-->
प्रिय पाठकगण,
नया साल आपके जीवन को नई स्फूर्ति से भर दे। समृद्धि सदैव बनी रहे और उन्नति के मार्ग हमेशा खुले रहें।
27 दिसम्बर, 2007 को हमने लघुकथा समालोचना और रचना पर केन्द्रित ‘जनगाथा’ का शुभारम्भ किया था। जनवरी, 2009 से ‘समकालीन लघुकथा’ नाम से एक अन्य ब्लॉग सिर्फ लघुकथाओं के लिए प्रारम्भ किया है। इसे आप दायीं ओर हमकदम शीर्ष तले दिए गए लिंक ‘समकालीन लघुकथा’ पर क्लिक करके आसानी से पढ़ सकते हैं। आशा है कि लघुकथा के लेखकों-पाठकों-अध्येताओं को ‘जनगाथा’ के साथ-साथ ‘समकालीन लघुकथा’ का अंक भी पसंद आयेगा।
दिसम्बर 2008 से हमने मालवा-अंचल के लघुकथा-लेखन से परिचित कराना प्रारम्भ किया है।
इसी दौरान मध्य प्रदेश के ही निमाड़-अंचल के श्रमशील लेखक श्रीयुत जगदीश ‘जोशीला’ ने हिन्दी के 44 चुनिंदा कथाकारों की कुल 132 लघुकथाओं का निमाड़ी-बोली में पुस्तकाकार अनुवाद प्रस्तुत किया है—‘निमाड़ी मऽ हिन्दी की खास नानी वार्ता नऽ’ नाम से। ‘जोशीला’ जी के अनुसार प्रस्तुत पुस्तक देश की बोलियों में लघुकथाओं का प्रथम अनुवाद है। बेशक, हिन्दी लघुकथाओं ने भारत की लगभग हर भाषा तक अपनी पहुँच बनाई है। जर्मनी की डॉ इरा वलेरिया सरमा को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से भारतीय भाषा के इतिहास और दक्षिण एशियाई अध्ययन के अन्तर्गत ‘हिन्दी कला और साहित्य में अभिव्यक्ति की नवीन गद्यात्मक शैली का ऐतिहासिक व साहित्यिक विश्लेषण’(A Historical and literary Analysis of Modern Hindi Prose Genre) विषय मिला, जिसका आधार उन्होंने हिन्दी लघुकथा को बनाया। भारतीय विशेषकर हिन्दी लघुकथा-साहित्य पर केन्द्रित उनका शोध-प्रबंध 344 पृष्ठीय अंग्रेजी आलोचनात्मक पुस्तक के रूप में ‘द लघुकथा’ नाम से 2003 में बर्लिन के प्रकाशन संस्थान वॉल्टर डि ग्रूते(Walter de Gruyter) से प्रकाशित हो चुका है और उसमें देशभर के चर्चित-अचर्चित सैकड़ों लघुकथाकारों की लघुकथाओं को संदर्भ के रूप में उद्धृत किया गया है। यह पुस्तक कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस के अनुमोदन पर छपी है। वर्तमान में इसका मूल्य लगभग 158 अमरीकी डॉलर उल्लिखित है। तात्पर्य यह कि लघुकथा ने निमाड़-अंचल से लेकर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी तक का सफर सफलतापूर्वक तय कर लिया है।
लघुकथा के क्षेत्र में आज भले ही बहुत अधिक हो-ल्ला नहीं मच रहा है, लेकिन काम लगातार हो रहा है। एक और अच्छी खबर यह है कि अजमेर की डॉ शकुन्तला ‘किरण’ द्वारा सम्पन्न लघुकथा का हिन्दी का पहला शोध-ग्रंथ ‘हिन्दी लघुकथा’ अपनी स्वीकृति(1981) के लगभग 27 वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद अब प्रकाशित हो गया है। 256 पृष्ठीय यह ग्रंथ लघुकथा-आन्दोलन और समकालीन-लघुकथा से जुड़े अनेक पहलुओं को समझने के लिए एक आवश्यक पुस्तक है। लघुकथा के इस विकास और सफलता के पीछे जिन हजारों जुझारू लेखकों का श्रम छिपा है, उन सभी को हमारा नमन। –बलराम अग्रवाल
समय के साथ चलते मालवांचल के लघुकथाकार
सूर्यकांत नागर
(गतांक से आगे)
