दिनांक 01-10-2020 से आगे
समीक्षा की कसौटियाँ और लघुकथा
चौथी कड़ी
आधुनिकता का दौर पाश्चात्य की क्षरणशील, मूल्यहीन संस्कृति का पोषक बन बैठा। फलतः विभिन्न प्रकार की स्थापित मान्यताओं, परम्पराओं का खण्डन करता आधुनिकतावाद कई जटिल समस्याओं का संग्रह बनता गया। इसके कदम आत्मघाती एवं विनाशक बन गए। विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को आत्मसात् करता यह युग अपने उत्तरकाल में दुखों एवं समस्याओं का घर बन गया। सूचना-संजाल, नवपूँजीवाद, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, संग्रहवाद की भयंकरता पर प्रहार करने की आवश्यकता महसूस होने लगी और इसी आधुनिकता के गर्भ से उत्तर-आधुनिकता जन्म लेने को व्यग्र हो उठी।
इस सन्दर्भ में एक सुखद एवं आशावादी तथ्य यह है कि उक्त विकृतियाँ हिन्दी साहित्य पर बहुत हावी नहीं हो पायी हैं। फलतः लघुकथा की भूमिका यहाँ अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। न्यून स्थान एवं अल्प समय लेनेवाली यह विधा संरक्षिका के रूप में स्थापित हो सकती है। लघुकथा के माध्यम से संस्कृति एवं मानव-मूल्यों के पोषण-संरक्षण की कवायद तेज होनी चाहिए तथा उसके मूल्यांकन की महत्त्वपूर्ण कसौटी इस तथ्य को बनाना चाहिए। विसंगति, विरोधाभास, अजनबीपन जैसी घातक प्रवृत्तियों की वक्र दृष्टि हमारे साहित्य एवं हमारी संस्कृति को विकृत करना चाह रही है। उस उद्देश्य का शमन लघुकथा को विरेचक तत्त्व के रूप में प्रयुक्त कर किया जा सकता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि कला के सौन्दर्यवादी एवं मूल्यवादी दृष्टिकोण में ही लघुकथा की प्राण-प्रतिष्ठा हो। उसकी मीमांसा का आधार ‘कला जीवन के लिए’ एवं ‘कला कला के लिए’ वाला सिद्धान्त हो। किन्तु, यह भी सत्य है कि समाज में सदैव दो प्रकार के रचनाकार होते हैं—एक अभिजातवादी और दूसरा जनवादी। लैटिन रचनाकार ओलस जेलियस ने इन्हें ही Scriptor Classics और Scriptor Prolatarius कहा है। इन सबसे भिन्न उत्तर-आधुनिकतावादी दौड़ ने कुछ ईश्वर को नकारने एवं अनास्थावादी सि(ान्तों को जन्म दिया। लघुकथा के सन्दर्भ में यह दृढ़तापूर्वक तय करना होगा कि उसमें आस्थावादी धारणा की कसौटियाँ तय हों, उसी की वृद्धि हो; न कि नीत्से एवं सार्त्र की अनास्थावादी दृष्टि।
समीक्षाशास्त्र एवं उसमें निहित सिद्धान्तों के इतिहास की यात्रा का संक्षिप्त किन्तु लघुकथा के दृष्टिकोण से अवलोकित यह परिदृश्य बताता है कि कोई इसे विशु्द्ध साहित्यिक मानता है तो कोई विशुद्ध शास्त्रीय। किसी ने उपयोगितावाद को समीक्षा का आधार माना तो किसी ने विशुद्ध भावात्मकता को ही समीक्षा की मूल आधारभूमि बनाया। भावना से तात्पर्य हृदय की उसी मुक्तावस्था से है जिसकी ओर डॉ. श्यामसुन्दरदास ने संकेत किया है। पुनः अपने लक्ष्य की ओर उन्मुख होते ही यह महसूस होता है कि यदि शास्त्रीयता के आधार पर लघुकथा की समीक्षा होती है तो निश्चित ही वह एक पैटर्न में आ जाता है। यह उस कानून के समान हो जाएगा जहाँ गवाह नहीं तो मुजरिम बरी। तात्पर्यतः यदि रचना में हास्य-रस का पुट हो किन्तु यदि उसने समीक्षक को गुदगुदाया नहीं तो पफेलऋ व्यंग्य का आश्रय हो किन्तु व्यंग्य का नश्तर किसी आलोचक को न चुभा तो पफेल। अतः, जब तक आलोचक में भावबोधकता नहीं होगी तब तक वह कृति की पूर्ण एवं न्यायपूर्ण समीक्षा नहीं कर पाएगा। इस दृष्टि से शास्त्रीयता के साथ-साथ भावनात्मकता के आधार पर भी लघुकथा की समीक्षा होनी चाहिएं यदि शास्त्रीय-पक्ष न्यून भी हो तो भावना-पक्ष की प्रधानता वहाँ मूल आधार बनती है। वैसे तो भावनाओं का उद्रेक सृजन की पहली शर्त है तथा लघुकथा के सन्दर्भ में तो यह विशेष एवं अपेक्षाकृत तीव्रतम है—कुछ-कुछ विद्युत तरंगों के तरंगायित होने के समान। सृजन की प्रसव-पीड़ा कृति को जन्म देगी ही। शिशु-जन्म तो सुनिश्चित है किन्तु, जिस प्रकार