Monday, 22 July 2024

लघुकथा कलश-12 / योगराज प्रभाकर (संपादक)

लघुकथा कलश (पंजाबी लघुकथा महाविशेषांक,  अंक 12, जुलाई-दिसम्बर 2023)


पंजाबी में 'मिन्नी कहानी' (लघुकथा) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अप्रैल-1970 में मासिक 'आरसी' (दिल्ली) में प्रकाशित प्रीतम सिंह पंछी की तीन लघुकथाओं के साथ किया गया था। यह खोज मैंने अपने शोधकार्य, 'पंजाबी मिन्नी कहानीः इतिहास एवं विषयगत अध्ययन' के दौरान वर्ष 1930 से 1970 तक के विभिन्न पंजाबी पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करके की। 
- डॉ. हरप्रीत सिंह राणा

अजन्मा बच्चा / प्रीतम सिंह पंछी

अकाल ही अकाल। एक भयानक काली परछाई ने जैसलमेर के रेगिस्तान में जीवन लील गई थी। हीरा चौधरी अपने गाँव से दाना-पानी की तलाश में निकल पड़ा था। सब कुछ गँवाने के बाद उसके पास सिर्फ दो चीजें बची थीं - एक छोटी-सी पोटली और दूसरी उनकी बीमार पत्नी। लेकिन कुछ कोस का फासला तय करने के बाद वह भी बीच रास्एते दम तोड़ गई। हीरा में इतनी शक्ति नहीं था कि मुर्दे का बोझ ढोकर शहर पहुँच जाता। उसे वहीं छोड़कर अपनी अनजान मंज़िल की ओर बढ़ गया। कुछ दूर जाकर पगडंडी पर उसे एक बच्चा दिखाया दिया। वह लगभग दो वर्ष का होगा। वह कितनी देर वहाँ खड़ा हुआ इधर-उधर निगाह दौड़ाता रहा था कि शायद उसका कोई वारिस दिखाई दे जाए। पर कोई दिखाई नहीं दिया। बच्चा भूख से बिलख रहा था। अब दो अजनबियों की एक ही मंज़िल थी... दोनों लावारिस... एक नन्हा-सा बच्चा जिसकी आँखों में नवजीवन के उगते सूरज की चमक थी, और दूसरा एक बूढ़ा, जिसकी आँखों में डूबते हुए सूरज की रोशनी की उदासी थी। दोनों एक छोटे-से शहर में पहुँच गए। बच्चा भूख से रो रहा था। हीरा रो तो नहीं रहा था, किंतु उसकी आत्मा में कोई एक दबी हुई चीख़ ज़रूर सिसक रही थी।

वह बड़बड़ाया, “तू कितना मूर्ख है हीरा, जो किसी पराए की औलाद को कंधों पर ढोता फिर रहा है। तू भी बिल्कुल अपने बापू और दादा की तरह ही है, जो खुद भूखे पेट रहकर भी समाज का बोझ ढोते रहे, दूसरों का पेट पालते रहे... अरे मूर्ख इनसान ! ये समाज तो आपनों का बोझ नहीं ढोता। तू कहाँ का फ़रिश्ता बना घूम रहा है?" म्युनिसिपल पार्क में बैठा वह सोच रहा था। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा था। अँधेरा होने से पहले वह किसी फ़ैसले पर पहुँच जाना चाहता था। अचानक उसके अंदर से हूक-सी उठी, "नहीं नहीं, मैं यह पाप नहीं करूँगा। मैं इस नन्ही जान को नहीं मारूँगा। भले मैं किसी और को क्यों न सौंपना पड़े।"

फिर वह एक जौहरी की दुकान के अंदर घुस गया और उसको पूछा, "बच्चा लोगे?"

"पर तुम बच्चे को क्यों रहे हो?"

"मैं गरीब आदमी हूँ। मैं इसे पाल नहीं सकता।"

"इस बच्चे की जाति और धर्म?"

"कोई नहीं, कोई नहीं,” कहते हुए हीरा उस दुकान से निकल गया। वह कई दुकानों के अंदर गया। सभी ने बच्चे की जाति पूछी, धर्म पूछा, पर मानव की जाति के बारे में किसी ने नहीं पूछा। 

अंततः उसने फ़ैसला कर लिया कि वह स्वयं उस बच्चे को पालेगा! किसी जाति या धर्म की गोद में देने की बजाय इस अजन्मे बच्चे को एक नया जन्म देगा। ('आरसी' अप्रैल-1970 से)

चौथी कापी / सतवंत कैंथ

दफ़्तर का काम निपटाकर उसने चिट्ठी की चार कॉपियाँ टाइप करके अपने बैग में रखीं।

एक कॉपी सामने से आ रहे दीपक को दी और घर की तरफ़ चल पड़ी।

इसी तरह एक कॉपी रास्ते में एक साइकल वाले को और एक कॉपी मोटरसाइकिल वाले नौजवान के हवाले कर, वह घर पहुँच गई।

चौबारे पर जाकर वह बैग से चौथी कॉपी निकालकर पढ़ने लगी--

मेरे प्यारे,

सिर्फ़ तुम ही हो, जो मेरी ज़िंदगी में आए हो। मैं गंगाजल की तरह पवित्र हूँ। आज तक किसी ने मुझे छुआ तक नहीं। बताओ! तुम मुझसे कितना प्यार करते हो?

