Tuesday, 9 October 2012

'साहित्यिकी' का हस्तलिखित लघुकथा विशेषांक



दोस्तो, इस बार बंगलौर गया तो वहाँ रह रहे दो पुराने साहित्यिक मित्रों से भी भेंट का सुअवसर मिलाभाई राजेश उत्साही और दीदी सुधा भार्गव से। इन दोनों के अलावा दो नये मित्रों से भी मुलाकात हुई एकलव्‍य के शिवनारायण गौर और अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की छात्रा प्रियंका गोस्‍वामी से। इस बार अपना कैमरा साथ नहीं लेजा सके थे, इसलिए सभी की संयुक्त फोटो खींचने से चूक गये।
'साहित्यिकी' के हस्तलिखित लघुकथा विशेषांक का मुखपृष्ठ सौजन्य :श्रीमती सुधा भार्गव, बंगलौर
सुधा जी के आवास पर कु्छ पुस्तकें और पत्रिकाएँ भी देखने को मिलीं जिनमें पता नहीं कितने वर्षों से प्रकाशित हो रही कोलकाता की बुद्धिजीवी स्त्रियों के मंच साहित्यिकी की  हस्तलिखित पत्रिका साहित्यिकी के लघुकथा विशेषांक (जुलाई 2010, अंक 18) ने मुझे एकदम से आकर्षित किया। इस अंक की संपादक द्वय हैंरेवा जाजोदिया और गीता दुबे तथा विशेष सहयोग दिया हैसंस्था की सचिव किरण सिपानी ने। संपादकीय, किरण सिवानी द्वारा लिखित अपनी बात, पाठकों का पन्ना तथा  कृषक भारती को-ऑपरेटिव की विपणन प्रबंधक श्रीमती शालिनी माथुर से साक्षात्कार के साथ ही इस अंक में 30 महिला कथाकारों की 30 लघुकथाएँ उनकी हस्तलिपि में दी गई हैं।
इस श्रमसाध्य साहित्यिक प्रयास की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। संपादक द्वय से संपर्क का पता आपकी सुविधा के लिए नीचे दे रहा हूँ। अंक का लिखित मूल्य मात्र रु॰ 20/- है जिसे मँगाने के लिए पहले फोन से सम्पर्क कर लें तब राशि भेजें।
1॰ रेवा जाजोदिया, प्राची, 57/1, कालीतल्ला लिंक रोड, उत्तर पूर्वांचल, कोलकाता-700078 दूरभाष: 24847936
2॰ गीता दुबे, पूजा अपार्टमेंट्स, 58ए/9, प्रिंस गुलाम सेन शाह रोड, पो॰ कोलकाता-700032 दूरभाष : 24143160

वेदप्रकाश अमिताभ का लघुकथा संग्रह 'गुलामी'

डॉ॰ वेदप्रकाश अमिताभ का पहला लघुकथा संग्रह

बंगलौर से लौटकर घर आया तो सबसे पहले गत एक माह में आयी डाक को देखना-परखना शुरू किया। उस बहुत-सी सामग्री में जो उल्लेखनीय कृति सामने आयी, वह थी सुपरिचित लेखक-आलोचक डॉ॰ वेदप्रकाश अमिताभ की 31 लघुकथाओं का संग्रह गुलामी। कवर पृष्ठों सहित 44 पृष्ठों की इस नन्ही पुस्तिका का मूल्य मात्र 30 रुपए रखा गया है, शायद दिखानेभर के लिए। इन लघुकथाओं पर पुस्तिका के दोनों भीतरी कवर पृष्ठों पर डॉ॰ रमेशचन्द्र शर्मा व डॉ॰ देवेन्द्र कुमार की बड़ी सारगर्भित टिप्पणियाँ हैं। कवर डिज़ाइन राघवेन्द्र तिवारी ने तैयार किया है तथा भीतरी लघुकथाओं को अपने रेखांकनों से सजाया है कथाकार-चित्रकार भाई राजेन्द्र परदेसी ने।