मालवा के ग्रामीण जन-जीवन के चितेरे, मालवी संस्कारों में रचे-बसे कथाकार चन्द्रशेखर दुबे, जिनका जनवरी 2005 में 80 वर्ष की आयु में देहावसान हुआ, ने बहुत अच्छी लघुकथाएँ लिखी हैं। निश्छल ग्रामीण-जन की तस्वीर उकेरने में वह सिद्धहस्त थे। शहरी बाबू की ठसक की तुलना में गाँव का व्यक्ति अधिक सहज, सरल एवं शालीन होता है, इस तथ्य को उनकी ‘फासला’ लघुकथा में रेखांकित किया जा सकता है। बिना किसी शिल्प-वैभव के अपनी बात को प्रभावी ढंग से कहने में दुबेजी माहिर थे। उनकी अन्य महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं—उनका स्नेह, फालतू बातें, राँग नम्बर, ये शब्द आदि।
मूलत: इंदौर निवासी, फिलवक्त मनावर में पदस्थ बैंक-अधिकारी, श्री सतीश राठी पिछले ढाई दशक से लघुकथा-विधा से गहराई से जुड़े हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखने वाले, लघुकथा को समर्पित राठी ‘क्षितिज’ वार्षिकी का सम्पादन करते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीसरा क्षितिज, मनोबल, समक्ष लघुकथा-संकलनों का संपादन किया है। उनकी अनेक लघुकथाओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनकी कुछ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं—नियति, कंसलटेंसी, आग्रह, कुत्ता, खुली किताब आदि।
सुरेश शर्मा ने शुरुआत कहानी-लेखन से की थी। उनके कुछ एकल और कुछ संपादित कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं; लेकिन जल्दी ही उन्हें लगा कि कहानी के बजाय वे लघुकथा में अपने भावों को और भी सशक्त ढंग से अभिव्यक्त कर सकते हैं, और शायद इसीलिए उन्होंने पूरे समर्पण भाव से इस दिशा में अपना रुख कर लिया। आज उनकी गिनती देश के प्रमुख लघुकथाकारों में होती है। अनुभव से उपजी उनकी लघुकथाएँ वैचारिक और सांकेतिक हैं। एक व्यंग्य दृष्टि भी वहाँ स्पष्ट नजर आती है। एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य था—‘समान्तर’ पत्रिका के वृह्द लघुकथा-अंक(2001) का संपादन, जिसे सुरेश शर्मा एवं डॉ इसाक ‘अश्क’ ने संयुक्त रूप से संपादित किया। इसमें देशभर के 126 लघुकथाकारों की कथाएँ संकलित हैं। ‘त्रिवेणी’ लघुकथा-संकलन में भी सुरेश शर्मा की कीटाणुनाशक प्रतिनिधि लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। इज्जत, संस्कार, घर और मकान, माँ और माँ, बन्द दरवाजे आदि उनकी उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं।
ख्यातिलब्ध ललित निबन्धकार एवं प्राचीन चित्रकला के अध्येता नर्मदाप्रसाद उपाध्याय का अधिकांश कार्यकाल इंदौर-उज्जैन में रहा है। इन दिनों भी वे इंदौर में हैं। सन 1977 में उन्होंने नरेन्द्र मौर्य के साथ ‘समान्तर लघुकथाएँ’ का संपादन किया था जिसमें कमलेश्वर, नरेन्द्र कोहली, रमेश बतरा, हिमांशु जोशी, कमल गुप्त और हरिशंकर परसाई जैसे दिग्गजों की लघुकथाएँ शामिल थीं। उपाध्यायजी ने पेट, मूल्यों के लिए, शीर्षक, पश्चाताप जैसी अविस्मरणीय लघुकथाओं की रचना की है। डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ल ने बहुत बाद में लघुकथाएँ लिखना प्रारम्भ किया, लेकिन वे इन दिनों काफी तेजी से लघुकथाएँ लिख रहे हैं और थोड़े ही समय में उन्होंने स्वयं को प्रतिभाशाली लघुकथाकार के रूप में स्थापित कर लिया है। चूँकि शुक्लजी प्राध्यापक हैं, अत: उनकी अनेक लघुकथाएँ शिक्षा-जगत से संबंधित हैं। ‘ईमान का इनाम’ और ‘चीख’ को उनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ कहा जा सकता है। हालाँकि श्रीराम दवे द्वारा संपादित संकलन ‘त्रिवेणी’ विख्यात लघुकथाकार बलराम अग्रवाल ने लिखा है—‘डॉ शुक्ल किसी बात को ‘अंडर करंट’ नहीं करते। सब-कुछ साफ-साफ कह देते हैं।’ डॉ शुक्ल के सद्प्रयासों से एक अभिनव आयोजन शासकीय कला एवं वाणिज्य विद्यालय, इंदौर में लघुकथा के विचार-पक्ष पर हुआ था। इसमें साहित्यकार और जिलाधीश मनोज श्रीवास्तव, प्रकाशक-लेखक मधुदीप(दिल्ली), ख्यात लघुकथाकार डॉ कृष्ण कमलेश(भोपाल), सूर्यकांत नागर और स्वयं डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ल ने शिरकत की थी। इसमें मनोज श्रीवास्तव ने लघुकथा को परिभाषित करते हुए कहा था कि यदि उपन्यास सर्च-लाइट है, कहानी स्पॉट-लाइट है तो लघुकथा लेज़र-लाइट है जो घाव करने के साथ-साथ उपचार भी करती है। श्री शुक्ल का लघुकथा-संग्रह ‘शपथ-पत्र’ (1999) भी चर्चित रहा। बाद में मराठी भाषा में भी उसका अनुवाद हुआ।
‘त्रिवेणी’ के तीसरे लघुकथाकार हैं प्रतापसिंह सोढ़ी। वे भी लम्बे समय से लघुकथाएँ लिख रहे हैं। सोढ़ीजी गहन चिन्तन-दृष्टि के स्वामी हैं। वे भारतीय संस्कृति के पोषक हैं, लेकिन अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के खिलाफ। उनका भरोसा संकेतात्मकता में है। उनकी संरक्षण, तस्वीर बदल गई, जूते आदि लघुकथाएँ हमें दूर तक सोचने को मजबूर करती हैं।
एक और रचनाकार जिसके अल्प और विनम्र योगदान को याद रखा जा सकता है, वह है इन पंक्तियों का लेखक। ‘काली माटी’ के संपादक सुरेश शर्मा के शब्दों में—श्री सूर्यकांत नागर पिछले तीन दशक से सक्रिय हैं। मनुष्य के दोहरे और दोगलेपन तथा उसकी कथनी-करनी के भेद को उजागर करने की व्याकुलता उनकी लघुकथाओं में देखी जा सकती है। नैतिक और मानवीय मूल्यों के प्रति आग्रह भी उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। डॉ सतीश दुबे के साथ लघुकथा-संकलन ‘प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ का तथा गजानन देशमुख के साथ मध्य प्रदेश के 52 लघुकथाकारों की लघुकथाओं का संकलन ‘तीसरी आँख’ का उन्होंने संपादन किया है। लघुकथा विधा के सिद्धांत-पक्ष पर उनके अनेक आलेख प्रकाशित हुए हैं। उनकी लघुकथाओं का मराठी, पंजाबी और सिन्धी में अनुवाद हुआ है। हाल ही में किताबघर(दिल्ली) से उनकी लघुकथाओं का संग्रह ‘विषबीज’ (2006) आया है। उन्होंने प्रतिष्ठित समाचार-पत्र ‘नई दुनिया’ में बहैसियत उप-संपादक आठ वर्षों तक निरन्तर लघुकथाओं को स्थान दिया। यह उल्लेख अप्रासंगिक न होगा कि अनेक नए रचनाकारों ने अपनी लघुकथाओं के लेखन का प्रारम्भ ‘नई दुनिया’ से ही किया था।
