समय के साथ चलते मालवांचल के लघुकथाकार
सूर्यकांत नागर
(गतांक से आगे)
अन्य लघुकथाकार, जिनका उल्लेख जरूरी लगता है, वे हैं—कृष्ण्कान्त दुबे, संजय कुमार डागा(हातोद), सुरेश बजाज, डॉ तेजपाल सिंह सोढ़ी, सिंघई सुभाष जैन, वीरचन्द नरवाले, सत्यनारायण पटेल, रमेश जाधव, कान्तिलाल ठाकरे, राज केसरवानी, मधुकर पँवार, महेश भण्डारी आदि। डॉ सोढ़ी का सन 2005 में लघुकथा संकलन ‘महामानव’ आया है। कृष्णकान्त दुबे ने प्रकृति और ग्रामीण परिवेश को लेकर अच्छी लघुकथाएँ लिखी हैं। डॉ रमेशचन्द्र दुबे का अलग से उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि उन्होंने भी लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु बहुत काम किया है। ‘आस्था’ उनकी एक अविस्मरणीय लघुकथा है। व्यंग्यकार से एक जागरूक कवि का चोला पहन लेने वाले ब्रजेश कानूनगो ने यद्यपि कम ही लघुकथाएँ लिखी हैं, लेकिन जो भी लिखी हैं, वे उन्हें एक समर्थ लघुकथाकार सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। घुलती पृथ्वी, रंग-बिरंग आदि उनकी महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं।
मालवा-अंचल की महिला लघुकथाकारों में ध्यान आकर्षित करने वाले नाम हैं—चेतना भाटी, अन्तरा करवड़े, लीला रूपायन, कृष्णा अग्निहोत्री, सीमा पाण्डे ‘सुशी’, रेखा कारड़ा, सुनयना वोरा, सुमति देशपाण्डे, डॉ पुष्पारानी गर्ग, स्वाति तिवारी(सभी इंदौर), प्रज्ञा पाठक और मीरा जैन(दोनों उज्जैन)। इनमें भी चेतना भाटी, अन्तरा करवड़े, सीमा पाण्डे, मीरा जैन और प्रज्ञा पाठक अधिक सक्रिय हैं। रेखा कारड़ा शारीरिक रूप से अशक्त होते हुए भी मानसिक रूप से काफी सशक्त हैं। साहित्य और कला के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। ‘उसका सपना’(2005) रेखाजी का लघुकथा-संग्रह है। प्रचार-प्रसार से दूर रहने वाली अंतरा करवड़े ने बहुत ही खूबसूरत लघुकथाएँ लिखी हैं। उनके लघुकथा-संग्रह ‘देन उसकी हमारे लिए’ को अखिल भारतीय अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य’ रजत अलंकरण मिल चुका है। सीमा पाण्डे ‘सुशी’ और अंतराजी इंटरनेट पर भी बहुत सक्रिय हैं। चेतना भाटी की उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं—हेलमेट, ऊँची जाति, मंजर आदि। मीरा जैन की अब तक सौ से अधिक लघुकथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कई अन्य लघुकथा-संकलनों में भि वे संकलित हैं। ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएँ’ उनका एकल लघुकथा-संग्रह है। लघुकथा-लेखिकाओं की अधिकांश लघुकथाएँ परिवेशजन्य हैं। घर-परिवार, नाते-रिश्तों को शायद पूरी तरह छोड़ पाना उनके लिए संभव नहीं है। इसीलिए उनकी रचनाओं में अनुभूति की प्रामाणिकता है। प्रश्न यही है कि जो एक स्त्री अपने जीवन में झेलती-भोगती है, उसे पुरुष तो क्या, वह स्त्री जिसने वह-सब भोगा नहीं है, ठीक-से बयान नहीं कर सकती।
उज्जैन का जिक्र आया है तो वहाँ के पुरुष-लघुकथाकारों को भी याद कर लिया जाए। पोलियोग्रस्त स्व0 अरविन्द नीमा विकलांग होते हुए भी विचित्र जिजीविषा के धनी थे। लिखने-पढ़ने में उनकी गहरी रुचि थी। अच्छी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया भेजना वे कभी नहीं भूलते थे। उनका एक लघुकथा-संग्रह ‘गागर में सागर’ उनकी मृत्यु के पश्चात सन 2000 में प्रकाशित हुआ था। उज्जैन के ही सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’, मुकेश जोशी, शैलेन्द्र पाराशर, स्वामीनाथ पाण्डेय, डॉ शैलेन्द्र कुमार शर्मा, भगीरथ बड़ोले, बी0 एल0 आच्छा, डॉ प्रभाकर शर्मा, रमेश कर्नावट और श्रीराम दवे आदि अनेक रचनाकार लघुकथा-विधा से जुड़े हैं। ख्यात व्यंग्यकवि ओम व्यास ने भी लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘मजदूरी’ उनकी एक महत्वपूर्ण रचना है। डॉ प्रभाकर शर्मा का संकलन ‘सागर के मोती’(2004) चर्चित रहा है। लेखक, पत्रकार, चिंतक श्रीराम दवे ने भी लघुकथाएँ लिखी हैं। उनके संपादन में इंदौर के तीन लघुकथाकारों का संकलन ‘त्रिवेणी’(2003) आया था। प्रो0 शैलेन्द्र पाराशर के संपादन में लघुकथाओं के संकलन ‘सरोकार’ का प्रकाशन उज्जैन से हुआ था। संकलन में रमेशचन्द्र शर्मा, हरीश कुमार, प्रभाकर शर्मा, रमेश कर्नावट, प्रवीण देवलेकर आदि की लघुकथाएँ शामिल थीं। उक्त संकलन का भव्य लोकार्पण-समारोह हुआ था जिसमें सांसद सत्यनारायण जटिया, ख्यात कवि-आलोचक प्रमोद त्रिवेदी, प्रो0 रमेश गुप्त ‘चातक’ आदि अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे। उक्त संकलन का लोकार्पण सूर्यकांत नागर ने किया था। इस अवसर पर लघुकथाकार वेद हिमांशु को सम्मानित भी किया गया था। प्रो0 बी0 एल0 आच्छा ने लघुकथा के सिध्दान्त-पक्ष पर अनेक विचारपरक लेख लिखे हैं। पिलकेन्द्र अरोरा भी इस दिशा में काफी सक्रिय हैं।