      यद्यपि अपनी बात में अमिताभ जी ने लिखा है कि लघुकथा मेरी मुख्य विधा नहीं है तथापि संग्रह की अनेक रचनाओं को पढ़कर लगता यही है कि उन्हें लघुकथा विधा को स्वयं के लेखन-कौशल से वंचित रखना नहीं चाहिए। उक्त संग्रह से प्रस्तुत है एक ऐसी संवेदनशील लघुकथा सवाल, जो सामाजिक विसंगतियों से आहत बालमन की ध्वंसात्मक स्थिति को पूरी गहराई के साथ सामने रखती है:

भूकंप क्या होता है पापा?
      बेटी अपनी किताब को भात से चिपका रही थी। कई दिन से भूकंप की चर्चा सुनकर तंग आ गयी थी कि जाने क्या बला है भूकम्प? वैसे भी बहुत सवाल पूछती है। कभी पूछती है कि हमारे पास कलर टीवी क्यों नहीं है? कभी जानना चाहती है कि हमारा अपना घर क्यों नहीं है? सामने वालों की कोठी इतनी बड़ी, ऊँची और सुन्दर क्यों है? आदि-आदि।
पिता ने अपनी समझ के अनुसार भूकम्प का वर्णन करते हुए कहा—“भूकम्प में धरती हिलती है। बड़े-बड़े मकान गिर जाते हैं। सब कीमती सामान टूट-फूट जाते हैं। बहुत-से लोग…
पिता की बात खत्म होने पर बिटिया ने एक बार सामने वाली कोठी की ओर देखा औए एक नया सवाल दाग़ दिया—“भूकम्प हमारे मुहल्ले में क्यों नहीं आता पापा?
वेदप्रकाश अमिताभ से सम्पर्क का पता:डी-131, रमेश विहार, अलीगढ़-202010 (ऊ॰प्र॰), मोबाइल: 09837004113
 

Monday, 27 August 2012

शोभा रस्तोगी 'शोभा' की लघुकथाएँ

दोस्तो, 'जनगाथा' पर बहुत समय बाद तपन शर्मा की एक लघुकथा 'शवयात्रा' गत दिनों पोस्ट की थी। इस बार प्रस्तुत हैं--शोभा रस्तोगी 'शोभा' की चार लघुकथाएँ:

