Wednesday, 14 July 2021

स्मृति : रवि प्रभाकर

(रचनाशील व्यक्ति को उसकी रचनाशीलता के माध्यम से याद करने से बेहतर अन्य कोई माध्यम नहीं। प्रिय रवि प्रभाकर को (लेखक रूप में उनके जनक) योगराज जी ने उसी सम्माजनक तरीके से याद किया है। हाल-फिलहाल लघुकथा ने डॉ. शकुन्तला किरण (23 मई 2021) और डॉ. सतीशराज पुष्करणा (28 जून 2021) को भी खोया है; लेकिन (मेरा मानना है कि) ये दोनों ही महानुभाव लघुकथा को अपना best दे चुके थे जबकि रवि बहुत-कुछ देने की प्रक्रिया में विकसित हो रहे थे। इस दृष्टि से इस युवा का असमय चले जाना लघुकथा की अकल्पनीय क्षति है।)

वर्ष 2014-15 में रवि भाई मेरे कहने पर बहुत ही हिचकिचाहट के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए। मैंने उनके अंदर एक गंभीर आलोचक देखा था, इसलिए मैंने उन्हें कहा कि आप विभिन्न समूहों में हो रही गतिविधियाँ देखें और प्रतिभाशाली लेखकों की खोज करें उनकी रचनाएं देखें ताकि आपके ज्ञान में भी वृद्धि हो। गतिविधियाँ देखने वाली बात उनको पसंद नहीं आई लेकिन दूसरी बात पर वे सहमत हो गए। पढ़ने का तो उन्हें जनून की हद तक शौक़ था ही, इसलिए वे सोशल मीडिया के समूहों से अच्छी रचनाएं पढ़ते और मुझसे उनपर चर्चा करते। 'ये बंदा बहुत तरक्की करेगा', 'इसकी रचनाओं में दम है', 'इसको थोड़ा मार्गदर्शन की जरूरत है'. 'ये बंदा कई सालों से वहीं-का-वहीं खड़ा है, इसपर मत्था मरना वक़्त की बर्बादी है', 'अगर ये अपनी भाषा सुधार ले तो कमाल का लिखेगा',- अक्सर वे ऐसी बातें मुझसे किया करते थे, और अपनी राय तर्कपूर्ण तरीके से दिया करते थे। बहरहाल, उन्होंने एक बार किसी पुस्तक की समीक्षा लिखी और मुझे भेजी। मुझे समीक्षा पसंद नहीं आई।' क्योंकि वह 'इस लघुकथा में पुलसिया अत्याचार दिखाया गया है', 'इसमें दहेज़ की मारी एक महिला का दर्द दर्शाया गया है', 'ये बताया गया है, वह दिखाया गया है' टाइप की समीक्षा थी। उन्होंने मुझसे पूछा कि आखिर इसमें कमी क्या है? मैंने कहा भाई! जो दिखाया, दर्शाया या बताया गया है वह तो सभी को दिखाई देता है। इसमें आपकी क्या कलाकारी है? यह तो स्थूल-सी पाठकीय प्रतिक्रिया है जो कोई नौसीखिया भी दे देगा। आप वह बताएं जो दिखाई नहीं दे रहा है, गहराई में उतरें और कुछ अलग-सा लिखें। यह बात उनके दिल को जँची; उन्होंने झट से कहा कि इस समीक्षा को मैं निरस्त करता हूँ। मुझे दो वर्ष का समय दें, मैं ऐसी समीक्षा लिखूंगा किआपको पढ़कर निराशा नहीं होगी। कुछ महीने बाद उनके घर जाने का संयोग बना, तो मैंने देखा कि उनकी टेबल पर दर्जनभर आलोचना से संबंधित पुस्तकें रखीं हुई थी, उन में महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को बाकायदा 'हाईलाईट' किया हुआ था। उन्होंने बताया कि वे आचार्य शुक्ल, बाबू गुलाब राय और मुक्तिबोध को घोलकर पी रहे हैं। वर्ष 2017 में उन्होंने राजेश कुमारी के लघुकथा संग्रह 'गुल्लक' की समीक्षा लिखी, और लिखी भी बाकमाल।


मेल भेजने के दो दिन बाद उन्होंने मुझे फोन किया और पूछा- "क्यूँ जनाब! बणी कुश गल्ल?" (क्यों जनाब, कुछ बात बनी?)... मैं केवल इतना ही कह पाया, "जिंदाबाद!" 

4 अक्टूबर 2017 को ओबीओ पर प्रकाशित रवि भाई द्वारा की गई वह समीक्षा प्रस्तुत है।

पुस्तक- ‘गुल्लक’ (लघुकथा संग्रह)

लेखिका- राजेश कुमारी

प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद

मूल्य- 140-00 रू.

