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पंचकुला(हरियाणा) में दिनांक 23 अक्टूबर, 2010 को लघुकथा सम्मेलन संपन्न हुआ है। प्रेषित प्रपत्र के अनुसार—सम्मेलन के पहले सत्र में भाई भगीरथ परिहार का लेख ‘लघुकथा के आईने में बालमन’ तथा डॉ अनूप सिंह मिन्नी कहानी(पंजाबी में लघुकथा के लिए यही नाम स्वीकार किया गया है) की पुख्तगी के बरक्स ‘साऊ दिन’ शीर्षक अपनी पुस्तक पर आलेख पढ़ा। इन दोनों ही लेखों पर डॉ अशोक भाटिया, सुभाष नीरव और डॉ मक्खन सिंह के साथ मुझे भी चर्चा करने वालों में शामिल किया गया था। मेरा दुर्भाग्य कि इन दिनों मुझे बंगलौर आ जाना पड़ा और मैं सम्मेलन का हिस्सा न बन पाया। सम्मेलन के दूसरे सत्र में कुछ लघुकथाओं का पाठ उपस्थित लघुकथा-लेखकों द्वारा किया जाना तय था। इन लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रेषित सामग्री से श्रेष्ठता के आधार पर ‘मिन्नी’ संस्था के कर्णधार श्रीयुत श्यामसुन्दर अग्रवाल व डॉ श्यामसुन्दर दीप्ति द्वारा हुआ। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने बताया था कि इस सम्मेलन के जुए का कुछ बोझ भाई रतन चंद 'रत्नेश' के कन्धों पर भी टिकाया गया है, काफी लघुकथाएँ उनके सौजन्य से भी प्राप्त हुई हैं। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने कुछ लघुकथाएँ इस आशय के साथ मुझे अग्रिम मेल की थीं कि मैं उन्हें पढ़ लूँ और यथानुसार अपनी टिप्पणी उन पर तैयार कर लूँ। चयनित लघुकथा का पाठ ‘मिन्नी’ की परम्परा के अनुसार उसके लेखक द्वारा ही किया जाना होता है। पढ़ी जाने वाली लघुकथाओं पर चर्चा के लिए प्रपत्र में डॉ अनूप सिंह, डॉ कुलदीप सिंह दीप, डॉ अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, निरंजन बोहा के साथ मेरा भी नाम शामिल है। मैं सदेह पंचकुला सम्मेलन में अनुपस्थित रहा लेकिन मेरी मानसिक उपस्थिति वहाँ बनी रही। सम्मेलन की सफलता के साथ-साथ मैं भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा प्रेषित लघुकथाओं में से कुछ को अपनी टिप्पणी सहित ‘जनगाथा’ के अक्टूबर 2010 अंक में दे रहा हूँ और इस तरह अपनी उपस्थिति वहाँ दर्ज़ कर रहा हूँ।
21 अक्टूबर की शाम एक एसएमएस इस आशय का आया था कि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में 23 अक्तूबर 2010 को लघुकथा सम्मेलन है। इस बारे में किसी भी प्रकार की अन्य चर्चा न करके मैं उक्त सम्मेलन की भी सफलता की कामना हृदय से करता हूँ।
नोट: इस समूची सामग्री को 23 अक्टूबर, 2010 की सुबह ही पोस्ट कर दिया गया था, लेकिन कुछ मित्रों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए इसे विभक्त करके पोस्ट कर रहा हूँ। उपर्युक्त वक्तव्य भी इसीलिए संपादित हो गया है। सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह है।–बलराम अग्रवाल
॥लघुकथाएँ॥
॥1॥ वे दोनों/डॉ. शशि प्रभा
घर से भाग कर शादी कर ली थी उसने। पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। पड़ोस की दुकान पर काम करने वाला राजेश उसे भा गया था। दिन-रात उसके ख्यालों में खोई रहती। पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। राजेश भी उसका दीवाना हो गया था। आखिर, एक-दूसरे के प्रेम में पागल दोनों घर से भाग खड़े हुए और दूसरे शहर में जाकर मंदिर में शादी कर ली।
राजेश अभी काम पर नहीं लगा था। घर से भागते समय जो गहना, पैसा वह लाई थी, उसी से काम चल रहा था। आज दोनों मस्ती में घूमने आ गए थे। उसे चौथा महीना लग रहा था। राजेश ने प्यार से उसके पेट पर हाथ लगाते हुए पूछा, “तुम्हें लड़की चाहिए या लड़का?”
उस प्यार को अंदर तक उतारते और अपनी प्यार भरी नज़र से राजेश को नहलाते हुए उसने प्रतिप्रश्न किया, “तुम्हें क्या चाहिए?”