गन्दा आदमी 
डेली पैसेंजरी करते एक अरसा हो गया| रोज वही चेहरे, ट्रेन,सीटी, भाग-दौड़| पाँच की बर्थ पर आठ-नौ व्यक्ति| पचास ग्राम जगह भी मिल जाए तो समझो किस्मत चमकी| ट्रेन की रफ़्तार पकड़ते ही निद्रा देवी का राज शुरू| झपकी आना...सिरों का लुढ़कना...लार निकलना...| मर्दों से आधा किलोमीटर दूर रहनेवाली ने भी उनसे सटके बैठना सीख लिया| क्या करे? कब तक खड़ी रहे? रोज का काम| शरीर टूटता अलग|
आज भी वही मुच्छड़ गन्दा चिपचिपा सा आदमी उसकी बगल में बैठा था| झपकी आने पर  धूल भरा सिर उसके कंधे से टकराएगा| वह घृणा से झटक देगी| फिर वह माफ़ी भरी आँखों से देखेगा| उफ़! जाने रात को इन्हें नींद क्यों नहीं आती? उसे खुद  कभी ट्रेन में नींद नहीं आती|
रात बिटिया को बुखार था| उसकी नींद भी पूरी न हुई| ऑफिस में भी काम पर काम| लगी रही दिन भर| बाहर देखते-देखते पता नहीं कब झपकी ने आँखों को  थपकी दी| अगले स्टेशन पर जोरदार आवाज़ से उसकी नींद टूटी तो पाया ...ओह! उसका अपना सिर इस गंदे आदमी के कंधे पर...ओह गाड! नो,नो ..इम्पोसिबल ...बट इट हेज़ हेप्पंड़ न| सॉरी| कहना पड़ा गंदे आदमी को|' कोई बात नहीं बहन| थकान की नींद ऐसी ही होती है|'
अब वह अपने आप से नज़रें चुरा रही थी|
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क़त्ल किसका 
दंगे भड़क उठे थे| सांप्रदायिक तत्व कार्यशील थे| कत्ले-आम आम हो गया| बी.एस.एफ. की गाड़ियाँ दनादन रौन्दाई गईं| कर्फ्यू का ऐलान| भग्गी मच गयी| लोग जहाँ-तहा पनाह लेने लगे| आँखों से विश्वास उतरकर बन्दूक, चाकू पर आ  गया| भीड़ छँटते ही सड़क नंगी हो गयी| पुलिया के नजदीक एक आदमी खून से लथपथ मृत पड़ा था| तहकीकात हुई| कोई वारिस नहीं| किसी संप्रदाय का कोई चिन्ह नहीं| कानाफूंसी होने लगी--किसका खून हुआ? 
सब आदमी पर लगे सांप्रदायिक लेबल ढूँढते रहे| 
क़त्ल आदमी का हुआ| यह कोई समझ न पाया|
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उजाला
ढोल-नगाड़ों की चाहत रखने वाली दादी के माथे पर अनगिनत शिकनें धमाचौकड़ी मचा रही थीं | एक तो पोती का जन्म, उस पर बहू का कुआँ पूजने का ऐलान| सिर सौ-सौ मन भारी हुआ जा रहा था| कौन-सा मुँह  दिखाएगी--जात-बिरादरी को, मौहल्ला-पड़ोस को, समाज को, नाते-रिश्तेदारों को| जितने मुँह उतनी बातें| जम के जगहँसाई होगी| मन किरिच-किरिच हुआ जा रहा था| छोटे की जिद खातर पढ़ी-लिखी बहू ब्याहने पर पहले ही कितनी छीछालेदार  हुई थी उसकी| और अब कुआँ, वो भी छोरी जात का!