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आधुनिकीकरण के दौर में रिश्तों के बीच एक अजनबीपन बढ़ता जा रहा है। सहज मानवीय संबंधों की ऊष्णता तेज़ी से उदासीनता में बदल रही है। आपाधापी के इस माहौल में एकाकीपन और परायापन आज के जीवन की अनिवार्यता सी बन गई है। जीवन की यह अनिवार्यता वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सर्वत्र व्याप्त है। धीरे-धीरे संवेदन शून्यता निःसंगता और जड़ता बढ़ रही है जो ‘गुल्लक’ लघुकथा में सहज ही परिलक्षित हो रही है। देखो पापा, मैंने आपको ये पहले भी कहा था कि हमारे पास अभी इतनी बचत नहीं है; मुश्किल से गुज़ारा होता है, फिर हवाई जहाज़ से हर साल यहाँ आने-जाने में ही कितना ख़र्च हो जाता है। ऊपर से मिंटू की पढ़ाई का ख़र्च, छोटी बेटी का ख़र्च; बस आप भी न... फ़ालतू की चिंता करते हो। जब लड़के वाले कुछ माँग नहीं रहे तो जितना है उसमें से ही सिम्पल शादी कर दो।‘ कहकर चन्दन फ़ोन में व्यस्त हो गया।’नन्हे मिंटू का अपनी गुल्लक दादा के सामने फोड़ कर ‘ये लो दादा जी! बुआ की शादी के लिए जितने पैसे आपको चाहिए सारे ले लो’ का प्रसंग इस लघुकथा को भावनाओं के शिखर पर ले जाता है। इस प्रकार ‘गुल्लक’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जो हृदयरूपी वीणा के तारों को झंकृत कर देती है और पाठक मानवीय संबंधों की मार्मिकता के द्वंद्व और तनाव के बीच उसकी सहजता को अनुभव करने लगता है।

राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि और कथानक अपने आसपास से रोज़ाना घटित होने वाली बिल्कुल साधारण-सी चीज़ों, स्थितिओं और घटनाओं से उठाए हैं। जिससे उनकी लघुकथाएँ सहज-सरल एवं अनायास रचित जान पड़ती हैं। जैसे कि ‘तितलियाँ’ के मुन्ना का कॉलेज में अपनी छोटी बहन की ऐडमिशन के बाद अन्य लड़कियों को देखने का नज़रिया बदल जाना। ‘प्रतिउत्तर’ में नीतू का मामा की लड़की को चश्मा लगने के बाद ‘मामा फिर तो अब दो-दो चश्मिश, दो-दो चश्मेबद्दूर हो गई घर में।’ तसल्ली करना। राजेश कुमारी की लघुकथाओं के पात्र जीवन की समस्याओं से घिरे हुए हैं, तनाव से गुज़र रहे हैं। निराशा और हताशा उन्हें जड़ बना देने की हद तक ले जाती है लेकिन वे इससे बाहर निकलने का प्रयास करते रहते हैं। उनका रवैया जीवन से भागने का नहीं बल्कि जीवन की ओर भागने का है। ‘और वो चुपचाप उसी आसमान, जिसके नीचे उसकी बेबसी तार-तार हुई थी को साक्षी मानकर रुक जाती है, और अपनी विदीर्ण छाती से मजबूरियों और बदनामी का बोझ उतार झाड़ियों में रखकर दिन के उजाले में फिर से सभ्य समाज की जिस्मभेदी नज़रों का सामना करने लिए हिम्मत जुटाती हुई वहाँ से चल देती है।’ (बदनामी का बोझ) ‘आँखों के गीलेपन को छुपाते हुए रामलाल उठ खड़ा हुआ, बोला, ‘बदरी, तेरे यहाँ जो अख़बार आता है उसका मेट्रीमोनियल वाला पेज देना।’ (सूखे गमले) ‘मुक्तिबोध’ लघुकथा को इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस लघुकथा में किडनैप से छूटे बालक की मनःस्थिती का मनोवैज्ञानिक चित्रण बहुत कुशलता से उकेरा गया है।"उड़ते हुए तोते को देखकर रोहित के चेहरे की ख़ुशी देखने लायक़ थी। वो पहले की तरह ताली पीट-पीटकर हँस रहा था।’ शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो लघुकथा का अंत बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। अंत के विषय में यह ध्यान देना आवश्यक है कि वह कथा के उद्देश्य को भली प्रकार से व्यक्त करता हो। अंत का उद्देश्य ही कथा के लक्ष्य को स्पष्ट करना होता है। यहीं लेखक को पात्रों के संबंध में अंतर्निहित समस्त रहस्यों को खोलना होता है और साथ ही अपनी विचारधारा का भी अप्रत्यक्ष ढंग से पाठको को एक संदेश देना होता है। कथान्त पाठकों के मनमस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ने वाला होना चाहिए। इस कथा का अंत ‘किडनैपर्स की क़ैद से रिहा हुए, क़रीब एक महीने बाद, आज उनका लाड़ला हँस रहा था।’ जिससे रोहित की मनःस्थिती का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यह पाठकीय चेतना को गहन झटका देता है।