इंदौर के ही अशोक शर्मा ‘भारती’ के योगदान को भी कम करके नहीं आँका जा सकता। उन्होंने अनेक यादगार लघुकथाएँ लिखने के अतिरिक्त अपनी माँ की स्मृति में लघुकथा-प्रतियोगिता का आयोजन भी किया था। प्राप्त 161 लघुकथाओं को ‘तलाश जारी है’(1988) शीर्षक पुस्तक में संकलित किया था। प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार खण्डवा के लखन स्वर्णिक को तथा तृतीय पुरस्कार दिल्ली के कमल चोपड़ा को मिला था। रोजगार, सबक, तब क्या होगा, आदमी आदि भारतीजी की महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं। इसी क्रम में राजेन्द्र पाण्डेय का नाम भी काबिले-जिक्र है, हालाँकि इन दिनों वे कम सक्रिय हैं। चरणसिंह अमी लघुकथा के नियमित लेखक नहीं हैं, लेकिन पूर्व में उन्होंने उम्दा लघुकथाएँ लिखी हैं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। वे एक अच्छे कवि, कला-समीक्षक और संपादक हैं। वे ‘चित्रावण’ और ‘इबारत’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी करते हैं। उन्होंने कुछ वृत्त-चित्र भी बनाए हैं। रमेश अस्थिवर अत्यन्त स्वाभिमानी, आत्मविश्वासी और दृष्टि-सम्पन्न रचनाकार हैं। अनेक सार्थक लघुकथाएँ लिखने के अलावा उन्होंने लम्बे समय तक ‘शब्दवर’ पत्रिका का संपादन किया और उसमें लघुकथाओं को पर्याप्त स्थान दिया। ‘आदमी’(1989) उनकी लघुकथाओं का संग्रह है।
चैतन्य त्रिवेदी का नाम लघुकथा की दुनिया में अचानक विद्युत की भाँति कौंधा। मूलत: कवि और व्यंग्यकार श्री चैतन्य त्रिवेदी ने आर्य स्मृति सम्मान(किताबघर, दिल्ली) से अलंकृत होने से पूर्व उजागर रूप से कोई लघुकथा नहीं लिखी थी। पहले ही स्ट्रोक में उन्होंने अपनी प्रतिभा और अभिव्यक्ति-कौशल का जो परिचय दिया, उसने सभी को चौंका दिया। उनके पुरस्कृत लघुकथा-संग्रह ‘उल्लास’(2000) की लघुकथाओं ने लघुकथा के बँधे-बँधाए ढाँचे को ध्वस्त किया है। उनका रचना-विधान विलक्षण है। उनकी लघुकथाएँ सांकेतिक और काव्यात्मक हैं। दास साहब का कुत्ता, जूते और कालीन, उस दिन मांडव में, खुलता बन्द घर, टी वी वाले भैया आदि उनकी उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं।
कम किन्तु अच्छा लिखने वाले और प्रचार से दूर रहने वाले एक लघुकथाकार हैं—हिन्दीतर भाषी, इंदौर के ही एन उन्नी। कथाकार-पत्रकार बलराम और कथाकार-संपादक बलराम अग्रवाल दोनों ही उन्नीजी की लघुकथाओं से बेहद प्रभावित हैं। उन्नीजी की कुछ अच्छी लघुकथाएँ हैं—कबूतरों से भी खतरा है, सर्कस, तलाश आदि। हिन्दी में लिखने वाले मालवा-अंचल के दूसरे हिन्दीतर भाषी लघुकथाकार हैं—राजेन्द्र काटदरे। उन्होंने समय-समय पर अनेक विचार-प्रधान लघुकथाएँ रची हैं। लघुकथा के प्रति उनके समर्पण-भाव का ही परिणाम है कि उन्होंने ‘हिन्दी लघुकथा डॉट कॉम’ नाम से वेबसाइट शुरू की हुई है। पिछले दिनों उन्होंने अपने माता-पिता की स्मृति में ‘लघुकथा-कथन’ का आयोजन भी किया था, जिसमें डॉ सतीश दुबे, सुरेश शर्मा, सूर्यकांत नागर और देवेन्द्र होलकर ने अपनी-अपनी लघुकथाओं का पाठ किया था। काटदरेजी की महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं—नशा, बचत, गुस्सा, चोरी और आतंकवादी। देवेन्द्र होलकर के नाम से याद आया कि मालवा-अंचल से वह तीसरे हिन्दीतर भाषी कथाकार हैं जो लघुकथाएँ लिखते रहते हैं। समाज सेवा, व्यापार, युक्ति और तरकीब उनकी उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं। वैसे, देवेन्द्र होलकर की ख्याति एक सजग पत्र-लेखक के रूप में भी है।
मोबाइल:09893810050
(शेष आगामी अंक में)
लघुकथाएँ
औकात
एन उन्नी
कबाड़ की माँग बढ़ रही है। कबाड़ की कीमत बढ़ रही है। कबाड़ से नए-नए सामान बनकर मण्डी पहुँच रहे हैं। कुल मिलाकर कबाड़ की इज्जत काफी बढ़ गई है।