आपादमस्तक दुःख से त्रस्त, पसीने से तर-बतर मान-मनुहार की मन में दबाएजच्चाखाने में पैर पड़ते ही कानों में गर्म सीसा पिघल गया| 'ढोल बजवाऊँगी, नौ दिन नवरात्रे रखूँगी | दुर्गा,लक्ष्मी, सरस्वती की कृपा  बरसी है मेरी गोद में| कुआँ पूजूँगी  मै अपनी लाडो का|' बहू का चेहरा लकदक उजाले से उल्लसित हुआ जा रहा था| कोर-कोर से रौशनी के असंख्य पुंज फूट रहे थे, जिसके दृष्टिमात्र से ही सास के मन में सदियों से बैठी अमावस का अज्ञानी तिमिर सिर पे पैर रख के भाग उठा| उलटे पैरों आती वह ख़ुशी से चिल्लाई--कुएँ की तैयारी कर लो| मेरे घर दुर्गा आई है|
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प्रेस्टीज इश्यू
'ओफ्फोह ! करीने से रखिए फूलमालाएँ डेड बॉडी के पास| व्हाट! पुरानी चादर? हटाओ इसे| नई धुली, वेल प्रेस्ड बोम्बे डाइंग की बेडशीट्स बिछाओ |... विडियो कवरेज हो रही है| देखिए! आप सभी रिश्तेदार अपने कपड़े ठीक करें… और चेहरा कुछ मुस्काता हुआ...आई मीन…थोडा दुःख के साथ...बाकी ठीक है| साहब की माँ एक्सपायर हुई हैं | लगना चाहिए भई |' विडियोग्राफर  कवरेज के दौरान हिदायतें दे रहा था।
'अरे ये काली साड़ी!...नो..नो…सफ़ेद पहनिए|' मृतका की ग्रामीण चचेरी बहन को रोका उसने|
'पर सफ़ेद साड़ी तो...' वह झिझकी| 
'तो किराए पर ले लो|...बड़ी बात है| साहब के आफिस में, मित्रों में…हर जगह यह विडियो  दिखाई जाएगी| बॉस का प्रेस्टीज इश्यू है न|' विडियोग्राफर बोला |
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लेखिका परिचय
शोभा रस्तोगी  'शोभा'             चित्र:बलराम अग्रवाल
शिक्षा - एम. ए. [अंग्रेजी-हिंदी ], बी. एड. , शिक्षा विशारद, संगीत प्रभाकर [ तबला ]           
जन्म - 26 अक्तूबर 1968 ,  अलीगढ [ उ. प्र. ]
सम्प्रति - सरकारी विद्यालय दिल्ली  में अध्यापिका
पता - RZ-D.-- 208, B, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर - || पालम कालोनी, नई दिल्ली -110077.भारत 
प्रकाशित रचनाएँ.-- पंजाब केसरी, कादम्बिनी,कल्पान्त, राष्ट्र किंकर, हम सब साथ साथ, केपिटल रिपोर्टर,कथा संसार,  बहुजन विकास, न्यू ऑब्जर्वर पोस्ट, शैल सूत्र, जर्जर कश्ती,सुमन सागर आदि  में  लघुकथा, कविता, कहानी, लेख,समीक्षा आदि प्रकाशित| 'खिडकियों पर टंगे लोग' लघुकथा  संग्रह  में लघुकथाएं संकलित | आकाशवाणी भोपाल से लेख प्रसारित| आकाशवाणी नई दिल्ली से ब्रज भाषा मै कहानियां  प्रसारित|
 ओंन लाइन पोर्टल पर प्रकाशित --  सृजनगाथा.कॉम , लघुकथा.कॉम , साहित्याशिल्पी.कॉम , शब्दकार.कॉम , रचनाकार.कॉम, स्वर्गविभा.कोम, हिंदी चेतना[कनाडा] पर शेर , लघुकथा व कविता, समीक्षा  प्रकाशित|
सम्मान -युवा लघुकथाकार सम्मन2010, पंचवटी राष्ट्रभाषा सम्मान2011, नारायणी साहित्य सम्मान2012
ईमेल - shobharastogishobha@gmail.com  

