कोविड की दूसरी वेव ने हमसे बहुत-कुछ छीन लिया... असहाय बना बहुत-कुछ लील लिया। बहुत-कुछ ऐसा घटा है जिसने जीवन को हताशा, निराशा और टूटन से भर दिया। लघुकथा की प्रौढ़ चिंतक डाॅ. शकुन्तला किरण और शनै: शनै: प्रौढ़ता की ओर बढ़ते युवा कथाकार प्रिय रवि प्रभाकर हमसे बिछुड़ गये। मेरे बड़े भाई सरीखे कथाकार बद्री सिंह भाटिया, नरेन्द्र मोहन जी और गुरु सदृश कुँअर बेचैन, मित्र प्रवर हरि प्रकाश गोविल और मेरे कनिष्ठ बहनोई शिवप्रसाद जी। एक के बाद एक मौत ने मुझे लगातार झटके दिए और अवसाद में धकेल दिया।
कोरोना के इस तांडव के बीच हम में से कुछेक की दैहिक वापसी भी हुई है। मेरी और सुभाष नीरव की भी; लेकिन मेरे भीतर की टूटन अभी बरकरार है। इस बीच रचनात्मक और जीवंत वापसी की है भाई योगराज प्रभाकर ने। उनके धैर्य और साहस को नमन! कई अन्य साथियों की सक्रियता ने भी सम्बल प्रदान किया है।
हताशा, निराशा, टूटन और दहशत को धता बताते हुए आइए, सम्बल प्रदान करने वाले साथियों के जीवट से, जीवन के सौरभ से जुड़ने की कोशिश करते हैं, सुभाष नीरव की प्रेम एवं वात्सल्य केन्द्रित छह लघुकथाओं के साथ :
।।1।।
बारिश
आकाश पर पहले एकाएक काले बादल छाये, फिर बूँदे पड़ने लगीं। लड़के ने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। दूर तक कोई घना-छतनार पेड़ नहीं था। नये बने हाई-वे के दोनों ओर सफेदे के ऊँचे दरख़्त थे और उनके पीछे दूर तक फैले खेत। बाइक के पीछे बैठी लड़की ने चेहरे पर पड़ती रिमझिम बौछारों की मार से बचने के लिए सिर और चेहरा अपनी चुन्नी से ढककर लड़के की पीठ से चिपका दिया। एकाएक लड़के ने बाइक धीमी की। बायीं ओर उसे सड़क से सटी एक छोटी-सी झोंपड़ी नज़र आ गई थी। लड़के ने बाइक उसके सामने जा रोकी और गर्दन घुमाकर लड़की की ओर देखा। जैसे पूछ रहा हो - चलें ? लड़की भयभीत-सी नज़र आई। बिना बोले ही जैसे उसने कहा - नहीं, पता नहीं अन्दर कौन हो ?
