Monday, 5 October 2020

समीक्षा की सान पर लघुकथा-2 / डॉ॰ शील कौशिक

 दिनांक 04-10-2020 से आगे


समीक्षा की सान पर लघुकथा


दूसरी कड़ी


1.उद्देश्य

(क) लघुकथाकार की दृष्टि चिड़िया

की आंख पर अर्जुन के निशाने की तरह कथ्यगत  उद्देश्य पर टिकी होनी चाहिए और समीक्षक को भी समीक्षा करते समय लघुकथा के उद्देश्य की जांच-पड़ताल करनी चाहिए। वैसे भी साहित्य का अर्थ है 'सबका हित'। मनुष्यों के बीच परस्पर प्रेम व सद्भाव जैसे तत्वों को उभार कर यदि जीवन को रुपहला बनाया जाए, इससे अच्छा भला और क्या होगा? लघुकथा का उद्देश्य सामाजिक हित तो हो पर यह न हो कि इसका बोझ लेखक की चेतना पर हावी हो जाए। ऐसे में रचना की स्वाभाविकता को बनाए रखना आवश्यक है।

(ख)  लघुकथाओं में आदर्शात्मक व उपदेशात्मक प्रवृत्ति न हो जैसे कि नीति-कथाओं, बोध-कथाओं और लोककथाओं में होती है। आदर्शात्मक स्थितियां अधिकतर त्याग व पूर्ण सदाचरण की अपेक्षा रखती हैं जबकि वर्तमान अवमूल्यन के समय में यह बेमानी लगती हैं। लघुकथाएं व्यावहारिक व सामान्य मानसिकता वाली होनी चाहिए। आज का अनौपचारिक युवा खांचों- सांचों की जिंदगी से दूर अपनी ऊर्जा को किसी पारंपरिक दिखावे और शालीनता के मुखोटे पर जाया नहीं करना चाहता, वह बस ताबड़-तोड़ नतीजे चाहता है, समस्याओं का वास्तविक निवारण चाहता है।

आधुनिक हिंदी लघुकथा में समय के यथार्थ को लेकर चलने का चलन है। लघुकथा की सार्थकता विद्रूपताओं, विडम्बनाओं के प्रति जूझने का साहस पैदा करने, संधान का रास्ता सुझाने, पाठक की चेतना को झिंझोड़ने, कचोट पैदा करने व उसमें आत्मग्लानि का भाव लाकर उसकी दशा बदलने और दशा सुधारने में है, न कि कोरे उपदेश देने में है। उद्देश्य की स्पष्टता और पूर्णता हरिशंकर परसाईं की लघुकथा 'जाति' में देखी जा सकती है। इस संबंध में चित्रा मुद्गल लिखती हैं, "कलेवर में लघु होने के बावजूद उसका रचनात्मक प्रभाव पाठक के मर्म को उद्वेलित ही नहीं करता, उसके मानस पर अपना स्थाई प्रभाव भी छोड़ता है।"

2.कथानक--

अपनी कथ्यगत विशेषताओं व तात्विक भिन्नताओं के कारण ही लघुकथा, लघुकथा है, कहानी या उपन्यास नहीं। इन तात्विक भिन्नताओं को निम्नलिखित पांच उप-शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है--ये हैं- (क) आकार (ख) विषय (ग) पात्र- योजना (घ) देश- काल या वातावरण (ड़) घटना काल।

(क) लघुकथा का आकार---

लघुकथा दो शब्दों का योग है। लघु अर्थात छोटा और कथा यानी लघुकथा में कथा होनी आवश्यक है। लघुकथा लघु तो हो पर कितनी इस बारे में संशय आज भी बरकरार है। हरिशंकर परसाईं की 'कबीर की बकरी' लघुकथा मात्र छह पंक्तियों की और रमेश बत्रा की 'कहूं कहानी' मात्र एक वाक्य की है। देखिए - "ए रफीक भाई! सुनो... उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए रात मैं कारखाने से घर पहुंचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही--एक लाजा है वो बोत गलीब है।"

इसी तरह सुरेश जांगिड़ 'उदय' की लघुकथा 'मानसिकता' लघ्वाकार में पूर्ण रचना है-

"देश जब गुलाम था, तब मेरे पिताजी मुझे पढ़ाया करते थे- '' से कबूतर, '' से खरगोश।"

"अब देश आजाद है। मैं अपने बेटे को पढ़ाता हूं- '' फॉर एप्पल, 'बी' फॉर बैट..."

