प्रत्येक लेखक, वह चाहे कवि हो चाहे कथाकार, उसकी स्मृति में अतीत चक्कर काटता है। उस अतीत का कोई हिस्सा कब ज्यों का त्यों अथवा रचना के रूप में उतरने का दबाव रचनाकार पर डालने लगेगा, कहा नहीं जा सकता। अतीत की बहुत-सी अच्छी-बुरी स्मृतियाँ अचेतन मन में आराम से सोई रहने में ही भलाई समझती हैं; लगभग यह गुनगुनाती-सी कि—‘सोई हुई यादो मुझे इतना न सताओ, अब चैन से रहने दो मेरे पास न आओ।’
ॠता शेखर ‘मधु’ द्वारा सम्पादित, उन सहित 29 लेखकों-लेखिकाओं की कलम से नि:सृत, ‘तूफान गुजरने के बाद’ की सभी रचनाओं को न तो कहानी कहा जा सकता न संस्मरण और न ही अतीत रुदन। रुदन तो खैर इनमें से एक भी रचना है ही नहीं। सब की सब कुछ न कुछ लोहा लिए हुए हैं। सब की सब करुणा से सराबोर हैं। इसीलिए वे आपको रुलाती भी हैं और आपकी संवेदना को सहलाती भी हैं। ‘सम्पादक की दृष्टि से’ इन्हें देखते हुए ॠता जी ने पहला ही वाक्य यह लिखा है कि—‘कहानियाँ, जो काल्पनिक नहीं सच हैं।’
अंजू शर्मा की संघर्षगाथा पढ़ते हुए लगा कि उन्होंने अपनी नहीं मेरी गाथा लिखी है। किशोर अवस्था से लेकर युवावस्था तक मैंने भी पटरी लगाई, पुलिस कान्स्टेबिल के डंडे खाये, म्युनिस्पैलिटी की रसीद काटने वालों की झिड़कियाँ सुनीं; और भी पता नहीं क्या-क्या। इन स्मृतियों को पढ़ने का एक लाभ यह भी है ये आपके भीतर की आग को कुरेद देती हैं, चिंगारियों को उभरकर ऊपर आने को उकसाती हैं। अर्चना चावजी की रचना बताती है कि सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कितना बड़ा गुण है। लम्बा संघर्ष करने के बाद बच्चे का कैम्पस सलेक्शन खुशी और सम्मान का जो उपहार संघर्षमयी माँ को देता है, असफल साक्षात्कार वह सब एक ही पल में मटियामेट कर देता है। एकबारगी लगता है कि सब चौपट; लेकिन नहीं। बच्चा नये सिरे से उठ खड़ा होना शुरू करता है और ‘इसरो’ जैसी संस्था में वैज्ञानिक का सम्मानजनक पद पा लेता है। इसे पढ़कर मुझे अनायास ही एक शे’र याद हो आया—
तुंदी-ए-वादे-मुखालिफ से न घबरा ऐ उकाब।
ये तो चलती है तुझे ऊँचा उड़ाने के लिए। (तुंदी-ए-वादे-मुखालिफ यानी तीव्र तूफान की विपरीतता)
गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने अपनी गाथा ‘गूँज’ के अन्त में लिखा भी है—‘तूफान केवल विध्वंस का प्रतीक नहीं होते, कभी-कभी उनमें निर्माण की गूँज भी होती है।’
एक ओर मधु जैन की कहानी ‘जीवन के रंग’ की वह युवती है जो कमर से नीचे के समूचे अंगों से अपाहिज हो चुके पति की प्राण-पण से देखभाल करती है और दूसरी ओर सुरिन्दर कैले की कहानी ‘मैं नहीं बताऊँगी’ के घायल मेजर शेरसिंह के बचपन की प्रेमिका डॉक्टर मनमीत जो किसी अन्य के साथ सगाई करके अलग जीवन साथी का चुनाव करती है।
‘ये कैसा रिश्ता’ (मनोरमा जैन ‘पाखी’) की शामली को भाग्य की मारी लड़की ही कहा जा सकता है। समूचे संघर्षों के बावजूद, वह सही समय पर साहस नहीं दिखा पाती, वैसा विद्रोह नहीं कर पाती जैसा उसने पढ़ाई जारी करने के लिए विद्यालय का फार्म भरते समय किया था; और सम्भवत: इसी कारण दुर्भाग्य से उबर नहीं पाती और कह सकते हैं कि नष्टप्राय हो जाती है।
निशा महाराणा की ‘दो हंसों का जोड़ा’ एक शिक्षा देती है कि ‘कई बार नादानीवश अपनी बहनों और सहेलियों की सहायता के चक्कर में (महिलाएँ) अपनी जिन्दगी को दाँव पर लगा बैठती हैं।’ दूसरी ओर ‘सूनी तीज’ (रीता मक्कड़) की सरोज है जो ब्रेस्ट कैंसर की अपनी बीमारी का पता चलने पर अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिन्ता से मुक्त होने की खातिर अपने जीवित रहते ही पति का विवाह अपनी छोटी बहन से कराकर मुक्ति की साँस लेती है।