एकाएक बारिश तेज़ हो गई। बाइक से उतरकर लड़का लड़की का हाथ पकड़ तेज़ी से झोंपड़ी की ओर दौड़ा। अन्दर नीम अँधेरा था। उन्होंने देखा, एक बूढ़ा झिलंगी-सी चारपाई पर लेटा था। उन्हें देखकर वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ।
“हम कुछ देर… बाहर बारिश है…” लड़का बोला।
''आओ, यहाँ बैठ जाओ। बारिश बन्द हो जाए तो चले जाना।'' इतना कहकर वह बाहर निकलने लगा।
''पर तेज़ बारिश में तुम...?'' लड़के ने पूछा।
''बाबू, गरमी कई दिनों से हलकान किए थी। आज मौसम की पहली बारिश का मज़ा लेता हूँ। कई दिनों से नहाया नहीं। तुम बेफिक्र होकर बैठो।'' कहता हुआ वह बाहर खड़ी बाइक के पास पैरों के बल बैठ गया और तेज़ बारिश में भीगने लगा।
दोनों के लिए झोंपड़ी में झुककर खड़े रहना कठिन हो रहा था। वे चारपाई पर सटकर बैठ गए। दोनों काफ़ी भीग चुके थे। लड़की के बालों से पानी टपक रहा था। रोमांचित हो लड़के ने शरारत की और लड़की को बांहों में जकड़ लिया।
''नहीं, कोई बदमाशी नहीं।'' लड़की छिटक कर दूर हटते हुए बोली, ''बूढ़ा बाहर बैठा है।''
''वह इधर नहीं, सड़क के पार देख रहा है।'' लड़के ने कहा और लड़की को चूम लिया। लड़की का चेहरा सुर्ख हो उठा।
एकाएक, वह तेजी से झोंपड़ी से बाहर निकली और बांहें फैलाकर पूरे चेहरे पर बारिश की बूदें लपकने लगी। फिर वह झोंपड़ी में से लड़के को भी खींच कर बाहर ले आई।
''वो बूढ़ा देखो कैसे मज़े से बारिश का आनन्द ले रहा है और हम जवान होकर भी बारिश से डर रहे हैं।'' वह धीमे से फुसफुसाई और बारिश की बूँदों का आनंद लेने लगी।
लड़की की मस्ती ने लड़के को भी उकसाया। दोनों बारिश में नाचने-झूमने लगे। बूढ़ा उन्हें यूँ भीगते और मस्ती करते देख चमत्कृत था। एकाएक वह अपने बचपन के बारिश के दिनों में पहुँच गया। और उसे पता ही न चला, कब वह उठा और मस्ती करते लड़का-लड़की के संग बरसती बूँदों को चेहरे पर लपकते हुए थिरकने लग पड़ा।
।।2।।
सेंध
चाँदनी रात होने की वजह से गली में नीम उजाला था। दो साल पहले इधर आया था। अब तो गली का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था। किसी तरह अखिल का मकान खोज पाया। घंटी बजाई और इंतज़ार करने लगा। कुछ देर बाद अंदर कदमों की आहट हुई और बाहर दरवाजे क़े सिर पर लगा बल्ब 'भक्क' से जल उठा। अधखुले दरवाजे क़ी फांक में से एक स्त्री चेहरे ने झांका और पूछा- ''कौन ?''
''भाभी, मैं हूँ रमन।''
''अरे तुम ! रात में इस वक्त ?''
दरवाज़ा पूरा खुला तो मैं अटैची उठाये अंदर घुसा। साथ ही बैठक थी। मैं सोफे में धंस गया। नेहा दरवाज़ा बंद करके पास आई तो मैंने सफ़ाई दी-
''ट्रेन लेट हो गई। शाम सात बजे पहुँचने वाली ट्रेन दस बजे पहुँची। ऑटो करके सीधे इधर ही चला आ रहा हूँ। कल यहाँ दिन में एक ज़रूरी काम है। कल की ही वापसी है, शाम की ट्रेन से।''
नेहा ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया। पानी पीकर मैंने पूछा, ''अखिल सो रहा है क्या ?''
''नहीं, वह तो टूर पर हैं, तीन दिन बाद लौटेंगे।''
''अरे! मुझे मालूम होता तो मैं स्टेशन पर ही किसी होटल में...''
''अब बनो मत... हाथ-मुँह धो लो। भूख लगी होगी। सब्जी और दाल रखी है। फुलके सेंक देती हूँ।''
खाना परोसते हुए उसने पूछा, ''कोई लड़की पसंद की या यूँ ही बुढ़ा जाने का इरादा है ?''
मैं मुस्करा भर दिया। भीतर से एक आवाज़ उठी, 'एक पसंद की थी, वो तो पत्नी की जगह भाभी बन गई...'
