श्रीयुत् रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' हमारे समय के उन प्रमुख हस्ताक्षरों में एक
हैं जो नि:स्वार्थ भाव से साहित्य-सेवा में रत हैं। वे काव्य की अनेक विधाओं में
रचनारत हैं। अनेक पुस्तकों के सर्जक और संपादक है। केन्द्रीय विद्यालय संगठन में
प्रिंसिपल रहे हैं। स्पष्ट है कि राष्ट्र और विश्व के लिए अनेक व्यक्तित्वों का
निर्माण भी उनके द्वारा हुआ है।
लघुकथा-लेखन में भी वह आठवें
दशक से ही निरंतर सक्रिय हैं। 'असभ्य नगर'
उनकी लघुकथाओं का पहला संग्रह था तथा ‘लघुकथा
का वर्त्तमान परिदृश्य’ लघुकथा-समालोचना का ग्रंथ है। इनके
अतिरिक्त अनेक लघुकथा संकलनों तथा लघुकथा विशेषांकों का संपादन भी उन्होंने किया
है। सबसे बड़ी और प्रमुख बात यह कि सुकेश साहनी के साथ मिलकर वह गत दो दशक से
हिन्दी लघुकथा की पहली वेब साइट 'लघुकथा डॉट कॉम'
सफलतापूर्वक चला रहे हैं। अपने बारे में कुछ कहने-सुनने के प्रति
अत्यंत संकोची हैं और स्व-प्रचार से इतना दूर रहते हैं कि मेरे द्वारा माँगने पर
भी अपनी रचनाएँ, परिचय और फोटो आसानी से नहीं भेज पाए।
इसी 19 मार्च को उन्होंने 73वें वर्ष में प्रवेश किया है।
उनके जन्मदिन पर अनंत मंगलकामनाएँ। ईश्वर मानव-सेवा में संलग्न काम्बोज जी को
स्वस्थ व सक्रिय बनाए रखें।
इस अवसर पर आप सबके सम्मुख प्रस्तुत है, हमेशा के लिए शीर्ष पर स्थित रहने में सक्षम उनकी अनेक लघुकथाओं से चुनी हुई ये पाँच लघुकथाएँ : 1-अपराधी
वह
हँसता-खिलखिलाता और दूसरों को हँसाता रहता था। जो भी उसके पास आता,
दो
पल की खुशी समेट ले जाता।
एक
दिन किसी ने कहा, “यह
तो विदूषक है। अपने पास भीड़ जुटाने के लिए यह सब
करता है।”
उसने
सुना, तो
चुप्पी ओढ़ ली। हँसना-हँसाना बन्द कर दिया। उसकी भँवें तनी रहतीं। मुट्ठियाँ कसी
रहतीं। होंठ भिंचे रहते।
उसकी
गिनती कठोर और हृदयहीन व्यक्तियों में होने लगी थी। वह सोते समय कठोरता का मुखौटा
उतारकर हैंगर पर टाँग देता। उसके चेहरे पर बालसुलभ मुस्कान थिरक उठती। पलकें बन्द
हो जातीं। कुछ ही पल में उसे गहन
निद्रा घेर लेती।
'इतना
घमण्ड भला किस काम का!', लोग
पीठ-पीछे बोलने लगे। उड़ते-उड़ते उसके कानों तक भी यह बात पहुँच गई।
वह
मुँह अँधेरे उठा और सैर के लिए निकला। उसने अपना वह मुखौटा गहरी खाई में फेंक
दिया।
लौटते
समय वह बहुत सुकून महसूस कर रहा था। उसे रास्ते में एक बहुत उदास व्यक्ति मिला।
उससे रहा नहीं गया। वह उदास व्यक्ति के पास रुका और उसका माथा छुआ। ताप से जल रहे
माथे पर पर जैसे किसी ने शीतल जल की गीली पट्टी रख दी हो।
देखते
ही देखते उसका ताप गायब हो गया। उदास व्यक्ति फूल की तरह खिल उठा।
अगले
दिन रास्ते में एक अश्रुपूरित चेहरा सामने से आता दिखाई दिया।
उससे
रहा न गया। वह उस चेहरे के पास रुका।
द्रवित होकर उसने अश्रुपूरित नेत्रों को
पोंछ दिया। उसके बहते खारे आँसू
गायब हो गए। दिपदिपाते
चेहरे पर भोर की मुस्कान फैल गई।
किसी
ने कहा—‘जिसका माथा छुआ और आँखे पोंछीं, वह
एक दुःखी बच्चा था।’
किसी
ने कहा—‘वह जीवन से निराश कोई युवा था।’
किसी
ने कहा—‘वह
कोई स्त्री थी।’
दस
और लोगों ने कहा—‘वह
