॥4॥ क्या हम भी…/सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
“कितनी बार कहा है कि जब कमरे में नहीं बैठना हो तो कमरे से बाहर आते समय ‘लाईट’ व पंखे को बंद कर दिया करो। लेकिन मेरी सुनता कौन है? लो अब भुगतो! पूरा 2850/- रुपये का बिजली का बिल आया है, अबकी बार।” श्रीमती शर्मा ने बिल अपने पति महोदय को पकड़ाते हुए कहा।
शर्मा जी बिल को देखते हुए बोले, “बुब्बू की माँ, पंखे व लाईटें बंद करने से कुछ नहीं होगा। आज ही मैं वो जो प्रकाश का साला है ना बिजली के दफ्तर में, उसके पास जाता हूँ। ले लेगा पाँच-सात सौ रुपये, लेकिन मीटर का ऐसा इंतज़ाम कर देगा कि बिल आगे से आधे से भी कम आएगा।”
“किंतु पापा, यह तो चोरी हुई न!” बातें सुन रहे उनके चौदह वर्षीय बेटे बुब्बू ने कहा।
“चोरी क्यों बेटे? सभी तो ऐसा करते हैं!”
“सभी तो बहुत कुछ करते हैं पापा। क्या हम भी…? वो प्रताप अंकल का बेटा दीप्ति को लेकर…सुना है न आपने पापा…!”
पापा ने बेटे की आँखों में घूर कर देखना चाहा, मगर साहस नहीं कर सके। अगले ही पल उनकी नज़रें नीची हो गईं। वे इतना ही कह पाए, “वो देख! अंदर वाले कमरे में कोई नहीं है और पंखा चल रहा है। जा, जाकर बंद कर दे!”-0-
संपर्क : 1461-बी, सैक्टर 37-बी, चंडीगढ़-160 036
टिप्पणी : कथ्य के स्तर पर इसे साधारण आदर्शवादी लघुकथा कहा जा सकता है। इसमें एक तथ्यात्मक त्रुटि भी है जिसके कारण इसका घटनात्मक परिवेश आज नहीं तो कल कमजोर…या यह भी कह सकते हैं कि अव्यावहारिक सिद्ध हो जाना निश्चित है। बिजली के मीटर अब अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से युक्त हैं। महानगरों में तो उनकी मॉनीटरिंग की भी व्यवस्था है। घरेलू या व्यावसायिक किसी भी प्रकार के मीटर के साथ की गई छेड़छाड़ मॉनीटर में दर्ज हो जाती है। यही नहीं, अब मीटर-रीडिंग भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से दर्ज होती है अर्थात् मानवीय हस्तक्षेप अब उतना आसान नहीं रहा जितना पहले कभी था। इस लघुकथा में उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि जो सब करते हैं वही करना हमारे लिए भी कितना उचित अथवा अनुचित है? इस तथ्य को नई पीढ़ी भी समझ रही है। और न केवल समझ रही है, बल्कि पूर्व-पीढ़ी को समझा भी रही है। अत: इस बिन्दु तक लघुकथा को लाने के लिए कथाकार ने जिस तथ्य को चुना है, उसकी कमजोरी अथवा अल्पकालिकता को ध्यान में रखते हुए किसी अन्य दीर्घकालिक एवं शाश्वत तथ्य को चुनकर इसे रिवाइज़ कर लेना चाहिए। सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह है।–बलराम अग्रवाल
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को ‘लाल’ दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)
॥5॥ अपंग मसीहा/डॉ. राम कुमार घोटड़
बहुत देर इंतजार के बाद, पति-पत्नी ने बच्चे की अंगुली पकड़े सड़क पार करने की कोशिश की। जल्दबाजी व भागमभाग की स्थिति में बच्चे की अंगुली छूट गई। बच्चा वह भयभीत-सा सड़क के बीच बस के तेज होर्न की आवाज से घबराकर रोने लगा। इतने में ही न जाने कहाँ से लंगड़ाकर भागता हुआ एक युवक आया और उसने बच्चे को एक ओर धक्का देकर हटा दिया। बच्चा तो बच गया, लेकिन वह स्वयं न बच सका। बस उसकी टाँगों को कुचलती हुई आगे जाकर रुक गई। बस की सवारियाँ और आसपास की भीड़, इस हादसे को देखकर उस युवक के आसपास इकट्ठी हो गई।
युवक के चेहरे पर दर्द की बजाय मुस्कराहट थी। वह कहने लगा, “साथियो, चिंता की कोई बात नहीं। मैं स्वस्थ हूँ, ये मेरी टाँगें ही गई हैं। वर्षों पहले जब मैं छोटा था, इसी तरह सड़क पार करते समय मेरी टाँगें कुचली गईं थी। मैं तो बच गया, लेकिन मेरी टाँगें इतनी बुरी तरह कुचली गईं कि काटनी पड़ीं। तब से मैं ये नकली टाँगें लगाकर चला-फिरा करता हूँ। आज जो कुचली हैं वो ये नकली टाँगें हैं, फिर लग जायेंगी; लेकिन मुझे खुशी है कि आज एक बच्चा अपंग होने से बच गया।
