Saturday, 26 September 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-5 / डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे

दिनांक 25-9-2020 से आगे

लघुकथा  : वीक्षा-समीक्षा के आधारभूत सूत्र

पाँचवीं कड़ी

 

लघुकथा-रचना-प्रक्रिया हेतु ‘वस्तु’ को साधना किसी भी लघुकथाकार के लिए प्रथम महत्त्वपूर्ण गुण है और इसी गुण के निर्वहन से लघुकथा का सृजन सँवरता है। वस्तु को उसके वास्तविक रूप में देखना ही समीक्षक का कर्तव्य है।

आलोच्य लघुकथा में समीक्षा के प्रतिमानों की खोज

जब हम किसी लघुकथा की समीक्षा करने बैठें तो सर्वप्रथम हमें इस बात से अवगत होना पड़ेगा कि लघुकथा में कथानक हो भी सकता है और नहीं भी! प्रायः लघुकथा अपनी संरचनात्मकता में घटना का सीमित पक्ष लेकर चलती है। वह कहानी अथवा उपन्यास की भाँति अपनी रचनात्मकता में साहित्य के विविध पक्षों का आश्रय लेकर नहीं बढ़ती। वस्तुतः लघुकथा का प्रेरक कोई एक विचार-विशेष होता है; जिसकी अन्विति घटना के अभिलेखन से सिद्ध होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लघुकथाकार अपनी दृष्टि को किसी एक वस्तु या घटना पर केन्द्रित कर चलता है। लेकिन यहाँ लघुकथा-लेखन के दरम्यान इस एक महत्त्वपूर्ण बात को सर्वोपरि रखना होगा कि समाज में घटित किसी घटना से अनुप्रेरित होकर लघुकथाकार अपनी लघुकथा को ‘रिपोर्ताज’ की शक्ल में प्रस्तुत न कर उस घटना की अभिव्यक्ति में संवेदना के बूते लघुकथा में वह सौन्दर्य स्थापित कर पाया है कि नहीं जो पाठक के अन्तस को प्रभावित करने में समर्थ हुआ है।

लघुकथा की समीक्षा को सुलभ बनाने के लिए और भी महत्त्वपूर्ण कारक हैं जिनके प्रकाश में लघुकथा की समीक्षा की जाती है तो ऐसे कारक लघुकथा की समीक्षा के महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हो सकते हैं। अक्सर लघुकथाओं की लिखित समीक्षाओं का रूप प्रचलन में हैं तथापि कई बार ऐसा भी मौका आता है, जब लघुकथाओं के वाचन की संगोष्ठी में किसी एक को वाचित लघुकथाओं की समीक्षा का दायित्व सौंप दिया जाता है। ऐसी स्थिति में लघुकथा की लिखित अथवा मौखिक समीक्षा हेतु कतिपद उभयनिष्ठ कारक भी गिनाए जा सकते हैं; जिन कारकों का आधार लेकर लघुकथाओं की समीक्षा करना प्रामाणिक और दस्तावेजी कार्य हो सकता है। निम्नलिखित ऐसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं जो लघुकथाओं की लिखित एवं मौखिक समीक्षा हेतु महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर सकते हैं—

1. लघुकथा की संरचना

2. लघुकथा रचना के आन्तरिक मूल्य

3. लघुकथा का केन्द्र

4. लघुकथा में निहित मूल्य

5. समकालीन मूल्यों से तालमेल

6. लघुकथा की भाषा

7. लघुकथा की प्रभावन क्षमता

1. लघुकथा की संरचना

अक्सर एक ही लघुकथा अपनी संरचनात्मकता की दृष्टि से बहुमुखी प्रतिभा का अनुभव कराती है। परिणामस्वरूप ऐसी लघुकथा पर भिन्न-भिन्न आलोचक की भिन्न-भिन्न टिप्पणियाँ देखने को मिलती है। पफलस्वरूप एक ही लघुकथा कभी-कभी बहुतेरे विमर्श की दरकार रखती है।

लघुकथा की संरचना में जो सबसे प्रथम देखा जाता है, वह होता है लघुकथा का तत्त्वगत व्यवस्थापन। लघुकथा की बनावट के पीछे उस सर्जनात्मक क्षण का आविर्भाव होता है, जिस क्षण की अन्विति में विचार और घटना के मध्य परस्पर सम्बद्धता आकार लेती प्रतीत होती है।

