आज मकान मालिक के घर में पूजा थी, ठीक पिछले साल की तरह । किरायेदार मालती को लगा कि चाची कल कहना भूल गई होंगी. आज ही बुला लेंगी। दरवाजे पर खड़ी आने जाने वाली औरतों के पैर छूने में मशगूल थी... छोटी जो थी सबसे। कॉलोनी की सभी औरतें पहचानती जो थीं मालती को और प्यार भी बहुत करती थीं। सभी औरतें तकरीबन अन्दर आ चुकी थी; पर मालती को किसी ने अन्दर आने को नहीं कहा। मालती समझ नहीं पाई कि क्या बात है?
तभी उसके कानों में पूजा के शुरू होने के स्वर गूंजे। वो मन में हजारों सवाल लिए अपने कमरे में चली गई, जाने कैसे दिल पर लगी थी कि अगले दिन भी मालती बाहर नहीं निकली। दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने चाचीजी खड़ी थी। मालती ने उनके पैर छूए पर कोई हाथ आशीर्वाद में न उठा न ही कोई शब्द कानों में पड़ा। जो सुना वह ये था--"मालती, तुम्हें लगा तो होगा कि कल की पूजा में मैंने तुम्हें नहीं बुलाया, जबकि पिछले साल बुलाया था। मैंने तुम्हें जानबूझकर नहीं बुलाया क्योंकि पिछले साल तुम पति के साथ थीं। अभी मैंने किसी से सुना है कि तुमने पति से अलग होने की अर्जी दे रखी है। हाँ, मैंने ही तुम्हें बताया था कि तुम्हारे पीछे तुम्हारा पति किसी लड़की के साथ यहाँ पूरे दो हफ्ते रहा है। मैं जानती हूँ कि वह चरित्रहीन है, पर ये समाज है ना, चरित्रहीन पुरुष को तो स्वीकारता है; पर औरत सच्ची और सही भी हो तो दोषी उसे ही बताता है। कॉलानी में तुम्हारे बारे में लोग भला-बुरा कह रहे हैं। मैं जानती हूँ 'तुम बहुत अच्छी हो, पर मैं मज़बूर थी ये पूजा सुहागिनों की थी और अब तो तुम सुहागिन नहीं हो ना बेटा!"
सारी बातें मालती के कानों में पिछले शीशे -सी चुभ रही थीं, पर चेहरे पर एक अजीब सी कसैली मुस्कान थी, यही सोचकर कि चलो देर से ही सही, पर पता तो चला कि लोग किस-किस तरह से क्या-क्या सोचते हैं। कितनी आसानी से लोग दो-दो मुखौटे पहनकर घूमते हैं।
।।मदद।।
राहुल सड़क पर बेहोशी की अवस्था में पड़ा था, हैलमेट का चूरा-चूरा हो गया था, स्कूटर दूर कहीं छितरा पड़ा था। शायद कोई टक्कर मारकर चला गया था पुष्पिता का मन आज सुबह से ही बहुत मन रहा था। उसने पति को फोन किया। फोन किमी अजनवी ने उठाया, तब ये सारा हाल पुष्पिता को पता चला। भला इंसान था कोई, जो मदद कर रहा था। पुष्पिता के लिए वो किसी फरिश्ते से कम नहीं था। पुष्पिता ने उसको वहीं रुके रहने की प्रार्थना की और राहुल के बॉस को फोन पर सब बातें बता दीं। आँसुओं का बाँध नहीं रुक रहा था, पर संयम बनाए हुए थी। राहुल दिल्ली अपने बॉस से ही मिलने जा रहा था। बॉस तुरंत गाड़ी लेकर आए और राहुल को अपने साथ ले गये। वह फरिश्ता तब तक वहीं रुका रहा। हजारों दुआएँ दे डाली थीं पुष्पिता ने वरना आजकल कौन झंझट में पड़ता है पुलिस आदि के। साल भर पहला यह चित्र राहुल की आँखों के सामने ताज़ा हो उठा।
