Friday, 25 September 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-4 / डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे

दिनांक 24-9-2020 से आगे

लघुकथा  : वीक्षा-समीक्षा के आधारभूत सूत्र

चौथी कड़ी

 

तटस्थ रहते हुए आलोचना करने के अर्थ में आलोचक पक्षपात, अन्धविश्वास और द्वेष से स्वयं को मुक्त करने के प्रयास में बना रहता है। तटस्थ समीक्षक न केवल व्याख्याकार होता है अपितु निर्णायक भी होता है। पाश्चात्य समीक्षक हृडसन ने ‘निर्णय कार्य को भी एक आवश्यक साहित्यिक व्यापार माना है। अतएव साहित्य में सच्चा निर्णय देना बड़ा प्रयत्नसाध्य होता है।’ लघुकथा का तटस्थ समीक्षक प्रायः लघुकथा की समीक्षा करने में मनोविज्ञान के अतिरिक्त, लघुकथा पर निर्णय देने में देशकाल और पात्रा का विचार करते हुए अपनी सन्तुलित मनोवृत्ति का परिचय भी देता है।

आलोचना का प्रधान अर्थ निर्णय

समीक्षा का अर्थ प्रधान रूप से निर्णय ही है। इससे स्पष्ट है कि निर्णय पक्ष समीक्षा का प्रधान अथवा प्रमुख पक्ष होता है। किसी भी लघुकथा पर निर्णय रूप में अपने अभिमत के प्रकटीकरण का काम समीक्षक के लिए चुनौती भरा और जटिल है। लघुकथा पर सच्चा निर्णय देना समीक्षक के लिए बड़े अभ्यास की दरकार रखता है। इस प्रक्रिया के निष्पादन में मैं व्यक्तिगत तौर से लघुकथा के समीक्षक को किसी भी लघुकथा पर अपना फैसला सुनाने से पूर्व तीन प्रमुख बातों से अवगत कराना चाहता हूँ ताकि लघुकथा पर युक्तियुक्त निर्णय दे सकने में समीक्षक तैयार मिले।

पहली बात, समीक्षक को चाहिए कि आलोच्य लघुकथा को सर्वप्रथम पढ़े और पढ़े, दूसरी बात लघुकथा को पढ़ने और पढ़ने के बाद, पढ़ी गई लघुकथा पर सोचे और सोचे, तीसरी बात आलोच्य लघुकथा पर जो कुछ भी सोचा गया है, सोच की इस भट्ठी से प्राप्त तपे हुए विचारों को लिखे और लिखे। अपनी ही लिखी समीक्षा को सारगर्भित और तथ्यपरक समीक्षा का रूप गढ़ने में समीक्षक को चाहिए कि वह खुद भी एकदम से अपनी लिखी समीक्षा को ‘फायनल’ समीक्षा न मानकर उसके प्रति क्रूर होकर यदि आवश्यक हो तो उसमें और भी यथोचित परिष्कार की जिम्मेदारी उठाए जिससे अन्ततः समीक्षा का प्रांजल रूप अर्थात् सच्चा और स्पष्ट रूप मुखरित हो सके।

आज स्थिति यह है कि हर ओर लघुकथाकारों की मण्डली दिखाई दे रही है। लघुकथा-पटल पर लघुकथाओं की खेप-दर-खेप उतर रही है। बहुसंख्यक लघुकथाकारों की बहुसंख्यक लघुकथाओं की भीड़ में लघुकथा के समीक्षक को आगे यह ज्वलन्त सवाल उठ रहा है कि आखिर वह कौन-सी लघुकथा हो सकती है जिसका तात्त्विक रूप से अन्वेषण कर लघुकथा का समीक्षक लघुकथा-विषयक समीक्षा का कोई मैयार (कसौटी) तैयार कर सके। लघुकथा के समीक्षक का समीक्षा-विषयक कार्य इसी एक कारण से बाधित है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि लघुकथा का कोई भी महत्त्वाकांक्षी समीक्षक यदि लघुकथा की समीक्षा में हाथ आजमाना चाहता है तो उसे खुद से यह निर्णय लेना होगा कि वह हाथ में आई लघुकथा की समीक्षा करने से पूर्व एकाध दशक में आई हुई लघुकथाओं को गौर से पढ़े भी ताकि लघुकथा बाबत कोई ‘लाइन ऑपफ एक्शन’ उसे हासिल हो सके।