लघुकथा का समीक्षक यहीं पर आकर चूक जाता है, जब वह समीक्षा की दृष्टि से केवल लघुकथा से प्राप्त होनेवाले सतही आशय तक स्वयं को सीमित कर लेता है। बरअक्स इसके वह लघुकथा की आभ्यन्तरिक रचना-प्रक्रिया को टटोलने की कदापि जहमत नहीं उठता।

लघुकथा की संरचना में कथानक को चरितार्थ करने में जिन अंग-उपांग की प्रयोजनीयता को ध्यान में रखकर लघुकथाकार ने अपनी लघुकथा को जन्म दिया है यानी अपनी जिस रचनात्मक वृत्ति से लघुकथा में लघुकथा होने का अर्थ भरा है; उसके इसी प्रयोजन की गहराई को मापकर ही लघुकथा की समीक्षा का खाका तैयार करना होगा। अच्छी समीक्षा का गुण भी यही है कि समीक्षक के पास धैर्य होना चाहिए। भोजन भी तब ही स्वादिष्ट बनता है जब भोजन पकानेवाले के पास पर्याप्त धैर्य हो। समीक्षक की जल्दबाजी न केवल समीक्षा का आचरण बिगाड़ देती है वरन कई दफा ऐसा भी होता है कि कोई मान्य समीक्षक द्वारा की गई ताबड़तोड़ समीक्षा, जो रचना की संरचना को नजरअन्दाज तो करती है; प्रत्युतः एक समीक्षाहीन समीक्षा का अर्थहीन कुपथ तैयार भी कर देती है।

2. लघुकथा रचना के आन्तरिक मूल्य

प्रायः समीक्षा का एकमेव कर्तव्य रचना की विश्लेषणपरक व्याख्या करना है। लघुकथाकार अपने जीवन और अनुभव के आधार पर जिन आवश्यक तत्त्वों के विश्लेषण से लघुकथा रचता है, समीक्षा भी उन्हीं तत्त्वों का विश्लेषण करती है। कोई समीक्षक समीक्षा के दरम्यान समस्त राग-द्वेष या पूर्वाग्रहों से तभी बच सकता है जब वह लघुकथा की समीक्षा करते समय पद्धति का अनुसरण करे, तभी वह वस्तुनिष्ठ होकर लघुकथा के प्रति न्याय कर सकता है।

लघुकथा-समीक्षक जब तक लघुकथा के आन्तरिक मूल्य यानी आनुषंगिक अर्थात् लघुकथा की रचना-प्रक्रिया में गौण रूप से साथ चलनेवाले तत्त्वों का अनुशीलन नहीं करता है; तो इस अर्थ में लघुकथा के समीक्षक को स्वेच्छा से समीक्षकीय कर्म छोड़ देना चाहिए।

आजकल के समीक्षक समीक्षा के व्याख्यात्मक पक्ष को ही प्रमुखता देते हैं। और किसी सीमा तक यह उचित भी है। भारतवर्ष में संस्कृत में भी आलोचना के व्याख्या पक्ष को विशेष महत्त्व दिया गया है। शास्त्राय समीक्षा के परम विद्वान समीक्षक गोविन्द त्रिगुणायत ने इस सम्बन्ध में लिखा भी है कि 'संस्कृत में समीक्षा का अर्थ अन्तरभाष्य व अवान्तरार्थ विच्छेद अर्थात् पूर्ण और स्पष्ट व्याख्या करना है। जिसमें आन्तरिक विशेषताएँ स्पष्ट हों और प्रासंगिक बातें भी संकेतित की गई हों, वही समालोचना है।’

लघुकथा के समीक्षक को लघुकथा की चरणबद्ध समीक्षा के लिए आलोच्य लघुकथा की रचना में विनियोजित उन आन्तरिक मूल्यों का अवगाहन करना चाहिए जिन मूल्यों की बुनियाद पर लघुकथा का प्रासाद खड़ा हुआ मिलता है। इस हेतु लघुकथा में से कतिपय बिन्दुवार बातें शोधित करनी होंगी जो लघुकथा के आन्तरिक मूल्यों को स्पष्ट करती हैं। जैसे—

