लघुकथा-लेखन में राजस्थान का योगदान
महेन्द्र सिंह महलान
आठवें दशक के अन्त तक आधुनिक हिन्दी लघुकथा में सामान्य किस्म के संकलनों का दौर रहा है। इन संग्रहों की विषय-वस्तु व्यापक थी। इनमें विविध विषयों की विभिन्न लघुकथाएँ समाविष्ट होती थीं। नौवें दशक में लघुकथा सृजन एवं मूल्यांकन, विवेचन व विश्लेषण के स्तर पर अनेक पड़ावों को पार करती हुई जाँच-पड़ताल के सूक्ष्म, गहन व गंभीर गलियारों में उतर गई। विशिष्ट लघुकथा-संग्रहों के प्रकाशन का प्रारंभ इस दशक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। वर्ष 1983 में उत्तर प्रदेश से देश का पहला विशिष्ट लघुकथा-संकलन ‘आतंक’(सं नन्दल हितैषी, संयोजन धीरेन्द्र शर्मा) देखने में आया जो पुलिस संबंधी लघुकथाओं पर केन्द्रित था।
राजस्थान से प्रथम विशिष्ट लघुकथा-संकलन वर्ष 1987 में ‘संघर्ष’ नाम से प्रकाशित हुआ जो विशुद्ध रूप से अखिल भारतीय लघुकथा-प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत रचनाओं पर केन्द्रित था। वर्ष 1989 में ‘मंथन’ निकला जिसमें देश में पहली बार एकल-संग्रहों पर कार्य हुआ। इसी क्रम में सन 1998 में ‘राजस्थान का लघुकथा-संसार’ पाठकों के हाथ में आया। यह राजस्थान के लघुकथा-कर्म की प्रथम प्रतिनिधि पुस्तक है।
प्रतियोगिताएँ
देश में लघुकथा-प्रतियोगिताओं का बोलबाला आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हो चुका था। लघुकथा-प्रतियोगिता आयोजित करने वाले प्रदेशों में हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा दिल्ली अग्रणी रहे हैं। इनमें भी राजस्थान लघुकथा-प्रतियोगिता का गढ़ ही रहा है। यहाँ प्रतियोगिताओं की शुरूआत वर्ष 1981 से होती है, जब युवा रचनाकार समिति, फेफाना(श्री गंगानगर) तथा आदर्श भारतीय साहित्यकार परिषद, जयपुर ने अखिल भारतीय लघुकथा-प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं। इसके बाद ‘सम्बोधन’(कांकरोली), ‘कर्मचिन्तन’(जयपुर), गुलजस्ता रचना मंच, लोढ़सर(चुरू), साहित्यिक राजस्थान (हनुमानगढ़), युवा मंच(प्रतापगढ़), शेष(लुहारपुरा, जोधपुर), युवा रचनाकार समिति, फेफाना(अलवर) की लघुकथा-प्रतियोगिताएँ प्रमुख हैं। ‘युवा रचनाकार समिति’ ने वर्ष 1981 से 1986 तक लगातार छह सफल प्रतियोगिताएँ आयोजित कर देश में कीर्तिमान स्थापित किया।
राजस्थान से आयोजित इन प्रतियोगिताओं में रचनाओं के मूल्यांकन हेतु डॉ सतीश दुबे, विक्रम सोनी, डॉ मदन केवलिया, डॉ आलमशाह खान, वेदव्यास, श्रीकांत मंजुल, मुकुट सक्सेना, डॉ अमर सिंह, लतीफ घोंघी व क़मर मेवाड़ी जैसे विषय के विद्वान, अनुभव व योग्यता की दृष्टि से निर्विवाद व्यक्तियों को निर्णायक-मण्डल में स्थान देकर लघुकथाकारों की पीठ थपथपा, पुरस्कारों-प्रमाणपत्रों के सम्मान द्वारा उत्कृष्ट लेखन का आदर कर, प्रतिभा पर स्वीकृति की मुहर लगाई गई तथा पुरस्कृत रचनाओं को सम्बोधन, कर्म-चिन्तन, लघु आघात, दर्शन मंथन जैसी पत्रिकाओं के अंकों-विशेषांकों तथा कल हमारा है, प्रेरणा, यथार्थ, सबूत-दर-सबूत, संघर्ष आदि लघुकथा-संकलनों में प्रकाशित कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्रदान की गई।
शोध-कार्य
भारत में लघुकथा पर जिन्होंने शोध किया, उनमें डॉ शकुन्तला किरण, डॉ शमीम शर्मा, डॉ मंजु पाठक, डॉ अंजलि शर्मा, सुशील राजेश, ईश्वर चन्द्र, आशा पुष्प, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, मणिप्रभा, विभा खरे, रामदुलार सिंह ‘पराया’ आदि प्रमुख हैं।