लेखक, कवि, विचारक और वरिष्ठ विज्ञानी रतलाम के डॉ जयकुमार जलज ने हिसाब, हासिल, नेता-शिष्य, वंशबेल, झूठा सच, शॉर्टकट जैसी यादगार कथाएँ लिखकर सिद्ध कर दिया है कि उनकी इस विधा पर गहरी पकड़ है। उनकी लघुकथाओं में मनुष्य के दोहरे चेहरे और स्खलित होते मानवीय मूल्यों के प्रति उनकी चिन्ता को रेखांकित किया जा सकता है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में सतत लिखने वाले झाबुआ के रामशंकर ‘चंचल’ भी अब तक अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिख चुके हैं। उनकी रचनाएँ देशभर की छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। उनके द्वारा संपादित ‘एकलव्य’(2004) संकलन में उनकी अनेक लघुकथाएँ संकलित हैं। उनकी झीतरा और ब्लाउज रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अशोक ‘आनन’(मक्सी) ‘आयाम’ लघु-पत्रिका निकालते रहे हैं। इस पत्रिका का एक पूरा अंक लघुकथा को समर्पित था। ‘आनन’ ने स्वयं भी अनेक लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘मातुश्री कमलादेवी स्मृति पुरस्कार’ का प्रोत्साहन पुरस्कार भी उनको मिल चुका है। ‘खिलौने’ उनकी उल्लेखनीय लघुकथा है। देवास के उपेन्द्र मिश्र एवं नितिन घुणे के समर्पण-भाव को याद रखना भी जरूरी है।
इंदौर में रहे और मुंबई में जा बसे अनन्त श्रीमाली ने सतीश राठी के साथ मिलकर लघुकथा के संवर्धन के लिए खूब काम किया। राठीजी के साथ वे ‘क्षितिज’ और ‘मनोबल’ के सहयोगी संपादक रहे। इंदौर के एक और लघुकथाकार जो फिलहाल नौकरी के सिलसिले में मुंबई में हैं, वे हैं—डॉ सतीश शुक्ल। शुक्लजी भी लघुकथा के प्रति समर्पित रहे हैं। कर्ज-अदायगी तथा स्वाभिंमान जैसी लघुकथाओं के माध्यम से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
मालवा-अंचल के देवास, उज्जैन, इंदौर आदि स्थानों पर लघुकथा-सम्मेलनों, सेमीनारों, कार्यशालाओं, लोकार्पण-समारोहों और चर्चा-गोष्ठियों का आयोजन अक्सर होता रहता है। इनमें लघुकथा लेखन के विविध पक्षों पर खुली चर्चा होती है। कुछ स्थानों पर लघुकथाओं पर आधारित चित्र-प्रदर्शनियाँ भी लगाई जा चुकी हैं। दिल्ली निवासी मधुदीप के लघुकथा-संग्रह ‘मेरी बात तेरी बात’ पर स्वयं मधुदीप की उपस्थिति में इंदौर में विस्तृत चर्चा हुई थी। चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा-संग्रह ‘उल्लास’ पर भी एकाधिक बार बहस हो चुकी है। मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति द्वारा भी लघुकथा-वाचन के कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं। गत वर्ष डॉ सतीश दुबे की लघुकथाओं के गुजराती संकलन ‘करोड़ रज्जू’ का वृहद लोकार्पण-समारोह गुजराती समाज द्वारा आयोजित किया गया था। गुजरात साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित और कभी इंदौर में ही रहे रोहित श्याम चतुर्वेदी द्वारा हिन्दी से गुजराती में अनूदित यह पुस्तक काफी चर्चित रही। सतीश राठी ने ‘क्षितिज’ के लिए 1983-84 में लघुकथा-प्रतियोगिता आयोजित कि थी जिसमें फजल इमाम मलिक, मदन शर्मा और शंकर पुणतांबेकर को पुरस्कृत किया गया था। निर्णायक थे—निमाड़ लोक संस्कृति के पोषक रामनारायण उपाध्याय, सूर्यकांत नागर और राजेन्द्र पाण्डेय। अशोक शर्मा ‘भारती’ द्वारा आयोजित प्रतियोगिता का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति की मुख-पत्रिका ‘वीणा’ में आज भी लघुकथाओं का प्रकाशन नियमित रूप से हो रहा है। लघुकथा पर क्षेत्र के अनेक छात्र-छात्राओं द्वारा एम फिल हेतु लघु शोध-प्रबन्ध तथा पी-एच डी हेतु शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत कर डिग्रियाँ हासिल की गई हैं। इनमें कुछ नाम हैं—सुनीता पाटीदार, संजय गुप्ता, पल्लवी, भारती ललवानी, मनीषा व्यास आदि।
देश में लघुकथा के बदलते नक्शे के साथ-साथ मालवांचल में भी लघुकथा लेखन में भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर बदलाव आया है। हृदयहीनता, भ्रष्टाचार और परस्पर विरोधी स्थितियों वाले घिसे-पिटे विषयों से मुक्ति मिल रही है। अतिरिक्त स्पष्टीकरण और विवरणात्मकता के प्रति भी लेखक-वर्ग सावधान हुआ है। बदलते यथार्थ को सामने लाने के लिए लघुकथा के रचनात्मक स्वरूप में रूपात्मक बदलाव आया है। पहले लगता था, सारी लघुकथाएँ एक ही टकसाल से निकलकर आ रही हैं। अब मालवा का लघुकथाकार अधिक सजग हुआ है। उसने लघुकथा के बने-बनाए ढाँचे को तोड़ने की कोशिश की है। उसकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समझ विकसित हुई है। लघुकथा के विकास की दृष्टि से यह एक शुभ लक्षण है। विक्रम सोनी, सतीश दुबे से प्रारम्भ परम्परा विकसित-पल्लवित होकर नए रंग-रूप में अपनी सुरभि बिखेर रही है और लघुकथा विधा के संवर्धन में अपना विनम्र योगदान कर रही है। निस्सन्देह मालवा-अंचल के लघुकथाकारों ने साहित्य कोष को समृद्ध करने और लघुकथा को अधिकाधिक लोगों से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उम्मीद है, अंचल की नई प्रतिभाएँ भी आगे आएँगी और इस विधा की जड़ों को मजबूत करने में भरपूर सहयोग करेंगी।
मोबाइल:09893810050
लघुकथाएँ
लक्ष्मी-निवास
सुरेश शर्मा
दीपावली की आधी रात बीत चुकी थी। लक्ष्मीजी अपने वाहन पर सवार उपयुक्त पात्र को वरदान देने निकल पड़ीं।
एक झोपड़ी का दरवाजा बन्द था। भीतर-बाहर अँधेरा पसरा देखकर विस्मय के साथ लक्ष्मीजी ने पूछा, “दीवाली की रात भी अँधेरा?”
