Saturday, 7 September 2024

विभिन्न शैली प्रयोगों से युक्त ‘पीठ पर टिका घर’ / बलराम अग्रवाल



सुधा गोयल हिन्दी की जानी-मानी वरिष्ठ कथाकार हैं। अनेक उपन्यासों, कहानी संग्रहों, व्यंग्य संग्रहों, काव्य संग्रहों और बालगीत संग्रहों के प्रकाशन के उपरांत ‘पीठ पर टिका घर’ उनकी 94 लघुकथाओं का पहला संग्रह है जो लघुकथा साहित्य क्षेत्र के लिए प्रसन्नता का विषय है। लेखिका के अनुसार, इस संग्रह में उनकी सन् 1986 से लेकर अब (यानी 2024) तक लिखी लघुकथाएँ संग्रहीत हैं।

संग्रह की पहली लघुकथा ‘सप्तपदी का वायदा’ एक बड़े सिनेरियो की कथा है जिसमें से अनगिनत कोंपलें फूटती प्रतीत हो रही हैं; समर्थ कथाकार उसमें से जितनी चाहें कथाएँ निकाल सकते हैं, इसी का विस्तार कर लम्बी कहानी बना सकते हैं। अक्सर कहा जाता है कि लघुकथा अपने अन्त के साथ पाठक-मन-मस्तिष्क में विस्तार पाती है। ‘सप्तपदी का वायदा’ सरीखी अनेक लघुकथाओं के पठन से महसूस होता है कि एक अच्छी लघुकथा अपनी समूची काया में इस गुण को समेटे होती है। विचार, कल्पना और विस्तार के उसमें अनेक बिंदु होते हैं।

फ्रायड ने मन की तीन परतें निर्धारित की हैं; लेकिन उससे बहुत पहले जैन दर्शन मन को छ: प्रकार का बता चुका था। दृष्टिमोह और मिथ्याचार से ग्रसित मोह को जैनाचार्यों ने ‘मूढ़ मन’ माना है। मिथ्याचारों में से एक यह कि ‘लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे!’। यह विचार अनेक सही-गलत भावनाओं को रुद्ध करता है। लेकिन ‘वेलेन्टाइन डे’ के वर्माजी  प्रेम प्रकट करने के दबाव को साथ नहीं ले जाते, अन्तिम समय में व्यक्त कर ही देते हैं। सवाल यह पैदा होता है कि वर्माजी अगर कहकर निकल न लिए होते तो उनकी क्या गत होती? लेकिन लेखिका ने कथा के अन्तिम पैरा को कुछ इस तरह बुना है कि इसका ट्रीटमेंट पहले पैरा की तरह रोषात्मक न रहकर कोमल भावात्मक हो गया है।

कुछ लोग लघुकथा को ‘पंचलाइन’ में सीमित बताते हैं; जबकि सत्य यह है कि लघुकथा का कथ्य अपनी पूरी काया में फैला होता है। उसकी पूरी काया से गुजरे बिना कोई भी सुधी पाठक-आलोचक मात्र अन्तिम लाइनें ही पढ़कर किसी परिणाम पर नहीं  पहुँचना चाहेगा। ‘भगवान की पोशाक’ ऐसी ही लघुकथा है। ‘पंचलाइन’ के पैरोकार इसकी मात्र अन्तिम लाइनें पढ़कर यथार्थ संवेदन बिंदु तक पहुँचने का प्रयास करें।

