Saturday, 28 November 2020

लघुकथाओं में समय / सूर्यनारायण रणसुभे

श्री अशोक भाटिया द्वारा संपादित दस्तावेजी लघुकथा संग्रह में कुल 7 लघुकथा कारों की कुल 173 लघुकथाएं  संकलित हैं ।प्रत्येक लेखक ने लघुकथा के स्वरूप तथा अपने लेखन के प्रयोजन से संबंधित संक्षिप्त सा वक्तव्य भी दिया है। संबंधित लघु कथा कार की लघुकथा के आकलन की दृष्टि से इस वक्तव्य का अत्यधिक महत्व है। ये सातों लेखक अलग-अलग व्यवसाय से संबंधित हैं। परंतु सभी जाति व्यवस्था ,अंधश्रद्धा ,कर्मकांड, सांप्रदायिकता आदि मनुष्य विरोधी मूल्यों के विरोध में हैं ।अर्थात येसभी लेखक प्रस्थापित व्यवस्था के मनुष्य विरोधी आचरण से व्यथित हैं ।और अपनी इस व्यथा को उन्होंने विभिन्न घटनाओं अनुभव द्वारा व्यक्त किया है।

संग्रह के आरंभ में संपादक अशोक भाटिया जी ने तीन संक्षिप्त भूमिकाए अलग-अलग समय पर लिखी हैं। इन तीन भूमिकाओं के अलावा उनका एक लेख इन 'लघुकथाओं में समय' शीर्षक से भी दिया गया है । इस लेख में उन्होंने संग्रह में संकलित लघुकथाओं पर अपनी संक्षिप्त सी प्रतिक्रिया दी  है । तीन भूमिकाओं के उनके लेखन का प्रयोजन मैं समझ नहीं पाया। उन्हें एक ही स्थान पर लिखा  जा सकता था । संकलित लघुकथाओं पर उन्होंने जो लेख लिखा है उससे पाठकों को इन लघुकथाओं के आकलन में सहायता ही होगी यह निश्चित। परंतु इससे संबंधित एक दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि ऐसे लेखो से  पाठकों को इन लघुकथाओं की ओर देखने के लिए एक चश्मा ही दिया जाता है। ऐसा चश्मा देना कहां तक उचित होगा यह प्रश्न भी तो उठ सकता है?
राजस्थान के छोटे से देहात में बैठकर प्रगतिशील स्वर की लघुकथाएं लिखने वाले श्री भागीरथ जी शिक्षा क्षेत्र से संबंधित हैं ।इनकी कुल 28 लघुकथाएं यहां संकलित हैं । अपने लेखन के उद्देश्य को लेकर उन्होंने लिखा है कि "वैज्ञानिक कर्मकांड और रूढ़ियों परंपराओं को बदलने के लिए लेखक वैचारिक पृष्ठभूमि बनाता है। श्री भगीरथ जी की आस्था इस देश के संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता समाजवाद और व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता पर है। उनके अनुसार प्रत्येक लेखक को चाहिए कि वे इन मूल्यों को बढ़ाने में अपरोक्ष ही सही मदद करते रहे। इस लेख के आरंभ में मैंने टी एस इलियट के इस कथन को उद्धृत करते हुए लिखा है कि किसी भी रचना की संवेदना में भाव और विचारों में अद्भुत एकता  होनी चाहिए ।भगीरथ जी की इन लघु कथाओं में भाव और विचारों में जरूरी संतुलन टूट सा गया है ।यहां विचार भाव से अधिक प्रबल हो जाते हैं ।लघु कथा का जो कुल प्रभाव पाठकों के मन मस्तिष्क पर होना चाहिए ऐसा हो नहीं पाता।इनकी  लघु कथाओं में अनेक स्थानों पर वर्णनात्मकताहै ।पृष्ठ 39पर की जीविका लघुकथा अन्य लघु कथाओं की तुलना में शिल्प भाषा और संवेदना की दृष्टि से काफी प्रभाव पूर्ण हो गई है ।28 लघुकथाओं में इस एकमात्र लघु कथा में भाव और विचार का संतुलन हुआ है। अन्य सभी लघुकथाओं मे विचार प्रबल हैं।संवेदना दुर्बल है या यह कहें कि विचार ही संवेदना पर हावी हो गए हैं।