‘गजरा’ लघुकथा भी एक अर्थगर्भी व गहन लघुकथा है जिसमें ट्रैफ़िक सिग्नल पर गजरा बेचने वाले बच्चों का ज़िक्र किया गया है। ‘साहब’ को रोज़ाना गजरा बेचने वाला बच्चा गजरे का भाव बीस से चालीस कर देता है और साहब के इस बारे में पूछने पर ‘साहब ! जब एक दिन में मेमसाहब बदल जाती है तो भाव नहीं बदल सकते क्या?’- जवाब देता है। ‘अभी मज़े देखना गप्पू; यदि ये मेमसाब इनकी घरवाली हुई, तो गजरा अभी बाहर आएगा।’ बच्चों का वक़्त से पहले ही ‘मेच्योर’ हो जाने और बच्चों का बचपन छिन जाने की गंभीर समस्या को इस लघुकथा में कुशलता से चित्रित किया गया है।भूमण्डलीकारण, वैश्वीकरण, बाज़ारवाद और उपभोगतावाद संस्कृति ने इनसान को आत्मकेन्द्री बना दिया है। इनके चलते अपनों से ही निर्वाह करना मुश्किल होता जा रहा है। संबधों के विघटन के कारण आपसी रागात्मकता भी प्रभावित हुई है। आज के दौर में बहुतिकता के कारण आपसी रिश्ते टूट रहे हैं। स्वार्थपरकता बढ़ती जा रही है जिससे मनुष्य के भीतर की संवेदनाएँ ख़त्म होती जा रही है। राजेश कुमारी की बहुचर्चित लघुकथा ‘राखी’ दरकते रिश्तों और स्वार्थपरकता की बेजोड़ उदाहरण है। इस लघुकथा में ननद अपनी भाभी को फ़ोन पर कहती है कि उसने राखी पोस्ट कर दी है यदि राखी न पहुँची तो वो स्वयं परसों तक उनके यहाँ पहुँच जाएगी। अगले दिन भाभी ननद को फ़ोन पर सूचित करती है कि उसकी राखी पहुँच गई है। इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति है:‘पर भाभी, मैंने तो इस बार राखी पोस्ट ही नहीं की थी....।’

राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्य का तीखा नश्तर लगाया है। इन लघुकथाओं के कथ्य में एक ऐसी तीव्र प्रभावन्विति है कि वे पाठकीय चेतना को सामाजिक चेतना के प्रति झकझोर देती है। ‘लक्ष्मी’, ‘तितलियाँ’, ‘चश्मा’, ‘महिला उत्थान’, ‘शातिर’, ‘साइकल वाला’ इत्यादि लघुकथाएँ इसकी सशक्त उदाहरण हैं।