लघुकथा ‘लक्ष्मी आई है’ पाठक को एक सकारात्मक विचार, कि—समस्त देवियों में मात्र ‘लक्ष्मी’ ही हैं जो बिना भगवान विष्णु (यानी पति) के ही पूजी जाती हैं। वहीं, ‘ये मेरी बेटी है’ भी पाठक को कन्याओं के प्रति लेखिका के भावों के समक्ष नत कर देता है। लघुकथा ‘ब्लैक फंगस’ दाम्पत्य प्रेम और परस्पर सहयोग का अनुपम चित्र प्रस्तुत करती है। ‘वारियर्स’ जीवन के लिए जूझते शरीरों को जूझने के टूल्स मुहैया कराने की कहानी प्रस्तुत करती है और सुकून प्रदान करती है कि धरती और समाज में सभी कुछ अभी मरा नहीं है। ‘पहल’ तथा ‘माँ का अधिकार’ भी स्त्री-सम्मान और स्वाभिमान की दिशा में नयी पहल प्रस्तुत करती हैं। ‘राहें ऐसी भी’ में एक ओर जहाँ कोरोना की विभीषिका का चित्रण है वहीं इन्सानियत के रंग भी हैं जो सिद्ध करते हैं कि दुनिया पूरी की पूरी बदरंग नहीं है। ‘स्मृति शेष’ बताती है कि एक रचनाकार को वास्तविक श्रद्धांजलि देना क्या होता है। ‘छत’ में लेखिका द्वारा श्लेष के प्रयोग से कथा की भावात्मकता को आयाम मिला है; इस प्रयोग ने रचना को अधिक सुन्दर, सम्प्रेषक और कलात्मक बना दिया है।

‘तमाचा’ एक शानदार-जानदार लघुकथा है। बेशक स्त्री विमर्श के खाने में रखकर भी इसका आकलन किया जा सकता है। जानबूझकर इसके कथानक का खुलासा यहाँ कर रहा हूँ, पाठकीय जिज्ञासा को बनाये रखने की दृष्टि से। ‘सौदा’ बताती है कि आतंकी घटनाओं की सफलता के पीछे कई बार पुलिस-आतंकी सहयोग भी काम करता है।

‘दया’ तथा ‘कोट और बीस रुपये’ जैसे कथ्यों पर कई लघुकथाएँ कई लघुकथाकारों द्वारा पूर्व में भी लिखी जाती रही हैं। कमल चोपड़ा की ‘साँसों के विक्रेता’ और चित्रा मुद्गल की ‘व्यवहारिकता’ के केन्द्र में यही कथ्य है। दरअसल दान अथवा दया का प्रारूप और पात्रता हम परम्परा से ग्रहण करते आये हैं, पात्र की आवश्यकता से न हम दान को जोड़ते हैं न उसके प्रति दया को। ‘आशीर्वाद’ बताती है कि धूर्तता की किस हद तक चालाक लोग  जरूरतमंद नौजवानों के श्रम का दोहन करते हैं।

लघुकथा ‘बँटवारा’ में चारों बेटों को ‘बेरोजगार’ दर्शाने का उद्देश्य समझ में नहीं आया। कथा में सम्पत्ति का बँटवारा करते समय चारों बेटे परस्पर झगड़े भले ही न हों, माँ के प्रति गैर-जिम्मेदारी का भाव अवश्य प्रकट कर देते हैं। लघुकथा का अन्तिम वाक्य—‘सामान उतारकर चारों बेटे क्षोभ और घृणा से थूककर चले गये’ भी यही दर्शाता है कि उन्हें पिता द्वारा छोड़ी गयी धन-सम्पत्ति को पाने का लालच नहीं था। ‘घड़ियाल’ बताती है कि ‘नारी चेतना मंच’ नारी के प्रति वस्तुत: कितने हृदयहीन हैं; लेकिन सवाल यहाँ भी पैदा होता है कि ‘घड़ियाल’ जैसी कथाएँ कहीं वंचित नारी के पक्ष में ईमानदारी से कार्य कर रही संस्थाओं को निरर्थक ही हतोत्साहित करने का कार्य तो नहीं कर रही हैं?  

‘पीठ पर घर’ में लेखिका ने बिम्ब का तथा ‘निर्णय’ में भाषा की सांकेतिक शक्ति का बहुत सुदर और सफल प्रयोग किया है। ‘दुहिता’ बेटी के प्रति पारम्परिक भाव, शिक्षा और शब्दावली के मुँह पर करारा तमाचा मारती है। ‘दो नोटों की कहानी’ तथा ‘विषबीज’ आदि कुछ लघुकथाएँ मानवेतर पात्रों को लेकर रची गयी हैं। ‘देवी उवाच’ बोध-शैली की कथा है तो ‘प्रैक्टीकल’ और ‘तथास्तु’ में पौराणिक कथा-पात्रों को आधार बनाया गया है तथा ‘चाणक्य’ के रूप में एक किंवदन्ती को प्रश्रय दिया गया है । ‘माटी की गुड़िया’ में लेखिका ने दृष्टांत शैली को अपनाया है।  तात्पर्य यह कि लेखिका ने ‘पीठ पर टिका घर’ में लघुकथाओं को विभिन्न शैलियों में प्रस्तुत करने के प्रयोगों का सार्थक निर्वाह किया है।