“कुछ भी,” अचानक नज़रें सामने टकराईं, एक दूसरी लड़की–फूला हुआ पेट, “मैं अभी आया,” कहकर हड़बड़ी में राजेश पार्क से बाहर निकल गया।
दूसरी लड़की ने पास आकर पूछा, “वह तुम्हारा कौन था?”
“मेरा पति।”
“वह मेरा भी पति है।”
और वे दोनों एक-दूसरी के पेट को देख रही थीं।-0-
संपर्क : 2532, सैक्टर-40-सी, चंडीगढ़
टिप्पणी : इसे सामयिक विषय की उद्बोधक लघुकथा कहा जा सकता है। ‘फर्स्ट साइट लव’ और ‘इन्स्टेंट मेरेज’ की हानियों की तरफ यह लघुकथा अत्यन्त मजबूती के साथ संकेत करती है। आज का समय असीम चारित्रिक गिरावट का समय है और इसमें भावुक हृदय लोगों विशेषत: स्त्रियों के लिए बहुत ही कम स्पेस है। माना कि स्त्री को स्वतंत्र होना चाहिए, लेकिन यह लघुकथा बताती है कि उससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि उसे व्यावहारिक होना चाहिए…छले जाने से बचने के गुर और सावधानियाँ आने चाहिएँ। यह लघुकथा उस ओर उसे एक सार्थक गुर प्रदान करती है।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को ‘लाल’ दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)
॥2॥ जंग/डॉ. राजेन्द्र कुमार कनौजिया
सीमा पर दोनों ओर की सेनाएँ डटी हैं। अभी थोड़ी देर से गोलीबारी बंद है। एक ओर सौनिकों में से एक ने अपनी बंदूक वहीँ पास के पेड़ से टिका दी, “थोड़ी चैन की साँस लेते हैं…”
“क्यों करते हैं ये जंग? क्या मिलेगा उनको और क्या पायेगा वो? वही दो वक्त की रोटी। धत्!”–उसने आसपास देखा, पास के खेतों में सरसों के फूल निकले हैं। एक जंगली फूल भी खिला है। एक तितली न जाने कहाँ से आई है और मंडराने लगी है। बंदूक की नली के आसपास शायद कुछ लगा है। तितली खूबसूरत है। गहरे चटक पीले फूल में लाल तितली। बिल्कुल उसकी नन्हीं बेटी जैसी।
“कितना अच्छा हो, अगर जंग खत्म हो और वह घर जाए।”
वह आसमान की तरफ अपलक देखता रहा।
अचानक ‘साँय़’ से एक गोली सीमा के उस पार से चली और वह बाल-बाल बच गया।
तुरंत उसने भी पोजीशन ले ली और गोलियाँ दाग दी थीं।
थोड़ी देर बाद गोलीबारी बंद हो गई थी। वह सैनिक वहीं ढ़ेर हो गया था। बंदूक वहीं पड़ी थी। उससे निकलता धुआँ शांत हो गया था।
तितली अब भी उस पर मँडरा रही थी।-0-
संपर्क : म.न.-7, आफ्टा डुप्लैक्स,गोल्डन सिटी, मुंडी खरड़ (पंजाब)
टिप्पणी : इस लघुकथा की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। इसलिए नहीं कि यह जंग की मानसिकता के खिलाफ कुछ कहना चाहती है, बल्कि इसलिए कि समकालीन लघुकथा में प्रकृति को कथानक का हिस्सा बनाने की जो दूरी पनप चुकी है, यह उस दूरी को पाटने की पहल करती-सी दिखाई देती है। सारा घटनाचक्र बिना किसी ऐसे तनाव के जो कथाकार को अपने उद्देश्य की ओर जाने की शीघ्रता के कारण रचना में नजर आने लगता है, आगे बढ़ता है और समापन को प्राप्त होता है। एक विशेष बात जो मैं कहना चाहूँगा वो यह कि समस्त लघुकथाओं में हमें स्थूलत: नहीं उतर जाना चाहिए। लघुकथा एक विशेष कथा-विधा है। संकेत इसका महत्वपूर्ण अवयव है। कुछ सक्षम लघुकथाएँ मानवीय वृत्तियों को मानव-पात्रों के रूप में प्रस्तुत करती हैं और सामान्य घटनाचक्र की तुलना में कुछ असामान्य घटित होने की छूट पाना उनका अधिकार होता है। नि:संदेह श्रेष्ठ रचनाएँ सामान्य पाठक और सुधी आलोचक दोनों को समान रूप से प्रभावित करती हैं; लेकिन मेरा मानना है कि प्रत्येक लघुकथा को सामान्य पाठक की दृष्टि आकलित कर ले, यह सम्भव नहीं है। कुछ लघुकथाओं को आकलित करने का दायित्व आलोचकों को निभाना पड़ता है। उनके द्वारा आकलित होने के बाद ही वे सामान्य पाठक के उपयोग की श्रेष्ठ रचना सिद्ध हो पाती हैं।
॥3॥ ठसक/आचार्य भगवान देव ‘चैतन्य’
पत्नी के देहांत के बाद गांव को अलविदा कहकर राम प्रकाश अपने पुत्र और पुत्र-वधू के पास शहर ही में आ गया था। हालांकि जीवनभर उसका साधु-स्वभाव ही रहा था, मगर अब बढ़ती आयु के साथ-साथ वह और-भी अधिक सहज और सरल हो गया था। जो मिला, जैसा मिला पहन लिया। जब मिला, जैसा मिला चुपचाप खा लिया। फिर भी बहू कुछ-न-कुछ कहने-सुनने को निकाल ही लिया करती थी।
एक दिन दोपहर का भोजन करके राम प्रकाश धूप में लेटा हुआ था। थोड़ी देर बाद उसका बेटा रमेश आकर भोजन करने लगा तो पहला कौर मुंह में डालते ही वह अपनी पत्नी पर क्रोधित होकर बोला,“नाजो, तुम्हें इतने दिन खाना बनाते हो गए, मगर अब तक भी अंदाजा नहीं हुआ कि दाल या सब्जी में कितना नमक डालना है…”
“ज्यादा हो गया क्या…?”
