वरिष्ठों के अनुसार - "किसी मुकम्मल लघुकथा को एक अतिरिक्त
शब्द भी उसकी सुन्दर छवि को ख़राब कर सकता है।" लेकिन अफ़सोस इस बात का है
कि इस एक अतिरिक्त 'शब्द' की 'भाषा' को संभवत: निर्धारित नहीं किया गया। ऐसा लगता है
कि इस विषय को 'ग्राह्यता या सहजता' के नाम शहीद करने की मूक सहमति प्रदान कर दी गई
है। आज लघुकथा में जब शब्द संख्या पर बात होती है तो लोग तराजू
लेकर तौलने और गिनती करने बैठ जाते हैं। कालखण्ड, कालदोष, कथ्य, कथानक, शैली,
तथ्य आदि जितने भी मानक हैं, उन सब पर तो बात बहुत हो रही है। वाद-विवाद, परिचर्चाएँ,
आलेख और यहाँ तक कि पुस्तकें भी छप चुकी हैं, छप रही हैं। लेकिन भाषा की
शुद्धता पर एक मौन धारण कर लिया जाता है। इसी विषय को सतह पर लाने का प्रयास करता हुआ
यह आलेख प्रस्तुत है जिसमें कोशिश यह है कि इसके प्रमुख बिंदुओं को सबके सामने रखा
जाए।
आज हिन्दी लघुकथा दिन-प्रतिदिन नये आयाम स्थापित कर रही है। नये-नये विशेषांक,
अनेक पत्रिकाओं के लघुकथाओं पर आधारित अंक, समाचर पत्रों में नियमित लघुकथाओं का प्रकाशन,
गोष्ठियाँ और बड़े-बड़े आयोजनों का होना यह सब दर्शाता है कि आज लघुकथा न केवल अपने पैर
जमा चुकी है अपितु अपना सर्वोन्मुखी विकास भी कर रही है।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि वर्तमान हमेशा उस समय
तक का सबसे अधिक विकसित समय होता है जिसमें समय के साथ जुड़ी हर वस्तु चाहे साहित्य
ही क्यों न हो, तबतक की यात्रा के चर्मोत्कर्ष पर होते हैं। आज का वर्तमान तो जिस सुगमता
के साथ आगे बढ़ रहा है, उसे अगर यह कहा जाये कि 'सोने पर सुहागा' वाली बात हुई है तो
यह अतिश्योक्ति न होगी। अगर इसे साहित्य के ही संदर्भ में लें तो आज जिस तरह से इसे
तकनीक का अप्रतिम साथ मिला है उससे साहित्य, खासकर लघुकथा के उद्भव की यात्रा को जैसे
पर ही लग गए हों। अंतरजाल की सुलभता और सुगमता से सूचना प्रौद्योगिकी ने जो गति पकड़ी
है उससे बड़े-बड़े पेचीदगी वाले कामों के साथ लिखने-पढ़ने के तरीकों में जो आसानी आई है,
उससे साहित्य लेखन को बहुत लाभ हुआ है।
एक पुरानी कहावत है कि 'गाँव बसा नहीं है और लुटेरे
पहले आ जाते हैं।' दुर्भाग्यवश तकनीक की सहायता से यदि साहित्यिक विकास में सुगमता
आई तो इस विकास यात्रा में फायदे-और नुकसान के अपने-अपने हिसाब से लाभान्वित होने वालों
का भी काम-धंधा शुरू हुआ है। साहित्यिक विकास का कोई भी माध्यम, विधा से पहले उसकी
भाषा का वाहक होता है। वह भाषा ही तो है जो किसी भी विधा के सुचारू रुप से सम्प्रेषण
का माध्यम बनती है। विधा चाहे उपन्यास हो, कहानी या लघुकथा। साहित्य चाहे गद्य हो या
कि पद्य। महत्वपूर्ण होता है कि वह विधा किस भाषा की विकासयात्रा का जरिया है। ...और
जब भाषा की बात आती है तो फिर उसका दायरा एकांकी और विस्तृत होते हुए भी स्वयं की परिधि
में संकुचित और समाहित होना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि वह रचना जिस किसी भाषा में
लिखी गई है उस भाषा का उसमें आधपत्य झलकना चाहिए। यह क्षणिक चिंतन में थोड़ा अजीब सा
लग सकता है लेकिन भाषा के विकास में यह जरूरी है और हिन्दी लघुकथा में तो बहुत जरूरी।
आज लघुकथा के अगर यांत्रिक और तकनीकी