“यह एक गरीब मजदूर का घर है। दिनभर कठोर श्रम करने के बाद भी इसके परिवार का गुजारा नहीं हो पाता। इसीलिए आपका स्वागत नहीं कर पाया बेचारा।” उल्लू ने स्थिति स्पष्ट की तो लक्ष्मीजी ने आगे बढ़ने का इशारा किया।
कुछ दूर चलने के बाद एक घर के आगे केवल एक दीया टिमटिमाता हुआ देखकर वे ठिठकीं। आशय समझकर उल्लू बोला,“यह एक ईमानदार शासकीय कर्मचारी का घर है। ऊपर की कमाई को हाथ लगाना भी पाप समझता है। इसीलिए इसका परिवार गरीबी और अभाव से त्रस्त रहता है। अपनी क्षमता अनुसार ही आपकी सेवा कर सन्तुष्ट है, देवि!”
लक्ष्मीजी की खामोशी का अर्थ समझकर उल्लू आगे बढ़ लिया। तभी उनकी नजर विद्युत रोशनी से जगमगाते एक भव्य भवन पर पड़ी। वहाँ आतिशबाजी से आसमान तक गूँज रहा था। दर्जनों देशी-विदेशी कारों की लाइन लगी हुई थी। अच्छा-खासा शोर मचा हुआ था। लक्ष्मीजी को खोया हुआ-सा जानकर उल्लू बताने लगा, “यह एक हवाला और घोटालेबाज का महल है देवि! इसके पास अपार सम्पत्ति व काला धन है।”
सुनकर लक्ष्मीजी बोलीं, “तुम मुझे यहीं उतार दो।”
उल्लू उल्लू-सा खड़ा-खड़ा लक्ष्मीजी को भीतर जाते देखता रहा।
मोबाइल:09926080810
संस्कार
श्यामसुन्दर व्यास
(निधन: 03 अक्तूबर, 2007)
सार्वजनिक नल पर पानी भरने वालों की भीड़ जमा हो गई थी। हंडा भर जाने के बाद बूढ़ी अम्मा से हंडा उठाया नहीं जा रहा था।
लोगों का अधैर्य बड़बड़ाहट में बदलने लगा। मनकू ने हंडा हटाकर अपनी बाल्टी लगाते हुए बूढ़ी से कहा, “बहू को मेंहदी लगी है क्या, जो तू आ गई?”
कातर स्वर में बूढ़ी के बोल फूटे—“उसका पाँव भारी है।”
मनकू को लगा जैसे किसी ने उस पर घड़ों पानी डाल दिया हो।
उसने हंडा उठाया और बूढ़ी अम्मा के द्वार पर रख आया।
मूल्यान्तर
विक्रम सोनी
दरोगाजी प्याऊ के आगे अंजुरी बाँधते उसे देखकर बेहद आत्मीयता व नम्रता से बोले,“क्यों बे हरामी की औलाद अहीरराम, तूने अभी तक एक टीन घी नहीं पहुँचाया? एक तेरे ही घर का हुआ तो हम खाते-पीते हैं। गाँव में एक तेरे ही घर की किसी चीज से हमें परहेज नहीं है, और तू है कि…”
“तीन गायें मर गयीं हुजूर।”
“अबे तो गाँवभर में सौ-सौ ग्राम भी माँग लिया होता तो टीन भर जाता। देखता, कौन साला हमारे नाम से नहीं देता!”
वह कुछ उत्तर देता, तभी पानी पिलाने वाली बुढ़िया ने धीरे-से कहा,“माँगकर ला देना बेटा, भिखारी को जूठन से परहेज नहीं होता।”
सम्पर्क:0734-2533910
हक़ की मजदूरी
प्रताप सिंह सोढ़ी
अपने पाँच-वर्षीय बच्चे का हाथ पकड़े भूरीबाई दाड़की पाने की प्रतीक्षा में लगभग दो घण्टे से मजदूर-चौक में खड़ी हुई थी। उसने मजदूरी मिलने की आस अब छोड़ दी थी। सुस्ताने के लिए वह पास की पुलिया पर बैठ गयी। तभी, उसे किसी की आवाज़ सुनाई दी,“क्या काम नहीं मिला?”
उसने देखा कि एक नौजवान अपनी पतली नुकीली मूँछों पर उँगली फेरते हुए उसे घूर रहा था। संक्षिप्त-सा उत्तर दिया उसने—“नहीं मिला।”
“हम देंगे तुम्हें बढ़िया काम।”
“क्या मजदूरी दोगे?”
कमीज की कॉलर ऊपर उठाते हुए उसने कहा, “मुँहमाँगी मजदूरी मिलेगी।”
उसे घूरते हुए दृढ़तापूर्वक वह बोली, “हक़ की मजदूरी ही लूँगी। कहाँ जाना होगा?”