Saturday, 11 August 2012

शवयात्रा/तपन शर्मा


दोस्तो, लंदन ओलिम्पिक 2012 में भारतीय हॉकी टीम 12वें स्थान पर आयी है। उसने भले ही 21 गोल खाए, लेकिन बहादुरी दिखाते हुए 8 गोल किये भी। इस शानदार उपलब्धि पर आइए, पढ़ते हैं तपन शर्मा की शानदार लघुकथा 'शवयात्रा'

                                                             फोटो:बलराम अग्रवाल
राम नाम सत्य है....
ये किसकी अर्थी जा रही है भाई? एक आदमी ने शवयात्रा जाती हुई देखी तो दूसरे से पूछा।
अरे, तुम्हें नहीं पता? बहुत ऊँचे पद पर थीं ये बूढ़ी अम्मा। सुना है पद्मश्री मिला हुआ था। जवाब मिला।
पर ये हैं कौन?
ज्यादा तो नहीं पता पर कोई मेजर हुए हैं, शायद ध्यानचंद नाम था उनका। उन्हीं की माँ थीं बेचारी।
ध्यानचंद! ज्यादा सुना तो नहीं हैं इस आदमी के बारे में!!
पूरे लगन से अपनी माँ का ख्याल रखता था वो। सुना है, आँच तक नहीं आने दी कभी । फिरंगियों को भी पास नहीं भटकने दिया था।
हम्म।
पर आज देखो, बेचारी को कोई चार काँधे देने वाला भी नहीं मिला।
कोई बीमारी हो गई थी क्या? कौन-कौन थे इनके घर में?
परिवार तो अच्छा बड़ा था, पर पोते-पोतियों ने अपने बाप-दादा का नाम मिट्टी में मिला दिया। बिल्कुल भी इज़्ज़त नहीं दी अपनी दादी को। बीमारी में भी कोई सहारा न दिया। एक तरह से ये ही मौत के जिम्मेदार हैं।
पर पद्मश्री या पद्मविभूषण जिन्हें मिला उन अम्मा का सरकार ने तो ध्यान रखा होगा।
हा हा, कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो भाई, सटक गये हो क्या? सरकार ने कभी किसी का ध्यान रखा है जो इनका रखती। पता नहीं कितनी ही बार सरकार से मदद माँगी। हारी बीमारी में भी एक फूटी कौड़ी भी न मिली। आज की तारीख में देखो तो पूरी तरह से नजरअंदाज़ कर दिया था इन्हें।
अच्छा!
और नहीं तो क्या?
पर आस पड़ौसी, या जान पहचान वाले?
कोई किसी का सगा नहीं होता दोस्त। सब अपने मतलब का करते हैं। अम्मा से उन्हें क्या सारोकार होगा। कोई जमीन जायदाद तो थी नहीं। कोई पैसा नहीं। तो फिर क्यों अपना समय नष्ट करते?
सही कहते हो। पर मैंने इन सबके बारे में कभी सुना नहीं। टीवी तो मैं तो रोज़ाना देखता हूँ। सचिन, शाहरूख, धोनी, युवराज, अमिताभ, ऐश्वर्य इन सबके बारे में तो आता रहता है पर इन अम्मा के बारे में नहीं पता चला। कब मृत्यु हुई है इनकी?
यही कोई दो दिन पहले। कहीं बाहर गईं थीं। तीर्थ पर। कहते हैं वहाँ से वापस आते आते ही दिल का दौरा पड़ा और...
ओह। पर मैंने तो कोई खबर नहीं देखी। ब्रेकिंग न्यूज़ में इसका कोई जिक्र ही नहीं था"
हाँ। हो सकता है।
पर इतनी महान होते हुए भी ऐसी दर्दनाक मौत की चिता को आग लगाने वाला भी न मिला। सचमुच अफसोस है। किसी ने कुछ करा भी नहीं।
किसी की कद्र उसके जाने के बाद ही होती है। अब देखना, तुम्हें यही खबर दिखाई देखी हमेशा टीवी पर।
पर देखना ये है कि कब तक? अरे पर तुमने अभी तक इनका नाम नहीं बताया।
मैंने अभी अभी किसी के मुँह से सुना था। उसने इनका नाम हॉकी बतलाया है। तो यही नाम होगा।
हॉकी...
राम नाम सत्य है की ध्वनि फिर से आने लगी थी।
सम्पर्क:सी-159, ऋषि नगर, रानी बाग, दिल्ली-110034