इस ज्ञान के साथ घर का अति-सूक्ष्म निरीक्षण किया तो पाया कि कमरे कबाड़ से भरे पड़े हैं। एक-साथ दे नहीं सकते, क्योंकि कॉलोनी में एक ही कबाड़ी आता है। कबाड़ ले जाने के लिए उसके पास एक ही ठेला है। मैंने कबाड़ को इकट्ठा किया। भाव करके किश्तों में कई बार ठेला भर दिया। कबाड़ी की खुशी देखते ही बनती थी। आखिर में, जब घर खाली हुआ और मुझे खाने को दौड़ा, तो कबाड़ की अन्तिम किश्त के रूप में मैं स्वयं ठेलागाड़ी पर आसीन हो गया। मजाक समझकर कबाड़ी हँस दिया। कहने लगा, “कबाड़ की कीमत आप जानते ही हैं और आप की भी। आप कृपया उतर जाइए।”
मैं उतर गया और वह चला गया। उस निर्दयी कबाड़ी की चाल मैं चुपचाप देखता रहा। सोचता रहा कि—आखिर मेरी औकात क्या है?
सम्पर्क:09893004848
चालाकी
चैतन्य त्रिवेदी
साहूकार ने कहा, “ब्याज में तुम्हारा खून पी जाऊँगा।”
“ठीक है, लेकिन एक शर्त पर!” कर्जदार भी कम नहीं था।
“कैसी शर्त?”
“जो खून पानी-पानी हो जाएगा…”
“ठीक है, उसे छोड़ दूँगा।”
अन्त में साहूकार को थक-हार कर अपने मूल पर सन्तोष करना पड़ा।
सम्पर्क:0731-2794711
गन्दी दीवारें
देवेन्द्र गो होलकर
अंजना और मैं पक्की सहेलियाँ थीं। दोनों ने साथ-साथ स्नातक किया। स्नातक होते ही मेरे हाथ पीले कर दिए, परन्तु अंजना की पढ़ाई जारी रही। हफ्ते-दो हफ्ते में अंजना मेरे घर आ जाती थी, तब हम दोनों खूब बातें किया करते थे। समय व्यतीत होता गया। मैं दो बच्चों की माँ बन गई। अंजना जब भी मेरे घर आती, मेरे घर को व्यवस्थित करने की सलाह अवश्य देती। वह हमेशा कहती—“सुनीता, तुमने अपने बॉबी को सिर पर बैठा रखा है। देखो, उसने सारे कमरों की दीवारों पर पेंसिल से आड़ी-तिरछी लाइनें खींचकर उन्हें गन्दा कर रखा है।”
अब मैं अंजना को कैसे समझाऊँ कि मेरी बड़ी लड़की टीनू जब भी अपना होमवर्क करने बैठती है, बॉबी भी कॉपी-पेंसिल की जिद करता है और वह कॉपी सहित दीवारों को आड़ी-तिरछी लाइनों से खराब कर देता है।
अंजना की शादी हो गई। वह अपने पति के साथ दूसरे शहर चली गई। पाँच वर्षों बाद ज्ञात हुआ कि अंजना के पति का तबादला भी इसी शहर में हो गया है। बहुत प्रसन्न्ता हुई कि चलो, अब दोनों सहेलियाँ एक ही शहर में रहेंगी।
शीघ्र ही अंजना मेरे घर आई तो हम दोनों प्रसन्नता से मिलीं। उसने पूर्ववत मेरे घर का मुआयना किया तो घर को व्यवस्थित पाया। दीवारों पर नया रंग चढ़ा दिया गया था। मैंने कहा,“अंजू, अब घर ठीक है? दीवारें भी साफ-सुथरी हैं। अब हमारा बॉबी बड़ा हो गया है, अब वह दीवारें गन्दी नहीं करता। तुम सुनाओ, तुम्हारे कितने बच्चे हैं?” मेरा प्रश्न सुनकर उसके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ खिंच गईं। उसने ठण्डी साँस भरकर कहा—“सुनीता, अपनी किस्मत ऐसी कहाँ कि कोई घर की दीवारों को गन्दा करे! सुनीता, वास्तव में तुम्हारे घर की वे दीवारें कितनी सुखद अनुभूति देती थीं जो तुम्हारे लाड़ले बॉबी ने आड़ी-तिरछी लाइनों से चितर दी थीं। अब मेरी एक ही अभिलाषा है—कोई नन्हा मेरी गोद में आए, वह मेरे व्यवस्थित घर को अव्यवस्थित करे, दीवारों पर अपने नन्हें-नन्हें हाथों से आड़ी-तिरछी लाइनें खींचे!”
