Tuesday, 23 August 2022

डॉ. दीपक मशाल (ओहायो, अमेरिका ) की चार लघुकथायें

।।1।।

कब तक

बहुत खिन्न मन से घर पहुँचा था वह। मैच हारने के बाद से लगातार बड़बड़ाए जा रहा था। गुस्से का एक बड़ा हिस्सा बल्ले पर भी उतारा गया था।

उसका ख्याल था कि, 'अगर वह खुद ऐन वक्त पर आउट ना होता तो उसकी टीम को जीतने से कोई नहीं रोक सकता था।' बाथरूम में फव्वारे के नीचे ठण्डा होते हुए भी कितनी बार दीवार पर घूंसे बरसाए !

नहाकर बाहर निकलते-निकलते अशांत मन दूसरों पर दोष मढ़ने लगा था। उसने तौलिए से बाल रगड़े और दाँत भींचकर कह उठा, "वही बॉल यार्कर डालनी थी उस मादर...।"

अचानक ठिठका वह, जब देखा कि माँ इस्तरी की हुई शर्ट उसे देने के लिए सामने खड़ी थीं। 

"सॉरी मॉम!" कहकर उसने नज़रें फेर लीं।

"कोई बात नहीं बेटा, हम माँ-बहनें और होती किसलिए हैं! किसी मैच में जब तुमने किसी बॉलर को टारगेट बनाया होगा, तो उसने भी घर जाकर हमें यूँ ही तो याद किया होगा।" कमरे से बाहर जाती माँ ने उदास और मद्धिम स्वर में  कहा।

।।2।।

औरों से बेहतर

मधुबाला को चीड़घर से घर पहुँचते-पहुँचते देर शाम हो गई थी। मगर सिर्फ कटा-फटा जिस्म था, रूह तो पिछली रात ही उसका साथ छोड़ गई थी। उसे इस तरह देखना बाकी सखियों के लिए जीवन में एक और नर्कगुफा से गुजरने का-सा था। यूँ तो पूरे कुनबे के लिए ये मुश्किल घड़ी थी, लेकिन परिवार की मुखिया होने के नाते डिम्पल और शबनम के लिए यह अग्नि परीक्षा का समय था।

हमेशा यही कहती थी मधुबाला, “बोलते रहें, जिसे जो बोलना है बहन, मैं तो हर जनम ऊपरवाले से यही अधूरी देह चाहूंगी।"

"ऐसे अपशकुन नहीं भांखते री, गैरज़रूरी होकर दुनिया में जीने का दर्द तू न जानती क्या!! क्यों बार-बार इसी जहन्नुम में आना चाहती है? 

और हर बार कोई न कोई ऐसा ही कुछ समझाता था उसे। वह जवाब में कुछ बड़बड़ाती तो थी, लेकिन क्या? यह साफ समझ नहीं आया कभी।

बीती रात बाहर वाले कमरे में सोई थी मधुबाला; और अचानक घर के पास वाले खंडहर से गूं-गूं की आती आवाज़ सुन उधर भागी गई थी। जाकर देखा तो चार साल की मासूम का मुँह दाबे एक शैतान अपने नापाक इरादों को अंजाम देने की फिराक में था। बच्ची को बचाने के लिए पास पड़ी आधी ईंट उस हैवान के सिर पर दे मारी थी उसने। दर्द से बिलबिलाकर दो पल को वह पीछे हुआ तो, पर अगले ही पल एक छुरा निकालकर मधु के पेट में घुसा दिया था।

चीख-पुकार सुन दूसरे हिजड़े भी दौड़े आए। लेकिन इतना लहू बह चुका था कि मधुबाला बच नहीं पाई। अब फिर से रात गहराने लगी, तो सारी सखियों ने विलाप करना आरम्भ कर दिया। रीति-रिवाज तो लाश को पीटते हुए 'दोबारा हिंजड़े की देह में मत आना' समझाने का था, परन्तु आज यह शुरू करता कौन!

सब एक-दूसरे से नजरें चुरा ही रहे थे कि तभी शबनम कह उठी, "ख़बरदार! कोई हाथ नहीं लगाएगा उसे।"

डिम्पल भी फफकते हुए बोल पड़ी, “हाँ, जाने दो... जाने दो उसे ऐसे ही। फिर इसी रूप में लौटने के लिए। बाकियों से तो यही... 

।।3।।

दास मलूका कह गए

सुबह ज़रा जल्दी अस्पताल पहुँचना पड़ा। सारी दस्तावेजी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थीं। मिस्टर पीटरसन की 'बॉडी' अब उनके पूर्व घरवालों के हवाले थी। पार्थिव देह को यहाँ से उनके हिस्से के शेष घर लौटाना था। कानूनी जटिलताओं और भावनाओं की आपस में अजब गुत्थम-गुत्थी हो रखी थी। मृतक की पत्नी, पत्नी होकर भी पत्नी नहीं थी और न बच्चे, बच्चे। 

चौदह-पंद्रह दिन पहले की एक शाम थी वह। मैं पेशेंट वार्ड में राउण्ड पर था। एक पलंग के पास से  गुजर रहा था कि किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं पलटा तो जाना कि यह आखिरी स्टेज के कैंसर से लड़ रहे मि. पीटरसन थे। 

"डॉक्टर,  तुम भारतीय किस्मतवाले होते हो।"