देश में लघुकथा पर सर्वप्रथम शोध-उपाधि प्राप्त करने का श्रेय अजमेर की डॉ शकुन्तला किरण को है। इन्होंने ‘हिन्दी लघुकथा’ विषय लेकर इसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर कार्य किया। जनवरी 1996 में डॉ मदन केवलिया(हिन्दी विभागाध्यक्ष, डूँगर कॉलेज, बीकानेर) के निर्देशन में श्रीमती नवनीत को ‘हिन्दी लघुकथा साहित्य का समाज-शास्त्रीय अध्ययन’ विषय पर अजमेर विश्वविद्यालय से पी-एच डी की उपाधि प्रदान की गई।
मंचन
लघुकथाओं के मंचन की शुरूआत देश में सबसे पहले राजस्थान में ही हुई। 1 मई, 1981 को पहली बार रावतभाटा(कोटा) की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘पलाश’ के रंगकर्मियों ने रंगमंच के इतिहास में सर्वप्रथम लघुकथाओं के मंचन का साहसिक एवं सफल प्रयोग किया। मंचित लघुकथाओं में चित्रा मुद्गल की ‘नसीहत’, लक्ष्मीकांत वैष्णव की ‘लोग’, डॉ सतीश दुबे की ‘फैसला’ तथा भगीरथ की ‘ओवरटाइम’ थीं। इन सभी लघुकथाओं का मंचन भगीरथ के मुख्य निर्देशन में अरविंद श्रीवास्तव, चं प्र दायमा, श्याम विजय, वरुण परिहार, कु राज गुप्ता, लालबचन, कैलाश टेलर, हंसराज चौधरी एवं रमेश जैन द्वारा किया गया।
राजस्थान के बाद बिहार के धनबाद व रांची तथा हरियाणा के सिरसा में भी लघुकथा-मंचन का कार्य हुआ। मध्य प्रदेश(घरघोड़ा-रामगढ़) की सांस्कृतिक संस्था ने भी इसीप्रकार का एक आयोजन किया जिसमें देश के कुछ अन्य कथाकारों के साथ प्रदेश के महेन्द्र सिंह महलान की लघुकथा ‘पहचान’ का मंचन किया गया।
(शेष आगामी अंक में…)
लघुकथाएँ
बुढ़ापे का सहारा
डॉ रामकुमार घोटड़
माँ रोए जा रही थी और पापा अभी ड्यूटी से नहीं लौट पाये थे।
“सोनू बिटिया, क्या कर लिया यह! मैं सब्जी लेने बाजार गई थी कि पलभर में यह सब हो गया। अपने छोटे भैया मोनू को बचाने के लिए तुमने अपना ध्यान ही नहीं रखा? बेटी, हमने तुम्हें फूलों की तरह पाला है, सहेजा है। तू हमारे आँगन की तुलसी है…तो क्या भगवान ने हमें कन्यादान करने का सौभाग्य ही नहीं दिया?…क्या किया तुमने यह…आखिर क्यों?…”
“मम्मी…! मोनू सो रहा था। अचानक न जाने कमरे में कैसे आग लग गई!! मोनू की चीख सुनकर जब मैं भागी, तब तक आग पूरे कमरे में फैल चुकी थी। जल्दी ही अन्दर घुसकर मैंने मोनू को बाहर की ओर धकेल दिया और लपटों ने मुझे घेर लिया…मैं बाहर न आ सकी। चीखें सुनकर जब पड़ोसी पहुँचे, तब तक बहुत देर हो चुकी थी…मम्मी, आप तो हमेशा कहा करती हैं कि मोनू हमारे बुढ़ापे का सहारा है…मैं तो एक लड़की हूँ, पराया धन…एक न एक दिन मुझे आपसे विदा लेनी ही थी—अगर मम्मी, मोनू को कुछ हो जाता तो आपके बुढ़ापे का सहारा कौन होता?…” कहते-कहते वह शान्त हो गई और निस्तब्ध वातावरण को एक माँ की चीख ने कम्पायमान कर दिया।
बेटी का रोल
महेन्द्रसिंह महलान
बिंदिया खुश थी। बड़े बजट की फिल्म में एक छोटा-सा रोल जो मिल गया था उसे।
फिल्म अपार सफलता के साथ शहर में प्रदर्शित हुई। बिंदिया के घर मिलने-जुलने व बधाई देने वालों का ताँता बँध गया।
उसने अपने अनपढ़ और भोले-भाले पिता से फिल्म देखने का आग्रह किया। पिता बेटी की सफलता पर फूला नहीं समा रहा था। वह प्रसन्नता एवं गर्व के साथ बेटी के संग सिनेमा पहुँचा।
‘शो’ खत्म होने को आया। पिता व्यग्रतापूर्वक पूछ बैठा,“बेटी, तुम्हारा रोल कब आएगा…?”