कुटिल हँसी बिखेरते हुए उस नौजवान ने उत्तर दिया, “मेरे ठिकाने पर चलना होगा, जहाँ सभी मजदूरिनें जाती हैं। वहाँ सभी सुविधाएँ हैं। दो-तीन घण्टे में तुम्हें छुट्टी मिल जाएगी और भरपूर मजदूरी भी।”
अनपढ़ भूरीबाई सब-कुछ समझ गई। उसकी भृकुटी तन गई और पूरी ताकत लगा वह चीख पड़ी, “अबे हरामी, मैं मजदूरी कर पेट भरती हूँ, इज्जत बेचकर नहीं। भाग जा यहाँ से, नहीं तो…।”
एक बड़ा-सा पत्थर उसके हाथ में था। भूरीबाई के इस विकराल रूप को देखकर वह नौजवान भयभीत वहाँ से भाग खड़ा हुआ। भूरीबाई ने अपने बच्चे का हाथ पकड़ा और लम्बे-लम्बे डग भरती, बड़बड़ाती हुई अपने घर की तरफ चल दी।
मोबाइल:09753128044
खामोश
रमेश मनोहरा
“क्यों लीला, आजकल खामोश क्यों रहने लगी? क्या हो गया, बोल्।”
“कुछ नहीं हुआ।”
“जो हमेशा दिन-रात बड़बड़ाती रहती थी। अपनी बहू को कम दहेज लाने पर कोसती रहती थी। मगर कुछ दिनों से देख रही हूँ—किसी ने तुम्हारी जुबान सी दी है। बता, बहू ने कुछ कह दिया क्या?”
“बहू क्या कहेगी मीरा बहिन्।”
“तो फिर किसने कह दिया?”
“मेरे अपने बेटे ने।”
“क्या कह दिया ऐसा तुम्हारे बेटे ने?”
“कह दिया, तुम दहेज के लिए बार-बार बहू को परेशान नहीं करोगी।”
“बेटे ने ऐसा कह दिया और तुम डर गई?”
“डरे मेरी जूती।” जरा गुस्से से लीला बोली।
“तो फिर, इतनी खामोश क्यों रहने लगी? बहू को भी अब दहेज के लिए नहीं उकसाती हो?”
“बात दरअसल यह हुई मीरा बहिन, बेटे ने जोर देकर कह दिया—अब दहेज के लिए बहू को परेशान करोगी तो हम दोनों आत्महत्या कर लेंगे।”
“और तुम डर गई?”
“हाँ मीरा बहिन, बेटा तो मेरा ही है। बहू में आँसू आ गये।
“यानी कि बेटा बहू का गुलाम हो गया?” मीरा ने उसके दर्द को फिर कुरेदा।
“हाँ मीरा बहिन, मैं अपने को नहीं खोना चाहती।” कहकर लीला ने अपनी वेदना उगल डाली।
मीरा बहिन अन्दर-बाहर से मुस्करा दी, क्योंकि यह योजना उसी की थी।
सम्पर्क:07414-229414
आशंका
डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ल
घर के सामने कार रुकने की आवाज़ आते ही पिता छड़ी के सहारे रूम की ओर चल दिए।
“बेटा! यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?”
“नहीं पिताजी।”
“कार्यक्रम अच्छी तरह निपट गया?”
“जी पिताजी। चाचाजी आपको बहुत याद कर रहे थे…मैंने कह दिया कि आपकी तबियत ठीक नहीं थी, इसलिए नहीं आ सके।”
“बेटा, तुम्हारी चाची बहुत अच्छी महिला थी…तुम्हें तकलीफ तो हुई होगी, लेकिन उनके तेरहवें में शामिल होना बहुत जरूरी था…उनका परिवार भले ही दूसरे शहर में रह रहा हो, पर हमारा खून तो एक ही है…।” यह कहते हुए उनकी आँखें भर आई थीं; किन्तु उन्हें मन ही मन सन्तोष भी था कि पुत्र और पुत्रवधू ने उनकी आज्ञा का पालन किया था।
रात को यश उनके कमरे में आया।
“दादाजी, पापा कानपुर से मेरे लिए ये वीडियो-गेम लाए हैं।”
“यह तो बहुत अच्छा है! जरा मुझे भी बताओ…।” उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दादाजी ने कहा।
“दादाजी, मम्मी कह रही थी कि चाचीजी की साग-पूड़ी चार हजार में पड़ी।…दादाजी, क्या साग-पूड़ी इतनी मँहगी मिलती है?”
यश अपने प्रश्न का जवाब चाह रहा था और दादाजी अपने भावी जीवन के प्रति आशंकित हो मूर्तिवत खड़े थे।
सम्पर्क:0731-2483893
कचरा
मनोज सेवलकर
प्रतिदिन गली में आने वाली स्वीपर प्रत्येक घर के सामने झाड़ू लगाते हुए अपना निर्धारित वाक्य दोहराती—“आंटीजी, कचरा्।” तथा प्रत्येक घर उसका आशय जान उसकी हाथ-ट्राली में कचरा डाल देते। परन्तु मेरे पड़ोस में जब भी वह आती, तब उसके वाक्य में परिवर्तन हो जाता। कहती—“दादाजी, कचरा।” क्योंकि दादाजी प्रतिदिन उसी समय अपने घर के आँगन तथा आसपास की सफाई कर कचरा डस्टबिन में डालते, फिर उस स्वीपर की हाथ-ट्राली में।
आज भी दादाजी व्यस्त थे तथा उनकी बहू दरोगा की माफिक बरामदे में खड़ी अपने ससुरजी की गतिविधियों को देख रही थी। जैसे ही स्वीपर ने “दादाजी, कचरा” कहा, वैसे ही उन्होंने उससे प्रश्न किया—“तुम मुझे इस ट्राली में कहाँ डालोगी?”
स्वीपर ने कहा—“क्यों मजाक करते हैं दादाजी!”
“तुम ही तो रोज कहती हो—दादाजी कचरा!”