         1.      लघुकथा में निहित विषय की सामाजिक उपयोगिता

         2.      विषय की गम्भीरता

         3.      तथ्यों को स्पष्ट करने की चेष्टा

         4.      लघुकथा की प्रेषणीयता

         5.      लघुकथा में पात्र/पात्रों की उपस्थिति

         6.      सीमित शब्दों में अधिक सृजनशीलता

         7.      दृश्यों का वर्णन

         8.      विस्मय के तत्त्व

         9.      लघुकथा का प्रतिनिधित्व करने वाला शीर्षक

         10.    शिल्प की निपुणता

         11.    संवादों की उपस्थिति

         12.    अभिव्यक्ति में नवीनता एवं मौलिक उद्भावनाएँ

         13.    समकालीनता की झलक

         14.    समय के सत्य की वाहक लघुकथा

         15.    सांकेतिकता

3. लघुकथा का केन्द्र

मुझको यह बात कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि ‘‘लघुकथा उपन्यास का एक लघु संस्करण है। अतएव लघुकथा की सीमित जमीन पर लघुकथा के केन्द्र को स्थापित करने की दृष्टि से लघुकथाकार द्वारा अधिक सृजनशीलता की आवश्यकता होगी। सीमित शब्दों की संख्या के माध्यम से लघुकथाकार अपनी लघुकथा के केन्द्र में ऐसा कथानक स्थापित करता है जो लघुकथा की लघुता में प्रभुता की तरह दिखाई पड़े। लघुकथा का समीक्षक सर्वप्रथम इसी आशय से लघुकथा के केन्द्र की नब्ज टटोलता है, ताकि लघुकथा की पुख्ता समीक्षा का आधार लघुकथा के केन्द्र को बनाकर वह अपना लघुकथा-विषयक समीक्षात्मक मन्तव्य सहृदय सामाजिकों के रसास्वादन के लिए परोस सके।

आलोच्य लघुकथा में लघुकथा के केन्द्र की खोज सहसा रूप में समीक्षक के हाथ नहीं लगती। प्रत्युत् लघुकथा को बारम्बार पढ़ना होता है। इस सावधानी के साथ पढ़ना होता है कि उसी लघुकथा को पढ़कर उसका पाठक भी अपने मनन-चिन्तन में पठित लघुकथा में लघुकथाकार द्वारा स्थापित लघुकथा के कथ्यात्मक केन्द्र को तुरत-फुरत ही भाँप लेता है। अतएव समीक्षक के लिए यह बड़ा सावधानी का कार्य होता है कि वह आलोच्य लघुकथा के केन्द्र का स्पर्श किसी उतावलेपन के साथ न कर अपनी वैचारिक गम्भीरता से लघुकथा में स्थापित केन्द्र की खोज कर उसे विवेचित करे। हायभाग में लघुकथा के केन्द्र को आलोचकीय सन्दर्भ में विवेचित करने से कई बार इसका यह दुष्परिणाम सामने आता है कि आलोचक द्वारा लघुकथा के केन्द्र को रेखांकित करने की जल्दबाजी लघुकथा के पाठकों के गले नहीं उतर पाती है, पफलस्वरूप आलोचक अपने द्वारा की गई आलोचना के सन्दर्भ में पाठकों के द्वारा उपहास के पात्रा बना दिए जाते हैं।

आलोच्य लघुकथा के केन्द्र तक पहुँचने में आलोचक के सामने कितने ही महत्त्वपूर्ण कारक आते हैं, मसलन लघुकथा का कथ्य, कथ्य को सम्प्रेषित करनेवाली घटना/घटनाएँ, परिवेश, भाषा-शिल्प इत्यादि बिन्दुओं से गुजरते हुए लघुकथा का समीक्षक लघुकथा के केन्द्र को हथिया पाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि शिल्पाधिक्य की वजह से लघुकथा का केन्द्र भाषाई धुँधलके में ऐसे छुप जाता है; जिसे आलोचक की दृष्टि सम्पन्नता भी भुलभुलैया में घिरकर रह जाती है, जिसका परिणाम यह होता है कि लघुकथा के केन्द्र को समझने में आलोचक एक ऐसे वैचारिक द्वन्द्व में उलझ जाता है, जिससे पार पाने में लघुकथा के समीक्षक को लघुकथाकार द्वारा लघुकथा में नियोजित कथ्य की बहुतेरी चीर-पफाड़ करना पड़ता है। अभिप्राय यह कि जो आलोचक किसी लघुकथा की समीक्षा, इस हाथ लघुकथा को पढ़कर उस हाथ कर देते है, वे वास्तव में लघुकथा की समीक्षा का नामवर तमगा कदापि नहीं पा सकते। गोया कि, ‘खून दे-देकर भरना पड़ती हैऋ समीक्षा खाली गिलास होती है।’