शिशुओं में विकृति के अनेकानेक कारण होते हैं उसी प्रकार रचना में भी त्राटियों की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह भी सत्य है कि उन त्रुटियों, विकृतियों के कारण उनके गुणों को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। एक नेत्रहीन की छठी इन्द्रिय दिव्य-दृष्टि बन जाती है, हाथों से विहीन बालक के पैर ही उत्कृष्ट कलाकारिता का जरिया बन जाते हैं। विकलांगता में भी कलाकारिता, अक्षमता में भी सक्षमता, दोषों में भी गुण एवं कुरूपता में भी सौन्दर्य की तलाश समीक्षा के माध्यम से होनी चाहिए।
भावनाओं के इस उद्रेक को आदिकाल के वाल्मीकि से लेकर पाश्चात्य कवि वर्ड्सवर्थ ने भी महसूस किया। महाकवि निराला ने इसी संवेदनात्मक प्रवाह को निष्कंटक एवं निर्बाध अभिव्यक्ति हेतु छन्दों के बन्धन से कविता को मुक्ति दी। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि काव्य में छन्द हों ही नहीं। छन्दों के बन्धन जहाँ अभिव्यक्ति की उन्मुक्त धारा में बाधक हों वहाँ उनका टूटना ही श्रेयस्कर है। इस दृष्टि से शास्त्रीयता नहीं भावनात्मकता सृजन की पहली शर्त सिद्ध होती है और लघुकथा विधा की शर्त इससे कदापि भिन्न नहीं।
समीक्षा-सिद्धान्तों के अन्तर्गत कुछ विचारकों की दृष्टि में असामान्य एवं अविश्वसनीय तत्त्वों का समावेश उचित नहीं। किन्तु, यह भी अवलोकनीय है कि असामान्य एवं विरले ही घटित होनेवाली घटनाएँ, प्रयुक्त होनेवाली शैलियाँ चर्चाओं में रहती हैं। असामान्य से तात्पर्य—एब्नॉर्मल (Abnormal) से नहीं अनकॉमन (Uncommon) से है। गुलेरीजी की एक कहानी ‘उसने कहा था’ ‘फ्लैश-बैक’ (Flash Back) शैली के कारण तथा शिवपूजन सहाय की कहानी ‘कहानी का प्लॉट’ क्रान्तिकारी किन्तु असामान्य समस्या-निवारण के कारण चर्चित रहीं। अतः, मात्र उक्त आधार पर लघुकथा का रिजेक्शन उचित नहीं। हाँ, उस ‘अनकॉमन फैक्ट’ में एक ताकत होनी चाहिए जो सोचने को विवश करे। प्रतीकों, बिम्बों में मिथकीय एवं काल्पनिक आधार पर रचित जो लघुकथाएँ बौद्धिक व्यायाम कराएँ वे भी अपनी जगह श्रेष्ठ हो सकती हैं। इस दृष्टि से भी लघुकथाओं का मूल्यांकन समीचीन होगा।
विचारकों का एक वर्ग समीक्षा में सहज सम्प्रेषणीयता को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। उन्होंने उक्त लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सरल, सुस्पष्ट भाषा को प्रथम आधार माना है। यह निश्चित ही सत्य एवं विश्वसनीय प्रतीत होता है। किन्तु आज भी लघुकथा हो या कविता, ग़ज़ल हो या गीत, भाषा की कलाकारिता एवं आलंकारिकता पर वाह-वाह करते, झूमते एवं सराबोर होते श्रोताओं को देखा जा सकता है। अतः सरल एवं आलंकारिक, तत्समनिष्ठ एवं देशज, विदेशज शब्दों का प्रयोग कृति-विशेष की रचना के उद्देश्य पर भी आधारित होता है। ऐसे प्रयोगों में रचनाकार की विद्वता भी क्रियाशील रहती है। इस दृष्टि से भाषा के सन्दर्भ में भी एक ही आधार उचित नहीं।
भाषा की सरलता, सुस्पष्टता के साथ ही उसकी शुद्धतापूर्ण प्रस्तुति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। साहित्य जगत् में अपने अंगद-पाँव रोपती लघुकथा चाहे जिस शैली, भाषा या तकनीक में सृजित हो उसकी पहली शर्त भाषिक-शुद्धि, व्याकरणिक शुद्धि एवं वर्तनीजन्य शुद्धि है। तत्सम्बन्धी अशुद्धियाँ उसे साहित्यिक-गरिमा के खिलाफ खड़ी करती हैं। अतः लघुकथाकार को सृजन के क्रम में इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए तथा समीक्षक को भी इस कसौटी को प्रथम वरीयता प्रदान करनी चाहिए। व्यावकरणिक त्रुटियाँ, अव्यवस्थित वाक्य-विन्यास लघुकथा के सुन्दर से सुन्दर कथानक को भी बेडौल बना देता है। शुद्धता ही साहित्य को साहित्य के धरातल पर टिकाती है।
शेष आगामी अंक में………
समीक्षा की दृष्टि से अनेक पहलू उजागर हुये।
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