Saturday, 26 January 2019

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-19


[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100+ लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  11 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018, 17 दिसम्बर 2018, 20 दिसम्बर 2018, 24 दिसम्बर 2018, 27 दिसम्बर 2018, 30 दिसम्बर 2018, 2 जनवरी, 2019, 6 जनवरी 2019, 12 जनवरी 2019, 16 जनवरी 2019, 19 जनवरी 2019  तथा 22 जनवरी 2019 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी उन्नीसवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो यूनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  उन्नीसवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…

91 सपना मांगलिक—अपना घर

92 साधना सोलंकी--मृगतृष्णा

93 सिमर सदोष

94 सीमा जैन—पानी

95 स्नेह गोस्वामी—वह जो नहीं कहा
91

सपना मांगलिक

अपना घर
मीठी माँ–पापा से उसे चित्रकारी प्रतियोगिता में लखनऊ भेजने के जिद कर रही थी। उसके चित्र को स्कूल लेवल प्रतियोगिता में सराहना मिली थी और अब उसे अंतर्राज्यीय प्रतियोगिता के लिए चुना गया है.मगर माँ –पापा हमेशा की तरह से उसे डाँटते हुए बोले, “जो करना है, अपने घर जाकर करना। दो महीने बाद शादी है और इसकी मनमानियाँ खत्म नहीं हो रही हैं।”
मीठी मन में सोच रही थी कि जिस घर में जन्म लिया, क्या वहाँ वह मनमानी नहीं कर सकती? खैर, ससुराल ही उसका घर है तो वह अपना ख्वाब ससुराल जाकर ही पूरा कर लेगी। शादी के बाद उसने हर लड़की की तरह साजन के घर और परिवारजनों को सहज ही अपना लिया, और अपने विनम्र एवं जिम्मेदार व्यवहार से सभी ससुराली जनों का दिल जीत लिया। एक दिन प्रेम के लम्हों में उसने पतिदेव को अपनी चित्रकारी के शौक और उसमे अपनी पहचान बनाने के ख्वाब का जिक्र किया। मगर उम्मीद के विपरीत पतिदेव भड़क उठे, “पागल हो क्या शादी के बाद एक स्त्री का धर्म घर गृहस्थी सँभालना होता है ,अगर यह सब ही करना था तो अपने घर में क्यों नहीं किया ?” और मीठी आँखों में आँसू भर यह सोचती रह गयी कि आखिर उसका अपना घर है कौनसा ?