''तुम यहीं बैठक में दीवान पर सो जाओ। सुबह बात करेंगे, रात अधिक हो गई है।'' कहते हुए नेहा तकिया और चादर रखकर अपने बेडरूम में चली गई।
मैं लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा। पर नींद आँखों से गायब थी। काफी देर तक करवटें बदलता रहा। मेरे अंदर कुछ था जो मुझे बेचैन कर रहा था। बेचैनी के आलम में मैं उठा और लॉबी में जाकर खड़ा हो गया। लाइट जलाने की ज़रूरत महसूस नहीं की। खुली खिड़की में से छनकर आता चाँदनी रात का उजाला वहाँ छिटका हुआ था। पुराने दिनों की यादें जेहन में घमासान मचाये थीं। वे दिन जब मैं नेहा के लिए दीवाना था। खूब बातें होती थीं पर मन की बात कह नहीं पाया था। जब तक अपने दिल की बात नेहा को कह पाता, तब तक देर हो चुकी थी। मेरे मित्र अखिल ने बाजी मार ली थी।
बैडरूम का दरवाजा आधा खुला था। टहलते हुए एकाएक मैं बैडरूम के दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ। नाइट बल्ब की हल्की नीली रोशनी में अकेली सोई पड़ी नेहा का चेहरा बेहद खूबसूरत लग रहा था। रत्ती भर भी फर्क नहीं आया था नेहा में, शादी के बाद भी। कुछ पल मैं उसे अपलक निहारता रहा। फिर इस डर से कि कहीं मेरी चोरी पकड़ी न जाए, मैं वहाँ से हट गया। गला सूखता महसूस हुआ तो मैंने फ्रिज में से पानी की ठंडी बोतल निकाल ली।
''अरे तुम हो! खटका सुन मुझे लगा कोई...'' नेहा सामने खड़ी विस्फारित नज़रों से मेरी ओर देख रही थी।
''कोई कौन ?''
''पति के बिना यहाँ रात में बहुत सर्तक होकर सोना पड़ता है। घर में अकेली औरत हो तो सेंध लगाने में देर नहीं करते चोर...''
'चोर ?' दिमाग में कुछ ‘ठक’ से हुआ । नेहा के चेहरे की ओर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैंने गटागट पानी की पूरी बोतल हलक से नीचे उतार ली।
''लगता है, बहुत प्यास लगी थी ?''
''हाँ...।'' मैंने नज़रें झुकाये हुए कहा और चुपचाप जाकर दीवान पर चादर ओढ़कर सो गया।
।।3।।
जानवर
बीच पर भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। सूरज समुद्र में बस डुबकी लगाने ही वाला था। वे दोनों हाथ में हाथ थामे समुद्र किनारे रेत पर टहलने लगे। पानी की लहरें तेजी से आतीं और लड़की के पैरों को चूम लौट जातीं। लड़की को अच्छा लगता। वह लड़के का हाथ खींच पानी की ओर दौड़ती, दायें हाथ से लड़के पर पानी फेंकती और खिलखिलाकर हँसती। लड़का भी प्रत्युत्तर में ऐसा ही करता। उसे लड़की का इस तरह उन्मुक्त होकर हँसना, खिलखिलाना अच्छा लग रहा था। अवसर पाकर वह लड़की को अपनी बांहों में कस लेता और तेजी से उनकी ओर बढ़ती ऊँची लहरों का इंतजार करता। लहरें दोनों को घुटनों तक भिगो कर वापस लौट जातीं। लहरों और उनके बीच एक खेल चल रहा था - छुअन छुआई का।
लड़का खुश था लेकिन भीतर कहीं बेचैन भी था। वह बार बार अस्त होते सूरज की ओर देखता था। अंधेरा धीरे धीरे उजाले को लील रहा था। फिर, दूर क्षितिज में थका-हारा सूर्य समुद्र में डूब गया।
लड़के की बेचैनी कम हो गई। उसे जैसे इसी अंधेरे का इंतज़ार था। लड़का लड़की का हाथ थामे भीड़ को पीछे छोड़ समुद्र के किनारे किनारे चलकर बहुत दूर निकल आया। यहां एकान्त था, सन्नाटा था, किनारे पर काली चट्टानें थीं, जिन पर टकराती लहरों का शोर बीच बीच में उभरता था। वह लड़की को लेकर एक चट्टान पर बैठ गया। सामने विशाल अंधेरे में डूबा काला जल... दूर कहीं कहीं किसी जहाज की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं।
''ये कहाँ ले आए तुम मुझे ?'' लड़की ने एकाएक प्रश्न किया।
''भीड़ में तो हम अक्सर मिलते रहते हैं...कभी...''