“वो तो दादाजी, मैं कचरा माँगती हूँ।”
“नहीं बेटा, मैं तो अब रोज कचरा होता जा रहा हूँ…।”
दादाजी की बात को वह तो हँसी-ठिठोली समझकर आगे बढ़ गई। बहू उनके आशय को समझ नाराजगी प्रकट करती, पैर पटकती घर के अन्दर चली गई।
सम्पर्क:0731-2484321
सूर्यकांत नागर
(गतांक से आगे)
अन्य लघुकथाकार, जिनका उल्लेख जरूरी लगता है, वे हैं—कृष्ण्कान्त दुबे, संजय कुमार डागा(हातोद), सुरेश बजाज, डॉ तेजपाल सिंह सोढ़ी, सिंघई सुभाष जैन, वीरचन्द नरवाले, सत्यनारायण पटेल, रमेश जाधव, कान्तिलाल ठाकरे, राज केसरवानी, मधुकर पँवार, महेश भण्डारी आदि। डॉ सोढ़ी का सन 2005 में लघुकथा संकलन ‘महामानव’ आया है। कृष्णकान्त दुबे ने प्रकृति और ग्रामीण परिवेश को लेकर अच्छी लघुकथाएँ लिखी हैं। डॉ रमेशचन्द्र दुबे का अलग से उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि उन्होंने भी लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु बहुत काम किया है। ‘आस्था’ उनकी एक अविस्मरणीय लघुकथा है। व्यंग्यकार से एक जागरूक कवि का चोला पहन लेने वाले ब्रजेश कानूनगो ने यद्यपि कम ही लघुकथाएँ लिखी हैं, लेकिन जो भी लिखी हैं, वे उन्हें एक समर्थ लघुकथाकार सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। घुलती पृथ्वी, रंग-बिरंग आदि उनकी महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं।
मालवा-अंचल की महिला लघुकथाकारों में ध्यान आकर्षित करने वाले नाम हैं—चेतना भाटी, अन्तरा करवड़े, लीला रूपायन, कृष्णा अग्निहोत्री, सीमा पाण्डे ‘सुशी’, रेखा कारड़ा, सुनयना वोरा, सुमति देशपाण्डे, डॉ पुष्पारानी गर्ग, स्वाति तिवारी(सभी इंदौर), प्रज्ञा पाठक और मीरा जैन(दोनों उज्जैन)। इनमें भी चेतना भाटी, अन्तरा करवड़े, सीमा पाण्डे, मीरा जैन और प्रज्ञा पाठक अधिक सक्रिय हैं। रेखा कारड़ा शारीरिक रूप से अशक्त होते हुए भी मानसिक रूप से काफी सशक्त हैं। साहित्य और कला के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। ‘उसका सपना’(2005) रेखाजी का लघुकथा-संग्रह है। प्रचार-प्रसार से दूर रहने वाली अंतरा करवड़े ने बहुत ही खूबसूरत लघुकथाएँ लिखी हैं। उनके लघुकथा-संग्रह ‘देन उसकी हमारे लिए’ को अखिल भारतीय अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य’ रजत अलंकरण मिल चुका है। सीमा पाण्डे ‘सुशी’ और अंतराजी इंटरनेट पर भी बहुत सक्रिय हैं। चेतना भाटी की उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं—हेलमेट, ऊँची जाति, मंजर आदि। मीरा जैन की अब तक सौ से अधिक लघुकथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कई अन्य लघुकथा-संकलनों में भि वे संकलित हैं। ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएँ’ उनका एकल लघुकथा-संग्रह है। लघुकथा-लेखिकाओं की अधिकांश लघुकथाएँ परिवेशजन्य हैं। घर-परिवार, नाते-रिश्तों को शायद पूरी तरह छोड़ पाना उनके लिए संभव नहीं है। इसीलिए उनकी रचनाओं में अनुभूति की प्रामाणिकता है। प्रश्न यही है कि जो एक स्त्री अपने जीवन में झेलती-भोगती है, उसे पुरुष तो क्या, वह स्त्री जिसने वह-सब भोगा नहीं है, ठीक-से बयान नहीं कर सकती।
उज्जैन का जिक्र आया है तो वहाँ के पुरुष-लघुकथाकारों को भी याद कर लिया जाए। पोलियोग्रस्त स्व0 अरविन्द नीमा विकलांग होते हुए भी विचित्र जिजीविषा के धनी थे। लिखने-पढ़ने में उनकी गहरी रुचि थी। अच्छी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया भेजना वे कभी नहीं भूलते थे। उनका एक लघुकथा-संग्रह ‘गागर में सागर’ उनकी मृत्यु के पश्चात सन 2000 में प्रकाशित हुआ था। उज्जैन के ही सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’, मुकेश जोशी, शैलेन्द्र पाराशर, स्वामीनाथ पाण्डेय, डॉ शैलेन्द्र कुमार शर्मा, भगीरथ बड़ोले, बी0 एल0 आच्छा, डॉ प्रभाकर शर्मा, रमेश कर्नावट और श्रीराम दवे आदि अनेक रचनाकार लघुकथा-विधा से जुड़े हैं। ख्यात व्यंग्यकवि ओम व्यास ने भी लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘मजदूरी’ उनकी एक महत्वपूर्ण रचना है। डॉ प्रभाकर शर्मा का संकलन ‘सागर के मोती’(2004) चर्चित रहा है। लेखक, पत्रकार, चिंतक श्रीराम दवे ने भी लघुकथाएँ लिखी हैं। उनके संपादन में इंदौर के तीन लघुकथाकारों का संकलन ‘त्रिवेणी’(2003) आया था। प्रो0 शैलेन्द्र पाराशर के संपादन में लघुकथाओं के संकलन ‘सरोकार’ का प्रकाशन उज्जैन से हुआ था। संकलन में रमेशचन्द्र शर्मा, हरीश कुमार, प्रभाकर शर्मा, रमेश कर्नावट, प्रवीण देवलेकर आदि की लघुकथाएँ शामिल थीं। उक्त संकलन का भव्य लोकार्पण-समारोह हुआ था जिसमें सांसद सत्यनारायण जटिया, ख्यात कवि-आलोचक प्रमोद त्रिवेदी, प्रो0 रमेश गुप्त ‘चातक’ आदि अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे। उक्त संकलन का लोकार्पण सूर्यकांत नागर ने किया था। इस अवसर पर लघुकथाकार वेद हिमांशु को सम्मानित भी किया गया था। प्रो0 बी0 एल0 आच्छा ने लघुकथा के सिध्दान्त-पक्ष पर अनेक विचारपरक लेख लिखे हैं। पिलकेन्द्र अरोरा भी इस दिशा में काफी सक्रिय हैं।