निवेदिता श्रीवास्तव ‘निवी’ की कहानी ‘किन्नर मन’ बताती है कि ‘किन्नर मन होना गलत है, शरीर नहीं।’ पूजा अनिल की ‘मेरी बहादुर बच्ची’ विजातीय युवक से प्रेम विवाह कर लेने वाली एक युवती और उसकी माँ आदि को त्रास दिये जाने की व्यथा है। पूर्णिमा शर्मा की ‘अन्तहीन संघर्ष’ एक महिला के पति की मृत्यु के बाद अनेक संघर्षों से गुजरने की कथा है।
ॠता शेखर ‘मधु’ ने एक ऐसे पिता को रेखांकित किया है जो बदचलन बेटे को घर और सम्पत्ति से निष्कासित कर नाराज बहू को घर वापस ले आता है। ‘आतंक के घेरे से’ (सीमा वर्मा) की दीदी सिर-चढ़े अपने बिगड़ैल पति को उस समय झापड़ मारकर उसकी औकात समझा देती है जब वह अपने ससुर यानी दीदी के पिता पर हाथ उठा देता है।
शोभना चौरे की ‘गुलाब माँ’, एक जुझारू महिला के जीवन की गाथा है तो शील रानी निगम की ‘वात्सल्य’ एक बिगड़ी हुई दत्तक पुत्री के दुर्व्यहार की, ‘अनावरण’ देश पर जान न्यौछावर करने वाले बेटे के पिता के साहस की कहानी है तो शुचि मिश्रा की ‘माँ’, माँ बनने की अनुभूतियों का ऐसा यथार्थ चित्रण है जिसे कोई माँ ही कर सकती है।
सुधा भार्गव की रचना ‘कहर की रात’ पति को तिल-तिल मृत्यु के आगोश में जाते देखने वाली असहाय पत्नी की दारुण कथा है। ‘अनिता जायसवाल की कहानी’ (सुनीता पाठक) दिव्यांग और अनाथ एक ऐसी युवती की सत्यकथा है जो अनाथालय में पली-बढ़ी और पढ़ी है तथा इन दिनों एक आर्मी स्कूल में संगीत शिक्षिका के तौर पर कार्य करती हुई शासकीय सेवा में जाने की तैयारी में रत है। सुरेश सौरभ की ‘आप के अहसासों में रहूँगी’, उपमा शर्मा की ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’, उषा किरण की ‘शरबती बुआ’, डॉ॰ वन्दना गुप्ता की ‘सीमा रेखा’ कहानियाँ भी पठनीय हैं।
उपासना सियाग की ‘जीत’ सास और पति की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी ऐसी युवती की कथा है जो अपने साहस के बल पर शासकीय सुरक्षा पाने में कामयाब हो जाती है और निर्बाध अपने शिशु का लालन-पालन कर पाती है।
कुल मिलाकर ‘तूफान गुजरने के बाद’ एक पठनीय और विचार उत्प्रेरक पुस्तक है जिसके संचयन और सम्पादन के लिए ॠता शेखर ‘मधु’ बधाई की पात्र हैं।
समीक्षित
पुस्तक—तूफान गुजर जाने के बाद ; सम्पादक—ॠता शेखर ‘मधु’; प्रकाशक—श्वेतवर्ण
प्रकाशन, 212 ए, एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट, सुपर एमआईजी, सेक्टर 93, नोएडा-201304
(उप्र),
कुल पृष्ठ—176; मूल्य—रुपए 249 (पेपरबैक) सम्पादक : ॠता शेखर 'मधु'
समीक्षक—डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)
मेरी लिखी कहानी 'वात्सल्य' को आपकी टिप्पणी से मुझे खुशी मिली. आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा। ये सच ही कहा आपने की अतीत की स्मृतियां रचनाकार से कलम उठवा लेती है। सबकी रचनाएं कोई न कोई संदेश दे रही है पुस्तक में। ऋता जी का आभार संकलन के लिए ।आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteअग्रवाल जी .... सारगर्भित समीक्षा के लिए और मेरे लिखे संस्मरण ' दो हंसों का जोड़ा ' पर लिखे आपके विचार के लिए हार्दिक आभार .... निश्चित रूप से रीता जी का ये संपादन
ReplyDeleteकाबिलेतारीफ है ... डॉ निशा महाराणा ...
मैंने सारी कहानियाँ पढ़ लीं हैं आपने तीक्ष्ण नज़र हर कहानी पर डाली है जिससे हर कहानी एक बार फिर मेरे मस्तिष्क में घूम गईं। मेरी कहानी ‘आतंक के घेरे से’ पर आपकी टिप्पणी पढ़ लगा लिखना सार्थक हुआ जिसके लिए आपका और ऋता मधु शेखर जी का हार्दिक धन्यवाद ।
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