अंजना के शब्द मेरे कानों में अभी भी गूँज रहे थे—बच्चों वाला अव्यवस्थित घर बिन बच्चों वाले व्यवस्थित घर से कहीं ज्यादा अच्छा है।
सम्पर्क:0731-2484452
बचत
राजेन्द्र वामन काटदरे
जब बहुत देर ताक वो भिखारी मकान के सामने खड़ा हो एकाध रोटी के लिए मिन्नतें करता रहा तो मकान-मालिक गुस्से से फूट पड़ा—“अब आगे जाते हो या गालियाँ निकालूँ? साले काम-धाम को कहेंगे तो अभी नानी याद आ जाएगी। फोकट की रोटी चाहिए तुम लोगों को।”
“साबजी, कुछ काम हो तो बता दीजिए, कर दूँगा।” भिखारी गिड़गिड़ाते हुए बोला, “दो दिन से पेट में कुछ नहीं गया है।”
“चल, आँगन बुहार दे, एक रुपया दूँगा।” मकान-मालिक बोला।
“ठीक है बाबूजी।” भिखारी ने हामी भरी।
तभी मकान-मालकिन बाहर आई और मकान-मालिक से गुरगुराते हुए बोली, “आँगन-वाँगन साफ करवाने की कोई जरूरत ना है।”
“देखो, कितना गन्दा हो रहा है। सिर्फ…एक रुपए में…” मकान-मालिक ने कुछ कहने की कोशिश की।
मकान-मालकिन आवाज धीमी करते हुए बोली, “बड़े दानवीर कर्ण बन रहे हो! अरे जानते भी हो कि ऐसे ही लोग चोरी-चकारी करते हैं। दिन में काम के बहाने घर देख जातेअ हैं और रात में हाथ साफ कर जाते हैं।” फिर कुछ सोचकर वो बोलीं, “वैसे आँगन गन्दा तो हो ही रहा है…ये आशा भी दिनभर जाने क्या करती रहती है!”
और उन्होंने रुपया बचाते हुए अपनी बहू को आवाज लगा दी।
सम्पर्क:0731-2592977
क्लीन-सिटी
सतीश राठी
उस सुबह नगर की सारी गन्दगी पर जैसे बर्फ की चादर पड़ गई थी। नागरिक अपने-अपने घरों में ऊँघते हुए पड़े थे। नगर के प्रथम नागरिक माननीय महापौर महोदय एक वातानुकूलित कार में, बाहर से आए हुए उस प्रतिनिधि-मण्डल को लेकर नगर-भ्रमण पर निकले थे, जिसे विभिन्न नगरों में से चयन कर, किसी एक नगर को ‘क्लीन-सिटी’ का पुरस्कार देना था।
कार की खिड़कियों पर काले शीशे चढ़े हुए थे। गन्दी बस्तियों को पीछे छोड़ते हुए, कार उस प्राचीन महल के दरवाजे पर आकर रुकी जहाँ कभी प्राचीन राजवंश के महाराजा रहा करते थे। उस विशाल महल में लकड़ी के घूमते फर्श पर लगी विशाल डाइनिंग टेबल पर प्रतिनिधि-मण्डल के लिए शाही लंच की व्यवस्था थी। लंच के बाद प्रतिनिधि-मण्डल विशेष रूप से सजाई गई सड़कों से बन्द कार में गुजर गया। नदी, जो एक बदबूदार नाले में बदल चुकी थी, उसके पास के मार्ग से उन्हें ले जाया गया। कालोनियों में मल से भरी नालियाँ, स्वच्छंद विचरण करते सुअर, नल से वितरित होने वाला कीड़े-युक्त पानी और धुएँ से प्रदूषित होती हवा वाले क्षेत्रों से उन्हें बचाया गया।
रात्रि को शाही रेस्ट-हाउस में बातें हुईं। बोतलें खुलीं। सूटकेसों के आदान-प्रदान हुए। अगले दिन के समाचार-पत्रों में उस नगर के ‘क्लीन-सिटी’ का पुरस्कार जीतने की घोषणा कर दी गई।
समाचार पढ़कर जिन मकानों के नालों में बदबूदार गटरों से गुजरकर कीड़े-युक्त पानी बूँद-बूँद टपक रहा था, उनके रहवासियों ने चिकौटी काट-काट कर अपने शरीर की चमड़ी लाल कर ली कि कहीं वे स्वप्न तो नहीं देख रहे!