दिल्ली निवासी श्री बलराम अग्रवाल स्वतंत्र लेखन कार्य में लगे हैं। बाल साहित्य भी आपने लिखा है। सूत्र रूप में उन्होंने एक महत्वपूर्ण वाक्य अपने वक्तव्य  में लिखा है कि 'लिखना जरूरी समझा नहीं जाता लिखना जरूरी हो जाता है।' जब लिखना जरूरी हो जाता है तब जो लिखा जाता है, वही असली साहित्य होता है। इनका वक्तव्य न केवल लघुकथा के संदर्भ में, अपितु कुल लेखन प्रक्रिया की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। इनकी लघुकथाएं काफी सधी हुई तथा तीव्र संवेदना से युक्त हैं। विचार और भाव में अद्भुत समन्वय, यह भी इनकी लघुकथाओं  की विशेषता है। इस दृष्टि से इनकी   लघुकथाएं बुधवार, रुका हुआ पंखा, गोभोजन कथा, दुख के दिन, गरीब का गाल, मन की मथनी, बिना नाल का घोड़ा, गांव अभी भी, लगाव, यात्रा में लड़कियां, मौत से सामना, उजालों का मालिक और लेकिन सोचो उल्लेखनीय हैं। इनकी कुल 24 लघुकथाएं यहां संकलित हैं। इन 24 में से 13 लघुकथाएं लघुकथा की सभी कसौटी पर खरी उतरती हैं। हिंदी के विकास में श्री बलराम अग्रवाल का योगदान महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। मैं उन्हें इन लघुकथाओं के लेखन के लिए बधाई देता हूं और भविष्य में वे  इस प्रकार की चुभती, व्यंग्यभरी और प्रगतिशील विचारों की लघुकथाएं पाठकों तक पहुंचाएंगे, ऐसी उम्मीद  करता हूँ। इनकी लघुकथाएं पाठकों के भीतर तक पहुंचती हैं। इसी प्रकार की लघुकथाएं वे लिखते रहे, इसलिए उनका अभिनंदन करता हूँ ।

श्री अशोक भाटिया की 28 लघुकथाएं इस संग्रह में संकलित हैं। इन 28 में से 11 लघुकथाएं उनके पहले संग्रह में आ चुकी हैं। शेष सत्रह लघुकथाए यहाँ नई जोड़ी गई हैं। इन 17 लघुकथाओं में युगमार्ग, देश,  स्त्री कुछ नहीं करती, लगा हुआ स्कूल, नमस्ते की वापसी, गेट सम्राट, कुंडली, पहचान, रामराज्य और उससे पहले लघुकथाएं बड़ी प्रभावपूर्ण हैं।इन लघुकथाओं द्वारा लेखक मनुष्य मन की विविध प्रवृत्तियों का उद्घाटन बड़ी नजाकत के साथ करता है। इनमें से कुछ में दो पीढ़ियों की सोच को उद्घाटित किया गया है। (मोह) पुरुष सत्ताक मानसिकता (स्री  कुछ नहीं करती) प्रशासन में व्याप्त चालाकियां या शिक्षकों पर अन्य कामों का बोझ (लगा हुआ स्कूल) झूठी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन (नमस्ते की वापसी ) अंधश्रद्धा पर प्रहार (कुडली)  किसान की त्रासद स्थिति (उससे पहले ) आदि का उद्घाटन इनकी लघुकथाओं की विशेषता है। श्री अशोक भाटिया की सभी लघुकथाओं में प्रगतिशील भाव और विचारों का अद्भुत समन्वय हुआ है। वह अपने इन विचारों को भाव पर थोपते नहीं तो यह विचार भाव का अभिन्न अंग बन कर आते हैं । इनकी प्रवृत्ति ही प्रगतिशील रही है । पाठकों को सोचने के लिए वे विवश कर देते हैं।
कुल मिलाकर अशोक भाटिया की लघुकथाएं हिंदी लघुकथाओं के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होने वाली हैं। क्योंकि जब हिंदी लघुकथा अपने मूल लक्ष्य से भटक गई थी, चुटकुले और सस्ते हास्य विनोद में फस गई थी, तब उसे वहां से निकालकर उसे अधिक गंभीर गहरी व्यंग्यात्मक और ध्वन्यात्मक करने का कार्य अशोक भाटिया की लघुकथाओं  ने  किया है। जब हिंदी नाटकों का संबंध रंगमंच से तथा जनसंवेदना से टूट गया था