पुरानी पीढ़ी के प्रति आदर और सम्मान के भाव का लगभग नष्ट हो जाना बदलते आधुनिक युग का एक भयानक यथार्थ है। संत्रास, क्षणवादिता, अकेलापन, लाचारी, बेचारगी आदि वृद्ध जीवन की नियति का मानो अनिवार्य फल बन गया है। इस समस्या को राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथा ‘बंधन‘ में बुजुर्ग ससुर की दयनीय स्थिति के रूप में चित्रित किया है। अमेरिका शिफ़्ट हो रहे परिवार में कुत्ते टॉमी की देखभाल के सबंध में जब छोटा मिंटू पापा से पूछता है तो जवाब मिलता है कि उसे चाचा के पास छोड़ देंगे। और पालतू मिट्ठू के बारे में पूछने पर ‘उसको आज़ाद कर देंगे; बहुत दिनों से क़ैद में है बेचारा।’ ‘कैसे जाएँगे जी, इतना आसान है क्या! हमारे साथ एक-दो बंधन थोड़े ही हैं।’ तिरछी नजरो से कोने में बैड पर लेटे ससुर को देखते हुए धीमी से कहती हुई सीमा अंदर चली गई। ‘अचानक सहस्त्रों लंबे-लंबे काँटे ससुर के बिस्तर में उग आए।’ यह लघुकथा बुजुर्गों के प्रति असंवेदनशीलता को मुखरता से अभिव्यक्त करने में पूरी तरह सफल रही है।आधुनिकता की रंगीनियों में आज व्यक्ति अनभिज्ञ और अपरिचित की भाँति दिग्भ्रमित सा घूम रहा है। अपनों के बीच भी उसे परायापन महसूस होता है क्योंकि आधुनिक युग की इस भाग-दौड़ में किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं है। सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हैं। एक ही परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के कार्यों से अनजान हैं। इन सब का बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। राजेश कुमारी लघुकथाएँ ‘परिभाषा’ व ‘कॉमन’ में वैयक्तिक चेतना, व्यष्टिवाद, सूक्ष्मता और एकरसता की अभिव्यक्ति हैं। कुछ रुक कर प्रियांक आगे बोला, ‘क्योंकि झूठ बोलना पाप है इसलिए मैं सच कहता हूँ, ये आदर्श परिवार मेरे दोस्त गोलू, जो हमारे ड्राइवर का बेटा है उसका है; उसी ने मेरी ये स्पीच तैयार करवाई। मेरे अपने परिवार की परिभाषा क्या है वो मुझे नहीं आती।’ (परिभाषा) ‘हाँ पापा! है न एक चीज़ कॉमन; उसके पापा भी रोज़ ड्रिंक करके इतनी रात गए घर में आते हैं और उसकी मम्मी पर इसी तरह चिल्लाते हैं;’ (कॉमन) बाल यौनशोषण एक जघन्य समस्या है। कामान्ध भेड़ियों के इस पाशविक कृत्य से पीड़ित का मात्र शारीरिक शोषण ही नहीं होता अपितु मानसिक दृष्टि से भी उसपर बुरा असर पड़ता है। इस समस्या का हर स्तर पर प्रतिकार होना चाहिए। यौनशोषण पीड़ित को केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से इतना बेबस बना देता है कि वह जीवन पर्यांत उस पीड़ा से मानसिक रूप से उबर नहीं पाता। इसका यथार्थ चित्रण राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथा ‘दोपाये’ में मासूम गुड़िया के माध्यम से बहुत मार्मिक ढंग से किया है।‘लेकिन एक बात झूठ निकली आपकी कहानी की दादा, आप तो भेड़ियों को चैपाये कहते थे, पर वो भेड़िये तो दो पाए थे।’ कहते हुए गुड़िया शून्य में अस्पताल के उस कमरे की छत को अपलक देखने लगी।

समाज में लिंग के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव आम-सी बात है। पुत्र की कामना में कन्या भ्रूणहत्या इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गर्भ में हत्या न भी की जाए तो भी आम जीवन में भी मात्र स्त्री होने के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव भली-भाँति देखा जा सकता है। जीवन के हरेक क्षेत्र चाहे शिक्षा, खेलकूद, व्यवसाय आदि सभी में पुरुष को स़्त्री से अधिक प्रधानता दिए जाने के असंख्य उदाहरण दिखाई देते हैं। यह एक चिन्तनीय समस्या है जिसके चलते स्त्रियों को पुरुषों के मुक़ाबले सही अवसर प्रदान नहीं किए जाते और उनकी प्रगति के मार्ग निरंतर अवरुद्ध किए जाते हैं। स्त्रियों को इसका आभास छोटी उम्र से ही करवा दिया जाता है। राजेश कुमारी ने इस सामाजिक बुराई पर अपनी लघुकथा ‘बुनियाद’ के माध्यम से दृष्टिपात किया है जहाँ शिलान्यास पूजा में कलावा बाँधने के लिए छह वर्षीय पोती चारू के स्थान पर आठ महीने के पोते को प्राथमिकता दी जाती है।