पक्ष पर जाएं तो इसके बारे में वरिष्ठजनों ने इसके आकार-प्रकार, इसकी बनक-ठनक, इसके
प्रभावी पक्ष, इसके प्रस्तुतिकरण, काल दोष, कालखण्ड दोष, शब्द सीमा, आदि कितने ही ऐसे
पहलू हैं जिन पर आए दिन कभी सार्थक तो कभी निरर्थक बहसें की हैं। आज फेसबुक आदि पर
तो ऐसे विवादों की झलक अक्सर देखने, सुनने और पढ़ने को मिलती ही रहती है। ऐसा नहीं है
कि ये सभी बहसें अनावश्यक ही सिद्ध होती हैं लेकिन ज्यादा बार इनके पीछे निहित उद्देश्य
चिन्ता पैदा करा जाते हैं। चिन्ता इसलिए क्योंकि बहुत से तथाकथित 'वरिष्ठ' लघुकथा पर
स्वामित्व कायम करने की असफल कोशिश करते रहते हैं। दरअसल लघुकथा को उसके सीधे-सरल आवरण
के कारण कभी-कभी वास्तविक तो कभी कृत्रिम खतरों का सामना करना पड़ता है। इस पर थोड़े
दिन बहस चलती है, कभी कुछ सार्थक सा निकलता है और कभी-कभी निरी झण्डा उठाने की कोशिश
भर होकर रह जाती है। कभी-कभी तो सिर्फ इन प्रकरणों से केवल गुटबाजी ही उभरकर आती है
और...फिर वही ढाक के तीन पात।
इस सबके इतर सबसे बड़ी और गौर फरमाने वाली बात तो यह है कि कभी भी लधुकथा के
विकास की चर्चाओं में भाषाई शुद्धि पर चर्चायें न के बराबर ही होती हैं। इस भाषाई शुद्धि
में वर्तनी और व्याकरण की अशुद्धि के साथ-साथ उसमें विभिन्न भाषाओं से आयातित शब्दों
के साथ जो खास है वह है अंग्रेजी के शब्दों की भरमार और दखलंदाजी। पता नहीं इस भाषाई
अशुद्धि और अंग्रेजी के अतिक्रमण पर वरिष्ठों ने क्यों चुप्पी साध रखी है। लघुकथा के
शाब्दिक ढांचे को तो यहाँ तक कहा गया है कि इसमें अगर एक शब्द भी ज्यादा हो जाये तो
वह रचना की प्रस्तुति को खराब कर देता है। इसके आकार के बारे में निकट भूतकाल और वर्तमान
में काफी बहस भी हुई लेकिन उन बहसों के उद्देश्य में 'अहं ब्रह्मास्मि' से प्रेरित
स्थापत्यकला से ज्यादा कुछ निकला नहीं। वैसे 'उसी' भाषा के अनुपयोगी शब्दों का किसी
भी विधा की रचना में होना उसकी खूबसूरती को कम करने का ही काम करता है और यह समान रूप
से लघुकथा पर भी लागू होता है लेकिन क्या यह भी उतना सही नहीं है कि अन्य भाषा के शब्दों
का 'अनावश्यक' उपयोग भी उस रचना की खूबसूरती को दोयम करने का ही काम करता है? अब पूरा
सच तो यह भी नहीं है कि यह विषय अछूता ही रहा है लेकिन जिस तरह से इसे किनारे कर दिया
जाता है, वह विचारणीय है।
यहाँ पर यह कहना ठीक नहीं रहेगा कि लोग इस
विषय से एकदम अनभिज्ञ हैं। क्योंकि यह न मानने का एक खास कारण है। लघुकथा में अन्य
भाषाओं के शब्दों का उपयोग, खासकर अंग्रेजी के, उस पानी के छोटे से छींटे की तरह है
जो चम्मच भर लघुकथा नामक गरम तेल में पड़ते ही अपनी उपस्थिति का तीखा विरोध करती हुई
यह अहसास करा देती है कि 'मैं यहाँ वांछित नहीं थी।' तो फिर यह है क्या? यह मूक स्वीकृति
क्यों है? लघुकथा के क्षेत्र में अपना स्थान बना चुके वरिष्ठ आखिर इस पर एक भी शब्द
बोलने को तैयार क्यों नहीं हैं? जब भी लघुकथा का इतिहास लिखा जायेगा, यह जरूर पूछा
जाएगा कि इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? एक बात और कि ऐसा भी नहीं है कि लघुकथा
में अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग केवल नवोदित कर रहे हैं। नहीं, इस काम में लघुकथा
की पूरी कौम लगी हुई है। क्या नवोदित, क्या स्थापित?