तब मोहन राकेश ने उसे फिर से जीवन की विडंबनाओं के साथ रंगमंच के साथ जैसे जोड़ दिया, जब हिंदी कहानी मध्यवर्गीय ग्रंथियों तथा अंतर्मन की गुफाओं में खो गई थी तब साठ के दशक की नई कहानी ने उसे फिर से जीवन की विविधता के साथ जैसे जोड़ दिया, जब हिंदी कविता रोमांटिक प्रवृतियो और रहस्यवाद में खो चुकी थी, तब धूमिल तथा नई कविता के कवियों ने, नागार्जुन आदि ने उसे फिर से जनसंवेदनाओं के साथ जोड़ दिया, कुछ वैसा ही कार्य लघुकथा के क्षेत्र में श्री अशोक भाटिया ने किया है। इसलिए उनका अभिनंदन। हिंदी लघुकथा को उन्होंने केवल जनसंवेदना के साथ जोड़ा, नहीं तो भारतीय संविधान में उल्लिखित स्वतंत्रता, समता, धर्म निरपेक्षता की मूल्यों के साथ जोड़ दिया। इतना करके रुके नहीं तो अपने समविचारी लेखकों को साथ में लेकर उन्हें भी पाठकों के वे सम्मुख ले आते हैं।  इसलिए उनका विशेष अभिनंदन।
इस संग्रह के तीसरे लघुकथा लेखक श्री सुकेश साहनी हैं। भू विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश के भूगर्भ जल विभाग के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इनकी कुल 25 लघुकथाएं  यहां संकलित है। वे साहित्य सर्जन की यात्रा को एक अखंड यात्रा मानते हैं। उनके अनुसार, लेखक की कोई मंजिल नहीं होती । वे यह मानते हैं कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा का जन्म भी लंबी सर्जन प्रक्रिया के बाद ही संभव है। यह वाक्य लिखकर उन्होंने लघुकथा लेखन की गंभीरता को ही स्पष्ट किया है।
किसी भी देश में सरकार जो प्रशासनिक व्यवस्था शुरू करती है, वह विकास योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए तथा जनता की सहायता के लिए। परंतु भारत की प्रशासनिक व्यवस्था जनविरोधी बन चुकी है। इस कारण लोगों को इस व्यवस्था पर अब विश्वास ही नहीं रहा है। इसे साहनी जी ने बड़ी खूबसूरती के साथ 'डरे हुए लोग' लघुकथा में स्पष्ट किया है। यह लघुकथा निश्चित ही उनके निजी अनुभव पर आधारित है। इनकी कुछ लघुकथाओं  में सांप्रदायिक दंगों के कारण उसमें झुलसे हुए लोगों की मानसिकता का सूक्ष्म अंकन हुआ है। इस देश के अधिकांश घरों में महलो से लेकर झोपड़पट्टी तक सास-बहू की अनबन तथा इस कारण घर के प्रमुख में उत्पन्न तनाव देखा जा सकता है । अधिकांश लेखक इस अनुभव और तनाव को अनदेखा करते हैं। हालांकि वे खुद इसके भुक्तभोगी भी होते हैं। साहनी जी ने 'पेंडुलम' लघुकथा में बेटे की असहायता का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। 'मृत्युबोध' लघुकथा  भी  कुछ इसी तरह की है। इनकी अधिकांश लघुकथाओं  में परिवार ही केंद्र में है और यह आश्वस्त करने वाली घटना है; क्योंकि 99% प्रतिशत भारतीय पारिवारिक समस्याओं में ही फंसे हुए हैं। इस कारण उन्हें अनेक तनावो से गुजरना पड़ता है अर्थात् इस पारिवारिक जीवन में केवल दुखद क्षण ही नहीं है अपितु सुखद क्षण भी होते हैं । इन सबको अपनी लघुकथाओं  में  बटोरने का काम साहनी जी करते रहे हैं, इसलिए वे बधाई के पात्र हैं। यहां भाव और विचारों में अद्भुत समन्वय हुआ है। अपनी संवेदनाओं को उतने ही सक्षम शब्दों में वे पकड़ते हैं । पेंडुलम, मृत्युबोध, ठंडी रजाई,  दीवार, आधी दुनिया, इस प्रकार की उत्कृष्ट लघुकथाएं  हैं । साहनी जी की लघुकथाओं में राजनीतिक व्यंग भी भरा पड़ा है। 'प्रतिमाएं' लघुकथा इस प्रकार की  है।