चंद स्वार्थी धर्मान्ध लोग अपने धर्म और उसकी मान्यताओं को अन्य धर्मों से श्रेष्ठ तथा उन्हें निकृष्ठ मानते हैं और उनके प्रति द्वेष भी भावना रखते हुए उनका निरादर करते है जिससे सांप्रदायिकता जैसी विकट समस्या उत्पन्न हो जाती है जो किसी भी सभ्य समाज के विघटन का मूल बन जाती है। दूसरे धर्मों की अपवर्जिता के कारण सामाजिक एकता विखंडित होती है तथा धार्मिक कट्टड़ता एवं अंधविश्वास के कारण साम्प्रदायिक हिंसा तथा दंगों का जन्म होता है। साम्प्रदायिक दंगों की विभीषका पर राजेश कुमारी की सशक्त लघुकथा ‘दीवार’ एक तीक्ष्ण तंज़ कसती है । प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा का संवाद देखें:‘चल मुन्नी बाई के कोठे की छत पर गुटरगूँ करेंगे; सुना है वहाँ धर्म-वर्म का कोई चक्कर नहीं है, वहीं अपना आशियाना बनाएँगे।’ जाति व्यवस्था समाज में एक अभिशाप है। आदमी-आदमी के बीच गहरे भेदभाव के रूप में जाति-पाँति की बुराई हमारे सामाजिक परिवेश में रच-बस चुकी है। जातिवाद और धर्म के मिश्रण की गोली जिसमें नसीब, क़िस्मत का घोल चढ़ाकर चंद स्वार्थी लोगों ने ऐसी गोली बनाई जिससे मेहनतकश लोगों ने इस ग़ुलामी की व्यवस्था को अपना भाग्य मान लिया और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ग़ुलामी करते आए। हमारे समाज की यह विडंबना है कि जातियों का वर्गीकरण उनके व्यवसायों के अनुसार किया जाता है। व्यक्तिगत बौद्धिकता को मापने का पैमाना भी जातिवाद ही हो गया। जाति-पाँति के इस कलंक से मुक्ति का प्रयास राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथा ‘मोची की लड़की‘ और ‘पट्टी’ के माध्यम से सफलतापूर्वक किया है। ‘मोची की लड़की’ के कुछ संवाद देखें:मैंने उनको फ़ोटो दिखाया तो पढ़कर अचानक वे बोली- ‘अरे एक मोची की बेटी आई.ए.एस. टॉपर?’अ‘हाँ माँ ! एक स्वाभिमानी बाप की स्वाभिमानी बेटी आई.ए.एस. टॉपर।’ कहते हुए मैं रसोई में पड़े बर्तनों को माँजने चल पड़ी। बच्चों का अपना ही एक संसार होता है, उस संसार में उनके अपने ही सपनों का कलवर होता है, उनके अपने व्यक्तित्त्व और अस्मिता की ज्योतिर्मय छटा है। आज का बच्चा सिर्फ़ देखता नहीं सोचता भी है। वह जो कुछ सुन लिया उसे ही सच नहीं मान लेता वरन् उसकी सच्चाई की तह तक जाने की चेष्टा भी करते हैं। आज का बच्चा उम्र, वय, स्वभाव, अनुभव एवं रूचियों की दृष्टि से भले ही बच्चा लगता हो मगर वह अपने आसपास के माहौल के प्रति सजग दृष्टि रखता है। इसका यथार्थ चित्रण ‘फटफटिया’ में आठ वर्षीय बेटे के रूप में नज़र आता है। घर में माँ-बाप के वार्तालाप से बच्चे के बालमन पर ऐसा असर होता है कि वो पड़ोसी की मोटरसाइकिल को आग लगा देता है। ‘अम्मी अम्मी, अ.. अ.. अब तो आ.. आप ख़ुश हैं न... शकील भाईजान की फटफटिया जल गई... अब तो.. दद्दू को तकलीफ़ नहीं होगी न‘? आ...प अब्बू से लड़ाई नहीं करोगी न?’ ‘अम्मी मैं वहाँ खेलने नहीं गया था... मैं घर से माचिस लेकर गया था...।’ और बोलते-बोलते बच्चे का सिर अम्मी की गोद में लुढ़क गया। डॉ. अनूप सिंह के अनुसार, ‘लघुकथा में वर्णित घटना या व्यवहार की समयावधि अल्प होनी चाहिए। यह समयावधि दिनों, हफ़्तों, महीनों या सालों में फैली हुई नहीं होनी चाहिए। कम-से-कम प्रस्तुत किया जाने वाला या फोक्स किए जाने वाला घटनाक्रम सेकैंडों, मिनटों या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ घंटों तक ही सीमित होना चाहिए।’ यानी उसमें कालांतर न आ जाए। इस बिंदु को ध्यान में रखते हुए राजेश कुमारी की कई लघुकथाओं में कालखंड दोष नज़र आता है जैसे, ‘राखी’, ‘किराए की कोख’, ‘समझौता’, ‘शक़’, ‘प्रायश्चित’, ‘संवासिनी’, ‘एक था भेंडर’ और ‘अंगदान’।

इस लघुकथा संकलन में कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी हैं जो लघुकथा के मूलभूत नियमों का अतिक्रमण करती नज़र आ रहीं है, कुछ अपने आकार की वजह से और कुछ घटनाओं की बहुलता की वजह से । लघुकथा और कहानी में फ़र्क़ समझने के लिए डॉ. पुष्पा बंसल के वक्तव्य को ग़ौर से देखना और समझना चाहिए। उनके अनुसार, ‘लघुकथा कहानी की सजातीय है किंतु व्यक्तित्त्व में इससे भिन्न है। यह मात्र घटना है, परिवेश निर्माण को पूर्णतया छोड़कर, पात्र चरित्र-चित्रण को भी पूर्णतया त्यागकर विश्लेषण से अछूती रहकर मात्र घटना (चरम सीमा) की प्रस्तुति ही लघुकथा है। कहानी में प्रेरणा के बिंदु का विस्तार होता है। लघुकथा में विस्तार नहीं संकोच होता है, केवल एक बिंदु ही होता है, अपने घनीभूत रूप में। कहानी का उद्देश्य मनोरंजन करना भी माना जाता रहा है, कुछ अंशों में आज भी माना जाता है। परंतु लघुकथा मनोरंजन नहीं करती मन पर आघात करती है, चेतना पर ठोकर मारती है और आँखों में उँगली घुसाकर यथार्थ दिखाती है।’ इसके आधार पर ‘शक़’, ‘हेप्पी टीचर्स डे’, ‘ज्योति से ज्योति’, ‘एक था भेंडर’ और ‘अंगदान’ लघुकथा की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।

