गतांक से जारी...
1. मैं महसूस करता हूँ, अतः मैं हूँ
लेखक : महेंद्र कुमार |
दर्शन की उत्पत्ति अगर आश्चर्य से होती है तो साहित्य की उत्पत्ति संवेदनाओं से जिस तरह उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति आश्चर्य करना कम कर देता है उसी तरह से संवेदनशील होना भी। इसे समझने के लिए हम प्रेम का उदाहरण ले सकते हैं। जो लोग प्रेम के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं अक्सर वही लोग विवाह के पश्चात् प्रेम का मज़ाक उड़ाते हैं। क्यों? क्योंकि उनके लिए प्रेम का मतलब अब सेक्स के सिवा और कुछ नहीं रह जाता। उनके लिए यह एक प्रकार की भूख है जिसे मिटाने के साधन उनके पास उपलब्ध होते हैं। जब जी चाहा, मिटा लिया। अगर प्रेम का सिर्फ यही मतलब है तो साहित्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा उठाकर आग में फेंक देना चाहिए। इसी तरह हम भूख अथवा ग़रीबी को भी ले सकते हैं। क्या हम भूख और गरीबी को लेकर उसी तरह से संवेदनशील होते हैं जैसे नौकरी मिलने के पहले हुआ करते थे? इसका भी जवाब आपको ज्यादातर न में ही मिलेगा। मूल बात यह है कि सबके अंदर संवेदनशीलता की मात्रा अलग-अलग होती है। मात्रा के साथ साथ संवेदनशीलता के विषय भी सबके लिए अलग-अलग होते हैं। गरीब की संवेदनशीलता अलग होती है और अमीर की संवेदनशीलता अलग। लोग किस बात पर संवेदनशील होंगे और किस बात पर नहीं यह काफ़ी हद तक उनके निजी अनुभवों पर निर्भर है। एक लेखक यहीं पर आ कर सबसे अलग हो जाता है। उसे सर्वहारा की संवेदना भी महसूस करनी होती है और बुर्जुआ की भी, एक पुरुष की संवेदना भी महसूस करनी होती है और एक स्त्री की भी किसकी ज़्यादा करेगा यह अलग मुद्दा है लेकिन अगर वह दोनों की संवेदनाओं का ग्रहण करने में अक्षम है तो अपनी रचनाओं में उससे संबंधित उचित वातावरण का निर्माण नहीं कर पाएगा। किसी दूसरे के संवेदनों को महसूस करने के लिए आपको अपने दोनों पैर उसके जूते में डालने होंगे। (जूते में पैर डालने का अर्थ स्वयं को या उस व्यक्ति को जिससे आपका विशेष लगाव हो, दूसरे में अध्यारोपित करने से है।) पर समस्या यह है कि कुछ लोग जूते पहनते ही नहीं और अगर पहनते भी हैं तो वो मिलते नहीं जैसे कि एक सीरियलकिलर। अगर आप अपराध शाखा से संबंधित मनोवैज्ञानिक नहीं हैं तो इस बात की संभावना बहुत कम है कि आप कभी किसी सीरियलकिलर के सामने बैठकर उसके मस्तिष्क में प्रवेश कर पाएँ। ऐसी स्थिति में आपको द्वितीयक स्रोतों की आवश्यकता पड़ेगी।
संवेदनशीलता के संदर्भ में यह समझना भी बहुत ज़रूरी है कि लोग किस तरह अपनी-अपनी संवेदनशीलता के हिसाब से समूह बना लेते हैं। ये विशिष्ट समूह न सिर्फ अपने समूह की संवेदनशीलता को बढ़ाने का काम करते हैं बल्कि दूसरे समूहों के प्रति संवेदनशीलता को ख़त्म करने का भी। यह काम कभी दूसरे समूह को बीमारियों का वाहक बताकर किया जाता है। तो कभी गंदा, लड़ाकू और चोर बताकर यह काम किसी एक स्तर पर नहीं बल्कि कई स्तरों पर किया जाता है और वह भी बहुत सूक्ष्म तरीक़े से। इसके लिए कभी इतिहास को मिथक बनाया जाता है तो कभी मिथक को इतिहास। अपने नायकों के किस्सों को पाठ्यक्रम में शामिल करवाना और उनके नाम से विद्यालयों में छुट्टी करवाना भी इसीका एक हिस्सा है। मीडिया " क्यों किसी त्योहार को उत्सव की तरह मनाता है और क्यों किसी त्योहार पर चर्चा तक नहीं करता, इसका भी यही कारण है। बनवाते हैं। अगर आपको किसी समूह के प्रति संवेदनशीलता खत्म करनी हो तो उसके जोक बनाकर मार्केट में भिजवा दीजिए। ये वो कुछ तरीके हैं जो बहुत ही सूक्ष्मता से आपको धीरे-धीरे दूसरे समूहों के प्रति असंवेदनशील बना देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि आप सिर्फ़ यह सुनते ही कि अमुक उस समूह का सदस्य है उसके बारे में अपनी राय बना लेते हैं। इसे मैं ' चिप्पी लगाना' कहता हूँ। आप 'नास्तिक' शब्द सुनते हैं और अपनी जेब से उस चिप्पी (पर्ची) को निकालकर जिसमें यह लिखा होता है कि नास्तिक का मतलब क्या है (अनैतिक और निराशावादी?), सामने वाले पर चस्पा कर देते हैं। किसी का पूरा नाम पूछना या यह पूछना कि वह कहाँ से आया है या क्या काम करता है के पीछे का भी यही कारण है, चिप्पी लगाना। साहित्य में जब कोई समीक्षक किसी लेखक की तस्वीर या नाम देखकर उसकी रचना की समीक्षा करता है तो वह भी एक प्रकार की चिप्पी ही लगा रहा होता है। धार्मिक, वामपंथी दक्षिणपंथी, दलित, महिला, हिंदु, मुस्लिम और सेक्युलर कुछ ऐसे ही अन्य शब्द है। यदि आप इनमें से किसी के प्रति संवेदनशील हैं और किसी के प्रति नहीं तो आपको अपनी जेब टटोलकर देख लेना चाहिए कि कहीं उसमें भी तो ऐसी ही कोई चिप्पी नहीं पड़ी हुई है।
संवेदनशीलता जहाँ एक ओर लेखक को उसके लेखन में आगे रखती है तो वहीं दूसरी ओर जिंदगी में उसे बहुत पीछे भी ले जाती है। यह संवेदनशीलता ही है जिसकी वजह से वो औरों की तरह जिंदगी में 'मूवऑन' नहीं कर पाता। मैंने कभी लेखक को टाइम फ्रेम्स में कैद एक जीव कहा था. उसका यही मतलब है। 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट' की इस दुनिया में वहीं फिट माना जाता है जो संवेदनशील नहीं है। भावुकता को यहाँ पर कमजोरी का प्रतीक माना जाता है। अगर आप भावुक हैं तो बेकार है। लोग आपको उठाते हैं और एक ऐसी अँधेरी खाई में फेंक देते हैं जहाँ से कभी कोई आवाज़ लौटकर नहीं आती। यह बड़ा ही अजीब है कि लोग उन्हें सुनते हैं जिनके पास बोलने के लिए कुछ नहीं होता और उन्हें खामोश कर देते हैं जिनके पास बोलने के लिए बहुत कुछ होता है। अकेलापन और तन्हाई, ये वो दो साथी हैं जो आपके साथ रहते हुए भी आपका साथ नहीं दे पाते। एक अदद साथी (पत्नी या पति नहीं) की तलाश आपको वहाँ ले जाती है जहाँ पर होश में आने के लिए बेहोश होना पड़ता है। कुछ लोग तो इतने ज्यादा होश में आ जाते हैं कि दुनिया ही छोड़कर चल देते हैं। राहत साहब इसीलिए कहते है. मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर, भगर हद से गुज़र जाने का नई।' पर समस्या यह है कि जो इश्क़ करता है वो हद से गुजर ही जाता है। इश्क अगर आग का दरिया है तो लेखन आग का समन्दर जिसमें लेखक को खुद कई बार अपने आपको मारना पड़ता है। अगर कोई चीज कम हो तो उसकी क़ीमत बढ़ जाती है। इस हिसाब से संवेदनशीलता को गुण कहना चाहिए, दोष नहीं। इस असंवेदनशील दुनिया में अपनी संवेदनशीलता को बनाए रखना एक बहुत ही कठिन चुनौती है। चिंतन भी इसमें कुछ खास काम नहीं आता। बल्कि यह कहना चाहिए कि स्थिति उल्टी है। एक अगर आग है तो दूसरा घी। संवेदनशीलता बचाए रखने के लिए अपने अंदर के इनसान को बचाए रखना पड़ता है। जैसे-जैसे आपके अंदर का इनसान मरता जाता है, वैसे-वैसे आपकी संवेदनशीलता भी मरती जाती है। अगर आपको अपनी संवेदनशीलता बचानी है तो आपको अपने अंदर का इनसान बचाना होगा। मगर यह करने की एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। जो लेखक हैं वो ये क़ीमत जानते हैं। यदि आप एक लेखक बनना चाहते हैं तो रोज़-रोज़ मरने के लिए तैयार रहिए।
आगे जारी है...
'लघुकथा कलश' (जुलाई-दिसंबर 2021; अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-1) पृष्ठ 131 से साभार
संपादक : योगराज प्रभाकर
इस लेखन से मैं यह सीखा की आज का मानव जड़ ज्यादा संवेदनशील न के बराबर हैं।
ReplyDeleteThank you sir