Tuesday, 22 January 2019

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-18

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100+ लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  11 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018, 17 दिसम्बर 2018, 20 दिसम्बर 2018, 24 दिसम्बर 2018, 27 दिसम्बर 2018, 30 दिसम्बर 2018, 2 जनवरी, 2019, 6 जनवरी 2019, 12 जनवरी 2019, 16 जनवरी 2019 तथा 19 जनवरी 2019 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी अठारहवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो यूनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  अठारहवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…
18…
86 शरद जोशी—मैं वही भगीरथ हूँ
87 संध्या तिवारी--कविता
88 सतीश दुबे—चौखट
89 सतीश राठी—जिस्मों का तिलिस्म
90 सतीशराज पुष्करणा—मन के साँप



86    

शरद जोशी

मैं वही भगीरथ हूँ
मेरे मोहल्ले के एक ठेकेदार महोदय अपनी माता को गंगा-स्नान कराने हरिद्वार ले गए। गंगा के सामने एक धर्मशाला में ठहरे। शाम हुई, सोचा—किनारे तक टहल आएँ। वे आए और गंगा किनारे खड़े हो गए। तभी उन्होंने देखा कि एक दिव्यपुरुष वहीं खड़ा एकटक गंगा को निहार रहा है। ठेकेदार महोदय उस समय दिव्य व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए। पास गए, और पूछने लगे –“आपका शुभ नाम।”        
“मेरा नाम भगीरथ है।” उस दिव्य पुरुष ने कहा।
मेरे स्टाफ में ही चार भट भगीरथ हैं। जरा अपना विस्तार से परिचय दीजिए।”                  
“मैं वही भगीरथ हूँ, जो वर्षों पूर्व इस गंगा को यहाँ लाया था। उसे लाने के बाद ही मेरे पुरखे तर सके।”                                                                                
“वाह वाह कितना बड़ा प्रोजेक्ट रहा होगा! अगर ऐसा प्रोजेक्ट मिल जाए तो पुरखे क्या पीढियाँ तर जाएँ।”

87 

संध्या तिवारी

कविता
“सुनो बताती हूँ—मैं घर का आँगन हूँ जहाँ मैं झाड-बुहार करती हूँ।
 मैं कमरा हूँ, जहाँ मैं सबके आराम का खयाल रखती हूँ
 मैं रसोई हूँ, जहाँ मैं सबका पेट भरती हूँ।
 मैं छत भी हूँ, जिस पर घर का बेटा पतंगें उड़ाता है।
 मैं ड्राइंग-रूम की सज्जा भी हूँ, जहाँ होता है मेरे अच्छे काम का इनाम और अधिक काम।”
“मुबारक हो संजू! कितना सुन्दर घर बना है तेरा।”
कविता की अन्तिम पंक्ति सोचते हुए संजू अपनी सहेली मंजू के कॉम्प्लीमेंट का सहज ही कोई जबाब न दे पाई, बस मुस्करा भर दी।
“क्या लिख रही हो इतनी तन्मयता से?” मंजू ने पूछा।
“कुछ नहीं एक कविता लिख रही थी अन्तिम पंक्ति सूझ ही नहीं रही |”
“चल छोड़, फिर कभी लिख लेना। कम-से-कम नया घर तो दिखा।” मंजू ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा।
“ठीक है चल।” संजू कॉपी पेन एक तरफ रखकर उठ गई।
बेडरूम से होते हुए ड्राइंग-रूम तक देखने के बाद दोनों मेन गेट के बाहर का जायजा लेने लगीं।
“वाऊ! तेरा घर तो घर, इसकी नेम-प्लेट तक कितनी स्टाइलिश है, रेडियम की है न? इसमें तेरे छोटे भाई का नाम है।” मंजू नेम-प्लेट पर हाथ फेरते हुए कुछ उत्साह मिश्रित उत्सुकता से एक ही साँस में पूरा वाक्य बोल गई।
   अचानक संजू मंजू को नेम-प्लेट के आकर्षण में वहीं बँधा छोड़, अन्दर आई; और आकर उसने अपनी अन्तिम पंक्ति पूरी की...
“मैं मुख्य द्वार की साँकल, सबकी सुविधा और सुरक्षा के लिए खुलती और बंद होती हूँ
मैं समूचा घर हूँ,
बस घर की नेम-प्लेट नहीं।”  