‘टिफिन’ अल्प समय में पनप गये विश्वास और अपनेपन की ओर से सावधान रहने की शिक्षा देती कथा है तो ‘प्रार्थना’ ईश्वरीय न्याय की पुष्टि करती है। ‘खोटे सिक्के’ एक ओर बहू-बेटों की ओर पारम्परिक मोह की तस्वीर पेश करती है तो दूसरी ओर विवाहित महिलाओं के प्रति एक सवाल भी पेश करती है; यह कि बहू भी यथार्थत: किसी परिवार से आयी बेटी ही होती है, तब (सास से सब-कुछ मिल जाने के बावजूद) बहू के रूप में उसका चरित्र नकारात्मक क्यों हो जाता है और (कुछ भी न मिल पाने के बावजूद) माँ को वह साथ किस तरह रख लेती है? ‘तमाशा’ गरीबी और मुफलिसी से लड़ते नट परिवारों की दुखद गाथा है। ‘विकल्प’ और ‘समाधान’ जीवन के कटु यथार्थ को हमारे सामने रखती हैं। ‘सेहरा या पगड़ी’ बदल चुकी समाज व्यवस्था में एक सार्थक विकल्प सम्मुख रखती है। ‘हकीकत’ लुटेरों की न सही, आम परिवारों की हकीकत प्रस्तुत करने में अवश्य सफल रही है। लघुकथा ‘मन्त्र’ डेरों, पीठों और गद्दियों का सच व्यक्त करती है। पुलिस की लोक-प्रचलित छवि पर मुहर लगाती है लघुकथा ‘गश्त’। ‘जनवाद’ के खोखलेपन को उजागर करती है—‘वास्तविक जनवाद’। कथ्य में नयापन न होने के बावजूद ‘अनुभव’ एक आवश्यक-सा पैगाम वरिष्ठ नागरिकों को देती है। वरिष्ठों की चिंताजनक हालत के ही एक अन्य यथार्थ को प्रस्तुत करती है लघुकथा ‘अपनों से हारी’। ‘उपचार’ का कथानक पाठक को वितृष्णा से भर देती है। ‘शिक्षा का दर्द’ शिक्षित बेरोजगारों की दुर्दशा का कच्चा चिट्ठा खोलती है। ‘कारोबार’ कोरोना काल में कोरोना की नहीं, व्यवसायियों की आसुरी वृत्ति का चित्र प्रस्तुत करती है।

‘मोनोग्राम’,‘कारण’, ‘सप्तपदी’, ‘नई गेंद’, ‘हलो-हलो’, ‘विचाराधीन’, ‘व्यंजन विशेषांक’, ‘काले सिर वाली’, ‘चित्र’, ‘तूफान क्यों आते हैं’, ‘कनीज़ की अर्ज’, ‘लौकी’,  ‘कब होगा सर्कस’ को हल्के-फुल्के पलों हेतु चुहल की संज्ञा भी दी जा सकती है। कथाकार को ऐसे पलों को भी शब्द देने की क्षमता और साहस से लैस होना चाहिए, भारतेंदु हरिश्चन्द्र और हरिशंकर परसाई की परम्परा से हमने यह जाना है। ‘कवि और दिया’, ‘दीया और बिजली’ गद्य-काव्य परम्परा की रचना है। ‘टिप’, ‘रिटर्न गिफ्ट’, ‘परीक्षा भवन में’, ‘अनाम रिश्ते’, ‘पुन: जीवन मिला’ जैसी कुछ रचनाएँ संस्मरण शैली में लिखी गयी हैं या कहें कि निजी संस्मरणों को ही लेखिका ने इन कथाओं के रूप में कलमबद्ध किया है। लघुकथा ‘साक्षात्कार’ भले ही एक यथार्थ की ओर संकेत करती हो, लेकिन एक गलतबयानी भी करती-सी लगती है। ‘अब वह भी फैशनपरस्त आधुनिका है’ कहकर लेखिका ने समस्त फैशनपरस्त आधुनिकाओं को लांछित कर दिया है। कुछेक शाब्दिक बदलावों के साथ असावधानीवश यही लघुकथा ‘इन्टरव्यू’ शीर्षक से पृष्ठ 100 पर पुन: स्थान पा गयी है।

