Sunday, 4 October 2020

समीक्षा की सान पर लघुकथा-1 / डॉ॰ शील कौशिक

 दिनांक 04-10-2020

 

समीक्षा की सान पर लघुकथा

 

पहली कड़ी

 

किसी भी नई विधा का प्रादुर्भाव होने के बाद धीरे-धीरे ही वह अपना रूपाकार बुनती है और वैचारिक पृष्ठभूमि तय करते हैं उस विधा के वरिष्ठ लेखक व समीक्षक। और जब तक उनके पास उस विधा को कसौटी पर परखने के लिए निश्चित बिंदु नहीं होते तब तक वह भटकती रहती है। यह समीक्षकों का महती दायित्व बनता है कि वह बारीकी से लघुकथा के स्वरूप का अवलोकन करते हुए इसके विकास और नई संभावनाओं को इंगित करें। लघुकथा विधा के सुस्थापित होने के बावजूद आज लघुकथा के ऊपर संकट मंडरा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया (फेसबुक, व्हाट्सएप) ने लघुकथा के प्रचार- प्रसार में गुणात्मक वृद्धि की है और अधिकाधिक युवा पीढ़ी लघुकथा लेखन व पठन-पाठन की ओर प्रवृत हुई है। युवा महत्वाकांक्षी और ऊर्जा से भरपूर होते हैं। वे विधा के समुचित विकास में निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं, परंतु लघुकथा के मानदंडों व निश्चित समीक्षा सिद्धांतों के बगैर वे उलझन में हैं व भ्रमित हो रहे हैं। लघुकथा को अलग-अलग अपने तरीकों से परिभाषित किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहूं तो अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापा जा रहा है। एक तरह से स्वछंदता का माहौल है, जिसकी जैसी मर्जी वैसे ही कुछ भी लिख कर उसे लघुकथा का नाम दिए जा रहे हैं। नवोदितों के बहुत सारे सवाल हवा में टंगे हैं। विधा के सिद्धांतों को लेकर धुंध-सी छाई है। युवा पीढ़ी विधा की बारीकियों के बारे में जानने के लिए उत्सुक है, परंतु समुचित समीक्षा सिद्धांतों के अभाव में वह पगली हवा की तरह इधर-उधर बोराए फिर रहे हैं, वे पूरी तरह दिग्भ्रमित हैं। ऐसे में वरिष्ठ लघुकथाकार व लघुकथा की प्रतिष्ठित 'पड़ाव व पड़ताल' श्रृंखला के संयोजक व संपादक मधुदीप ने इस नए संकट को वर्तमान की चुनौती के रूप में समझा है और वे चाहते हैं कि गद्य साहित्य की अन्य विधाओं, विशेष रूप से कहानी व उपन्यास की तरह लघुकथा विधा का भी समुचित समीक्षाशास्त्र विकसित किया जाए ताकि भटकाव की स्थिति से उबरा जा सके। इसके लिए मधुदीप ने सर्वप्रथम समीक्षकों व लघुकथा विद्वानों से समीक्षा-बिंदु चिन्हित करवाने का बीड़ा उठाया है।

 समीक्षा या आलोचना को मैं एक प्रकार से रचनात्मकता का ही यज्ञ  मानती हूं और यज्ञ के समान ही इसमें समग्र रूप से सभी सामग्री आहूत करनी होती है। इसे जीवनमंत्र मान कर चुपचाप समर्पण भाव से कार्य करते रहना होता है। जब से मैं समकालीन हिंदी लघुकथा के संपर्क में आई तभी से रचनात्मक अवदान (लगभग 300 लघुकथाएं) के साथ-साथ इसे गहराई से जानने-

समझने  की ओर उन्मुख हुई हूं। इस आलेख के माध्यम से लघुकथा के समस्त समीक्षा- बिंदुओं को क्यों, किसके द्वारा और कैसे इन तीन प्रश्नों के उत्तर में समेटने का प्रयास करूंगी।