तभी पर्दे पर एक बलात्कार-दृश्य उभरकर आया। कोई बदमाश किसी लड़की को हिंसक जानवर की भाँति नोंच-खसोट रहा था। लड़की के सभी वस्त्र फट गए थे और उसके सभी सुडौल अंग बाहर झाँकने लगे थे। बिंदिया खुशी से चिल्लाई, “बाबा, ये ही है…ये ही है मेरा रोल…कितना रियल, कितना नेचुरल बन पड़ा है! देखो तो…”
मगर बाबा न तो देख रहा था और न ही सुन रहा था। वह तो सिर्फ बेटी के चेहरे की ओर ताक रहा था।
रिश्ता
रत्नकुमार साँभरिया
प्रशासनिक सेवा में चयन हो जाने के बाद वह पहली बार अपने छोटे भाई राजदीप से मिलने के लिए गाँव से शहर आया था। फटी और उधड़ी कमीज, छोटी-सी एकलाँघी धोती, सिर पर मैला-कुचैला अँगोछा और पाँवों में टूटी चप्पलें। राजदीप ने जब अपने बड़े भैया को फटेहाल देखा तो उसे अपने आप पर ग्लानि हुई।
वह मन-ही-मन सोचने लगा—यह वही मेरे मसीहा भाई हैं, जिन्होंने दिन-रात मेहनत-मजदूरी करके मुझे पढ़ाया है, लिखाया है और नौकरी के काबिल बनाया है। कर्जा आज तक भी सिर पर है इनके।
दूसरे दिन, जब वह घर जाने लगा तो राजदीप ने अटैची खोलकर उसमें से अपने पुराने कुर्ता-कमीज निकालकर बाहर रख दिए। उसने अपनी पत्नी से सहज ही पूछ लिया—“भैया के पास कपड़े नहीं हैं, ये पुराने कुर्ता-कमीज हैं, दे देता हूँ।”
“सारा घर ही उठाकर दे दो न भैया को!…जब चाहेंगे, आ बैठेंगे। मत लगाओ मुँह।” वह तुनक उठी।
“लेकिन, फटे कपड़ों में इनका बदन दिखता है। शर्म आती है मुझे कि मैं इतना बड़ा अधिकारी हूँ और मेरे यह भाई हैं, जिनके तन पर पूरे कपड़े भी नहीं हैं।”
“जब कपड़े नहीं थे तो यहाँ आये ही क्यों? इनको इतना भी मालूम नहीं कि किसके घर कैसे जाया-आया जाता है?”
“ये कपड़े पुराने ही तो हैं, दे देते हैं भैया को।” राजदीप ने आग्रहपूर्वक कहा।
उसकी पत्नी होंठ बिचकाकर बोली,“रामू ने कितनी बार कहा है—बीबीजी, साब के पुराने कपड़े पड़े हों तो दे दो मुझे, मेरे कपड़े फट गए हैं। अगर उसे दे देंगे तो हाथ बढ़ा-बढ़ाकर काम करेगा। आखिर नौकर है अपना।”
उसने कपड़े अपनी बगल में दबाए और उन्हें रखने के लिए दूसरे कमरे की ओर बढ़ गई।
सम्मान
दुर्गेश
“क्यों भाई, तुम यहाँ क्यों खड़े हो?”