सामने पलटी हुई गाड़ी को देखा। भीड़ अब भी तमाशबीन बनी खड़ी थी। लोग अनदेखा करके चले जा रहे थे। उसे एयरपोर्ट जाना था। मुम्बई में बहुत जरूरी ऑफिशियल मीटिंग थी। घड़ी देखी, अगर वह यहाँ दस-पंद्रह मिनट भी रुकता है, तो फ़्लाइट छूटने का डर है। वह गाड़ी से उतरा। उसने एक-एक कर सभी को गाड़ी से बाहर निकाला। पूरा परिवार था; साथ में माँ-बाप, बच्चे। राहुल ने सबको अपनी कार में बिठाया। कोई खून से लथपथ था, तो किसी की हड्डी टूटी लगती थी।
हॉस्पिटल में भर्ती कराया और तब तक रुका, जब तक कि सबके सुरक्षित होने का आश्वासन डॉक्टर से नहीं मिल गया। उनके परिवार के रिश्तेदारों को फोन करके ख़बर कर दी। फ्लाइट का समय निकल गया था। हेड ऑफिस से लताड़ तो पड़ेगी ही, यह सोचकर भी उसके होठों पर सुकूनभरी मुस्कान बिखर गई।
।। बोझ।।
रीमा ने बड़े ऑपरेशन से बेटी को जन्म दिया था। बड़ी बेटी अब आठ साल की हो चुकी थी। बड़ी मन्नतों से आज उसके चमन में फिर से ये फूल खिला था। कैसे कैसे समय काटा इस बच्ची के वक़्त, सोचकर ही कलेजा मुँह को आता है। जाने कितनी बार हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा। हर बार डॉक्टर बस यही कहती कि पूरी कोशिश करेंगी इस बच्चे को बचाने की।
रीमा ने पूरा समय बिस्तर पर ही बिताया तब जाकर आज ये दिन नसीब हुआ। अब भी बच्ची समय से पहले ही इस दुनिया में लानी पड़ी: वरना ये फूल भी खिलने से पहले ही मुरझा जाता। इस बीच एक बेटा भी हुआ था; जो डॉक्टर की कमी के कारण इस दुनिया को इस माँ को देखे बिना ही चला गया। कितना मासूम था उसका चेहरा जैसे कह रहा हो क्या कसूर था मेरा और मेरी माँ का जो ये मिलन अधूरा रहा?
अपने बेटे के चले जाने के बाद जैसे-तैसे सँभाला था रीमा खुद को। डॉक्टर ने हिदायत दी, "एक साल के अन्दर बच्चा ने होता है; तो रीमा की जान को खतरा है और एक साल से ज़्यादा देर करने पर शायद इस आँगन में फिर कभी फूल ही न खिले ।"
ठीक एक साल बाद इस नन्ही परी का जन्म हुआ। खुशी से आँखें भर आई थीं रीमा की सब कह रहे थे "गुलाबी परी उतरी है ज़मीन पर बहुत प्यारी !!" "बहुत प्यारी है" हर तरफ से ये ही आवाज कानों में गूँज रही थी। बच्ची को अभी रीमा को नहीं दिया गया था। बच्ची को वेन्टीलेटर पर रखा गया था। एक तो बच्ची पंद्रह दिन पहले पैदा हुई थी, ऊपर से कमज़ोर और कई बीमारियों से घिरी थी, पंद्रह दिन उसको वेन्टीलेटर पर ही रखना था।
डॉक्टर ने कहा, “चाहें तो माँ को घर ले जाएँ और माँ आती रहे बच्ची से मिलने, पर बच्ची को यहीं रखना होगा।" रीमा को ये बिल्कुल भी मंजूर नहीं था। वह इन्हीं ख़्यालों में घिरी थी कि पति की आवाज़ सुनकर तन्द्रा टूटी।
वह कह रहे थे- “बहुत आराम हो गया ! अब उठो कल से ही अपनी जॉब पर जाना शुरू कर दो। दूसरी लड़की आ गई है, अब ज़िम्मेदारी और बोझ और ज्यादा बढ़ गया है।"
यह सब सुनकर रीमा भपकी आँखें छलक गईं। मन सिसकियाँ भरने लगा। भला ये नन्हीं सी जान क्या किसी पर बोझ बन सकती है?