कभी-कभार यह विषय फेसबुक आदि पर चर्चा का विषय बनता तो है लेकिन सार्थक बनते-बनते
रह जाता है। और अगर इस पर जबरन बात हुई भी तो बस कुछ तर्कों के साथ इस बहस को फलीभूत
होने से पहले ही खारिज कर दिया जाता है कि 'आज हिन्दी में कई भाषाओं के शब्दों का समावेश
है जैसे अरबी, उर्दू, फ़ारसी आदि तो फिर अंग्रेजी से क्या बैर? सरसरी तौर पर इस तर्क
को खारिज करने का कोई औचित्य भी नहीं है लेकिन अगर सही अर्थों में सोचा जाए तो अंग्रेजी
और अन्य जिन भाषाओं के शब्दों के उपयोग का तर्क दिया जाता है उनमें बहुत फर्क
है। दरअसल हिंदुस्तान की जो हिन्दी है, जिसमें जो अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओं के
शब्द हैं, वे हमारी संभ्यता, संस्कृति और गंगा-जमुनी तहजीब के वाहक हैं। और साथ ही
यह भी ध्यान रहे कि हिन्दी के साथ जो अन्य भाषाओं के शब्दों का उपयोग होता है उनका
कहीं न कहीं उद्भव देवभाषा संस्कृत से हुआ है जिससे उनका उपयोग किसी भी तरह से भाषायी
सुंदरता में दखल नहीं देता है। अतः स्वीकार्यता अपने आप बन जाती है। लेकिन यह योग्यता
अंग्रेजी में नहीं है। इसलिए अंग्रेजी को उन भाषाओं के समकक्ष होने की संज्ञा न दी
जाए तो ही बेहतर है।
हालांकि, सभ्यता से अगर जोड़ा जाए तो वर्तमान
में सबसे सभ्य तो वही है जिसका अंग्रेजी पर अधिकार हो। इससे पहले कि इस पर और बात रखी
जाए, यह स्पष्ट करना यहाँ बहुत आवश्यक है कि यहाँ अंग्रेजी की खिलाफत कतई नहीं है।
आज के वैश्विक माहौल में अंग्रेजी पढ़ना, लिखना, जानना बहुत जरूरी है। इसके बिना न तो
किसी बेहतर रोजगार की उम्मीद की जा सकती है और ना ही किसी व्यवसाय में उन्नति की जा
सकती है। आज के युग में अंग्रेजी रोजगारपरक भाषा है। भारत जैसे देश में जहाँ आरक्षण
प्रतिभाओं का भक्षक है वहीं एक बड़े वर्ग को अंग्रेजी ने बड़ा सहारा दिया है। इसके
लिए अंग्रेजी का धन्यवाद भी बनता है।अतः यहाँ अंग्रेजी का अंधविरोध नहीं बल्कि सही
जगह इस्तेमाल की जरूरत पर बल और हिन्दी साहित्य को इसकी आवोहवा से बचाने का प्रयास
भर है।
यहाँ विमर्श अंग्रेजी का हिन्दी साहित्य, खासकर लघुकथा में अतिक्रमण का है जिसे
हिन्दी के विशेषज्ञ भी मूकदर्शक बनकर स्वीकार कर रहे हैं। चलिए उस तर्क को थोड़ा स्वीकार
