Wednesday, 2 February 2022

दर्शनशास्त्र और लघुकथा-2 / महेंद्र कुमार

गतांक से आगे...

महेंद्र कुमार 

'लघुकथा में दर्शनशास्त्र' से आशय उन लघुकथाओं से है जिनमें दार्शनिक चिंतन की अभिव्यक्ति होती है। लघुकथा में 'लघु' शब्द पर ज्यादा और 'कथा' पर कम जोर देने का एक दुष्परिणाम यह रहा कि लघुकथाओं की गुणात्मक वृद्धि उतनी नहीं हुई जितनी की मात्रात्मक वृद्धि। इस मात्रात्मक वृद्धि पर विष्णु प्रभाकर ने चिंता जताते हुए इसे लघुकथा के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना है। वहीं लघुकथाकार के विपरीत जब कोई पाठक लघुता पर जोर देता है तो वह इसे कमतर विधा समझने की भूलकर बैठता है। यह भूल सामान्य पाठकों के साथ-साथ विद्वानों ने भी की है। यह बेहद अफसोस की बात है कि लघुकथाकारों की भीड़ में ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें कहीं से भी लेखक नहीं कहा जा सकता। सिर्फ लिख देना ही लेखक हो जाना नहीं है। सवाल उठता है कि 'लेखक' से हमारा क्या तात्पर्य है? क्या लेखक कहलाने के लिए कुछ शर्तों का पालन करना आवश्यक है? यदि हाँ तो वे शर्तें कौन-सी है? साथ ही अच्छा लेखन क्या है? और यह कैसे किया जा सकता है ?यह आलेख मुख्यतः दो भागों में विभाजित है, लघुकथा 'का' दर्शन और लघुकथा 'मे' दर्शन अभी तक मैंने जो कुछ भी कहा है वह पहले भाग के अंतर्गत आता है। पहले भाग की मुख्य विषयवस्तु लेखक होने का अर्थ है। लेखक होने का अर्थ चार शर्तों का पालन करना है। ये चारों शर्तें इस पहले भाग को चार उपभागों में विभाजित करती हैं। इन उपभागों में लेखक के साथ-साथ (अच्छे) लेखन पर भी विमर्श किया गया है। अच्छा लेखन क्या कहना है और कैसे कहना है को समझ लेना है। इन चारों शर्तों में ये दोनों प्रश्न भी सम्मिलित है। इस लेख के दूसरे भाग (लघुकथा में दर्शन) में हम कुछ ऐसी लघुकथाओं को देखेंगे जिनमें दार्शनिक विचारों की प्रतिध्वनि मिलती है। हमारा पहला मुख्य भाग अगर सैद्धांतिक है तो यह दूसरा मुख्य भाग प्रायोगिक इस दूसरे भाग में प्रस्तुत लघुकथाएँ कहीं से भी यह दावा नहीं करती कि सिर्फ वही श्रेष्ठ दार्शनिक लघुकथाएँ हैं अथवा सिर्फ उन्हीं में दार्शनिक विचार मौजूद हैं। यही बात पहले भाग के ऊपर भी लागू होती है। लघुकथा के दर्शनशास्त्र पर बहुत कुछ कहा जा सकता है जो यहाँ नहीं कहा गया।

आधुनिक दर्शन के जनक कहे जाने वाले देकार्त ने कभी 'चिंतन' से अपने अस्तित्त्व को सिद्ध किया था: 'मैं सोचता हूँ, अतः मैं हूँ। मेरे अनुसार उसका यह कथन लेखक होने की पहली शर्त है। लेखक होने की बाकी तीन शर्ते, महसूस करना, पढ़ना और लिखना हैं। देकार्त की भाषा में इसे हम इस तरह कह सकते हैं - मैं सोचता हूँ, अतः मैं हूँ; मैं महसूस करता हूं, अतः मैं हूँ मैं पढ़ता हूँ, अतः मैं हूँ और मैं लिखता हूँ, अतः मैं हूँ। इन शर्तों को हम चाहें तो गुण भी कह सकते हैं। अब गुण अनिवार्य भी हो सकते हैं और आकस्मिक भी। आकस्मिक गुण आते-जाते रहे हैं और इनके होने न होने से द्रव्य (वह जो गुणों को धारण करता है) पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता लेकिन यही बात हम अनिवार्य गुणों के विषय में नहीं कह सकते। अनिवार्य गुणों के बिना द्रव्य की कल्पना नहीं की जा सकती। लेखक से संबंधित ये चारों गुण उसके अनिवार्य लक्षण हैं, आकस्मिक गुण नहीं। इनमें से किसी एक की भी अनुपस्थिति लेखक के लेखक होने पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर सकती है। इसलिए इन सभी शर्तों को हमें संयुक्त रूप में लेना चाहिए- मैं सोचता हूँ, महसूस करता हूँ, पढ़ता हूँ और लिखता हूँ, अतः मैं हूँ।