   लघुकथा के समीक्षा-बिंदु तय करने की आवश्यकता क्यों पड़ीइसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि जैसे नदी जब तक नदी रहती है जब तक वह कूल-किनारों में बंधी हो और यदि कूल-किनारे न हों तो इसका स्वरूप और बहाव दोनों खंडित हो जाएंगे। ऐसे में नदी या तो अराजक होकर प्रलयंकारी सिद्ध होगी या तालाब और झील में तब्दील हो जाएगी। दोनों स्थितियां ही नदी के अनुकूल नहीं हैं। ऐसे ही लघुकथा की जीवंतता बनाए रखने के लिए कुछ निश्चित नियम व विधान होने ही चाहिए। हां, मैं यह भी मानती हूं कि ये सिद्धांत सीमेंट और कंक्रीट की तरह पक्के, बंधे बंधाए नहीं होनी चाहिए, इनमें लचीलेपन की गुंजाइश हमेशा रहनी चाहिए। लघुकथा में नवोन्मेष विधा को ऊंचाई प्रदान करता है और आकर्षक परिणाम लेकर आता है; इसीलिए ये सिद्धांत जड़ न होकर बहाव के संभावनाएं लिए होने चाहिए।

समीक्षा-बिंदु तय करने वालों से निश्चित रूप से कुछ अपेक्षाएं हैं--वह लघुकथा साधक हो और लघुकथा की रचना-प्रक्रिया से गुजरा हो। उसे बदलते समसामयिक परिवेश के साथ-साथ ऐतिहासिक संदर्भों का भी ज्ञान हो ताकि समाज के प्रत्येक वर्ग की मानसिकता व हालातों को समझ सके। वह आवश्यक रूप से संवेदनशील, अनुभवी व विवेकशील हो। वह भाषा का पूरा ज्ञान रखता हो तथा बाह्य व अंतर्दृष्टि संपन्न हो।  समालोचक के रूप में ईमानदार हो और किसी प्रकार का दुराग्रह न रखे। समीक्षा में वह केवल सार-संक्षेप या परिचय मात्र न दे बल्कि लघुकथा के विरुद्ध लघुकथा का प्रतिपाठ प्रस्तुत करे। उसे परकाया प्रवेश के लिए उत्सुक होना चाहिए ताकि पात्रों के डर, चिंता और तनाव को जी सके, उनसे आत्मिक तादात्म्य  स्थापित कर उनके भीतरी द्वन्द्व को समझ सके। समीक्षक में नए विचारों, संदर्भों की ग्रहणशीलता हो तथा अमान्य परंपराओं को झटककर नए विमर्श और विस्फोटक बदलावों को समझने की क्षमता हो। इस संदर्भ में कमलकिशोर गोयनका ने कहा है, " समय के बदलने से साहित्य बदलता है और उसकी अभिव्यक्ति का स्वरूप भी। इसीलिए प्राचीन कथाओं और आज की लघुकथाओं में अंतर होना स्वाभाविक है और यह अंतर भविष्य में भी आने वाला है। क्या आप यह मानेंगे कि 21वीं शताब्दी की लघुकथा आज की लघुकथा के समान ही होगी?"

प्रत्येक समीक्षक का अपना अवबोध होता है, एक काल्पनिक विजन होता है फिर भी उसे अलग-अलग विचारधारा के अंतर्विरोध पर टिप्पणी भी करनी आनी चाहिए।  इसके लिए उसे लेखक से आगे का ज्ञान व सोच रखनी होगी। 'इन बिटवीन द लाइंस' पढ़ने तथा संकेतों को पकड़ने का सामर्थ्य रखना होगा, तभी वह लघुकथाकारों व पाठकों के समक्ष अपनी विश्वसनीयता प्रमाणित कर सकेगा।

आधुनिक हिंदी लघुकथा समीक्षा के क्रमवार बिंदु इस प्रकार हैं-

1.          उद्देश्य 2.कथानक 3. भाषा 4. शीर्षक 5. शिल्प व शैली 6.समापन-बिंदु या लघुकथा का अंत।

                                       शेष आगामी अंक में………

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