“हम अपने आदमी के पास आए हैं, तुम कौन होते हो पूछने वाले?”
“लेकिन तुम्हारे आने का फायदा क्या हुआ?”
“कैसे नहीं हुआ? हम इसके सम्मान में आए हैं।”
“सम्मान! यह कैसा सम्मान? यह तो बीमारी और भूख से जूझ रहा है और तुम सम्मान की बात कर रहे हो! पहले इसके लिए दवा और रोटी का प्रबंध करो। सम्मान तो बाद की बात है।”
“चुप रहो, बदतमीज! तुम्हें पता है, यह कौन हैं? यह हैं हमारे देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीबज्र। अगर हम इनके कष्ट मिटा देंगे तो इन्हें कल्पना कैसे सूझेगी? कष्टों में ही तो लेखक की लेखनी में चमत्कार आता है। भोगा हुआ कष्ट ही तो साहित्य की मूल प्रेरणा है। क्या इनके लिए दवा-रोटी का प्रबंध करना एक साहित्यिक व्यक्तित्व को कुंठित करना नहीं होगा?”
प्रणय
पुष्पलता कश्यप
जब वह ताड़ी चढ़ाकर देर रात गए घर लौटता, उसकी गुलबिया लालटेन के टिमटिमाते उजास में गठरी-सी बनी, उनींदी, इंतजार में देहरी पर बैठी-पसरी मिलती। किसी तरह थोड़ा-बहुत खाने के बाद नशे में जाग उठता उसकी हवस का पशु! वह उसे ‘गुलाब’ की तरह उठा अपने सीने में भीच लेता। सूँघता, चूमता-चाटता और पंखुरियों की परत-दर-परत उघाड़कर देखता-मसलता-भोगता। झोंक में मरमराता जाता—मेरी रानी!…मेरे दिल के आमलेट!…और भी न जाने क्या-क्या कितना-कुछ। वह सब गुलबिया को कुछ समझ नहीं पड़ता।
सुबह उठता तो उसका नशा उतर चुका होता और खुमारी का अवशेष—सिरदर्द बचा रहता। गुलबिया को अस्त-व्यस्त, विकृत अवस्था में देखकर उसे चिढ़ हो जाती।
“देखो, दिन चढ़े तक महारानीजी कैसी लुढ़की-उथली पड़ी हैं, जैसे बाप से कोई रियासत पट्टे पर चढ़ाकर साथ लाई हो।” कहते हुए एक लात जमा देता—“निर्लज्ज-बेहया-फूहड़, चल उठ! सूरज सर पर आ गया है और मलकाजी अभी तक सो रही हैं!…”
और नोंक-झोंक, तू-तड़ाक से एक और दिन की शुरूआत हो जाती।
चपत-चपाती
अंजना अनिल
कक्षा पाँच।
हिन्दी का पीरियड।
“चपाती पर कुछ पंक्तियाँ कहो।” मास्टर साहब बोले।
कई हाथ एक साथ उठ खड़े हुए, मगर उमेश निर्जीव-सा बैठा रहा।
“नालायक! एक तू ही है जिसे कुछ नहीं आता…खड़ा हो और बता।”
उमेश बेबस-सा उठा और नीची निगाहें किए बोल उठा—“मास्साब! माँ बीमार है…बरतन माँजने नहीं जा सकी…पैसे नहीं आए…आटा नहीं था। चपाती नहीं बनी…” बोलते-बोलते उमेश रुआँसा हो उठा।
लड़के हँसने लगे।
“चुप्…बहुत हो चुका…बैठ जा!” मास्टर साहब ने तड़-से उसे एक चपत पिला दी।
राधा नाचेगी
गोविन्द गौड़
लड़की की शादी कर देने के बाद उसका परिवार आर्थिक-तंगी महसूस करने लगा था। परिवार का मुखिया स्वयं ही तो था—एकमात्र कमाने वाला। लड़की की शादी से पहले सब अपनी पसंद का खाते-पहनते थे; लेकिन अब वह स्वतन्त्रता कर्जे के कारण उनसे छिन गई थी। बच्चे लोग मुँह फुलाए रहने लगे थे। यहाँ तक कि उसकी पत्नी स्वयं भी स्थिति को समझे बिना बच्चों के अभावों को बार-बार गिनाने लगी थी।