सुंदर स्त्री थी।’
शाम
होते-होते भीड़ ने कहा—‘एक लम्पट व्यक्ति ने सरेआम एक महिला को जबरन छू लिया।’
अगले
दिन उस व्यक्ति का असली चेहरा चौराहे पर दबा-कुचला हुआ पड़ा था। फिर भी उसके होंठों
से मुस्कान झर रही थी।
पोंछे
गए आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे। उसका माथा ज्वर से तप रहा था।
लोग कह रहे थे—‘उसने आत्महत्या की है।’
-0-
2-
एजेण्डा
"आप इस देश की नींव
हैं। नींव मज़बूत होगी तो भवन मज़बूत होगा। भवन की कई-कई मंजिलें मज़बूती से टिकी
रहेंगी-" पहले अफ़सर ने रूमाल फेरकर जबड़ों से निकला थूक पोंछा। सबने अपने
कंधों की तरफ़ गर्व से देखा, कई-कई मंज़िलों के बोझ से दबे कंधों की तरफ़।
अब दूसरा अफ़सर खड़ा हुआ,
"आप हमारे समाज की रीढ़ है। रीढ़
मज़बूत नहीं होगी, तो समाज धराशायी हो जाएगा।" सबने तुरंत अपनी-अपनी रीढ़ टटोली।
रीढ़ नदारद थी। गर्व से उनके चेहरे तन गए-समाज की सेवा करते-करते उनकी रीढ़ की
हड्डी ही घिस गईं। स्टेज पर बैठे अफ़सरों की तरफ़ ध्यान गया ... सब झुककर बैठे हुए
थे। लगता है उनकी भी रीढ़ घिस गई है।
"उपस्थित बुद्धिजीवी
वर्ग"-तीसरे बड़े अफ़सर ने कुछ सोचते हुए कहा, "हाँ, तो मैं क्या कह रहा था," उसने कनपटी पर हाथ
फेरा, "आप समाज के पीड़ित वर्ग पर विशेष ध्यान दीजिए।"
पंडाल में सन्नाटा छा गया। बुद्धिजीवी वर्ग! यह कौन-सा वर्ग है? सब सोच में पड़ गए.
दिमाग़ पर ज़ोर दिया। कुछ याद नहीं आया। सिर हवा भरे गुब्बारे जैसा लगा। इसमें तो
कुछ भी नहीं बचा। उन्होंने गर्व से एक दूसरे की ओर देखा -समाज-हित में योजनाएँ
बनाते-बनाते सारी बुद्धि खर्च हो भी गई तो क्या!
अफ़सर बारी-बारी से कुछ न कुछ बोलते जा रहे थे। लगता था- सब लोग बड़े ध्यान से
सुन रहे हैं। घंटों बैठे रहने पर भी न किसी को प्यास लगी, न चाय की ज़रूरत महसूस हुई, न किसी प्रकार की हाज़त।
बैठक ख़त्म हो गई. सब एक दूसरे से पूछ रहे थे "आज की बैठक का
एजेंडा क्या था?"
भोजन का समय हो गया। साहब ने पंडाल की तरफ़ उँगली से चारों दिशाओं
में इशारा किया। चार लोग उठकर पास आ गए। फिर हाथ से इशारा किया,
पाँचवाँ दौड़ता हुआ पास में आया- “सर!”
"इस भीड़ को भोजन के
लिए हाल में हाँक कर लेते जाओ, इधर कोई
न आ पाए।" साहब ने तनकर खड़ा होने की व्यर्थ कोशिश की।
पाँचवाँ भीड़ को लेकर हाल की तरफ़ चला गया।
"तुम लोग हमारे साथ
चलो।" साहब ने आदेश दिया।
चारों लोग अफ़सरों के पीछे-पीछे सुसज्जित हाल में चले गए.
चारों का ध्यान सैंटर वाले सोफ़े की तरफ़ गया,। वहाँ चीफ़ साहब बैठे साफ़्ट ड्रिंक ले रहे थे। साहब ने चीफ़
साहब से उनका परिचय कराया,
"ये बहुत काम के आदमी हैं। बाढ़, सूखा, भूकंप आदि जब भी कोई
त्रासदी आती है; ये बहुत काम आते हैं।"
चीफ़ साहब के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया।
"चलिए भोजन कर
लीजिए." उन्होंने चीफ़ साहब से कहा "हर प्रकार के नॉनवेज का इंतज़ाम
है।"
"नॉनसेंस"
चीफ़ साहब गुर्राए, "मैं परहेज़ी खाना लेता हूँ। किसी ने बताया नहीं आपको?"
"सॉरी सर"-छोटा
अफ़सर मिनमिनाया "उसका भी इंतज़ाम है, सर! आप सामने वाले रूम
में चलिए."