लेखक, कवि, विचारक और वरिष्ठ विज्ञानी रतलाम के डॉ जयकुमार जलज ने हिसाब, हासिल, नेता-शिष्य, वंशबेल, झूठा सच, शॉर्टकट जैसी यादगार कथाएँ लिखकर सिद्ध कर दिया है कि उनकी इस विधा पर गहरी पकड़ है। उनकी लघुकथाओं में मनुष्य के दोहरे चेहरे और स्खलित होते मानवीय मूल्यों के प्रति उनकी चिन्ता को रेखांकित किया जा सकता है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में सतत लिखने वाले झाबुआ के रामशंकर ‘चंचल’ भी अब तक अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिख चुके हैं। उनकी रचनाएँ देशभर की छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। उनके द्वारा संपादित ‘एकलव्य’(2004) संकलन में उनकी अनेक लघुकथाएँ संकलित हैं। उनकी झीतरा और ब्लाउज रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अशोक ‘आनन’(मक्सी) ‘आयाम’ लघु-पत्रिका निकालते रहे हैं। इस पत्रिका का एक पूरा अंक लघुकथा को समर्पित था। ‘आनन’ ने स्वयं भी अनेक लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘मातुश्री कमलादेवी स्मृति पुरस्कार’ का प्रोत्साहन पुरस्कार भी उनको मिल चुका है। ‘खिलौने’ उनकी उल्लेखनीय लघुकथा है। देवास के उपेन्द्र मिश्र एवं नितिन घुणे के समर्पण-भाव को याद रखना भी जरूरी है।
इंदौर में रहे और मुंबई में जा बसे अनन्त श्रीमाली ने सतीश राठी के साथ मिलकर लघुकथा के संवर्धन के लिए खूब काम किया। राठीजी के साथ वे ‘क्षितिज’ और ‘मनोबल’ के सहयोगी संपादक रहे। इंदौर के एक और लघुकथाकार जो फिलहाल नौकरी के सिलसिले में मुंबई में हैं, वे हैं—डॉ सतीश शुक्ल। शुक्लजी भी लघुकथा के प्रति समर्पित रहे हैं। कर्ज-अदायगी तथा स्वाभिंमान जैसी लघुकथाओं के माध्यम से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
मालवा-अंचल के देवास, उज्जैन, इंदौर आदि स्थानों पर लघुकथा-सम्मेलनों, सेमीनारों, कार्यशालाओं, लोकार्पण-समारोहों और चर्चा-गोष्ठियों का आयोजन अक्सर होता रहता है। इनमें लघुकथा लेखन के विविध पक्षों पर खुली चर्चा होती है। कुछ स्थानों पर लघुकथाओं पर आधारित चित्र-प्रदर्शनियाँ भी लगाई जा चुकी हैं। दिल्ली निवासी मधुदीप के लघुकथा-संग्रह ‘मेरी बात तेरी बात’ पर स्वयं मधुदीप की उपस्थिति में इंदौर में विस्तृत चर्चा हुई थी। चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा-संग्रह ‘उल्लास’ पर भी एकाधिक बार बहस हो चुकी है। मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति द्वारा भी लघुकथा-वाचन के कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं। गत वर्ष डॉ सतीश दुबे की लघुकथाओं के गुजराती संकलन ‘करोड़ रज्जू’ का वृहद लोकार्पण-समारोह गुजराती समाज द्वारा आयोजित किया गया था। गुजरात साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित और कभी इंदौर में ही रहे रोहित श्याम चतुर्वेदी द्वारा हिन्दी से गुजराती में अनूदित यह पुस्तक काफी चर्चित रही। सतीश राठी ने ‘क्षितिज’ के लिए 1983-84 में लघुकथा-प्रतियोगिता आयोजित कि थी जिसमें फजल इमाम मलिक, मदन शर्मा और शंकर पुणतांबेकर को पुरस्कृत किया गया था। निर्णायक थे—निमाड़ लोक संस्कृति के पोषक रामनारायण उपाध्याय, सूर्यकांत नागर और राजेन्द्र पाण्डेय। अशोक शर्मा ‘भारती’ द्वारा आयोजित प्रतियोगिता का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति की मुख-पत्रिका ‘वीणा’ में आज भी लघुकथाओं का प्रकाशन नियमित रूप से हो रहा है। लघुकथा पर क्षेत्र के अनेक छात्र-छात्राओं द्वारा एम फिल हेतु लघु शोध-प्रबन्ध तथा पी-एच डी हेतु शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत कर डिग्रियाँ हासिल की गई हैं। इनमें कुछ नाम हैं—सुनीता पाटीदार, संजय गुप्ता, पल्लवी, भारती ललवानी, मनीषा व्यास आदि।
देश में लघुकथा के बदलते नक्शे के साथ-साथ मालवांचल में भी लघुकथा लेखन में भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर बदलाव आया है। हृदयहीनता, भ्रष्टाचार और परस्पर विरोधी स्थितियों वाले घिसे-पिटे विषयों से मुक्ति मिल रही है। अतिरिक्त स्पष्टीकरण और विवरणात्मकता के प्रति भी लेखक-वर्ग सावधान हुआ है। बदलते यथार्थ को सामने लाने के लिए लघुकथा के रचनात्मक स्वरूप में रूपात्मक बदलाव आया है। पहले लगता था, सारी लघुकथाएँ एक ही टकसाल से निकलकर आ रही हैं। अब मालवा का लघुकथाकार अधिक सजग हुआ है। उसने लघुकथा के बने-बनाए ढाँचे को तोड़ने की कोशिश की है। उसकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समझ विकसित हुई है। लघुकथा के विकास की दृष्टि से यह एक शुभ लक्षण है। विक्रम सोनी, सतीश दुबे से प्रारम्भ परम्परा विकसित-पल्लवित होकर नए रंग-रूप में अपनी सुरभि बिखेर रही है और लघुकथा विधा के संवर्धन में अपना विनम्र योगदान कर रही है। निस्सन्देह मालवा-अंचल के लघुकथाकारों ने साहित्य कोष को समृद्ध करने और लघुकथा को अधिकाधिक लोगों से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उम्मीद है, अंचल की नई प्रतिभाएँ भी आगे आएँगी और इस विधा की जड़ों को मजबूत करने में भरपूर सहयोग करेंगी।
मोबाइल:09893810050
लघुकथाएँ
लक्ष्मी-निवास
सुरेश शर्मा
दीपावली की आधी रात बीत चुकी थी। लक्ष्मीजी अपने वाहन पर सवार उपयुक्त पात्र को वरदान देने निकल पड़ीं।
एक झोपड़ी का दरवाजा बन्द था। भीतर-बाहर अँधेरा पसरा देखकर विस्मय के साथ लक्ष्मीजी ने पूछा, “दीवाली की रात भी अँधेरा?”