उसने स्वयं अपने परिश्रम से अपने परिवार के लिए सब सामान्य सुविधाओं का जुगाड़ किया था। कुछ ज्यादा ही स्वाभिमानी होने के कारण, पैतृक-सम्पत्ति में से उसने कुछ नहीं लिया। कुछ अचल सम्पत्ति उसके नाम, उसके पिता ने कर भी दी तो भाइयों ने कब्जा कर लिया। तिस पर ॠण-स्वरूप भी उसे उन लोगों से सहयोग नहीं मिला था। सरकारी नौकरी में अध्यापक के पद पर था वह। वह जानता था कि इस तनावपूर्ण स्थिति के लिए उसकी पत्नी जिम्मेदार है; क्योंकि उसने बच्चों को मानसिक रूप से अभावग्रस्त-स्थिति से निपटने के लिए तैयार नहीं किया था।
एक दिन यह काम उसने स्वयं कर डाला। पत्नी समेत बच्चों को अपने पास बिठाया और उन्हें समझाने का प्रयास किया कि देखो, यह आर्थिक-तंगी सामयिक है। दो-एक साल बाद लड़के की शादी करेंगे ही। कुछ-न-कुछ भरपाई तो हो ही जाएगी। मेरे रिटायरमेंट में भी पाँचेक साल ही बाकी हैं। कम्यूटेड पेंशन, जी पी एफ, स्टेट इंश्योरेंस ग्रेच्युयटी, लीव इनकैशमेंट आदि मिलाकर कोई तीन लाख तो मिल ही जाएगा। तुम लोग असहाय नहीं हो। खुदा-न-खास्ता नौकरी में रहते हुए, किसी कारण मैं चल बसता हूँ तो दो लाख तक की सहायता-राशि अलग मिल सकती है। थोड़ा धैर्य-साहस से काम लो। वक्त हमेशा एक-सा थोड़े न रहता है।
और वह आश्वस्त हो लिया था—अब सब सहज हो जाएगा।
लेकिन नहीं। यह जानकर अफसोस होना स्वाभाविक है कि स्थिति अब और-जटिल हो गई थी। अब तो परिवार ही संवाद-शून्य हो गया था। जमाना बदला है, और इस बुरी कदर बदला है कि अर्थ ही अब लोगों का माई-बाप हो गया है। लोग संवेदन-शून्य हो गये हैं। अपने बड़े बेटे, जिसकी धमनियों में उसका अपना खून बह रहा है, के मुँह से यह सुनकर तो उसके पैरों-तले की जमीन ही खिसक गई कि यह बुड्ढा मरे तो ही मेरे सपने साकार हो सकते हैं। मैं कैसे इंजीनियरिंग में दाखिला ले सकूँगा? दो लाख तो डोनेशन ही देने पड़ जाएँगे। न तो मण तेल होगा न राधा नाचेगी।
क्लास लेने के बाद वह स्टाफ-रूम में आकर कुर्सी में धसक गया। नाचेगी बेटे, राधा नाचेगी—वह बुदबुदाया और उसके सीने ने धड़कना बंद कर दिया।
राजस्थान पर केन्द्रित अंक अच्छा है । बिखरे सूत्रों को समेटने का प्रयास लघुकथा की श्रीवृद्धि करेगा ।
ReplyDeleteकाम्बोज
प्रिय बलराम,
ReplyDeleteजनगाथा का नया अंक राजस्थान की लघुकथाओं पर केन्द्रित करके तुमने वहां के लघुकथाकारों जो महत्व प्रदान किया है वह श्लाघनीय है. महलान जी और तुम्हे बधाई.
चन्देल
भाईश्री काम्बोजजी व चन्देलजी, उत्साह बढ़ाने के लिए धन्यवाद। भाई एस आर हरनोट ने भी मेल किया है। उसका अंश प्रस्तुत है:
ReplyDeletepriy bhai
aapka blog bahut achha hai. aapne bahaut achhi laghu kathayon ka sangrah kiya hai.
aapka
es aar harnot
हरनोटजी का भी धन्यवाद।
राजस्थान की लघुकथा रचना पर केन्द्रित एक श्रेष्ठ अंक और लघुकथा पर एक गम्भीर कार्य जो ब्लॉग पर दुर्लभ है।
ReplyDeleteएक साथ इतनी रचनाएं देखकर मजा आ गया।
ReplyDelete----------
तस्लीम
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