“ज्यादा? मुझे तो लगता है कि तुमने दो बार नमक डाल दिया है। लो मुझसे ऐसा खाना नहीं खाया जाता…।” रमेश गुस्से में आकर उठ गया और वाश-बेसन पर हाथ धोने लगा।
नाजो राम प्रकाश की ओर देखते हुए तुनक कर बोली,“अब मैं भी क्या करूँ, यहाँ तो कोई इतना तक बताने वाला भी नहीं है कि नमक कम है या ज्यादा। चुपचाप खाकर टांगें पसार लेते हैं।”
राम प्रकाश समझ गया कि बहू यह सब उसे ही सुना रही है, मगर अपने स्वभाव के अनुसार वह चुपचाप लेटा रहा। जब वह रात का भोजन करने लगा तो उसे दाल में नमक कुछ कम लगा। उसे दिन वाली घटना याद आ गई, इसलिए बोला, “बेटी, मुझे दाल में नमक कुछ कम लग रहा है। मेरा तो कुछ नहीं, मगर रमेश आकर…”
“अच्छा अब चुप भी रहो…” बहू तुनक पड़ी, “जैसा मिले चुपचाप खा लिया करो। कुछ लोगों को कुछ-न-कुछ कहने की ठसक होती ही है…”
राम प्रकाश हाथ धोकर चुपचाप अपने कमरे में चला गया। -0-
संपर्क : महादेव, सुन्दर नगर-174401 (हि,प्र.)
टिप्पणी : सामान्य पाठक की दृष्टि से देखा जाय तो ‘ठसक’ में आधुनिक परिवार में बुजुर्गों की दुर्दशा को तो आसानी से चिह्नित किया ही जा सकता है, लेकिन मेरी दृष्टि में यह विभिन्न मानसिकताओं के, मनोवृत्तियों के चित्रण की कथा अधिक है। प्रत्येक मनुष्य में दो प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैं—पहली, सफलता का श्रेय लूटने की। इसका उदाहरण है राम वनवास के उपरान्त अयोध्या लौटे भरत से कैकेयी का यह कहना कि—‘तात बात मैं सकल सँवारी।’ अर्थात् राम को निष्कासित करके मैंने अकेले अपने दम पर तुम्हारे राजा बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। और दूसरी असफलता का आरोपण करने की। इसका उदाहरण भी कैकेई ही है। भरत को राजा बनाने का श्रेय जिस अभिमान के साथ वह लूटती है उसी के साथ दशरथ की मृत्यु का कारण बनने का आरोप वह ईश्वर पर मँढ़ देती है—‘कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ।’ अत: ‘ठसक’ दो व्यक्तियों के स्वभाव चित्रण की लघुकथा है। यद्यपि लेखक ने सिद्धांत-विशेष को ध्यान में रखकर चरित्रो को नहीं रचा है, तथापि इसमें पुत्र-वधू और राम प्रकाश के चरित्रों को मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित करके देखने की आवश्यकता है।
बलराम जी, यह देखकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि आप यहां प्रकाशित लघुकथाओं पर इतने विस्तार से विमर्श कर रहे हैं। इन लघुकथाओं के लेखकों के साथ साथ अन्य रचनाकारों को भी इनसे कुछ जरूर ही ग्रहण करना चाहिए। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteयह एक ऐसा गम्भीर कार्य है जो हर विधा पर किया जाना चाहिये।
ReplyDeleteऔर लघुकथाएँ भी गम्भीर छाँटी हैं।
बधाई
Is prayas se rah roushan hone ki sambhavana hai. Kekhak aur paathak donon ho satark v sujaag hone..adbhut prayaas
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