प्रशंसा सुन मैं 'थेंक्स' कहकर मुस्करा भर दिया था। फिर उनके हाथ पर हाथ रखकर कहा, "आप आराम कीजिए माइक, आपको इसकी जरूरत है।"

पर उन्होंने मेरा हाथ और ज़ोर से भींच लिया, आँखों में आँसू थे। मैं रुक गया। 

"मेरा डिवोर्स हो गया आज डॉक्टर! बत्तीस साल का रिश्ता बच्चे सब..." बाकी के शब्द निकले तो लेकिन धुएँ से। 

मुझे और भी मरीज़ों को देखना था, मगर दिल ने जैसे पैरों पर बर्फ मल दी हो। उन्होंने बोलना जारी रखा, "लेकिन वो बेचारे और करते भी क्या? मेरे सर कर्ज़ा भी तो इतना था। घर, कार, व्यापार के लोन और ऊपर से क्रेडिट कार्ड्स की देनदारी! अलग नहीं होता, तो मेरे बाद सब बीवी-बच्चों के सर आता।"

मैंने खामोशी से दूसरा हाथ उनके कंधे पर रख दिया। उन्होंने पनीली आँखों से मेरी तरफ देखते हुए कहा, "पर उसने वादा किया है कि जब तक मैं हूँ, तब तक तो वह साथ निभाएगी मेरा। बस, कानूनी कागजों में कोई रिश्ता नहीं।"

उन्होंने मेरे हाथ पर से पकड़ ढीली कर दी, जो दर्द बँट जाने का संकेत था। 

"आप अब आराम कीजिए!" कहकर मैं दूसरे कामों में उलझ गया था। 

और आज... आज मौत एक हुई थी, पर मुक्त कई हुए थे।

।।4।।

भावना संक्रमण

सुबह के आठ बजने को थे। मैं चाय छानकर कप में डाल ही रहा था कि तभी पीछे से पत्नी ने आकर पूछा, "मिस्टर कैनी का कोई मैसेज नहीं आया काफी समय से?"

"अरे हाँ, आज सुबह ही तो किया उन्होंने। मैं चाय बनाने में लग गया, तो देखा नहीं।" मैंने कप थमाते हुए कहा। 

पेशे से वकील मिस्टर विल्सन कैनी इस सुदूर देश में हमारे शुरुआती स्थानीय दोस्तों में से एक हैं। हम में एक पीढ़ी का अंतर होने के कारण हम उन्हें पीछे से मि. कैनी ही कहते हैं और सामने से विल्सन। वह और उनकी लेखिका पत्नी हमारे लिए मित्र और अभिभावक दोनों थे। कोरोना ने करीबी रिश्तों को भी अछूत न बना दिया होता, तो इस आधी गर्मी बीत जाने तक हम  सात-आठ बार तो मिल ही चुके होते। अभी सिर्फ संदेशों के माध्यम  से अपनी-अपनी कुशल क्षेम की सूचना देते हैं।

मिसेज कैथी एक दुर्लभ कैंसर के अंतिम स्टेज में हैं। आज मैसेज से मालूम हुआ कि कोविड-19 ने उनकी कीमोथेरेपी के शेड्यूल को बिगाड़ दिया था। यूँ भी ऐसे समय में, बारह-तेरह घंटे कार चलाकर बोस्टन शहर जाना पेंसठ पार इस जोड़े के लिए आसान नहीं था। ऊपर से इस भयावह समय में कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले व्यक्ति के लिए बाहर निकलना, फिर हस्पताल जाना 'आ बैल मुझे मार' जैसा ही था।

उनके बेटे और बहू अमेरिका के ही एक ऐसे प्रदेश में थे, जहाँ से सिर्फ हवाई जहाज से जल्दी पहुंचा सकता था; और ऐसे में हवाई यात्रा भी जोखिम का काम थी।

चाय ख़त्म करते-करते मैंने वापसी के सन्देश में उनको बोस्टन ले जाने का प्रस्ताव रखा। उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया।

लगभग दो घंटे बाद हमारे घर के सामने एक एम्बुलेंस आकर रुकी। खिड़की से बाहर झाँकते हुए हमने जाना कि उसमें मि. कैनी थे। उनके कॉल करने से पहले मैं मास्क हाथ में ले बाहर की ओर भागा।

"आप लोग ठीक तो हैं ना, विल्सन ?"

वह मुस्कुरा रहे थे, देखा तो साथ में मिसेज कैनी भी हाथ हिला रही थीं। मि. कैनी ने एक ठण्डा-सा डिब्बा मुझे थमाते हुए कहा, "इसमें जिंजर आइसक्रीम है, जो तुम्हें पसंद है। कल रात ही बनाई हम बोस्टन के लिए निकल रहे हैं। एक जज मित्र ने इस एम्बुलेंस का इंतज़ाम कर दिया।"

तनिक ठहरकर फिर बोले, "शुक्रिया! पर साथ लेजाकर तुम्हें जोखिम में नहीं डाल सकते। तुम दोनों दुनिया का विस्तार हो हमारे लिए, वह जो अब अमेरिका से भारत तक फैल चुकी है। अपना ख्याल रखना। लौटकर मिलते हैं।" 

उन दोनों की आँखों में आंसू थे.... जिनका कुछ हिस्सा हमारी आँखों से भी आ निकला। ■

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

दीपक मशाल 

ई-मेल : mashal.com@gmail.com 

No comments:

Post a Comment