Monday, 16 January 2012

इक्कीसवीं सदी : पहले दशक की लघुकथाएँ


                                            चित्र : बलराम अग्रवाल
दोस्तो, सन् 2003 में अनुभव (डॉ. नरेन्द्र नाथ लाहा), उत्तराधिकारी (सुदर्शन भाटिया), कटाक्ष (किशोर श्रीवास्तव), कदम कदम पर हादसे (जगदीश कश्यप), कीकर के पत्ते (शराफत अली खान), खुलते परिदृश्य (प्रेम विज), नमस्कार प्रजातन्त्र (महेन्द्र राजा), पहाड़ पर कटहल(सुदर्शन वशिष्ठ), पूजा (पृथ्वीराज अरोड़ा), भूखे पेट की डकार (रविशंकर परसाई), मीरा जैन की सौ लघुकथाएँ (मीरा जैन) यह मत पूछो (रूप देवगुण), लघुदंश (प्रद्युम्न भल्ला) तथा लपटें(कहानी+लघुकथा संग्रह:2003) चित्रा मुद्गल कुल 14 संग्रहों की सूची प्राप्त हुई है। इनमें से कदम कदम पर हादसे (जगदीश कश्यप) के बारे में सूचना संदेहास्पद प्रतीत हो रही है। सन् 2004 में  अछूते संदर्भ (कनु  भारतीय), अपना अपना दु:ख (शिवनाथ राय), अपना हाथ जगन्नाथ (सुदर्शन भाटिया), उसी पगडंडी पर पाँव (डॉ. शील कौशिक), एक बार फिर (मनु स्वामी), कड़वे सच (दलीप भाटिया), कर्तव्य-बोध (माणक तुलसीराम गौड़), चन्ना चरनदास (बलराम अग्रवाल:कहानी-लघुकथा संग्रह), ज़ुबैदा (बलराम अग्रवाल), दिन-दहाड़े (सरला अग्रवाल), देन उसकी हमारे लिए (अन्तरा करवड़े), प्रभात की उर्मियाँ (आशा शैली), पोस्टर्स (मनोज सोनकर), बयान (चित्रा मुद्गल), बुढ़ापे की दौलत (मालती वसंत), मुखौटा (डॉ. आभा झा), मुर्दे की लकड़ी (भगवान देव चैतन्य), सच के सिवा (जसवीर चावला), सपनों की उम्र (अशोक मिश्र), सफेद होता खून (डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’), सागर के मोती (डॉ॰ प्रभाकर शर्मा) कुल 21 संग्रहों की सूची प्राप्त हुई है। इनमें से 2004 में प्रकाशित जितने भी संग्रह मेरे पास उपलब्ध हैं उनमें से प्रस्तुत हैं निम्न लघुकथाएँ—



भिखारी का दान/अशोक मिश्र
सारा दिन भीख माँगने पश्चात उसे आज काफी अच्छी कमाई हो गई थी। उसने सोचा कि काफी दिनों बाद आज अच्छा पैसा मिला है तो वह भरपेट पूड़ी-सब्जी और मिठाई खायेगा।
                                               चित्र : बलराम अग्रवाल
उसने होटल से खरीदकर एक एकांत स्थान पर पूड़ी-सब्जी खाना शुरू ही किया था कि इतने में एक-और बूढ़ा भिखारी आ पहुँचा जो काफी कृशकाय था, बोला—“बेटा, कई दिनों का भूखा हूँ। थोड़ा खाना खिला दे। बड़ा उपकार होगा तेरा।
पहले वाले भिखारी ने अपना पूरा खाना दूसरे बूढ़े भिखारी को दे दिया।
पहला भिखारी आज काफी संतोष महसूस कर रहा था कि भिखारी होने के बावजूद वह किसी को खाना खिला सका।
चेहरे पर उभरे संतोष के भाव से उसकी रही-सही भूख कपूर की भाँति उड़ गई थी।

भ्रष्टाचार/अशोक मिश्र
चारों तरफ फैले और दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे भ्रष्टाचार की ओर सरकार का ध्यान गया और उसने भ्रष्टाचार उन्मूलन आयोग बनाकर उसके अध्यक्ष पद का भार एक निहायत ईमानदार और कर्मठ किस्म के अधिकारी को सौंप दिया।
शाम को साहब खाने की मेज पर बैठे हैं—“मैडम, ये दशहरी आम तो बड़े टॉप क्लास के हैं! क्या इन्हें बाज़ार से मँगाया था?
नहीं तो।
फिर इन्हें कौन दे गया?
बड़ा बाबू रामचरण।
अरे, वो तो सस्पेंड है घूस लेने के आरोप में। खबरदार, फिर उससे आम या कोई सामान न लेना।
दूसरे दिन।
अरे, आम आज फिर वही? बड़े टेस्टी हैं। साहब चिंतन में मगन हो गयेआम पच्चीस रुपए किलो…एक टोकरी आम, मतलब दस किलो।
साहब ने तीसरे दिन रामचरण बाबू से आम की बाबत पूछा तो उत्तर मिला—“सरकार, बाग आपका है। सेवा का मौका देते रहें।
ठीक है, ठीक है।
साहब पुन: चिंतन कर फाइल-स्टडी कर रहे हैं और रामचरण बाबू आम पहुँचा रहे हैं। उन्हें आशा है कि एक न एक दिन…।
(सपनों की उम्र:2004 से)