भी करें कि अन्य भाषाओं की तर्ज पर अंग्रेजी को शामिल करने में कोई गुरेज नहीं करना
चाहिए लेकिन कितना? यहाँ हकीकत तो यह है कि कभी-कभी पाठक लघुकथा पढ़ने के बाद सोचता
है कि बेहतर होता यह पूरी तरह से ही अंग्रेजी में होती। पाँच सौ शब्दों की लघुकथा में
यदि आठ-दस शब्द भी अंग्रेजी के आ गए तो रचना की सुंदरता तो चली ही गई। और फिर उसका
क्या कहोगे कि जब शीर्षक ही अंग्रेजी में हो? अब पाठकों की सहजता की आड़ में इसे जायज
ठहराने की इतनी भी कोशिश ठीक नहीं है कि पाठक ही उसे नकारने लगे।
आइये, कुछ उदाहरण लेते हैं जिससे ग्राह्यता को भी आंक लेते हैं। गत दिनों
वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी जी की एक लघुकथा 'ओएसिस' पढ़ने का
अवसर मिला। इस लघुकथा को फेसबुक पर प्रसारित किया गया और कहीं प्रकाशित भी हुई।
इसमें कोई शक नहीं कि यह बेहतरीन लघुकथाओं में गिनी जाएगी लेकिन ईमानदारी से कोई
बताये कि कितने पाठकों को इस शब्द का अर्थ बिना अंगरेजी-हिंदी शब्दकोश के पता चल पायेगा।
यहाँ ग्राह्यता की समस्या नहीं है। यहाँ अतिक्रमण है अंग्रेजी का। इस अतिक्रमण को यह
कहकर नाकारा जा सकता है कि ऐसे तो हिन्दी के भी ऐसे बहुत शब्द हैं जिनके अर्थ हर पाठक
को नहीं पता होते हैं तो क्या करोगे? यह बात सही है लेकिन यह जवाब अंग्रेजी के अतिक्रमण
की इजाजत नहीं देता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब आदरणीय लेखक से इस बात
को पूछा गया तो उन्होंने इस आपत्ति या प्रश्न का उत्तर देना उचित नहीं समझा। यह इस
बात का और एक तथ्य है कि या तो सवाल ही बेकार है या सवाल में दम है।
एक दूसरा उदाहरण लें। गत महींनों में एक लघुकथा संकलन का प्रकाशन
हुआ जिसका नाम है—नो एंट्री जोन । इस संकलन के लेखक श्रीमती ममता मेहरोत्रा,
डॉ सतीशराज पुष्करणा और डॉ ध्रुवकुमार जी हैं जो लघुकथा क्षेत्र के
वरिष्ठ लोग हैं। इनकी कही बातों को हलके में लेना लगभग असंभव है। पुष्करणा साहब को
तो लघुकथा का पितामह कहा जाता है। इस संकलन के शीर्षक को अंगरेजी में होने को जब मुद्दा
बनाया गया तो इसका उत्तर यह मिला कि इसमें 72 लघुकथाओं का संकलन है और एक मात्र लघुकथा का
शीर्षक अंगरेजी में है। इस संकलन का नाम इसी लघुकथा पर रखने का निर्णय लेखक मंडल