आलोचना में तुलना का महत्त्व

आलोचना में तुलना का महत्त्व प्रतिपादित करने से पूर्व मैं हिन्दी के प्रसि( समीक्षाशास्त्रा गोविन्द त्रिगुणायत के इस कथन को यहाँ रखना चाहता हूँ। वे कहते है कि ‘सच्ची समालोचना वह है जिसमें आलोचक इतिहास एवं तुलना का आधार लेकर वस्तु के बाह्य और अन्तर दोनों पक्षों की व्याख्या वैज्ञानिक शैली में करता हुआ सिद्धान्तों का निर्माण और आलोच्य वस्तु का मूल्यांकन करने का प्रयास करता है।’ इस कथन के बरअक्स अभी लघुकथा की लम्बी विकास-यात्रा के बावजूद लघुकथा का इतिहास निर्मित नहीं हो पाया है। इसका कारण कोई भी रहा हो मगर आलोच्य लघुकथा की विवेचना के लिए उन तमाम बुनियादी लघुकथाकारों की लघुकथाओं का मन्थन करना होगा जिन लघुकथाओं में मुकम्मल लघुकथाओं के होने की प्रामाणिकता स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर हो रही है। अतएव आलोच्य लघुकथा के तत्त्वगत परीक्षण हेतु ऐतिहासिक दृष्टि का निर्माण उन प्रारम्भिक लघुकथाकारों की लघुकथाओं का अवगाहन कर किया जाए और उनमें से ही लघुकथाओं की संरचनात्मकता के आधार रेखांकित कर उन्हीं आधारों के बल पर आधुनिक लघुकथा की तात्विक समीक्षा की जा सकती है।

आलोचना में तुलना का अपना महत्त्व है। तुलनात्मक आलोचना से अभिप्राय किसी रचना या साहित्य की तुलना अन्य रचनाकार के साहित्य से की जाए।

वर्तमान में जिस प्रकार की लघुकथाएँ आ रही हैं; लघुकथा के स्वनामधन्य आलोचकों को चाहिए कि वे आए दिन आनेवाली लघुकथाओं को अपनी आलोचना का निशाना बनाएँ और आलोच्य लघुकथाओं के अभिलेखन को अतीत की ऐतिहासिक लघुकथाओं के माध्यम से देखें-परखें ताकि उनके द्वारा की गई तुलनात्मक आलोचना के बूते वर्तमानकालीन लघुकथाओं के लेखक आलोचकों द्वारा समर्थित मापदण्डों के अनुसार लघुकथाओं की सृजना करें। इससे यह परिणाम सिद्ध होगा कि एक तरफ जहाँ लघुकथा-विषयक आलोचना के मानक कारक तैयार मिलेंगे वहीं दूसरी तरपफ सार्थक और अर्थवान लघुकथाएँ लिखी जाकर सामने आएँगी।

आज जरूरत है कि लघुकथाकारों के सम्मुख आलोचकों के भय पैदा हों। धड़ल्ले से लिखी जाकर सामने आनेवाली लघुकथाओं पर जब तक आलोचनाओं की लगामें नहीं कसी मिलेंगी तब तक बोगस लघुकथाएँ लघुकथा-सर्जना के श्लील वातावरण को इतना अश्लील बना देंगी कि पिफर सर्जना के स्तर से गिरी हुई लघुकथाएँ ही वास्तविक लघुकथाएँ कहलाने की प्रावीण्यता प्राप्त कर लेंगी!

वस्तु को वास्तविक रूप में देखना आलोचना का धर्म 

संस्कृत में समीक्षा उसे कहते हैं जिसमें रचना की अन्तर्व्याख्या का और अवान्तरार्थों का विच्छेद किया गया है

         अन्तर्भाष्य अवान्तरार्थ विच्छेदश्च समीक्षा

ऊपर इस बात पर विचार किया गया है कि आलोचना की सबसे प्रमुख विशेषता है तटस्थता। 'वस्तु के स्वरूप की जिज्ञासा ही उसे आलोचना-मार्ग में प्रवृत्त करती है।’ पाश्चात्य समीक्षक मैथ्यू आर्नल्ड का कहा उक्त कथन आगाह करता है कि आलोचना का सही गुण-धर्म वस्तु को वास्तविक रूप में देखता है।

लघुकथा के आलोचक को चाहिए कि जब वह किसी लघुकथा की आलोचना करने बैठे तब वह आलोच्य लघुकथा का ‘कण्टेण्ट’ भली-भाँति देख-परख ले। उसकी जानकारी में यह बात प्रमुख रूप में होनी चाहिए कि समीक्षा के माध्यम से सच्चा निर्णय देना बड़ा प्रयत्नसाध्य होता है। इसके लिए लघुकथा के समीक्षक को भी लघुकथा में लघुकथाकार द्वारा नियोजित वस्तु को जानने के अर्थ में उसी दृष्टि को लेकर चलना चाहिए जिस दृष्टि को अपनाकर लघुकथाकार ने लघुकथा सृजित की है। तभी जाकर लघुकथा का आलोचक लघुकथा की छान-बीन कर पाठकों के सम्मुख उस दृष्टि को उजागर कर पाएगा, जिस दृष्टि को अपनाकर लघुकथाकार ने लघुकथा का सृजन किया है। ऐसी ही अवस्था में लेखकीय और समालोचकीय दृष्टि का एकाकार सामने आ सकेगा। और ऐसी ही स्थिति में रचना और समालोचना का ‘सत्य, शिव, सुन्दर’ रूप देखने को मिलेगा।

                                             शेष आगामी अंक में…

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