टॉयलेट/डॉ॰ सरला अग्रवाल
                                              चित्र : बलराम अग्रवाल
मम्मी देखो, ये मालती आज फिर हमारे टॉयलेट को गंदा करके गई है। कितनी बदबू आ रही है!! अंकुर ने गुस्से में मम्मी से कहा।
क्यों री मालती, दस बजाकर घर से आती है, फिर भी हमारे टॉयलेट में ही जाती है रोज। कितनी बार तुझे कह दिया कि फ्लश खींच दिया कर और वहीं रखा विम डालकर ब्रश से साफ कर दिया कर।
शर्म से पानी-पानी होती मालती ने घबराहट भरे स्वर में कहा,मालकिन, घर में टॉयलेट कहाँ है? सब बाहर बहते पानी के आसपास बैठेते हैं। मुझे वहाँ जाते लाज आती है। एक दिन पड़ोस के एक मर्द ने मेरा हाथ भी पकड़ लिया था।
तो साफ तो कर सकती है यहाँ का टॉयलेट।
मैं करने लगती हूँ, इतने में ही घर में सभी शोर मचाने, डाँटने लगते हैं। कहकर वह मुँह नीचा करके खड़ी हो गई।
ठीक है, अब से कोई तुझसे कुछ नहीं कहेगा, पर तू पूरी सफाई करके बाहर आना। आकर साबुन से हाथ धोना, फिर कोई काम करना।
माँ, यह बात तो ठीक नहीं लगती। तभी बड़े बेटे ने आकर कहा। वह पीछे खड़ा सब बातें सुन रहा था।
ठीक नहीं लगती तो इनकी बस्ती में दो-चार टॉयलेट खुद बनवा दो, या सुविधा वालों से कहकर ही सही। माँ ने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया।
(दिनदहाड़े:2004 से)

मानदंड/चित्रा मुद्गल
माँ, बेचारी बाई को तुमने उसके कपड़े धोने से क्यों मना कर दिया?
                                             चित्र : बलराम अग्रवाल
मना न करती तो क्या करती?
क्या बात हुई?
महारानी सुबह का चौका-बरतन निबटाने चढ़ी दोपहरी में पधार रही हैं। टोकने पर बिसूरने लगींतीन दिन से नलके में बूँद पानी नहीं टपका। पीने और कपड़े-लत्ते धोने बगल की झोंपड़-पट्टी से भरके लाना पड़ रहा है। इसीलिए देर हो गई…।
हूँअ…
पसीजकर मैंने कह दियाकपड़े-लत्ते यहीं लाकर धो ले, मगर चौका-बासन में अबेर न कर। वही निहाद है, पाँवों को हाथ लगाने दो, फट्ट पहुँचा पकड़ लेंगे। जब देखो, गट्ठर उठाए चली आ रही…
हो सकता है, पानी की दिक्कत अब तक बरकरार हो?
हो तो हो। ठेका ले रखा है रोज़ का? चीकट ओढ़ने-बिछोने, कपड़े-लत्ते हमारे नहानघर में फींचेगी? बाल-बच्चों वाला घर, छूत-पात नहीं लग सकती?
क्यों नहीं लग सकती। एक बात बताओ माँ, छूत आदमी से ज्यादा लगती है या कपड़े लत्तों से?
दोनों से…
तब तो तुम फौरन सावित्रीबाई को चलता करो।
ऊल-जलूल न बक…आसानी से मिलती हैं कामवालियाँ?
सावित्रीबाई की आधी कमर दाद से भरी हुई है, गौर किया तुमने?
चुप रह…तुझसे अकल उधार नहीं लेनी। और सुन, घर-गृहस्थी के मामले में तुझे टाँग अड़ाने की जरूरत नहीं, समझी!
उसने विस्मय से माँ की ओर देखा।
(बयान:2004 से)