पुस्तक को पढ़ते हुए लगातार यह लगता रहा कि हिन्दी प्रकाशन क्षेत्र से प्रूफ रीडिंग का शायद जनाजा ही उठ गया है। इसमें ‘ढ़ंग’, ‘आर्विभाव’, ‘प्रवृति’, ‘आलिफ’, ‘घारस’, ‘सामारिक’, ‘द्रश्यांकन’, ‘चर्तुवेदी’, ‘र्मूधन्य’, ‘हतप्रथ’, ‘होगें’, ‘आस्मिता’, ‘ढ़ोता’, ‘व्रद्धा’, ‘लेगें’, ‘उदंड’, ‘बाबर्चियों’, ‘माद्धिम’, ‘रूक’, ‘बीबी’ (सही शब्द ‘बीवी’), ‘टिपिन’, ‘आर्शीवाद’, ‘हिफिनों’(सही शब्द ‘टिफिनों’), ‘र्गुराते’, ‘शारिरिक’, ‘ख्वाव’, ‘हितैबी’, ‘ढ़ीली’, ‘सीड़ी’, ‘रूपया’, ‘आधिक’, ‘एडजस्ट मेंट’, ‘र्निणय’, ‘ग्रहणियां’, ‘करूण’, ‘र्निधारित’, ‘लहुलुहान’, ‘सिद्धी’, ‘र्दीघ’, ‘नि:विश्वास’, ‘सौंपों’, ‘र्निधन’, ‘र्निबल’, ‘बिमारियों’, ‘र्बोड’, ‘बच्चे-बढ़े’  (सही शब्द ‘बच्चे-बूढ़े’), ‘ढ़ाई’, ‘माक्स’, ‘जरुरत’, ‘स्वंय’, ‘सम्बन्धि’ सरीखे शब्द आसानी से मिलते जा रहे हैं जो सिद्ध करते हैं कि प्रकाशक ने संग्रह के प्रकाशन का दायित्व गम्भीरतापूर्वक नहीं निभाया है। एक ही शब्द की वर्तनी एक जगह कुछ तो दूसरी जगह कुछ और नजर आ रही है। उदाहरण के लिए, ‘दीया’ को एक जगह ‘दीया’ तो दूसरी जगह ‘दिया’ तथा उसके बहुवचन को ‘दीये’ के स्थान पर ‘दिए’ लिखा गया है। जरा सोचिए कि किसी पुस्तकालय की शोभा बनकर यह पुस्तक हिन्दी वर्तनी का क्या रूप देशी-विदेशी पाठकों के सम्मुख रखेगी।

और अन्त में एक बात और…

सुधा गोयल जी को उनके बेहतरीन लघुकथा लेखन के लिए बार-बार बधाई; लेकिन पुस्तक का नाम उनके द्वारा लिखित ‘चिन्तन’ में कुछ और गया है और मुखपृष्ठ तथा फोलियो पर कुछ और!!! प्रकाशक द्वारा आखिर किस आपाधापी में इस लघुकथा संग्रह को छापा गया है।

पुस्तक—पीठ पर टिका घर (लघुकथा संग्रह); कथाकार—सुधा गोयल;                      प्रकाशक—नमन प्रकाशन, नई दिल्ली-110002;        प्रथम संस्करण—2024;           आईएसबीएन—978-93-95356-40-4; कुल पृष्ठ—132; मूल्य—रुपये 350/- (हार्डबाउंड)

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