“यह एक गरीब मजदूर का घर है। दिनभर कठोर श्रम करने के बाद भी इसके परिवार का गुजारा नहीं हो पाता। इसीलिए आपका स्वागत नहीं कर पाया बेचारा।” उल्लू ने स्थिति स्पष्ट की तो लक्ष्मीजी ने आगे बढ़ने का इशारा किया।
कुछ दूर चलने के बाद एक घर के आगे केवल एक दीया टिमटिमाता हुआ देखकर वे ठिठकीं। आशय समझकर उल्लू बोला,“यह एक ईमानदार शासकीय कर्मचारी का घर है। ऊपर की कमाई को हाथ लगाना भी पाप समझता है। इसीलिए इसका परिवार गरीबी और अभाव से त्रस्त रहता है। अपनी क्षमता अनुसार ही आपकी सेवा कर सन्तुष्ट है, देवि!”
लक्ष्मीजी की खामोशी का अर्थ समझकर उल्लू आगे बढ़ लिया। तभी उनकी नजर विद्युत रोशनी से जगमगाते एक भव्य भवन पर पड़ी। वहाँ आतिशबाजी से आसमान तक गूँज रहा था। दर्जनों देशी-विदेशी कारों की लाइन लगी हुई थी। अच्छा-खासा शोर मचा हुआ था। लक्ष्मीजी को खोया हुआ-सा जानकर उल्लू बताने लगा, “यह एक हवाला और घोटालेबाज का महल है देवि! इसके पास अपार सम्पत्ति व काला धन है।”
सुनकर लक्ष्मीजी बोलीं, “तुम मुझे यहीं उतार दो।”
उल्लू उल्लू-सा खड़ा-खड़ा लक्ष्मीजी को भीतर जाते देखता रहा।
मोबाइल:09926080810
संस्कार
श्यामसुन्दर व्यास
(निधन: 03 अक्तूबर, 2007)
सार्वजनिक नल पर पानी भरने वालों की भीड़ जमा हो गई थी। हंडा भर जाने के बाद बूढ़ी अम्मा से हंडा उठाया नहीं जा रहा था।
लोगों का अधैर्य बड़बड़ाहट में बदलने लगा। मनकू ने हंडा हटाकर अपनी बाल्टी लगाते हुए बूढ़ी से कहा, “बहू को मेंहदी लगी है क्या, जो तू आ गई?”
कातर स्वर में बूढ़ी के बोल फूटे—“उसका पाँव भारी है।”
मनकू को लगा जैसे किसी ने उस पर घड़ों पानी डाल दिया हो।
उसने हंडा उठाया और बूढ़ी अम्मा के द्वार पर रख आया।
मूल्यान्तर
विक्रम सोनी
दरोगाजी प्याऊ के आगे अंजुरी बाँधते उसे देखकर बेहद आत्मीयता व नम्रता से बोले,“क्यों बे हरामी की औलाद अहीरराम, तूने अभी तक एक टीन घी नहीं पहुँचाया? एक तेरे ही घर का हुआ तो हम खाते-पीते हैं। गाँव में एक तेरे ही घर की किसी चीज से हमें परहेज नहीं है, और तू है कि…”
“तीन गायें मर गयीं हुजूर।”
“अबे तो गाँवभर में सौ-सौ ग्राम भी माँग लिया होता तो टीन भर जाता। देखता, कौन साला हमारे नाम से नहीं देता!”
वह कुछ उत्तर देता, तभी पानी पिलाने वाली बुढ़िया ने धीरे-से कहा,“माँगकर ला देना बेटा, भिखारी को जूठन से परहेज नहीं होता।”
सम्पर्क:0734-2533910
हक़ की मजदूरी
प्रताप सिंह सोढ़ी
अपने पाँच-वर्षीय बच्चे का हाथ पकड़े भूरीबाई दाड़की पाने की प्रतीक्षा में लगभग दो घण्टे से मजदूर-चौक में खड़ी हुई थी। उसने मजदूरी मिलने की आस अब छोड़ दी थी। सुस्ताने के लिए वह पास की पुलिया पर बैठ गयी। तभी, उसे किसी की आवाज़ सुनाई दी,“क्या काम नहीं मिला?”
उसने देखा कि एक नौजवान अपनी पतली नुकीली मूँछों पर उँगली फेरते हुए उसे घूर रहा था। संक्षिप्त-सा उत्तर दिया उसने—“नहीं मिला।”
“हम देंगे तुम्हें बढ़िया काम।”
“क्या मजदूरी दोगे?”
कमीज की कॉलर ऊपर उठाते हुए उसने कहा, “मुँहमाँगी मजदूरी मिलेगी।”
उसे घूरते हुए दृढ़तापूर्वक वह बोली, “हक़ की मजदूरी ही लूँगी। कहाँ जाना होगा?”