इस संग्रह की कुछ लघुकथाएँ जैसे ‘पहिए’, ‘एक ही चिप’, ‘जो कहते न बने’ व्यंग्य की महीन रेखा पार करके हास्य की ओर झुकी नज़र आतीं है। हास्य और व्यंग्य में प्रधान अंतर उसके उद्देश्य की भिन्नता के कारण होता है। पहले का प्रयोजन मनोविनोद होता है तो दूसरे का विकृति। डॉ. शेरजंग गर्ग के अनुसार, ‘हास्य और व्यंग्य का सबसे बड़ा अंतर यही है कि हास्य निष्प्रयोजन होता है यदि उसका कोई प्रयोजन होता भी है तो वह निश्चय ही विशिष्ट नहीं होता, जबकि व्यंग्य निष्प्रयोजन नहीं होता और उसका प्रयोजन वास्तव में गूढ़ और मार्मिक होता है।’‘हाँ हाँ, क्यों नहीं, लो इसमें मेरा फ़ोटो भी छपा है वो भी देख लो।’ वो कह ही रहे थे कि महिला ने तुरत-फुरत में एक पेज फाड़ा और अपने बच्चे की पोट्टी साफ़ करने लगी। कविवर के मुँह से एक बार तो चीख़ ही निकल पड़ी। अख़बार के उस पेज में पीले रंग के बीच उनका चेहरा मुस्कुरा रहा था वो मैंने भी देख लिया था।‘फिर भी मैंने चुटकी लेते हुए कहा‘‘कविवर जी अपना फोट दिखाइये न?’जवाब में कविवर की आँखें वो सब कह रही थी जो न कहते न बने। (जो कहते न बने)कुछ लघुकथाएँ जैसे कि ‘महिला उत्थान’, ‘जीवन गठरिया’ और ‘गर्भ’ यथार्थ से दूर नज़र आईं।

शिल्प की दृष्टि से एक नजर : डस्टोन का कथन है कि लेखक समाज से जो कुछ वाष्प रूप में ग्रहण करता है उसे वर्षा के रूप में वापस कर देता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है। समाज में जो कुछ घटता है तथा जो घटनाएँ लेखक के मन को झंकझोरती है उसी की अभिव्यक्ति साहित्य में प्रतिबिम्बित होती है। सृजन-प्रक्रिया के दौरान लेखक के सोचने व महसूस करने के अदृश्य भाव भाषा का आवरण लेकर ही प्रस्तुत होते हैं। हमारे विचार भाषा से बँधे होते है। बिना भाषा के विचारों का कोई अस्तित्त्व नहीं होता । चिंतन से लेकर अभिव्यक्ति तक भाषा ही माध्यम रहती है। अभिव्यक्त होकर यही भाषा पाठक तक भी उस अनुभूति को सम्प्रेषति करती है। भाषा जब लेखक या वक्ता से छूटकर पाठक या व श्रोता तक पहुँचती है तो वह जो प्रभाव उत्पन्न करती है वह उसकी रचनात्मक शक्ति का ही इज़हार है । 