इसके विपरीत काशीनाथ सिंह की पानी लघुकथा 80 से 85 पंक्तियों की है। आकार के विषय में लघुकथा विद्वान भगीरथ जी ने सन 1974 में ही स्पष्ट कर दिया था--"कोई भी व्यक्ति आकार के प्रश्न को मुख्य नहीं मान सकता, न ही उसे मुख्य बनाया जा सकता है।" यानी मात्र लघुता के आधार पर लघुकथा को महत्व मिला हो ऐसा नहीं है।

    सुकेश साहनी का इस विषय में कथन समीचीन लगता है-- "लघुकथा में लेखक को आकारगत लघुता की अनिवार्यता के साथ अपनी बात पाठकों के सम्मुख रखनी होती है।

        डॉक्टर शमीम शर्मा ने अपने शोध 'लघुकथा: स्वरूप, उद्भव और विकास में कहा है -- "लघुकथा में लघु शब्द से आशय, उसके कथ्य के संपूर्ण प्रभाव को सुरक्षित रखते हुए शाब्दिक मितव्ययिता के फलस्वरुप आकार के सीमित या मर्यादित रूप से लघुता से है।"

दरअसल किसी भी रचना को शब्दों में बांध देने का अर्थ है उसके पंख कतर देना। फिर भी यह तो तय है कि लघुकथा कहानी से आकार में छोटी है। लघुकथा के कथानक की अन्य विशेषताएं यथा-- घनीभूत संवेदना, यथार्थपरकता, प्रखरता, सूक्ष्मता, व्यंग्यात्मकता व उद्देश्यपूर्ण सटीक अभिव्यक्ति, तीव्र संप्रेषणीयता, किसी एक घटना या अनुभूति का मार्मिक निरूपण आदि के कारण अपना रूपाकार स्वयं निर्धारित कर लेती है। इन विशेषताओं को अपनाने के बाद लघुकथा आकार में बड़ी हो ही नहीं सकती।

      अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रत्येक लघु रचना लघुकथा है ? लोकोक्तियां, सूक्तियां, चुटकुले, पौराणिक संदर्भ, नीति-कथाएं, बोध-कथाएं, संस्मरण, किस्सागोई, लघुकहानियां, प्रेरक प्रसंग, व्यंग्य आदि लघुकथा  कदापि नहीं हो सकते हैं।

        लघुकथा में संभावित शब्द सीमा के बारे में डॉक्टर शकुंतला किरण का मत है-- "लघुकथा एक प्रकार से कम आय वाले अर्थशास्त्री का अपना निजी बजट है, जिसे वह प्रबुद्धता के साथ बहुत सोच-समझकर इस प्रकार बनाता है कि प्रत्येक पैसे का सार्थक प्रयोग हो सके।" अभी तक पढ़ी जाने वाली लघुकथाएं 15 शब्दों से लेकर 1000 शब्दों तक की उपलब्ध हुई हैं, जिन्हें सही मायनों में लघुकथा कहा जाना चाहिए।

        मेरे अनुसार --- "लघुकथा होम्योपैथी की उस छोटी सी बूंद के समान है, जिसका प्रभाव स्थाई और दूरगामी है। होम्योपैथी की बूंद की विशेषता है कि वह स्वयं रोग का निवारण न करके रोगी में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर दूषित कीटाणुओं से लड़ने के लिए तैयार करती है, ठीक ऐसे ही लघुकथा भी वर्तमान समाज में फैली दुष्वृतियों, विडंबनाओं पर सीधा वार न करके पाठक में मानसिक उद्वेलन कर उसे इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करती है।" 

     अंत में आकार को लेकर डॉक्टर कमल चोपड़ा के आलेख से उद्धृत इस वक्तव्य से मैं सहमत हूं-- " लघुकथा के आकार की शब्दों या पृष्ठों की संख्या निर्धारित करना लघुकथा के सृजनात्मक पक्ष पर अंकुश लगाना है। अधिकांश लघुकथाएं प्लस-माइनस 500 शब्दों तक ही पाई गई हैं, लेकिन शब्द संख्या निश्चित या निर्धारित नहीं की जा सकती। कम-ज्यादा की छूट तो होनी ही चाहिए, होती भी है।"

शेष आगामी अंक में………

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