उस युवक के चेहरे पर आत्म संतुष्टि के भाव थे।-0-
संपर्क : द्वारा मुरारका मैडीकल स्टोर, सादुलपुर-331 023 (जिला:चुरू), राजस्थान
टिप्पणी : यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि शरीर के किसी भी अंग को प्राकृतिक कारण से अथवा किसी दुर्घटनावश खो देने की पीड़ा उम्रभर व्यक्ति को सालती है और वह इस सकारात्मक सोच के साथ जीता है कि किसी अन्य को ऐसे शारीरिक कष्ट से नहीं गुजरने देना है। मनोविज्ञान कहता है कि इसी मानसिकता के चलते शारीरिक रूप से कमजोर बच्चे चिकित्सा व्यवसाय की ओर उन्मुख होते हैं। रचना में शैल्पिक दृष्टि से कुछ कमजोरियाँ हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को ‘लाल’ दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)
॥6॥ ससुर/ऊषा मेहता दीपा
अमीर चंद ने अपने बेटे से शिकायत की, “तुम्हारी पत्नी ने तो मुझे घर का नौकर समझ लिया है। सुबह से शाम हो जाती है, उसके हुक्म की गुलामी करते-करते। समझा देना उसे, मैं उसके बाप का नौकर नहीं हूँ, ससुर हूँ, ससुर।”
बाथरूम में घुसी सविता ने सब सुन लिया था। उसने बड़े संयम से काम लेते हुए, धीरे-धीरे ससुर जी से कोई भी काम लेना बंद कर दिया। अमीर चंद जी को ज़िंदगी उबाऊ और बोझिल लगने लगी। दिन बिताए नहीं बीतता और रात करवट बदलते गुज़रती। नींद का नामोनिशान नहीं रहा। पुरानी यादें सीना छलनी करने लगीं।
वे एक दिन बहू से बोले, “बेटी सविता, मैं तो अपंग ही हो गया हूँ। जीवन बोझ-सा बन गया है। बेटी, तुमने तो मुझे घर का आदमी समझना ही छोड़ दिया। सभी काम खुद करने लगी हो। बेटी, मुझे भी घर का सदस्य समझो। मुझे भी कोई काम बताया करो”
सविता अवाक-सी ससुर का मुँह ताक रही थी। उसकी जीभ तालु से चिपक गई थी।-0-
संपर्क : गाँव व डाक: डुगली-176319 जिला: चम्बा (हि.प्र.)
टिप्पणी : भारतीय पुरुषवादी मानसिकता को इस लघुकथा में बहुत ही खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है। भारतीय परिवेश में कन्या का पिता होना महान अपमानजनक घटना है—ऐसा महर्षि वाल्मीकि का भी मानना है:‘सम्मान की इच्छा रखनेवाले सभी लोगों के लिए कन्या का पिता होना दु:ख का ही कारण होता है।’* उसके विपरीत ‘वर का पिता’ होने का अभिमान वर्णन से परे है। इस बात के प्रमाणस्वरूप किसी सद्ग्रंथ की किसी उक्ति को उद्धृत करने की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी दिनचर्या में स्वयंसिद्ध है। ‘ससुर’ लघुकथा का अमीर चन्द ऐसा ही पुरातनपंथी ‘वर का पिता’ है जो ‘बहू के बाप का नौकर नहीं है।’ लेकिन बहू समझदारी से काम लेती है और ‘ससुर’ से संवादहीनता की स्थिति बना लेती है। स्पष्ट है कि अभिमानी पुरुष अपनी उपेक्षा भी सहन नहीं कर पाता है क्योंकि यह उसके लिए सबसे बड़ी सज़ा होती है।
इस लघुकथा के शीर्षक पर पुनर्विचार किया जा सकता है।
· वाल्मीकि रामायण:उत्तरकाण्ड:नवम् सर्ग:नवाँ श्लोक।
॥7॥ अहमाम द हमाम/जसबीर चावला
राजा निकले तो लोगों की आँखें फटी रह गईं–श्वेत सफ्फाफ लकझक करते वस्त्रों में झंकारते (नारमली इतने बेदाग होते नहीं, राजकीय परिधान)! फिर निकले वज़ीरे खानखाना तो वह भी मुस्कुराते सफेद लुंगी-हवाई शर्ट में! कोई धब्बा नहीं! वजीरे खज़ाना निकले तो अद्भुत छवि प्रस्तुत हुई–दूधिया उल्लू पर मानो सफेद साड़ी में लक्ष्मी! वजीरे खारजा को देख जनता अश्-अश् कर उठी–चमकदार सफेद जहाज से निकल उज्ज्वल भविष्य-से पसरते हवा में डालरों के सफेद बंडल! उच्च शिक्षा के मंत्री तो धवल कमल सदृश पुण्यवान् प्रतापी…
खुसुर-पुसुर होने लगी– कौन कह रहा था, हमाम में सब नंगे हैं? यहाँ तो एक से बढ़कर एक नामी नैतिकता के पहरेदार, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, सफेद से सफेदतर! पीछे भी ढाकाई मलमल-से कोमल, धुले कपड़ों में ही निकल रहे हैं, मानवता के पक्षधर!