तुम्हारी...

इसे पढ़कर वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। सामने वाले पड़ोसी का बेटा प्रेम, खिड़की से स्नेहसिक्त दृष्टि उसे निहार रहा था।

वह गंभीरता से सोचने लगी, 'क्या ये कॉपी उसे न दे दूँ?' ('बर्फी दा टुकड़ा', 1972 से)

अंतर / सुरिंदर कैले

वह प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक गुरुद्वारे जाने वाला गुरसिख था। चेहरे पर फुंसियाँ निकल आने के कारण डॉक्टर की सलाह पर उसे दाढ़ी कटवानी पड़ गई। जब वह गुरुद्वारे में माथा टेकने गया, तो दातुन कर रहे गुरुद्वारे के भाई जी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा, “अरे खालसा जी! ये क्या किया आपने? क्या आपको नहीं पता हैं कि बाल काटना सिखों के लिए बहुत बड़ा पाप है?"

"अच्छा! तो क्या कोई भी सिख बाल नहीं काटता?"

"नहीं।"

"क्या आप भी नहीं काटते?'

“बिल्कुल नहीं।” भाई जी ने खुली दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा।

उस गुरसिख ने भाई जी की बाँह पकड़कर ऊपर उठा दी और मुँड़ी हुई काँख की ओर इशारा करते हुए पूछा, "तो फिर ये क्या है?"

अब दातुन भाई जी की दाँतों में फँसी रह गई।                            (अणु, जुलाई-1972 से)

विद्रोही बादल / अमर यादव

इंद्र देवता ने बादलों के नेता को अपने कार्यालय में बुलाया और पूछा कि तुम भारत में वर्षा क्यों नहीं करते? "महाराज, मैं हर साल अपने साथियों के साथ वहाँ जाता हूँ। हम सब एक साथ गरजते हैं, लेकिन बरसते नहीं! "क्यों?"

"ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, वहाँ के सभी नेता ऐसा ही करते हैं।”

"मैं कुछ समझा नहीं। ज़रा खुलकर बताओ।"

"भारत में जब भी चुनाव होते हैं तो नेता लोग मंच पर खड़े होकर भाषण देते हैं कि इस बार महँगाई को जड़ से मिटा देंगे, कोई बेरोज़गार नहीं रहेगा, ग़रीबी दूर होगी और समाजवाद आएगा।"

“फिर तो वहाँ के नेता बहुत अच्छे हैं।"

"नहीं महाराज, ऐसा कुछ नहीं है। वहाँ के नेता जब चुनाव जीतकर जब राजधानी में बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठ जाते हैं तो आँख मूँदकर अपने और अपने सगे-सम्बन्धियों के घर भरने में लग जाते हैं। इससे महँगाई बढ़ जाती है। बिना सिफ़ारिश के नौकरी नहीं मिलती। बाज़ार में हर चीज़ ब्लैक में मिलती है। समाजवाद का सपना देखने वाली भोली-भाली जनता को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती।"

"जनता उन्हें कुछ नहीं कहती? उन्हें उनके वादे याद नहीं दिलाती ?"

"मुझे इसी बात पर आश्चर्य होता है कि लोग भगवान् की इच्छा मानकर इसे स्वीकार कर लेते हैं। नेताओं का यह हाल देखकर मैं भी बादलों के समूह के साथ वहाँ पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर ऐसी गर्जना की कि पूरा आकाश गूँज उठा। लोग बहुत खुश हुए कि अब बारिश होगी, लेकिन हम भी कहाँ कम थे... बिना बरसे ही लौट आए।"

"लेकिन इससे तो जनता और भी परेशान हो जाएगी।"

"ये मैं भी जानता हूँ। परंतु मैं चाहता हूँ कि कठिनाई इतनी बढ़ जाए कि जनता की सहनशक्ति जवाब दे जाए। मुझे विश्वास है कि एक दिन यही लोग राजधानी की ओर कूच करेंगे, इन नेताओं के चेहरे से मुखौटे उखाड़ फेंकेंगे और समाजवाद आ जाएगा।"

यह सुनकर इंद्रदेव तपोभूमि भारत के कलियुग के बारे में और राजधानी दिल्ली और उसमें रहने वाले आधुनिक ऋषि-मुनियों के बारे में सोचते हुए बुदबुदाए, 'ओह, घोर कलयुग है।'                                      (तरकश 1973)

भिखारी / रेक्टर कथूरिया 

एक भिखारी अपने साथी को दिनभर की गतिविधियों के बारे में बताते हुए एक घटना सुनाई, “यार, आज जब मैं एक गली में जा रहा था तो मुझे एक बाबू आता हुआ दिखा। उसे देखकर मैं कुछ माँगने के लिए उसके पास गया। वह जो दो किलो आटा एक थैली में डालकर ले जा रहा था, उसमें से एक मुट्ठी निकालकर मेरी झोली में डाल दी..." और बोलते-बोलते भिखारी रुक गया  तारों से भरे आकाश की ओर देखने लगा। फिर उसने एक लंबी आह भरी और शेष बात पूरी की, “यार, मेरा दिल करता है कि मैं उस बाबू को पाँच-सात किलो आटा दे दूँ। उससे ज़्यादा आटा तो मेरे पास ही है। 

('अब जूझन का दाओं', 1975 से)                                                                          शेष आगामी अंक में...

No comments:

Post a Comment