चौथी शर्त के संदर्भ में यह पूछा जा सकता है कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति जिसने कभी कुछ लिखा ही न हो को लेखक कहा जा सकता है? उत्तर होगा नहीं, क्योंकि ऐसा कहना आत्मविरोधी होगा। सुकरात ने स्वयं कभी कुछ नहीं लिखा और लिखना चाहा भी नहीं इसलिए वह लेखक नहीं है। हाँ, वह एक महान चिंतक अथवा बुद्धिजीवी ज़रूर है। क्या कोई ऐसा लेखक हो सकता है, तीसरी शर्त के संदर्भ में, जिसने कभी कुछ न पढ़ा हो या जो निरक्षर हो? अगर हम पढ़ने का अर्थ केवल साक्षर होने मात्र से लगाते हैं तो हाँ। यह पढ़ने का संकुचित अर्थ है। लेकिन पढ़ने से मेरा आशय इसके इस अर्थ से नहीं बल्कि विस्तृत अर्थ से है। ऐसे बहुत से लोग हैं या हो सकते हैं और हुए हैं जिन्हें हम निरक्षर तो कह सकते हैं मगर यह नहीं कि वे पढ़ना नहीं जानते। 'सच तो यह है कि इनमें से बहुत से लोग अपने वक़्त और समाज को पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में कहीं बेहतर ढंग से पढ़ रहे होते हैं। दूसरे शब्दों में, हम बिना साक्षर हुए अपने आसपास के लोगों के जीवन अनुभव को भी पढ़ सकते हैं और साक्षर होकर किताबों में किसी सुदूर बैठे व्यक्ति के अनुभव को भी। पढ़ने के इस अर्थ में इसका संबंध लेखक होने की पहली शर्त से स्थापित होता है। वास्तव में ये सभी शर्तें कहीं-न-कहीं आपस में संबंधित हैं। दूसरी शर्त (महसूस करने ) का मतलब इंद्रिय-संवेदनों (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) को इंद्रियों के माध्यम से केवल ग्रहण करना भर नहीं है बल्कि संवेदनशील होना भी है। अपनी और किसी दूसरे की भूख का अहसास होना, दोनों ही महसूस करने के उदाहरण हैं मगर हम पहले को संवेदनशीलता के अंतर्गत नहीं रखते। लोगों को भूख से तड़पते देखकर अपनी रचना में उसका वर्णन कर देना एक संवेदनशील लेखक होने का लक्षण है। पर क्या इतना ही पर्याप्त है? क्या एक लेखक को यह जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि कोई भूखा है तो क्यों है? यही वह जगह है जहाँ पहली शर्त की आवश्यकता पड़ती है, चिंतन की। इस शर्त अथवा गुण के अभाव में कोई लेखक उसके साथ खड़ा हो सकता है जिसके साथ उसे नहीं खड़ा होना चाहिए, अन्याय के। एक लेखक को समस्या के साथ-साथ उसके समाधान पर भी विचार करना चाहिए। समस्या के समाधान और समस्या की समझ, इन दोनों के लिए इस पहली शर्त की महती आवश्यकता है। अब हम संक्षेप में एक-एक कर प्रत्येक शर्त को देखेंगे जिससे यह स्पष्ट हो सके कि इनमें से प्रत्येक का लेखक (लघुकथाकार) के लिए क्या महत्त्व है और उसकी उपेक्षा से उसके लिए कैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

आगामी अंक में जारी...

'लघुकथा कलश' (जुलाई-दिसंबर 2021; अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-1) पृष्ठ 131 से साभार 

संपादक  : योगराज प्रभाकर 

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