आखिर चक्कर क्या है? हमारे नेताओं में रातों-रात फेरबदल कैसे हो गया है?
“यह हमाम ही है न भई?” संतरी से पूछ ही लिया हिम्मत कर किसी अविश्वासी ने।
“नहीं यह अहमाम है!”
“और भी है का? कि यही एक ही हमाम है?”
“नहीं…नहीं, इसके पीछे द हमाम भी है!” संतरी ने खुलासा किया।-0-
संपर्क : 123/1, सैक्टर-55, चंडीगढ़-160 055
टिप्पणी : लघुकथा में क्लिष्टता है। बिम्ब-विधान कुछ क्लिष्ट शब्दों का खुलासा कर दिये जाने पर शायद स्पष्ट हो जाए। आपको याद होगा, ऐसे ही क्लिष्ट बिम्ब-विधान की एक लघुकथा ‘छुरियाँ’ मैंने डलहौजी सम्मेलन में सुनाई थी और वह इसी आधार पर अंशत: नकारी भी गई थी कि बिम्ब को क्लिष्ट नहीं होना चाहिए। मैं इस विचार से सहमत हूँ।
कुल मिलाकर यह जसवीर चावला की चिर-परिचित शैली में लिखी गई एक व्यंग्य-प्रधान या कहें कि कटाक्ष-प्रधान लघुकथा है।
॥8॥ चप्पल/रतन चंद निर्झर
सुन्दर ट्रेन से अम्बाला जा रहा था। खिड़की के पास डिब्बे में सीट मिल गई। देखते-देखते रेल प्लेटफार्म से आगे चल पड़ी और रेलवे स्टेशन से आगे निकलते ही तीव्रगति से चल पड़ी। उसने गति पकड़ ली। वह खिड़की से सुबह के मनोरम दृश्यों का अवलोकन करता रहा। सुबह-सवेरे की दिनचर्या में लगे, लोग सड़कों पर साइकिलों पर आते-जाते लोगों को देखने में खोया रहा। एक छोटे-से स्टेशन पर गाड़ी दो मिनट के लिए रुकी। गाड़ी में सवार होने वाले मुसाफिरों की धक्कमपेल में उतरने वाले मुसाफिर उलझते रहे थे। तभी सुन्दर की नज़र एक प्रवासी मजदूर पर पड़ी। वह तेजी से धीरे-धीरे सरक रही गाड़ी में चढ़ने का प्रयास कर रहा था। इस प्रयास में उसकी एक चप्पल पटरी के किनारे पड़ी रोड़ी में फिसल गई, पर वह डिब्बे के दरवाजे का हैंडल पकड़ने में कामयाब कहा।
“भैया, तुम्हारी एक चप्पल तो उस पार रेल लाइन में रह गई।” सुन्दर ने उस प्रवासी मजदूर से कहा।
अपनी फूली सांसों पर काबू पा, हांफते हुए मजदूर ने कहा, “चप्पल छूट गई तो क्या हुआ, रेलगाड़ी तो न छूटी। आज यह रेलगाड़ी न मिल पाती तो मैं अपनी माँ की अर्थी को कँधा न दे पाता।” कहते-कहते उसका स्वर रुंध गया। -0-
संपर्क : म.न.-210, रोडा, सैक्टर-2, बिलासपुर-174001 (हि.प्र.)
टिप्पणी : ‘चप्पल’ सांसारिक दायित्व और सांस्कारिक दायित्व के बीच सांस्कारिक दायित्व का चुनाव करने की सार्थक चेतना से युक्त लघुकथा है। आज का समय घोर भौतिकवादी रुझान का समय है। यह अर्थ-प्रधान समय है। इसमें माँ की अर्थी को कंधा देने जाने के लिए चलती ट्रेन में चढ़ने का खतरा मोल वही ले सकता है जो सांस्कृतिक चेतना से युक्त है और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की चिन्ता जिसके लिए दोयम है। इस लघुकथा में आदर्शवादिता की बजाय मूल्यपरकता के दर्शन अधिक होते हैं।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को ‘लाल’ दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)
अहमाम द हमाम तो मुझे भी समझ में नहीं आई।
ReplyDelete१९ वें अंतरराज्यीय लघुकथा सम्मलेन में पठित लघुकथाओं पर सटीक टिप्पणियां.
ReplyDeleteअति उपयोगी लिंक
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