''पर मुझे डर लगता है। देखो यहाँ कितना अंधेरा है...'' लड़की के चेहरे पर सचमुच एक भय तैर रहा था।
''किससे ? अंधेरे से ?''
''अंधेरे से नहीं, जानवर से...''
''जानवर से ? यहाँ कोई जानवर नहीं है।'' लड़का लड़की से सटकर बैठता हुआ बोला।
''है...अंधेरे और एकांत का फायदा उठाकर अभी तुम्हारे भीतर से बाहर निकल आएगा।''
लड़का ज़ोर से हँस पड़ा।
''यह जानवर ही तो आदमी को मर्द बनाता है।'' कहकर लड़का लड़की की देह से खेलने लगा।
''मैं चलती हूँ...।'' लड़की उठ खड़ी हुई।
लड़के ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
''देखो, तुम्हारे अंदर का जानवर बाहर निकल रहा है... मुझे जाने दो।''
सचमुच लड़के के भीतर का जानवर बाहर निकला और लड़की की पूरी देह को झिंझोड़ने- नोचने लगा। लड़की ने अपने अंदर एक ताकत बटोरी और ज़ोर लगाकर उस जानवर को पीछे धकेला। जानवर लड़खड़ा गया। वह तेज़ी से बीच की ओर भागी, जहाँ ट्यूब लाइटों का उजाला छितरा हुआ था।
लड़का दौड़कर लड़की के पास आया, ''सॉरी, प्यार में ये तो होता ही है...।''
''देखो, मैं तुमसे प्यार करती हूँ, तुम्हारे अंदर के जानवर से नहीं।'' और वह चुपचाप सड़क की ओर बढ़ गई। बीच पीछे छूट गया, लड़का भी।
।।4।।
खूबसूरत डायन और उसकी हँसी
वह सुन्दर थी, गौर वर्ण, आकर्षक इकहरा बदन, हँसती तो दोनों गालों में गड्ढ़े पड़ते। पर वह लोगों के बीच खुलकर, ठहाके लगाकर हँसने से डरती थी। मित्र-मंडली में, समारोहों में, ब्याह-शादियों में यानी जब भी भीड़ में होती, वह अपनी हँसी पर लगाम लगाए रखती। बस, हलके-हलके मुस्काराती, बिना होंठ खोले, मंद-मंद मुस्कान !
ऐसा नहीं कि वह पहले कभी खुलकर नहीं हँसी। जब छोटी थी तो दादी डाँट देती थी, ‘देख तो कैसे दाँत फाड़कर हँस रही है… डायन-सी !’ पर वह जब भी मौका मिलता ठहाके लगाकर हँसती। पूरे घर में उसकी हँसी गूँजती रहती। कालेज में आने तक उसकी यह उन्मुक्त हँसी बरकरार रही। पर धीरे-धीरे उसे लगा, कुछ गड़बड़ है। आईने में चेहरा देखती, सब कुछ ठीक ठाक था, पर… उसे अपनी सखी-सहेलियों की खुसुर-फुसुर परेशान कर देती।
उसे चारेक साल पहले का वह दिन याद हो आता। वह मम्मी-पापा के साथ किसी विवाह समारोह में जाने के लिए तैयार हो रही थी। बहुत खुश थी और मम्मा के कहने पर पहली बार साड़ी पहनकर जा रही थी। मम्मी ने शरारत में कुछ कहा था तो वह आईने के सामने साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई ज़ोर से खिलखिला कर हँस पड़ी थी, ठहाके भरी हँसी! और बस, यहीं गड़बड़ हो गई। आईने ने जो आईना दिखाया, वह उसके लिए बहुत तकलीफ़देह था।
उस दिन वह मम्मी-पापा के संग नहीं गई थी। मूड ठीक न होने का बहाना बना दिया था ।
आज शिशिर के साथ वह डेट पर थी। बहुत दिन बाद वह उसे मिली थी। शिशिर बात बात पर चुहलबाजी कर रहा था। उसकी इस चुहलबाज़ी में वह एकाएक ज़ोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी। शिशिर अवाक-सा उसका चेहरा एकटक देखने लगा तो उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने तुरन्त दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया और मायूस हो उठी।
उसके कानों में सहेलियों की खुसुर-फुसुर के दौरान बड़ी मुश्किल से पकड़ में आए शब्द गूंजने लगे, ‘देखो तो, डायन जैसे दाँत !’