ने लिया था। यह तो ना भी बताया जाता तो भी विदित ही था कि जरूर इसका निर्णय मिलकर
ही लिया होगा अत: यह असम्भव था लेकिन इस अंग्रेजी के शीर्षक वाली लघुकथा को
ही संकलन के नाम का भी सौभाग्य क्यों मिला? इसका कोई जबाब नहीं दिया गया। यहाँ पर लगे
हांथों एक जिज्ञासा का भी समाधान मिला गया कि जो लोग इस संशय में थे कि इस संकलन
की लघुकथाएँ इस शीर्षक की पृष्ठभूमि पर ही होंगी, ऐसा प्रतीत नहीं होता है।
उपर्युक्त दो उदाहरणों के बाद अब उन लघुकथाओं का जिक्र करता हूँ जिनका शीर्षक अंग्रेजी
में है लेकिन लिखा हिन्दी में गया है—सेलिब्रेशन/शोभा रस्तोगी, रिप्लाई/संदीप
तोमर, ग्रे-शेड/डॉ. संध्या तिवारी, वायरस/सुकेश साहनी, बॉलीवुड डेज़/सुकेश साहनी,
आईडी/जाफर मेंहदी जाफरी, अनफिट/ जितेंद्र कुमार गुप्ता, बी प्रोफेशनल/नयना आरती
कानितकर, डिस्कनेक्ट/मार्टिन जॉन, नो एंट्री/माला वर्मा, कंपनसेशन/राम निवास
बॉयला, क्वीन/रीता गुप्ता, एंटी वायरस/विभा रश्मि, हॉकर/नीरज शर्मा, करैक्टर/डॉ. अखिलेश शर्मा, क्लेम/अन्नपूर्णा बाजपेयी, रिफ्यूज/अपर्णा थपलियाल, ड्यूटी/अर्चना मिश्रा, रिटर्न गिफ्ट/आरिफ मोहम्मद, फ़र्स्ट नाइट/आशीष दलाल, रिटर्न गिफ्ट/ज्योत्स्ना सिंह, एक्सचेंज ऑफर/आशीष दलाल, इन्वेस्टमेंट/कृष्ण कुमार यादव, स्क्रॉलिंग
न्यूज/आभा सक्सेना दूनवी, बेबी कॉर्न/गरिमा संजय दुबे, सेकण्ड इनिंग/रश्मि प्रणय
वागले, ओल्ड फैशन्ड/रोचिका शर्मा, स्पेस/वसुधा गाडगिल, ओवर स्पीड/विनोद दवे,
नॉट फॉर सेल/शोभा रस्तोगी, आदि आदि। यहाँ यह इंगित करना जरूरी है कि इस फेहरिस्त
को ढूंढने में ज्यादा प्रयास की आवश्यकता नहीं हुई। इन्हें लघुकथा की प्रसिद्ध पत्रिकाओं—'लघुकथा कलश' और 'अविराम साहित्यिकी' के मात्र दो-दो अंको से लिया गया है।
इसके बाद यहाँ उन लघुकथाओं का जिक्र करना आलेख को अनावश्यक बढ़ाना होगा
जो मूलरूप से हिंदी में लिखी गई हैं लेकिन जिनमें अंग्रेजी के शब्दों का भरपूर
प्रयोग किया गया है क्योंकि ऐसी कथाएँ आपको हर फेसबुक पटल, समूह, पत्र-पत्रिकाओं
में बिना किसी प्रयास के मिल जायेंगी। अलबत्ता अब प्रयास तो यह करना पड़ेगा कि क्या
ऐसी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं जिनमें अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग न हुआ हो?