92   

साधना सोलंकी 

मृगतृष्णा
स्त्री अकेली थी और प्यासी भी । यह जनम-जनम की प्यास थी और आज तक नहीं बुझ पाई थी । कहीं दो घूँट पानी मिलता भी...मुगालता होता कि प्यास बुझ रही है, पर यह भ्रम बरसात के बाद तीखी धूप से पपड़ाई धरती-सा जल्द ही चटख जाता। एक बियाबान रेगिस्तान फिर सामने होता, रेत के बगूले उठते और स्त्री को नज़र आता कहीं कोई सरोवर और उल्टे पेड़ की छाया ! हाँफती देह लिए फिर वह भागती... बस पानी मिल जाए! बस एक बार! फिर तो वह ख़ुद ही मन के इस छलकते कलश को उस नीर सरिता में उडेल देगी......कभी सूखने न देगी! उसी के किनारे बना लेगी,छोटी-सी कुटिया! बांध लेगी जनम-जन्मान्तर के बंधन!
स्त्री बंधना चाहती थी मुक्त होकर! अजीब विडम्बना...अनोखी चाहत और निरंकुश मन की उडानें! प्यास तो लगनी ही थी!
``तुम्हारे होठ गुलाब की पँखुरियों जैसे कोमल और गुलाबी हैं!' पुरुष ने स्त्री से कहा।
स्त्री एकाएक रुक गई ।
'हूँ!' वह कुनमुनाई!
`तुम्हारे गाल सेब की तरह हैं...सुर्ख!' स्त्री आत्म मुग्धा हुई और बार-बार दर्पण देखती रही!
`तुम्हारी आँखे झील-सी गहरी हैं!'
स्त्री एक अंधे मोहपाश में उतरती चली गयी । वह अपना सर्वस्व भूल गयी! उसे अपना जनम सार्थक लगा! रूप के पुजारी पर वह न्योछावर हो मर मिटी। उसे लगा सच में वह तृप्त हुई। तन-मन सब सौंप दिया!
यह स्त्री-पुरुष के बीच का शाश्वत संवाद था। एक मोह मंत्र जो पुरुष सदियों से औरत के कान में धीरे-धीरे कहता आया है और वह कभी नहीं बच पाई इस मारक मंत्र के पाश से! वह सदा ही उसके रूप सौंदर्य का पान करता रहा । गुलाब की पंखुरियों को मुरझाकर सूखना ही था....सूख गयीं! सेब का रस सुखा तो वहां झुर्रियां पड़ गयीं! झील को जैसे किसी ने उलीच कर सुखा डाला। जिस तृप्ति की तलाश में स्त्री ने कभी सीता, कभी अहिल्या और कभी द्रोपदी को जिया था, वह अपना सर्वस्व देकर फिर जैसे युगों से संचित प्यास लिए तट पर अकेली खड़ी है! सीता का रुदन, अहिल्या का श्राप और द्रोपदी के यक्ष प्रश्न लिए!
युग दर युग बीते। स्त्री देह का जादू आज उसी के सिर चढ़ कर बोल रहा है। दहलीज  से निकलकर व्यवसाई दुनिया के हर विज्ञापन में वह बिकाऊ है। हर माल चाहे वे पुरुष के मोजे हों या शेविंग क्रीम...स्त्री आकर्षक देह के साथ मौजूद है!दरअसल विज्ञापनों में स्त्री काम नहीं कर रही...वह इस्तेमाल हो रही है। देह को चिरयुवा बनाये रखने के भ्रम में वह अपने अंगों की चीर फाड़ करवा रही है...पर प्यास नहीं बुझती उसकी! दरअसल वह उस नेह कलश को भुला बैठी है, जो उसके भीतर ही है!
पुरुष उससे कहे तो सही...तुम्हारा मन बहुत सुन्दर है...तुम्हारे भीतर सूख का निर्मल झरना बहता है! नेह का सागर है... बर्बाद होती दुनिया को बचाने के लिए...सच में तुम्हारे भीतर बहुत कुछ है...ओ! बौराई स्त्री!!

93

सिमर सदोष

देश
वहां पानी की बहुत तंगी रहती थी। बाल्टी भर पानी के लिये लोगों को मीलों तक चलना पडता था। वहां आदमी नहीं, मिलों ऊंट बसते थे !
एक बार सैलानियों का एक दल उस क्षेत्र में जा पहुंचा। उनके पास पानी का काफ़ी भंडार था, जो कम से कम दो साल चल सकता था।
गांव के लोग आश्चर्य चकित से आते और दूर खडे उन्हें  टुकुर-टुकुर ताका करते।
एक दिन एक सैलानी ने गांव वालों की भीड में सबसे पीछे एक संगमरमरी बुत खडा देखा। उसे गौर से देखने के लिये वह उसके नजदीक जा खडा हुआ। उसकी नज़र भांप कर बुत के समीप खडे एक बूढे ने खींसे निपोरते हुए कहा-मेरी बेटी है हजूर!
सैलानी ने उन्हें साथ ले जाकर एक मटका पानी दिया। बूढा बहुत खुश हुआ! उस दिन बाप -बेटी कोई तीन महीने पश्चात नहाए। रात को अन्य सैलानियों ने देखा कि उस सैलानी के खेमे में हल्की रोशनी जल रही है। उन्होंने खेमे में से आती कुछ आवाजें भी सुनी, जैसे वह किसी बुत के साथ खेल रहा हो।
धीरे-धीरे रात भर हल्की-हल्की रोशनी में नहाये खेमों की संख्या बढती गई और सैलानियों का पानी का भंडार निश्चित समय से पहले ही खत्म होने लगा।
अतः एक रात मुँह अंधेरे ही वहां से कूच कर गये। प्रातः किसी अनजाने भय के कारण कोई भी अपने घर से बाहर नहीं निकला। दोपहर तक हर कोई जान चुका था कि प्रायः हर घर में से एक-एक संगमरमरी बुत गायब है। सब एक दूसरे से  मुँह चुरा रहे थे।
                                                           