उसके ऊपरी जबड़े में सामने की ओर दायें-बायें दो दाँत थे जो दंत-पक्ति से बाहर की ओर निकले और उभरे हुए थे। नीचे से नुकीले और अन्य दाँतों से कुछ बड़े व लंबे। जब वह खिलखिलाकर हँसती थी, तो ये दाँत उसकी सारी सुन्दरता को निगल जाते थे।
शिशिर ने आगे बढ़कर हथेलियों की गिरफ़्त से उसका चेहरा मुक्त किया। वह सुबक रही थी। उसने उसका माथा चूमा और कहा, “एक बात कहूँ, सुमि ! आज पहली बार तुम्हें यूं खिलखिलाते हुए… उन्मुक्त हँसी हँसते हुए देखा। तुम्हारे दाँत बहुत सुन्दर हैं। एक बार फिर हँसो तो वैसी ही हँसी…” और वह उसकी बगल में गुदगुदी करने लगा।
अपने को शिशिर के हाथों से छुड़ाते हुए वह बोली, “मेरे दाँत देखे हैं ! डायन हूँ, चबा जाऊँगी…” फिर उसने अपना मुँह खोलकर दाँत भींचे, नाक ऊपर की ओर सिकोड़ी, आँखों की पुतलियाँ ऊपर चढ़ाईं और दोनों कनपटियों पर अंगूठे टिका उंगलियों को लहराया। शिशिर उसकी यह मुद्रा देख ठहाका मार कर हँस दिया और बोला, “इस खूबसूरत डायन हँसी बहुत प्यारी है !”
वह शिशिर के पेट में प्यार से मुक्के मारती हुई एकबार फिर ज़ोर से खिलखिलाकर हँस दी।
।।5।।
गुड़ुप !
दिन ढलान पर है और वे दोनों झील के किनारे कुछ ऊंचाई पर बैठे हैं। लड़की ने छोटे छोटे कंकर बीनकर बाईं हथेली पर रख लिए हैं और दाएं हाथ से एक एक कंकर उठाकर नीचे झील के पानी में फेंक रही है, रुक रुककर। सामने झील की ओर उसकी नजरें स्थिर हैं। लड़का उसकी बगल में बेहरकत खामोश बैठा है।
"तो तुमने क्या फैसला लिया ?" लड़की लड़के की ओर देखे बगैर पूछती है।
"किस बारे में?" लड़का भी लड़की की तरफ देखे बिना गर्दन झुकाए पैरों के पास की घास के तिनके तोड़ते हुए प्रश्न करता है।
इस बार लड़की अपना चेहरा बाईं ओर घुमाकर लड़के को देखती है, "बनो मत। तुम अच्छी तरह जानते हो, मैं किस फैसले की बात कर रही हूं।"
लड़का भी चेहरा ऊपर उठाकर अपनी आंखें लड़की के चेहरे पर गड़ा देता है, "यार, ऐसे फैसले तुरत फुरत नहीं लिए जाते। समय लगता है। समझा करो।"
लड़की फिर दूर तक फैली झील की छाती पर अपनी निगाहें गड़ा देती है, साथ ही हथेली पर बचा एकमात्र कंकर उठा कर नीचे गिराती है – गुड़ुप !
"ये झील बहुत गहरी है न?"