4. लघुकथा में निहित मूल्य 

वर्तमान में समाज से प्राचीन मूल्य हवा हो गए हैं। यानी प्राचीन मूल्य आधुनिक समाज द्वारा अस्वीकृत किए जा रहे हैं। वैश्वीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद ने मानव-जीवन को ऐसा नया चौराहा प्रदान कर दिया है जहाँ पर खड़ा होकर मनुष्य किसी से अपने गन्तव्य का पता पूछने में भी घबराया प्रतीत होता है। कुल मिलाकर आधुनिक साहित्य में मूल्यों को खदेड़कर मूल्यहीनता के स्वर कहीं अधिक मुखरित होने लगे हैं।

वर्तमान में लघुकथा की रचना का परिवेश बदल चुका है। आज मानव-मूल्य ही साहित्य का आधार निरूपित हो चुके हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. जगदीश चन्द्र गुप्त का मत है, ‘‘कला और साहित्य दोनों एक प्रकार से जीवन का ही परिविस्तार करते हैं; मानव-मूल्यों की स्थापना साहित्यकार से इस बात की अपेक्षा रखती है कि वह साहित्यिक मूल्यों को भी उतना ही समादर प्रदान करे जितना मानव-मूल्यों को, क्योंकि तत्त्वतः दोनों एक ही हैं।’’

‘‘लघुकथा के समीक्षक को भी उसी भूमि तक पहुँचने की चेष्टा करनी चाहिए जिस पर लेखक वर्तमान रहता है।’’ गोविन्द त्रिगुणायत के इस विचार से सहमत होकर मैं यह कहना चाहूँगा कि लघुकथाओं के थोड़े-से शब्दों में गहरा, गम्भीर और चुटीला सच अभिव्यक्त हुआ मिलता है। मानवीय मूल्यों की रक्षा करती चलती इन लघुकथाओं में जीवनगत सच्चाइयाँ, सामाजिक परम्पराएँ, आदर्शों का दोहन और सबके बीच मानवीय पराकाष्ठा का संवेदनात्मक रोपण आदि के अनेक चित्रा उकेरे मिलते हैं। इन बातों का अनुसन्धान कर लघुकथा का समीक्षक आलोच्य लघुकथा की वैचारिक तौर पर पड़ताल कर लघुकथा के केन्द्र में स्थापित मूल्यों का विवेचन कर सकता है।

साहित्य से जीवन जुड़ जाने के परिणामस्वरूप ही साहित्य में आधुनिकता का सूत्रापात हुआ है। किसी भी युग का जीवन कभी एक जैसा होकर सपाट नहीं रहा। वस्तुतः जीवन स्वयं उसके उतार-चढ़ावों से उपजी असन्तुलित विडम्बनाओं का आगार है। लघुकथाएँ भी इसी क्रम में सामाजिक और मानविकी स्थितियों को विश्लेषित करने में संलग्न हुईं हैं। पफलस्वरूप आधुनिक लघुकथाओं में मूल्यपरकता का रोपण बहुतायत में देखने को मिलता है। मनुष्यों की दैनिक चर्चाओं के साथ ही मनुष्यों के मध्य टूटते-जुड़ते रिश्ते, वर्ग-भेद के असहिष्णु विचार, आर्थिक संकटों की दर्दनाक मार इत्यादि ऐसे कई विचार-विवेचन होते हैं, जिनको अपनाकर आधुनिक लघुकथाकार अपनी लघुकथाओं को रचनात्मक आकार दे रहा है।

                                          शेष आगामी अंक में…

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