कुटिल हँसी बिखेरते हुए उस नौजवान ने उत्तर दिया, “मेरे ठिकाने पर चलना होगा, जहाँ सभी मजदूरिनें जाती हैं। वहाँ सभी सुविधाएँ हैं। दो-तीन घण्टे में तुम्हें छुट्टी मिल जाएगी और भरपूर मजदूरी भी।”
अनपढ़ भूरीबाई सब-कुछ समझ गई। उसकी भृकुटी तन गई और पूरी ताकत लगा वह चीख पड़ी, “अबे हरामी, मैं मजदूरी कर पेट भरती हूँ, इज्जत बेचकर नहीं। भाग जा यहाँ से, नहीं तो…।”
एक बड़ा-सा पत्थर उसके हाथ में था। भूरीबाई के इस विकराल रूप को देखकर वह नौजवान भयभीत वहाँ से भाग खड़ा हुआ। भूरीबाई ने अपने बच्चे का हाथ पकड़ा और लम्बे-लम्बे डग भरती, बड़बड़ाती हुई अपने घर की तरफ चल दी।
मोबाइल:09753128044
खामोश
रमेश मनोहरा
“क्यों लीला, आजकल खामोश क्यों रहने लगी? क्या हो गया, बोल्।”
“कुछ नहीं हुआ।”
“जो हमेशा दिन-रात बड़बड़ाती रहती थी। अपनी बहू को कम दहेज लाने पर कोसती रहती थी। मगर कुछ दिनों से देख रही हूँ—किसी ने तुम्हारी जुबान सी दी है। बता, बहू ने कुछ कह दिया क्या?”
“बहू क्या कहेगी मीरा बहिन्।”
“तो फिर किसने कह दिया?”
“मेरे अपने बेटे ने।”
“क्या कह दिया ऐसा तुम्हारे बेटे ने?”
“कह दिया, तुम दहेज के लिए बार-बार बहू को परेशान नहीं करोगी।”
“बेटे ने ऐसा कह दिया और तुम डर गई?”
“डरे मेरी जूती।” जरा गुस्से से लीला बोली।
“तो फिर, इतनी खामोश क्यों रहने लगी? बहू को भी अब दहेज के लिए नहीं उकसाती हो?”
“बात दरअसल यह हुई मीरा बहिन, बेटे ने जोर देकर कह दिया—अब दहेज के लिए बहू को परेशान करोगी तो हम दोनों आत्महत्या कर लेंगे।”
“और तुम डर गई?”
“हाँ मीरा बहिन, बेटा तो मेरा ही है। बहू में आँसू आ गये।
“यानी कि बेटा बहू का गुलाम हो गया?” मीरा ने उसके दर्द को फिर कुरेदा।
“हाँ मीरा बहिन, मैं अपने को नहीं खोना चाहती।” कहकर लीला ने अपनी वेदना उगल डाली।
मीरा बहिन अन्दर-बाहर से मुस्करा दी, क्योंकि यह योजना उसी की थी।
सम्पर्क:07414-229414
आशंका
डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ल
घर के सामने कार रुकने की आवाज़ आते ही पिता छड़ी के सहारे रूम की ओर चल दिए।
“बेटा! यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?”
“नहीं पिताजी।”
“कार्यक्रम अच्छी तरह निपट गया?”
“जी पिताजी। चाचाजी आपको बहुत याद कर रहे थे…मैंने कह दिया कि आपकी तबियत ठीक नहीं थी, इसलिए नहीं आ सके।”
“बेटा, तुम्हारी चाची बहुत अच्छी महिला थी…तुम्हें तकलीफ तो हुई होगी, लेकिन उनके तेरहवें में शामिल होना बहुत जरूरी था…उनका परिवार भले ही दूसरे शहर में रह रहा हो, पर हमारा खून तो एक ही है…।” यह कहते हुए उनकी आँखें भर आई थीं; किन्तु उन्हें मन ही मन सन्तोष भी था कि पुत्र और पुत्रवधू ने उनकी आज्ञा का पालन किया था।
रात को यश उनके कमरे में आया।
“दादाजी, पापा कानपुर से मेरे लिए ये वीडियो-गेम लाए हैं।”
“यह तो बहुत अच्छा है! जरा मुझे भी बताओ…।” उसके सिर पर हाथ फेरते हुए दादाजी ने कहा।
“दादाजी, मम्मी कह रही थी कि चाचीजी की साग-पूड़ी चार हजार में पड़ी।…दादाजी, क्या साग-पूड़ी इतनी मँहगी मिलती है?”
यश अपने प्रश्न का जवाब चाह रहा था और दादाजी अपने भावी जीवन के प्रति आशंकित हो मूर्तिवत खड़े थे।
सम्पर्क:0731-2483893
कचरा
मनोज सेवलकर
प्रतिदिन गली में आने वाली स्वीपर प्रत्येक घर के सामने झाड़ू लगाते हुए अपना निर्धारित वाक्य दोहराती—“आंटीजी, कचरा्।” तथा प्रत्येक घर उसका आशय जान उसकी हाथ-ट्राली में कचरा डाल देते। परन्तु मेरे पड़ोस में जब भी वह आती, तब उसके वाक्य में परिवर्तन हो जाता। कहती—“दादाजी, कचरा।” क्योंकि दादाजी प्रतिदिन उसी समय अपने घर के आँगन तथा आसपास की सफाई कर कचरा डस्टबिन में डालते, फिर उस स्वीपर की हाथ-ट्राली में।
आज भी दादाजी व्यस्त थे तथा उनकी बहू दरोगा की माफिक बरामदे में खड़ी अपने ससुरजी की गतिविधियों को देख रही थी। जैसे ही स्वीपर ने “दादाजी, कचरा” कहा, वैसे ही उन्होंने उससे प्रश्न किया—“तुम मुझे इस ट्राली में कहाँ डालोगी?”
स्वीपर ने कहा—“क्यों मजाक करते हैं दादाजी!”
“तुम ही तो रोज कहती हो—दादाजी कचरा!”
“वो तो दादाजी, मैं कचरा माँगती हूँ।”
“नहीं बेटा, मैं तो अब रोज कचरा होता जा रहा हूँ…।”
दादाजी की बात को वह तो हँसी-ठिठोली समझकर आगे बढ़ गई। बहू उनके आशय को समझ नाराजगी प्रकट करती, पैर पटकती घर के अन्दर चली गई।
सम्पर्क:0731-2484321
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