88

सतीश दुबे

चौखट
चौखट-पूजा वाले दिन श्रीफल बदार कर मंत्रबद्ध पूजन सामग्री सहित लाल कपड़े में बांधी गई छोटी-सी पोटली मस्तिष्क में उभरकर आँखों के सामने आ गई। चौखट में दरवाजे का लगना और फिर मंगल प्रवेश।
शादी होने के पूर्व तक का खुशनुमा जीवन जीने तथा स्कूल से कॉलेज तक की शिक्षा के  लिए सब बच्चे इसी चौखट से निकले। बाहर से लाई गई खुशियों को घर में बाँटे जाने वाले मनसूबों से लदे चरण की उल्लासभरी थिरकन इसने महसूस की। देश विदेश से उपलब्धियाँ  प्राप्त कर लौटे बेटों तथा पहली बार आए दामादों का स्वागत भी तो सबसे पहले इसी ने किया। यही नही, शुभ्र वस्त्र पर हल्दी भरे चरण चिह्न अंकित कर छुई-मुई सी लजाती शरमाती लक्ष्मीस्वरूपा बहुओं का आंतरिक हर्ष वाद्यों के साथ प्रवेश हेतु आग्रह कर रही गृह तपस्विनी की छवि को इसने एलबम की तरह अपने में समाए रखा है। यदि मन के सूक्ष्म यंत्रों से देखा जाए, तो बेटियों को बिदा करते वक्त टपकी आँसुओं की ढ़ेर सारी बूँदे भी तो यहाँ दिखाई देगी। इस मायने में खुशी ही नहीं, न जाने कितने दर्द और कोलाहल की प्रतिध्वनियों को इस चौखट ने अपने में ज़ज्ब कर रखा है।
अंकित, प्रेक्षा, प्रीतांशु, पुनर्वसु तथा सूर्यांश अब तो बडों बडों के कान काटने लगे हैं, किन्तु इन्होंने जन्मदात्रियों की गोद में टुकुर- टुकुर आँखें घुमाते हुए इसी चौखट से तो प्रवेश कर जीवन को सँवारने की शुरुआत की।
अकबर महान के ‘बुलंद दरवाजा’ की तरह, जो दक्षिणमुखी प्रवेश द्वार, इतनी उपलब्धियों की नींव पर खड़ा हो, उसे अनिष्टकारी कैसे माना जा सकता है।
मस्तिष्क से अंतिम निर्णायक सूत्र मिलते ही उन्होंने निगाहें घुमाकर सामने बैठे वास्तुशास्त्री तथा भवन निर्माता की ओर देखा तथा दृढ़ता से बोले, “मि. फेन्गशुई, क्षमा कीजिएगा, वास्तु सिद्धांतों को अमल में लाने के  लिए मैं अतीत की सुखद इमारत पर हथौड़ा नही चला सकता…।

89



सतीश राठी

जिस्मों का तिलिस्म
वे सारे सिर झुकाए खड़े थे। उनके काँधे इसतरह झुके हुए थे कि पीठ पर कुबड़-सी निकली लग रही थी। दूर सेउन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सिरकटे जिस्म पंकिबद्ध खड़े हैं।
मैं उनके नजदीक गया। मैं चकित था कि ये इतनी लम्बी लाइन लगाकर क्यों खड़े हैं?
क्या मैं इस लम्बी कतार की वजह जान सकता हूँ?” नजदीक खड़े एक जिस्म से मैंने प्रश्न किया।
उसने अपना सिर उठाने की असफल कोशिश की। लेकिन मैं यह देखकर और चौंक गया कि उसकी नाक के नीचे बोलने के लिए कोई स्थान नहीं है।
तभी उसकी पीठ से तकरीबन चिपके हुए पेट से एक धीमी–सी आवाज आई, “हमें पेट भरना है और यह राशन की दुकान है।”
लेकिन यह दुकान तो बंद है। कब खुलेगी यह दुकान ?” मैंने प्रश्न किया।
पिछले कई वर्षों से हम ऐसे ही खड़े हैं। इसका मलिक हमें कई बार आश्वासन दे गया कि दुकान शीघ्र खुलेगी और सबको भरपेट राशन मिलेगा।” आसपास खड़े जिस्मों से खोखली-सी आवाजें आई।
तो तुम लोग ...अपने हाथों से क्यों नहीं खोल लेते यह दुकान ?” पूछते हुए मेरा ध्यान उनके हाथों की ओर गया तो आँखें आश्चर्य से विस्फारित हो गई।
मैंने देखा कि सारे जिस्मों के दोनों हाथ गायब थे।
     