94 


सीमा जैन


पानी
मेरी माँ ससुराल में पानी भरने के लिए ही लाई गई थी। राजस्थान के गाँवों में जो व्यक्ति थोड़ा खर्च उठा सकते है; वे दो शादियाँ कर लेते हैं। एक पत्नी अच्छे परिवार से, घर में राज करने के लिए और दूसरी गरीब घर से, पानी लाने के लिए। ऐसा करना नौकर रखने से सस्ता जो पड़ता है। माँ सुबह तीन बजे उठती, कोसों दूर से पानी लाती और फिर दिन भर घर के काम में लगी रहती।
माँ के सुबह अँधेरे उठ जाने के कारण, मैं भी जल्दी ही उठ जाता था। तभी परिश्रम कर मैं पढ़-लिख गया। कार में बैठे माँ की बार-बार कही बात दिमाग में आ रहीं थी, “लाला, मन लगाकर पढ़ ले, पढाई तेरे काम आएगी।"
दो साल बाद गाँव जा रहा हूँ, माँ को लेने। अब माँ शहर में मेरे साथ ही रहेगी। सुबह चार बजे घर पहुँचा। माँ घर पर नहीं थी। ध्यान आया, वह तो पानी लेने गई होगी। हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड थी। शीत भरे अँधेरे में कार पानी वाले रास्ते पर दौड़ा ली। पिछले पच्चीस सालों से माँ कितना कठिन जीवन जी रही है! सोच लिया था, आज के बाद माँ कभी इस सूने रास्ते से पानी लेने नहीं जाएगी।
मुझे देखकर माँ ने गले से लगा लिया, बोली -"यहाँ क्यों आया लालता? कितनी ठण्ड है। चल, घर चल, मैं पानी ले कर आती हूँ।"
मैने माँ का हाथ थाम कर कहा- "माँ, घड़ा यहीं छोड़ और मेरे साथ घर चल।"
माँ के लिए पानी छोड़ना किसी आश्चर्य से कम नही था, वह बोली, "बेटा, फिर दिन भर...?”
मैने माँ को बीच में ही रोक कर कहा- "उनको एक दिन बिना पानी के भी रहने दे न माँ!"
विधवा माँ को अपने साथ लेकर शहर आ गया। सोसायटी में मेरा फ्लैट है, सारी सुविधाओं से युक्त। सायंकाल माँ को स्विमिंग पूल पर ले गया। वहाँ माँ उदास हो गई। मुझे तैरता देख वह रोने लगी। घर पहुँचकर माँ से पूछा- "क्या बात माँ, तुम उदास क्यों हो गई?"
माँ ने दर्द भरे स्वर में कहा- "जिन चार घड़े पानी ने पूरी ज़िन्दगी का सुख ले लिया, उस पानी का ये हाल...!"