वहाँ पहुँचकर चारों को साहब ने इशारे से बुलाया। धीरे से बोले, निकालो। "
धीरे से चारों ने बड़े नोटों की एक-एक गड्डी साहब को दे दी। साहब ने
एक गड्डी अपनी जेब में रख ली तथा बाकी तीनों चीफ़ साहब की जेबों में धकेल दीं।
चीफ़ साहब इस सबसे निर्विकार साफ्ट ड्रिंक की चुश्कियाँ लेते रहे, फिर बोले, "जाने से पहले इन्हें
अगली बैठक के एजेंडे के बारे में बता दीजिएगा।"
-0-
3-
उड़ान
चार
बज चुके थे। डाकिए के आने की उम्मीद अब नहीं रही थी। मनीआर्डर आया होता तो वह
ज़रूर आता। आत्माराम ने ठण्डी सांस ली। कबूतर–कबूतरी और बच्चा सुबह तक घोंसले को
आबाद किए हुए थे। बाहर से दाना लाकर जब वे घोंसले में लौटते,
बच्चा
अपनी नन्ही-सी चोंच खोलकर कभी कबूतर की ओर मुड़ जाता,
कभी
कबूतरी की ओर। चुग्गा लेकर वह उनके पंखों के नीचे दुबककर बैठा रहता।
अब
थोड़ा–सा उड़ने भी लगा था। लकवे के कारण टेढ़े हुए मुख को ऊपर उठाकर आत्माराम
भरी–भरी आँखों से उन्हें देखते रहते। उस समय वे भी अपने को कबूतर समझने लगते।
अकेला और तन्हा कबूतर।
सूर्यास्त
हो गया। कबूतर घोंसले में आ गया। थोड़ी देर बाद कबूतरी भी आ पहुँची। दोनों
काफ़ी देर तक गुमसुम–से बैठे रहे। कबूतरी ने अपनी ढीली और उदास गर्दन कबूतर की
गर्दन–से सटा ली। धुंधलका छाने लगा। बच्चा नहीं लौटा। आत्माराम का हृदय
भीग गया। बेटे ने गाँव में आना साल–भर पहले ही बन्द कर दिया था। अब पैसा भेजे भी
तीन महीने हो गए।
आज
घोंसले का सूनापन उसे बेचैन किए दे रहा था। नन्हा बच्चा उड़कर कहीं और चला गया था।
दो
गरम–गरम आँसू एकदम लावे की तरह, ढुलक
आए. वह और अधिक उदास हो गया।
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4-चिरसंगिनी
पदचाप सुनकर
वह उठ बैठा।
उठकर
लैम्प जलाया तो उसकी घिग्घी बँध गई–"क–क–कौन हो तुम?
अन्दर
कैसे...आ...गए?"
"नहीं
पहचानते? लो,
ठीक
से देखो।" चारों ने उसकी तरफ़ अपनी–अपनी पीठ घुमाई. चारों की पीठ में छुरे
घोंपे हुए थे। दिगम्बर ने छुरे पहचान लिये.
ये छुरे उसी ने घोंपे थे। चारों को जीवित देखकर उसको पसीने छूटने लगे।
पहला
बोला–"मैंने तुम्हारा पालन–पोषण किया था। तुम्हें उँगली पकड़कर चलना सिखाया
था। तुमने मुझे पिता कहकर पुकारना शुरू कर दिया था। फिर एक दिन मचलकर तुमने मेरी
पीठ पर छुरे का प्रहार किया था। मुझे मरा समझकर तुम भाग गए थे।"
दूसरा
हँसा–"मैं तुझे गंदी नाली से उठाकर सभ्य लोगों के बीच ले गया। तुम्हारा
सम्मान कराया। सम्मान पाना तुमने जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया। इसके बाद तुमने लोगों
का अपमान करने की मुहिम चलाई. मैंने ऐसा करने से रोका। तुमने वही किया जो तुम पहले
कर चुके थे।"
दिगम्बर
का चेहरा स्याह पड़ गया।
तीसरे
ने उसकी छोटी–सी गर्दन कसकर पकड़ ली। वह गिड़गिड़ाया–"मुझे छोड़ दो। मैं आपको
पहचान गया हूँ। आपने बुरे दिनों में मेरी सहायता की थी। सम्मेलनों में बुलाकर मेरा
सम्मान बढ़ाया था। मुझे आपकी उन्नति से ईर्ष्या होने लगी थी। मैंने बेख़बर सोए हुए
आपको छुरा भोंक दिया था।" तीसरे ने उसकी गर्दन छोड़ दी।
चौथे
को मुस्कराते देखकर वह कुछ आश्वस्त हुआ–"लाओ,
मैं
यह छुरा निकाल दूँ।"
"छुरा
निकाल दोगे,
तो तुम्हारी करतूत कैसे याद रहेगी?"