साहनी की लघुकथाएं गागर में सागर भरने वाली है । इनकी लघुकथाओं के विषयों में विविधता है। उनके व्यक्तिगत अनुभव में से कुछ अनुभव अनुभूति में बदल जाते हैं, परिणामतः सघन अनुभूति और उसकी अत्यंत सार्थक संक्षिप्त शब्दों में अभिव्यक्ति इनकी लघुकथाओं  की विशेषता है। इन्हे अनेक बधाइयां तथा भविष्य के लेखन के लिए अनेक शुभकामनाएं।

श्री कमल चोपड़ा की कुल 23 लघुकथाएं इस संग्रह की उपलब्धि है । श्री कमल जी का व्यवसाय चिकित्सा का है । चिकित्सक  के रूप में रोज दर्जनों बीमार व्यक्तियों से उनका साबका पड़ता होगा। इस बहाने उनके सुख-दुखो से वे रूबरू होते होंगे। एक संवेदनशील मन उनके भीतर है ।लोगों के सुख-दुख, उनकी अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों को लेकर वे बेचैन हो जाते हैं । यह बेचैनी ही संवेदना का रूप धारण कर उनकी लघुकथाओं में व्यक्त  होने लगती है। कुल 23 लघुकथाओं  में से 18 लघुकथाएं अत्यंत प्रभाव पूर्ण हुई है। अपने वक्तव्य में उन्होंने लिखा है कि मेरी चिंता, व्यथा और आक्रोश शब्दों के माध्यम से संवेदना के स्तर पर रचना के रूप में कागज पर उतरी हैं। वे स्थितियां और अनुभूति यही मेरी प्रेरणा बनी ग। जो प्रस्थापित व्यवस्था है उसमें जो मूल्यहीनता  और संवेदन शून्यता आ रही है उसका प्रतिरोध तो जरूरी है ।कमल जी के शब्दों में रचनाकार के प्रतिरोध का माध्यम जाहिर है उसकी रचना ही हो सकती है। मेरी मूल चिंता है मनुष्य और उसके शोषण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करना और अपना विरोध दर्ज करना। इस लक्ष्य में उन्हें 100% सफलता मिली है। प्रमाण है संकलन में संकलित उनकी ये लघुकथाएं।
सांप्रदायिक दंगों को लेकर एक निष्पक्ष  सिख बच्चे की भोली-भाली प्रतिक्रिया छोनू में, एक मजदूर की महीने भर की कमाई को लूटने वाले लुटेरे या 100% ब्याज वसूलने वाले सेठ जी को 'है कोई में 'वे पूरी ताकत के साथ प्रस्तुत करते हैं ।तथाकथित पढ़े लिखे लोग धर्म और जाति के कटघरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते है वहीं एक छोटी -सी लड़की विशुद्ध मानवीयता के स्तर पर जाकर किस प्रकार निर्णय लेती है इसे' बताया गया रास्ता' में वे प्रस्तुत करते हैं। पुरुष सत्ताक व्यवस्था की शिकार एक सास  कैसे एक युवा स्त्री के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रही है इसे 'निशानी 'लघुकथा में मार्मिकता से व्यक्त करते हैं । पुरुष सत्ताक व्यवस्था की शिकार स्त्री का पाठकों को बेचैन करने वाला चित्रण वे कैद बा मशक्कत में पूरी तटस्थता के साथ करते हैं । वैल्यू  विश, इच्छा, इतनी दूर, मेरा खून, एक उसका होना, मंडी में रामदीन, कल में शामिल, प्लान, मलबे के ऊपर, लिव इन, छिपे हुए लघुकथाओं में मनुष्य की प्रवतियो को प्रस्तुत करते हैं ।इन लघुकथाओं में आज की तेजी से बदलती सामाजिक संरचना और उससे मनुष्य मन में होने वाली उथल-पुथल को प्रस्तुत करते हैं। इनके अधिकांश लघुकथाओं में पुरूष सत्ताक व्यवस्था में पूरी तरह से पराजित प्रताड़ित ऐसी कसमसाती स्री के दर्शन होते हैं ।