"हां, बहुत गहरी। कई लोग डूबकर मर चुके हैं। पर तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो?" लड़का लड़की की तरफ देखते हुए पूछता है। लड़की की नज़रें अभी भी दूर तक फैले पानी पर टिकी हैं, "क्या मालूम मुझे इस झील की जरूरत पड़ जाए।"
लड़का घबरा कर लड़की की ओर देखता है, "क्या मूर्खों जैसी बात करती हो ? चलो उठो, अब चलते हैं, अंधेरा भी होने लगा है।"
दोनों उठकर चल देते हैं। दोनों खामोश हैं। पैदल चलते हुए लड़की के अंदर की लड़की हंस रही है, "लगता है, तीर खूब निशाने पर लगा है। शादी तो यह मुझसे क्या करेगा, मैदान ही छोड़कर भागेगा। अगले महीने प्रशांत इस शहर में पोस्टिड होकर आ रहा है, वो मेरे साथ लिव - इन में रहना चाहता है।"
लडके के भीतर का लड़का भी फुसफुसाता है, "जाने किसका पाप मेरे सिर मढ़ रही है। मैं क्या जानता नहीं आज की लड़कियों को? कुछ दिन इसके साथ मौज मस्ती क्या कर ली, शादी के सपने देखने लगी। हुंह ! मेरी कम्पनी वाले मुझे कब से मुंबई ब्रांच में भेजने को पीछे पड़े हैं। कल ही ऑफर मंज़ूर कर लेता हूं।"
चलते चलते वे दोनों सड़क के उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां से सड़क दो फाड़ होती है। एक पल वे खामोश से एक दूजे को देखते हैं, फिर अपनी अपनी सड़क पकड़ लेते हैं।
।।6।।
माँ की चिंता !
बचपन में माँ मुझे अला-बला से बचाने के लिए खूब टोटके किया करती। रात में जब मैं सो जाता, चुपके से मेरे सिरहाने के नीचे छुरी या चाकू रख दिया करती।
एक दिन मैंने पूछा, "माँ, मेरे तकिये के नीचे तू ये छुरी-चाकू क्यों रख देती है रात में ?"
मुझे अपनी बांहों में भरकर वह बोली, "ताकि तू सोये-सोये डरे नहीं, तुझे बुरे सपने न आएं…।"
"पर माँ, मेरे अच्छे वाले सपने भी तो भाग जाते होंगे, इन्हें देखकर। … तू मेरे सिरहाने छुरी-चाकू न रखा कर।"
"अच्छा !…" माँ अपनी मोटी-मोटी आँखों से बहुत देर तक मुझे एकटक निहारती रही।
"हाँ माँ, मुझे सपनों से नहीं, इन छुरियों-चाकुओं से डर लगता है!"
"हाय रब्बा ! मेरा पु्त्त तो बड़ी सयानी बातें करने लगा अभी से ! ठहर तेरी नज़र उतारती हूँ…"
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सुभाष नीरव
डब्ल्यू ज़ैड -61 ए/1, पहली मज़िल
गली नंबर - 16
वशिष्ट पार्क, नई दिल्ली-110046
दूरभाष : 09810534373
ईमेल : subhashneerav@gmail.com
यार, कोविड से अशक्त हो चुके इस नाचीज में जान डाल दी। मुझे मेरी ये छहों लघुकथाएं बहुत प्रिय हैं। 'बारिश' तो तुम्हारी ही देन है।
ReplyDeleteसुभाष जी की सभी रचनाएँ शानदार और धारदार होती हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया सन्दीप।
Deleteसुभाष जी की लघुकथाओं के विषय और कथ्य दोनों अद्भुत। कहन भी सबमें अलग।खूब रुचिकर।
ReplyDeleteआभार बोहरे जी।
DeleteSari लघुकथा बहुत खूबसूरत हैं. सीधे मन में
ReplyDeleteउतरने वाली.
स्नेह गोस्वामी
शुक्रिया स्नेह जी।
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