"मैंने
सिर्फ़ अपने शौक की वज़ह से आपको छुरा मारा था। मैंने सोचा था–आप मर जाएँगे।
लेकिन---"
"हम
चारों पीठ में छुरा भोंके जाने पर भी नहीं मरे,
यही
न?" चारों एक साथ
बोले।
"मुझे
माफ़ कर दीजिए." दिगम्बर ने अपना नंगापन छुपाते हुए कहा। सिर ऊपर उठाया तो
चारों जा चुके थे।
वह
सहम गया।
तभी
एक आबनूसी रंग की छाया उभरी। दिगम्बर ने डरकर पूछा–"तुम कौन हो?"
"डरो
नहीं, मैं
गैर नहीं हूँ। मैं तुम्हारी चिरसंगिनी कुण्ठा हूँ। हमेशा तुम्हारे साथ रही
हूँ।"
"लेकिन
तुम्हारा रंग काला कैसे हो गया?"
"लगता
है तुम भूल गए. मैं एक बार तुम्हारे घर के सामने जल रहे अलाव में गिर पड़ी थी। उस
समय मेरा रंग कुछ काला पड़ गया था।"
"किन्तु
इतना काला रंग!"
"तुम्हारे
काले दिल में रहते–रहते मेरा रंग एकदम आबनूसी काला हो गया।"
दिगम्बर
ने आगे बढ़कर कुण्ठा को अपने गले से लगा लिया। अब उसके चेहरे पर ख़ुशी की एक
लहर–सी दौड़ गई।
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5-ऊँचाई
पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी- “लगता है, बूढ़े को पैसों की ज़रूरत
आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था! अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर
सफ़र की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज़्यादा ही तंग हो गया। बड़े
बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाते वक़्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के
इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबूजी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे
पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर
उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र। “सुनो”- कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोकर उनके मुँह की ओर
देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।
वे बोले, “खेती के
काम में घड़ी भर भी फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोज़ो है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने
से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो। तुम्हारे काम आएँगे। धान की फसल अच्छी हो
गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से
खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फंसकर रह गये हों।
मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा, “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”
“नहीं तो।" मैंने हाथ
बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने
के लिए इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे, पर तब मेरी नज़रें आज की
तरह झुकी नहीं होती थीं।
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रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जन्मः 19 मार्च, 1949, हरिपुर, जिला-सहारनपुर
शिक्षाः
एम- ए- हिन्दी, बी-
एड्.
प्रकाशित
रचनाएँः माटी, पानी
और हवा, अँजुरी
भर आसीस, कुकडूँ
कूँ, हुआ
सवेरा, मैं
घर लौटा, तुम
सर्दी की धूप, बनजारा
मन, मेरे सात जनम,
माटी
की नाव, बन्द
कर लो द्वार ,तीसरा
पहर ,मिले
किनारे , झरे
हरसिंगार (कविता-संग्रह) धरती के आँसू, (उपन्यास),
दीपा,
दूसरा
सवेरा(लघु उपन्यास), असभ्य
नगर (लघुकथा-संग्रह), खूँटी
पर टँगी आत्मा (व्यंग्य-संग्रह), बाल
भाषा व्याकरण, नूतन
भाषा-चन्द्रिका, (व्याकरण),
लघुकथा
का वर्त्तमान परिदृश्य, (लघुकथा-समालोचना),
सह-अनुभूति
एवं काव्य-शिल्प (काव्य- समालोचना), हाइकु
आदि काव्य-धारा (जापानी काव्यविधाओं की समालोचना),फुलिया
और मुनिया (बालकथा हिन्दी और अंग्रेजी), हरियाली
और पानी (बालकथा-अन्य पाँच भाषाओं में अनुवाद)
सम्पादनः
37 पुस्तकें,
विभिन्न
पत्रिकाओं के 14
विशेषांकों का सम्पादन, अनूदित
2 पुस्तकें।
सम्पर्क-1704-बी, जैन नगर, स्ट्र्रीट नं 4/10, कश्मीरी कॉलोनी, रोहिणी सेक्टर-38, कराला, नई दिल्ली --110081 / Mob-9313727493
हिमांशु जी के जन्मदिन पर उत्तम उपहार। यह कथाएँ हमें भी सोचने समझने को प्रेरित करतीं हैं।
ReplyDeleteपवन जैन।
बेहतरीन लघुकथाएं।सामाजिक विसंगतियों,भ्रष्ट व्यवस्था पर प्रतीकों व कल्पनाओं का सुंदर प्रयोग।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लघुकथाएँ।
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