लेकिन, जिन लोगों की चमड़ी मोटी और रक्त का रंग सफेद हो चुका था, वे सब उन ऊँघते हुए नगरवासियों को बधाई देते हुए जश्न मना रहे थे।
सम्पर्क:09893164272
चौकीदार
संतोष सुपेकर
मैं सामने के मकान में, हाल ही में रहने आए उस वृद्ध को रोज देखता हूँ। खाँसता, कराहता वह कमजोर-सा व्यक्ति, अलस्सुबह से देर रात तक, न केवल एक कुर्सी डाले घर के बाहर ही बैठा रहता है; बल्कि कई बार तो खाना भी बाहर ही बैठकर खाता है। उसके परिवार में उसके अलावा, जवान नौकरीपेशा बेटा और नवविवाहिता बहू के सिवा कोई और दिखता नहीं है।
एक दिन मैंने पूछा,“बाबा, पहले आप क्या करते थे? मतलब, नौकरी…धन्धा…?”
“बेटा, पहले भी मैं चौकीदार ही था एक फैक्ट्री में।”
“पहले भी…क्या मतलब? क्या अभी भी आप…?”
“बेटा,” मेरी बात काटता वह बोला, “पहले आठ घंटे ही करता था, अब पन्द्रह-सोलह घंटे की चौकीदारी करता हूँ। दिनभर बहू घर में अकेली होती है, इसलिए…और शाम को बेटा आने के बाद, वे दोनों चार-पाँच घंटे घूमने जाते हैं, इसलिए!”
सम्पर्क:09302237914
मूल्यों के लिए
नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
वे बेहद मोटे थे। इतने कि चला भी नहीं जाता था। वे चलते नहीं, लुढ़कते थे। उन्हें चलते देखकर लगता जैसे किसी गोल-मटोल तकिए के पाँव लगे हों। वे बोलते तो उनका बोलना समझ नहीं आता और जनता बोलती तो उन्हें सुनाई नहीं देता। उनके पास सारी ज्ञानेन्द्रियाँ थीं, लेकिन ऐसी जैसे किसी मिट्टी की मूरत पर कान और नाक चिपका दिए गए हों। मगर उनका बहुत सम्मान था। जनता के लिए वे श्रद्धेय थे, पूजनीय थे, वन्दनीय थे।
वे मूल्यों के लिए जीवित थे।
उसी शहर में एक ऐसा जीव भी था, जिसे गलती से इन्सान मान लिया गया था। उसके पास पहनने को कपड़े नहीं थे। खाने को अनाज नहीं था। उसे सुनने के लिए जनता नहीं थी। दीनता अपने चरम को छूती थी उसके व्यक्तित्व में।
वह मूल्यों के लिए मर रहा था।
सम्पर्क:0731-2363449
प्रिय बलराम,
ReplyDeleteलघुकथा पर तुम्हारा अध्ययन प्रशंनीय है. इस मायने में जनगाथा का प्रकाशन महत्वपूर्ण है,जो अपने किस्म की ऎतिहासिक ब्लॉग पत्रिका बन गया है.
बधाई,
चन्देल
लघुकथा पर केन्द्रित आपके चिट्ठे को देखकर अपार हर्ष हो रहा है। ऐसे ही अनेकानेक प्रयत्नों से हिन्दी का हित सधेगा। विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ जब अपने-अपने क्षेत्र के ज्ञान-विज्ञान को हिन्दी में संग्रहित करना एवं उस पर विचार-विमर्श करना आरम्भ कर देंगे तो हिन्दी का भविष्य सुनिश्चित रूप से उज्ज्वल होगा।
ReplyDelete