90  
        
सतीशराज पुष्करणा

मन के साँप
आज रात खाना खाने के बाद उसका मन कैसा-कैसा तो होने लगा । वह मन-ही-मन बड़बड़ाया, ‘ये पत्नी भी अजीब है, मायके गई तो गई-आज सप्ताह होने को आया, उसे इतना भी ध्यान नहीं कि पति की रातें कैसे कटती होंगी।’ वह आकर अपने बिछावन पर लेट गया। नींद तो जैसे उसकी आँखों से उड़ चुकी थी । आज टीवी देखने को भी उसका मन नहीं हो रहा था। उसे ध्यान आया कि आज ऑफिस में मिसेज़ सिन्हा कितनी खूबसूरत लग रही थीं, क्या हँस-हँसकर बातें कर रही थीं। इस स्मरण ने उसे और बेचैन-सा कर दिया । उसे अपनी पत्नी पर क्रोध आने लगा, ‘यह भी कोई तरीका है? शादी के बाद औरत को अपने घर का ध्यान होना चाहिए।’
वह जैसे-जैसे सोने का प्रयास करता, नींद उसकी आँखों से वैसे-वैसे दूर भागती जाती। इतने में, उसकी दृष्टि सामने अलगनी पर जा टिकी, जहाँ उसकी पत्नी की साड़ी लापरवाही से लटकी हुई थी । उसे लगा, जैसे उसकी पत्नी खड़ी मुस्करा रही है। वह उठा और अलगनी से उस साड़ी को उठा लाया और उसे सीने से लगा लिया। फिर एकाएक उसे चूम लिया। उसे लगा, जैसे वह साड़ी नहीं, उसकी पत्नी है। उसने साड़ी को बहुत प्रेम से सरियाया और तह लगाकर अपने तकिए के बगल में रख लिया ।
मालिक ! और कोई काम हो, तो बता दीजिए; फिर मैं सोने जाऊँगी। अपनी युवा नौकरानी के स्वर से वह चौंक उठा। उसने चोर-दृष्टि से उसके यौवन को पहली बार भरपूर दृष्टि से देखा, तो वह दंग रह गया। आज वह उसे बहुत सुन्दर लग रही थी। उसे देखकर फिर न जाने उसका मन कैसा-कैसा तो होने लगा। अभी वह कामुक हो ही रहा था कि नौकरानी ने पुनः पूछा, मालिक, बता दीजिए न !
तुम ऐसा करो, तुम कहाँ उधर दूसरे कमरे में सोने जाओगी। यहीं इसी कमरे में सो जाओ। न जाने कोई काम याद आ ही जाए। ज़रूरत पड़ने पर तुम्हें जगा दूँगा। हाँ ! पीने के लिए पानी का एक जग और एक गिलास ज़रूर रख लेना। फिलहाल तो कोई काम याद नहीं आ रहा है।
जी अच्छा !
आज नींद उसकी आँखों से दूर, कभी पत्नी का ख़्याल, कभी मिसेज़ सिन्हा का ध्यान, कभी नौकरानी के यौवन का नशा। उसने अपने को बहलाने के विचार से कोई पत्रिका सामने अलमारी से निकाली। उसे पढ़ने में मन तो नहीं लगा, बस यों ही उलटने-पलटने लगा । पत्रिका के मध्य में उसे किसी सिने-तारिका का ‘ब्लो-अप’ नज़र आया । उसकी दृष्टि रुक गई। उसे लगा, वह सिने-तारिका हरक़त करने लगी है। वह उसे देखता रहा । उसे लगा, वह मुस्करा रही है। वह भी मुस्कराने लगा। उसने उस ‘ब्लो अप’ को स्पर्श किया, तो यथार्थ के धरातल पर आ गया। उसने पत्रिका बन्द करके एक तरफ रख दी ।
वह पानी के विचार से उठा । उसने देखा, उसकी नौकरानी उसकी नीयत से बेखबर गहरी नींद में सोई हुई है। उसकी आती-जाती साँसों से हिलता उसका बदन उसे बहुत भला लगने लगा । उसका मासूम चेहरा, उसे लगा कि वह उसे चूम ले, किन्तु किसी अज्ञात भय से वह पीछे हट गया। वह सोचने लगा कि वह समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति है। कार्यालय में भी उसको आदर की दृष्टि से देखा जाता है। बाहरी आडम्बरों ने उसके मन को दबाया, किन्तु फिर मन था कि उसकी ओर बढ़ा, किन्तु एकाएक उसकी पत्नी की आकृति उभरती दिखाई दी । अब उसकी पत्नी के चेहरे पर मुस्कराहट के स्थान पर घृणा के भाव थे। वह सिहर गया। पुनः अपने पलंग पर लौट आया। नौकरानी को आवाज़ दी और पानी का गिलास देने को कहा।
उसने पानी पीकर कहा, देखो ! अब मुझे कोई काम नहीं है। तुम वहीं बगल के कमरे में जाकर सो जाओ। देखो! अन्दर से कमरा ज़रूर बन्द कर लेना। यह कहकर वह बाथरूम की ओर बढ़ गया। बाथरूम में लटका पत्नी का गाउन उसे ऐसा लगा, पत्नी मुस्करा रही है और इस अर्द्धरात्रि में वह स्नान करने लगा ।

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