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स्नेह गोस्वामी

वह जो नहीं कहा
सुबह 6 बजे
सुनो जानू! आज तुम टूर पर हो तो लग रहा है आज यह घर पूरा का पूरा मेरा है। लग रहा है मैं आज सच्चे अर्थो में घरवाली हूँ, वर्ना तो शाम के समय पूरे घर में तुम्हारी ही आवाजें सुनाई देती हैं, "सुनती हो चाय बनाओ, जल्दी से खाना लाओ, चादर नहीं झाड़ी अब तक भई! तुम तो सारा दिन सोयी रहती हो और अब आधी रात तक बर्तन बजाती रहोगी। अब दूध क्या एक बजे रात को दोगी।" पूरा दिन यही सब सुनते बीतता है। पर आज कितनी शान्ति है। आज मैंने शादी के बाद पहली बार अदरक डली चाय बनाई है। अब आराम से अपना मनपसन्द कोई
नॉवल पढ़ना चाहती हूँ। तुम तो अपनी मीटिंग की फाइलों में उलझे होगे, फिर भी बाय!
सुबह, 10 बजे
सुनो जानू, मीटिंग शुरू हो गई क्या? पक्का हो गई होगी। मैंने भी मन्नू भंडारी का आपका बंटीखत्म कर लिया।
बेचारा बंटी! पर बंटी को बेचारा होने से बचाने के चक्कर में कितनी शकुन हर रोज़ बेचारी होती है। तुम मर्द कैसे समझोगे। खैर जाने दो। मैंने आज अपने लिए सैंडविच और पोहा बनाया, चटखारे ले कर खाया। रोज-रोज आलू के पराँठे खा के उब गयी थी। तुम तो कभी ऊबते ही नहीं पराँठों से। मन में संतुष्टि हो रही है। अब कुछ देर टी.वी. पर कोई सीरियल देखूंगी। जब तुम घर होते हो तब तो टी. वी. पर या तो न्यूज चलती हैं या फिर कोई मैच; वह
भी तब तक जब तक तुम्हारा मन करे वरना टी.वी. बंद। अरे, कोई अच्छा सा सीरियल शुरू हो गया है, इसलिए बाय!
दोपहर, 3 बजे
जानू, आज मैंने कई दिनों बाद फिल्म देखी। लगा था, जिन्दगी मशीन हो गई है। पर नहीं दिल अभी धड़क रहा है। पुरानी फिल्म थी, साहिब बीबी और गुलाम। मीना कुमारी छोटी बहू बनी है; गरीब घर की बेटी और बड़े जमींदार की पत्नी। पति को नाचने वाली, और शराब से फुर्सत नहीं है। बीवी बेचारी सारी ज़िन्दगी उसे खुश करने के चक्कर में पागल हुई रहती है। सुनो! ये हसबैंड लोगों को बाहर वालियाँ क्यों अच्छी लगती हैं? बेशक कोई बाहर वाली घास भी न डाले, पर ये लट्टू हुए आगे-पीछे घूमते रहेंगे। घरवाली को सिर्फ कामवाली बाई बनाए रखेंगे। अरे, आज सफाई तो की ही नहीं। चलो, अब थोड़ी सफाई कर ली जाय, फिर खाना सोचूंगी। बाय!
शाम, 7 बजे
जानू, शाम को सफाई में ही तीन घंटे लग गए। आज मैंने घर रगड़-रगड़ कर साफ़ किया। एक-एक खिड़की दरवाजा, रोशनदान झाड़ कर चमकाये। इस घर पर सच में बहुत प्यार आया। फिर सारी चादरें बदलीं, सोफा-कवर बदले। पूरा घर अलग ही लुक दे रहा है। कपड़े धोने के लिए मशीन में डाले। फिर अपने लिए रोटी बनाई। सब्जी तो वही पड़ी थी जो रात तुम्हारे लिए बनाई थी, उसी के साथ खा ली। अब कुछ देर गाने सुने जाएँ, ठीक! बाय !
रात, 11 बजे
सुनो जानू, शाम को खाना तो बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। खाया ही आठ बजे था, पर कॉफ़ी का एक कप बनाया। एक तुम्हारा भी बन गया था सो दोनों कप मुझे ही पीने पड़े। फिर सास-बहू के सीरियल देखे। बहुत दिनों से देखे नहीं थे, पर लगा नहीं कि एक साल के अंतर के बाद देखे हैं। वही कहानी, वही करेक्टर, वही उनके षड्यन्त्र। फिर भी अच्छा समय बीत गया। अब सोने जा रही हूँ। अच्छा अब गुड नाईट!
रात, दो बजे
सुनो जानू, तुम तो सो चुके होगे, पर मुझे नींद नहीं आ रही। तुम्हारे चीखने-चिल्लाने की आवाजें सुबह से अब तक नहीं सुनी। शायद इसलिए या इस समय पूरे कमरे में गूँजते खर्राटों के बिना सोने की आदत नहीं रही इसलिए। कारण जो भी हो पर नींद तो सचमुच ही नहीं आ रही। इतना अच्छा दिन बीता फिर तो निश्चिंत होकर सोना चाहिये था न, फिर भी नहीं सोई। तुम से पूरी तरह से न जुड़ पाने के बावजूद तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही। पर तुम यह सब कैसे जानोगे। तुम खुद कभी ये समझोगे नहीं और मैं तो शायद कभी कह ही नहीं पाऊँगी।
क्योंकि जब तुम घर में रहोगे तो यह घर तुम्हारा ही होगा। तुम ही बोलोगे, तुम ही हुक्म दोगे। मैं तो सिर्फ, ‘जी, आई जी, जी लाई जी,’ ही कह पाती हूँ। पर फिर भी तुम्हें मिस कर रही हूँ। अपनी मीटिंग जल्दी से खत्म करो और आ जाओ। मुझे नींद नहीं आ रही है।

2 comments:

  1. बहुत अच्छी लघुकथाएँ ।बहुत अच्छा चयन ।बधाई ।

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  2. बहुत अच्छी लघुकथाएँ ।बधाई ।

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