या वो ....बच्चों वाली ?
..न ...न ...। फिर ये ....ओए ..मेरे ये मूवी
देखने के दिन रह गए हैं क्या ? ..धार्मिक ? न ..न ....न ... ।
मूवी
भी फुल स्टॉप ।
ए.
सी . में ब्रेड सूख गयी। कौन उठे? पति, बच्चे होते तो दस बार रसोई- कमरे की
परिक्रमा लगा ली होती। अपने लिए
..? मोड़-तोड़, ठंडे-ठार दूध में डुबो सूखी ब्रेड निगल लेती है। भर गया पेट ...ये
मुआ पेट भी जरूरी था लगना? ...चल
..थोडा सुस्ता लूं। पैर फैलाकर दीवान पर धकेल देती है
खुद को। आज नींद भी छुट्टी पर है। .......उठ खड़ी होती है।
मेन गेट खोलती है। थोड़ी देर वहीँ खड़ी रह बैठ जाती है।
आसपास कोई मानुष दृष्टिगोचर नहीं होता।
सब व्यस्त हैं। अपने से दूर ..अपने लिए
कोई खाली नहीं। सोचती है—काम बिना जिन्दगी इत्ती नीरस? काम में खटते तो फुर्सत की चाह ..और अब…?
दूर सड़क तक निगाह फेंकती है। किनारे, पेड़ के नीचे एक औरत शायद कुछ बेच रही है। क्या
दे रही होगी? हट परे .... मुझे क्या?
मेरे घर में किस चीज की कमी है ? कीमती
..ऐशोआराम ....सब कुछ। कोई चहल - पहल नहीं।
यदाकदा कोई गाड़ी जरूर निकलती है धूल-धुँआ उड़ाते हुए। .... उठकर गेट
को ताला लगाती है। चल पड़ती है उस औरत के पास ।
'अरी! क्या दे रही है?'
'सूती धागन ते हाथ को
पंखा बनाय बेचत ऊँ।'
'इन पंखों की यहाँ किसे
जरूरत है? इस पॉश कालोनी में ए.
सी. है, जेनरेटर है, कौन झलेगा इन्हें?'
'ठीक कही। पर एक बीबीजी
हते। ...इतई रहत एं ...बिनके कछु काम हते इनको .... सो बेई
लेवेंगी।'
'अच्छा!' कह वहीँ पड़ी ईंट पे फूँक से धूल हटा बैठ जाती है।
'बड़ी ठंडी हवा लग रही
है यहाँ तो ।'
'और का बीबीजी। हमारे काजऊ भगवन ने ए. सी. लगाय दियो है।' दोनों हँस
पड़ती हैं।
कितने
दिन पीछे हँसी है आज। अपनी ही हँसी अजनबी लगी उसे। फिर हँसी वह......फिर हँसी। अपनी हँसी को पहचान रही थी।
'चल मुझे भी सिखा तो…'
'आप का करोई जाय सीख कै?'
'ऐसेई। बहुत जल्दी
सीखती हूँ मैं।' और वाकई थोड़ी देर में ...'देखा? बना दिया न तेरा पंखा।'
'सच्ची में बीबीजी
...आप तो हुसियार हतो।'
'पानी पिएगी? ठंडा है फ्रिज का।’
'नाय। मेरी तो जे
सुराही ही ठंडो पानी कत्तै।'
'इसका पानी ठंडा?'
'फ़रीज जैसो तो नाय पर
गरम ना रहबे ।'
'जरा पिला तो…'
हथेली-ओख
से सुराही का पानी पीती है ।
'कल भी बैठेगी ?'
'मै तो रोजई बैठत हूँ।'
'चल फिर छुट्टी तेरे साथ। पंखे बनाएँगे दोनों। मेरा बनाया पंखा मुझे दे। ...खर्च
बता देना ...चलती हूँ ।'
हल्के
मन पंखों से उड़ती बिस्तर पे आ बैठी। पड़ते ही नींद ने लपक लिया उसे। एक खुशनुमा
नींद ने।