इनमें से अधिकांश लघुकथाओं में उपन्यासिका तत्व  भी नजर आते हैं ।मुझे कहना क्या है ,इसके प्रति वे बहुत स्पष्ट हैं। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह कर जाते हैं। इन रचनाओं के माध्यम से वे पाठक के भीतर उसी बेचैनी और चिंता का निर्माण करते हैं जो उनके भीतर भी है ।एक रचनाकार की इससे बढ़कर और क्या उपलब्धि हो सकती है? उन्हें बधाइयां और भविष्य के लेखन के प्रति अनेक शुभकामनाएं।

श्री माधव नागदा विज्ञान के प्राध्यापक रहे । आप सेवामुक्त हैं । राजस्थान के निवासी हैं । इनकी कुल 25 लघुकथाएं इस संग्रह में है । उनके अनुसार, लघुकथा में अभिव्यक्ति की असीम संभावनाएं हैं। उनका यह वक्तव्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि लघुकथा की जान छोटी होती है, रूप भी छोटा है। इस कारण उसमें अभिव्यक्ति की सीमाएं आ सकती हैं, ऐसी एक समझ है। इस समझ के विपरीत माधव नागदा की स्थापना है। शब्दों के चयन को लेकर भी  उनकी सोच अलग है। वे लिखते हैं, आज रचनाकार के लिए इस सत्य को भुला देना खतरनाक हो सकता है कि जो शब्द वह इस्तेमाल कर रहा है वह एक लंबी परंपरा से छनकर उस तक पहुंचा है ।अब ऐसे शब्द को उसे एक नया अर्थ देना है । उसके सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है। उनके अनुसार लघुकथा एक ऐसी विधा है जो लोकप्रिय भी है और मनुष्य की चेतना को प्रभावित भी करती है।
'कुण सी जात बताऊ' मे एक पनिहारीन अपने दैनंदिन जीवन के अनेक उदाहरण देकर जाति की निरर्थकता को स्पष्ट करती है। उसके तर्क लाजवाब है ।उलझन में शताब्दिया इस  लघुकथा में पुरुष सत्ताक  व्यवस्था से प्रश्न पूछने वाली छोटी सी बेटी है ।यहां का प्रशासन तो ईश्वर को तक  सवर्ण की कोटि  में रख रहा है। और इस ईश्वर का संरक्षक बनने की इच्छा रखने वाला भील एस टी में आता है। प्रशासन के अनुसार भील एसटी वर्ग का है जबकि भगवान कानूनन सवर्ण है। एसटी की जमीन सवर्ण खरीद नहीं सकता। इस  भील को मंदिर में प्रवेश भी नहीं है। वर्ण व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य करने वाली यह लघुकथा  ( क्या समझे )है ।वह चली क्यों गई में  केवल भौतिक वस्तुओं से मनुष्य सुखी रह नहीं सकता मनुष्य को मनुष्य की जरूरत होती है इसको वे इस लघुकथा में रेखांकित करते हैं। शहर में रामलीला में वे मूल रामायण में आए एक प्रश्न की विडंबना को प्रस्तुत करते हैं ।मां बनाम मां में पति की मां और अपनी मां के साथ के आचरण में स्री
का जो पक्षपातपूर्ण आचरण होता है उसका पर्दाफाश किया गया है। और एक पति  खूबसूरती से इस पर मार्ग निकालता है इसका मजेदार अंत इस लघुकथा की विशेषता है। ऋण मुक्ति लघुकथा से मै अधिक प्रभावित रहा ।क्योंकि वर्षों से मै यह कहते और लिखते आ रहा हूं कि प्रत्येक पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के साथ वैसा ही आचरण करेगी जैसा आचरण पिछली पीढ़ी ने अपनी   पिछली पीढ़ी  के साथ किया था। असर लघुकथा में घर के संस्कारों की ओर इशारा किया गया है। धरती के बेटे में  सच्चे किसान की विशेषता को बतलाया  गया है। कारपोरेट, अपना अपना आकाश, गाय नहीं काऊ, मेरी बारी लघु कथाओं में कारपोरेट जगत की संवेदनशीलता को, मनुष्य की कथनी करनी के अंतर को, अंग्रेजी के प्रति तथाकथित ऊंचे अधिकारियों के परिवारों में स्थित मोह को, मेरी बारी में वैश्वीकरण के दूसरे अंधकार पूर्ण पक्ष को प्रस्तुत किया गया है। सरकारी प्रशासन के क्षेत्र में जो भयंकर भ्रष्टाचार है।