।।ओहदा।।
आज कॉलेज में फंक्शन था। रोमी सुबह से ही तैयारी में लगी थी। खूब मेहनत की थी उसने। पढ़ाई में भी बहुत होशियार थी रोमी। पढ़-लिखकर एक मुकाम हासिल करना था उसको और अपने माता-पिता का सपना भी साकार करना था।
स्टेज पर उसका नाम बोला गया। उसने एक शानदार नृत्य प्रस्तुत किया। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। सभी ने उसको बहुत बधाइयाँ दीं। रोमी की खुशी का ठिकाना न था, कॉलेज में उसका ये आखिरी साल था। प्रिंसिपल ने भी पास आकर ढेरों बधाइयाँ दे डालीं, फूली नहीं समाई थी रोमी इतने बड़े ओहदे वाले इतने प्रतिष्ठित व्यक्ति से प्रशंसा पाकर कोई भी होता।
परीक्षा पास थी। प्रिंसिपल साहब रोमी के पास आए और बोले, "इतने सालों से तुम इस कॉलेज में हो, पर हमें पता नहीं था कि तुम इतना अच्छा नृत्य भी करती हो। पढ़ने में भी होशियार हो। मैं चाहता हूँ कि तुम बी. एड. में भी टॉप करो। मैं तुम्हारी मदद करूँगा। तुम कल से मेरे पास पढ़ने आना।"
"जी ज़रूर, शुक्रिया।"
रोमी अगले दिन निर्धारित समय पर पहुँच गई। प्रिंसिपल ने काम दिया और खुद उठकर बाहर चले गये। रोमी लिखने में मशगूल थी, तभी किसी को बहुत करीब महसूस किया। चौंककर घबराकर उठी, "सर आप यहाँ?"
इससे पहले कि वह कुछ और कहती, प्रिंसिपल ने उसे अपनी ओर खींचने की कोशिश की। रोमी ने एक जोरदार थप्पड़ उनके मुँह पर रसीद किया और धक्का देकर तेज़ी से दरवाजे से बाहर निकल गई।
प्रिंसिपल साहब अपना गाल सहलाते हुए दरवाजे को घूरते रह गए।
।।संस्कार।।
भाभी पहली बार अपनी ननद के यहाँ खाने पर गई थी। लाज और संकोच में सिमटी चुपचाप सबकी बातें सुन रही थी। थोड़ी देर बाद ननद का देवर कमरे में आया और बोला- “खाना सटक लिया?" उसे समझ नहीं आया कि वो क्या और किससे कह रहा है।
तभी ननद के देवर को अपनी ओर मुखातिब पाया। वह बोला, "मैं तुमसे कह रहा हूँ?”
"जी माफ कीजिए मैं सुन नहीं पाई, अब फिर से कह दीजिए।"
“मैं कह रहा हूँ कि क्या तुमने खाना सटक लिया?" भाभी ये सब सुनकर सन्न रह गई कि वो ऐसे कैसे बात कर रहा है! फिर भी खुद को संयत रखकर वो बोली, "जी मैंने तो खा लिया, क्या आपने खाया?"
जवाब में 'हाँ' आया।
सब लोग अपने घर लौट गए। दो दिन बाद ननद घर आई और अपनी माँ से कहने लगी, “माँ, भाभी की तमीज़ देखो। जब यह मेरी ससुराल में आई थीं, तो मेरे देवर को जिनको हम भैया भैया कहकर नहीं थकते, उनको भाभी ने कहा, 'क्या तुमने खाना सटक लिया।' माँ, मजाल है कि हम जरा भी उनको उल्टा-सीधा बोल दें। हम उनको आँख उठाकर भी नहीं देखते, इतना मान-सम्मान करते हैं उनका और एक ये महारानी हैं, जो हमारे इतने संस्कारी, इतने बड़े इज्ज़तदार लोगों के बीच आयीं और उनको अपने फटीचर घरवालों के दिए संस्कार दिखाकर आईं हैं... और हाँ, सुनो--खबरदार! जो अब कभी भी मेरे ससुराल में कदम रखा तो... नहीं चाहिए हमें ऐसी कुसंस्कारी... ।"■
(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)
डॉ. भावना कुँवर
ई-मेल : bhawnak2002@gmail.com
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१९-०८ -२०२२ ) को 'वसुधा के कपाल पर'(चर्चा अंक -४५२७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुंदर प्रस्तुति.
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