राजेश कुमारी के लघुकथा संग्रह ‘गुल्लक’ में प्रकाशित लघुकथाओं की भाषा आधुनिक जीवन की विडंबनाओं का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती हैं। राजेश कुमारी की भाषा सीधी, सहज व प्रवाहमयी है। भाषा पा़त्रों एवं भावों के अनुरूप तथा कथा को सहज बनाने में सक्षम है। उनकी लघुकथाओं की शिल्पगत विशेषता यह है कि वे अपने पात्रों के चारो ओर जिस परिवेश की रचना करती हैं वह उनके पात्रों के समांतर मुखर होता है। वह घटना(ओं) और पात्रों को आलोकित करता है। इन लघुकथाओं के पात्र विविध जातियों, समुदायों, वर्गों तथा भिन्न-भिन्न संस्कारों वाले हैं। उनकी भाषा का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चलता है कि राजेश कुमारी में पात्रानुकूल भाषा प्रयोग की अद्भुत क्षमता है। पा़त्रों के अनुसार तत्सम-तद्भव, संस्कुतनिष्ठ, उर्दू-मिश्रित तथा अँग्रेज़ी शब्दों से युक्त भाषा की विविधता लघुकथाओं में देखी जा सकती है। जैसे:‘इस संडे कहाँ पार्टी करें कोमल?’ नील ने पूछा‘ यू लाइक, मॉल चलते हैं।’ (आस्थाः शॉपिंग मॉल)‘तीन किलोमीटर होई।’‘तुम पैदल ही....।’‘हाँ उसमें कौनु बड़ी बात है?’ (जीवन गठरिया)‘भाई एक बेरी और सोच ले, कहीं लेने के देने न पड़ जांवे, छोरी के चाच्चा को तू जाणे सः बड़ा आदमी सः कुछ.....’‘भाई तन्ने पता नहीं है, दोनों भाई एक-दूसरे की सूरत भी देखना नी चाहते। सारे गाम कू पता सः और उसे तो ब्याह का न्योता भी नी दिया मुँह फुलाए बैठ्ठा घर में।’ (चाब्बी)

लघुकथा की असफलता-असफलता का गुरुतर दायित्त्व भाषा-शैली की साम्‍थर्य पर ही निर्भर है । भाषा एवं शैली का संबंध अन्योन्याश्रित है। वस्तुतः शैली शिल्प का ही एक अंग है जिसका संबंध भाषा में होने वाले प्रयोगों से है। लेखक की शब्द योजना, शब्द चयन और वाक्य को गठित करने की पद्धति शैली के अंतर्गत आती है यानी रचनाकार अपनी अनुभूतियों को किस शैली द्वारा अभिव्यक्त करता है। प्रतीक विधान लघुकथाओं की शिल्पगत विशेषता है। लेखक जब कम-से-कम शब्दों का प्रयोग करके अधिकाधिक अर्थ को अभिव्यक्त करना चाहता है तो वह प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग करता है। प्रतीक विस्तार को संक्षेप में कहने का सशक्त माध्यम है। कथ्य को अल्प शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति देने के लिए प्रतीकात्मक शैली को अपनाया जाता है। 

राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथाओं में प्रतीकों का प्रयोग इतनी सरलता, सजगता एवं दक्षता से किया है कि उसके अभिप्रेत अर्थ को पाठक सहजता से ग्रहण करता है।‘आत्मग्लानि के घड़ों पानी में भीगा-सा शेखर तुरंत अंदर वापस आया....’ (शो आफ़)‘अंबर ने भी अश्रुओं की झड़ी लगा दी.....’ (बदनामी का बोझ)‘सुनते ही उसके आक्रोश के ज्वालामुखी का लावा आँखों से आँसू बनकर बहने लगा।’ (किंकर्तव्यविमूढ़)राजेश कुमारी जी की भाषा अलंकारिक है। उपमा रूपक दृष्टांत आदि अलंकारो का प्रयोग उन्होनें भाषा के बाह्य रूप को सजाने के लिए ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति को अधिक सशक्त बनने के लिए किए हैं-‘बोला आज तो बिना सींगो की गाय है तुम भी मज़े से.......’ (ज़हरीले चूहे) ‘हाँ भेड़िया बकरी की खाल में नज़र आ रहा है.....’ (तितलियाँ)‘अब इसके तस्में ढीले होएँगे.....’ (बेटी को बचा लो)‘अचानक सहस्त्रों लंबे-लंबे काँटे ससुर के बिस्तर में उग आए।’ (बंधन)परिवेश के चित्रण में भी राजेश कुमारी भाषा पर बहुत अच्छी क्षमता रखती हैं। 