यहाँ इस विषय को उठाने के मूल में यह भी नहीं
है कि उन शब्दों को शामिल न किया जाए जो संज्ञा, सर्वनाम या उभयभाषी शब्दों की श्रेणी
में स्थापित हो चुके हैं जैसे फोन, साइकिल, रेल, स्टेशन, कॉफी, डाक्टर, इंजीनियर
आदि, आदि। इन शब्दों या इन जैसे शब्दों के उपयोग पर किसी को कोई आपत्ति होनी भी
नहीं चाहिए लेकिन सब्जी में नमक खाने का ही चलन स्वीकार्य है। तकलीफ तो उस बात की है
कि अब नमक में सब्जी खाने का चलन बनता जा रहा है। यदि कथा की मांग है तो अंग्रेजी या
किसी भी भाषा के शब्दों से क्या गुरेज? जैसे कि कथा में किसी विदेशी, अति शहरी परिवेश
या इसी तरह का प्रसंग है तो यह जरूरी है कि अंग्रेजी या उस भाषा के शब्दों का उपयोग
रचना की प्राकृतिक सुंदरता को बढ़ाने के लिए किया जाये लेकिन बिना जरूरत के ऐसा नहीं
करना ही बेहतर है। यदि अंग्रेजी इतनी ही आवश्यक है तो फिर पूरे अनुवाद किये जायें,
किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? अंग्रेजी या विश्व की किसी भी भाषा में अनुवाद
का बांहें फैलाकर स्वागत है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि लघुकथा में
जो अंग्रेजी का दखल हो रहा है उसे यदि पूरी तरह से न रोका जा सके तो कम ही किया जाये।
यह विरोध के लिए विरोध नहीं है। यह तो लघुकथा को उसकी खूबसूरती कायम रखने
के लिए एक आवश्यक कदम है। आज का समय लघुकथा का स्वर्णिम समय है। यह लघुकथा के
विकास की यात्रा का एक पड़ाव भर है, मंजिल नहीं। विकास की यात्रा एक सतत यात्रा
है। इसमें आनंद के साथ आगे बढ़ना है। इस यात्रा में थकना मना है। लघुकथा की
सफलता और सतत यात्रा तभी सार्थक होगी जब यह अपनी मूल भाषा में होगी। किसी
भी शुभ काम की शुरुआत कभी भी की जा सकती है। इसके लिए कोई देर-सवेर का सवाल नहीं
है। अच्छाई के लिए हर समय शुभ है, हर समय अनुकूल है। आइये, मिलकर सब
साथ चलते हैं और कदम-दर-कदम इस विश्वास के साथ बढ़ाते हैं कि हिन्दी लघुकथा में
हम मिलकर हिन्दी को पूर्णरूपेण स्थापित करेंगे।
...हम होंगे कामयाब एक दिन।
साभार : ’लघुकथा
कलश’ (सं॰ योगराज प्रभाकर, आलेख महाविशेषांक-1, जुलाई-दिसंबर 2020)
संक्षिप्त परिचय : रजनीश
दीक्षित
जन्म तिथि - 20 मई 1975
जन्मस्थान - हरौली बहादुरपुर
(उत्तरप्रदेश)
शिक्षा - एम. टेक. - मेकैनिकल
इंजीनियरिंग, एम.बी.ए. - मानव संसाधन प्रबंधन
लेखन - श्री मधुदीप जी की
मेरी चुनिन्दा लघुकथाएँ का ब्रजभाषा में अनुवाद, देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं/
संकलनों/ प्रकाशनों जैसे लघुकथा कलश, दृष्टि, कलमकार, वर्जिन साहित्य, लघुकथा-वृत्त,
शुभ तारिका, सत्य की मशाल, दैनिक जागरण, दिशा प्रकाशन, अयन प्रकाशन आदि में लघुकथा,
आलेख, समीक्षा, साक्षात्कार, संस्मरण और कविता आदि विधाओं में प्रकाशन।
सम्प्रति - तेल और गैस के क्षेत्र
में कार्यरत बहुराष्ट्रीय संस्थान में वरिष्ठ अधिकारी, स्वतंत्र लेखन
संपर्क - 8, हेमदीप फ्लैट्स,
फेज – 2, आनंदबाग
सोसायटी, नवयुग स्कूल के पास, समा, वडोदरा - 390024, गुजरात चलभाष - +91 972 4200 357 ईमेल - Rajnish.com@gmail.com
आपका आलेख मेरे ज़ख्म पर फाहे सा है.. सन्तोष हुआ कि मेरे विचारों का समर्थक भी तो कोई है
ReplyDeleteव्वाहहह..
ReplyDeleteआभार..
सादर..
आपके विचार उचित हैं । एक हिन्दी-प्रेमी एवं साहित्य-प्रेमी के रूप में मैं इनका समर्थन करता हूं ।
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