भाषा की सजावट के कारण लघुकथा को एक जीवंतता मिलती है। दृश्य चित्रण की कुशलता उनकी लघुकथाओं में बाखूबी परिलक्षित होती है। जैसेः‘घुप अँधेरा। उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं की साँय-साँय, पागल चरमराते दरख़्त।’ (बदनामी का बोझ) ‘सूखे गमले’ में घर की उदासी का शानदार चित्रणः‘डेढ़ साल हो चुका थे नकुल को गए। आज भी उस घर की दीवारों, चौखटों से सिसकियों की आवाज़ सुनाई देती है। बाग़ीचे के हरे, सफैद, लाल फूल उस तिरंगे झंडे की याद दिलाते हैं जिसमें लिपटा हुआ उस घर का चिराग़ कुछ वक़्त के लिए रुका था। नई दुल्हन की कुछ चूड़ियाँ आज भी तुलसी के पौधे ने पहन रखी हैं। बीमार माँ की खाँसी की आवाज़ें कराह में बदलती हुई सुनाई देती हैं।’ या फिर ‘बस-यात्रा’ में मई की उमस भरी गर्मी का परिवेश चित्रण जिसे पढ़ते वक़्त पाठक स्वयं भी उमस भरी दोपहर में यात्रियों से ठूसी बस के यात्रियों के पसीने के बदबू को महसूस करता हैः‘मई का महीना। आग बरसाता हुआ सूरज। ऊपर से साम्‍र्थ्‍य से ज़्यादा भरी हुई खचाखच बस। पसीने से बेहाल लोग... रास्ता भी ऐसा कि कहीं छाया या हवा का नाम-निशान नहीं।’राजेश कुमारी ने अपनी भाषा में ध्वनियों के सूक्ष्म, सटीक तथा सार्थक ध्वन्यानुकरणात्मक शब्दों के प्रयोग किए है। आई है। जैसे-- ‘ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग़.....!‘ , ‘छन्न...छन्न...छनाकऽऽ!‘ , ‘क्लिक ! क्लिक ! क्लिक !‘, ‘पीं.. पीं.. पीं.. !‘ घुर्र-घर्र.. फट...फट... फट...!’ इससे भाषा की अर्थवत्ता बढ़ी है। इन शब्दों के प्रयोग से भाव उभरकर सामने आए हैं और अनुभूति में तीव्रता आई है!

शीर्षक को यदि लघुकथा की आत्मा कह दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शीर्षक के माध्यम से ही लेखक की योग्यता के प्रथम दर्शन होते हैं। अच्छे शीर्षक की विशेषता उसकी उचितता, उपयुक्तता, संक्षिप्तता, औत्सुक्यता और नवीनता होती है। लघुकथा जीवन के किसी मार्मिक पक्ष का रहस्योद्घाटन करती है। उसके शीर्षक में उसकी प्रतिछाया अवश्य रहनी चाहिए। प्रतिपाद्य के अनुरूप शीर्षक का होना अत्यंत आवश्यक है। शीर्षक लघुकथा में व्यक्त विचार, भाव, तथ्य तथा मर्म की सामूहिक ध्वनि का संदेशवाहन होना चाहिए। बेशक अच्छा शीर्षक आवश्यक है परंतु इसका अर्थ कदापि नहीं लेना कि शीर्षक में सनसनी या चौंका देने का तत्त्व सम्मिलित करना आवश्यक है । शीर्षक लघुकथा की प्रकृति और रोचकता के अनुरूप ही होना चाहिए। तथ्य की गूढ़ व्यंजना करने वाले शीर्षक कल्पना और भावुकता पर आघृत होने के कारण अधिक कलात्मक और सौष्ठवपूर्ण होते हैं। साधारणत: शीर्षक रखने के लिए केंद्रीय पात्र, किसी घटना, किसी भावना या विचार को बुनियाद बनाया जाता है। यह भी देखने में आया है कि अंतिम जिज्ञासा को शीर्षक बना दिया जाता है। अंत के भाव पर आघृत शीर्षक लघुकथा की रोचकता को कम करते हैं। शीर्षक संक्षिप्त, कौतूहलजनक, अर्थगर्भी, बहुआयामी, रोचक और नवीन होना चाहिए। 

इस आधार पर राजेश कुमारी की लघुकथाओं के कुछ शीर्षक जैसे- ‘राखी’, ‘मुक्तिबोध’, ‘गुल्लक’, ‘दोपाये’, ‘बुनियाद’, ‘थप्पड़’, ‘सूखे गमले’, ‘अधखिले’, ‘मगरमच्छ’ एकदम शीर्षक सटीक चयन है। राजेश कुमारी की लघुकथाओं में प्रतिभा, प्रज्ञा और सामर्थ्यमयी अभिव्यक्ति का जो समन्वय दिखाई देता है वह सचमुच अभूतपूर्व है। मानवीय चेतना, जीवन की क्रियाशीलता, अपेक्षित संवेदना, हृदयग्राही मनोविशलेषण, आत्मिक सत्य, पारिवारिक समस्याओं के समाधान, द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में से छुटकारा, मर्मस्थलों की पहचान, अभिव्यक्ति में काव्यात्मकता और बोधात्मक चित्रण की झांकिया उनकी लघुकथाओं में यत्र-तत्र देखी जा सकती है। उनकी लघुकथाएँ भाषा और अभिव्यक्ति में, कथावस्तु और किरदार के गठन में, संवेदना और सरोकार में ज़िंदगी के बहुत नज़दीक है। लघुकथा जगत् में उनके प्रथम लघुकथा संग्रह ‘गुल्लक’ का दिल खोलकर स्वागत होना चाहिए।




योगराज  प्रभाकर 

संपर्क : 98725 68228

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