पर वहां भी कुछ लोग अभी भी किस प्रकार ईमानदारी से काम कर रहे हैं इसे मांजना और बिग बॉस लोककथा में प्रस्तुत किया गया है।
कुल मिलाकर माधव नागदा की लघु कथाएं जीवन के अधकार और उज्जवल दोनों पक्षों को उतनी ही ताकत के साथ प्रस्तुत करते हैं।इधर अधिकांश रचनाओं में जीवन की विडंबना ओं को उसके नकारात्मक पहलुओं को ही प्रस्तुत किया जा रहा है ,ऐसे में माधव नागदा अपनी कुछ लघुकथाओं  में ऐसे चरित्रों को प्रस्तुत करते हैं जो आज भी कुछ मूल्यों को बनाए रखने के लिए अपनी जगह पूरी शिद्दत के साथ जूझ रहे हैं। इसकी कीमत भी वे चुकता रहे हैं ।वे उपेक्षित हैं, अपमानित हैं, फिर भी वे गलत बातों के प्रवाह में बह नहीं रहे हैं ।भयानक  ऐसे रेगिस्तान में उनकी उपस्थिति ओएसिस की तरह है ।यह लघुकथाएं जीवन के प्रति हमारी आस्था को बढ़ाती है। इसलिए मैं माधव नागदा का विशेष अभिनंदन करता हूं ।उनसे इस प्रकार की और भी लघु कथाओं की उम्मीद करता हूं।
अन्य लघुकथाओं  की तुलना में श्री चंद्रेश कुमार चलानी और दीपक मशाल काफी युवा हैं। इन 2 युवाओं की इस संकलन में उपस्थिति इस बात को प्रमाणित करती है कि श्री अशोक भाटिया जी इस संकलन को एक विशिष्ट पीढ़ी तक सीमित नहीं करना चाहते। अपितु वे लघुकथा लेखन में नई पीढ़ी क्या कर रही है इसे भी बतलाना  चाहते है। इसलिए श्री अशोक जी का मैं विशेष अभिनंदन करना चाहूंगा।
श्री चंद्रशेखर छतलानी कंप्यूटर विज्ञान में पीएचडी कर चुके हैं ।उदयपुर राजस्थान में रहते हैं। इनकी कुल 17 लघु कथाएं यहां दी गई है। उनके अनुसार सामाजिक बदलाव के प्रति अगर लेखकों को प्रतिबद्ध होना है तो लघुकथा एक उचित माध्यम है ।इतिहास गवाह है, विधवा  धरती,इंसान जिंदा है, धर्म प्रदूषण इन तीन लघु कथाओं में सांप्रदायिकता और मनुष्यता के बीच के संघर्ष को कथ्य के रूप में स्वीकारा  गया है। इनकी लघु कथाओं में विचार प्रबल हैं। सं वेदना गौण है ।तो उम्मीद लघुकथा में सवर्ण मानसिकता को तथा दलितों की असहायता को व्यक्त किया गया है ।मुआवजा में सवर्ण मानसिकता की पाखंडी वृति पर चोट की गई है ।ममता लोककथा में एक स्वर्ण स्त्री की संवेदनशीलता को ,उसकी बदली मानसिकता को, उस में उभरे मानवीय मूल्यों को अंकित किया गया है ।जानवरीयत, सिर्फ चाय, दायित्वबोध ,अपरिपक्व लघु कथाओं में विचार की अपेक्षा संवेदना की प्रमुखता है। इन की लघुकथाएं  बहुत प्रभावपूर्ण नहीं बन पाई हैं। संभवत इस विधा में उनका यह आरंभिक कदम है। इसी कारण इनके लेखन में काफी अपरिपक्वता  है ।इस क्षेत्र में इन्हें काफी मेहनत करनी होगी।
दीपक मशाल की 24 लोक कथाएं यहां हैं। ये और लक्ष्मण जी दोनों एक ही आयु के हैं ।अर्थात् नई पीढ़ी के हैं। जैव प्रौद्योगिकी में आपने विदेश के यूके से पीएचडी की है। यह अमेरिका निवासी हैं ।आप्रवासी भारतीय हैं। इसी कारण इनकी कुछ लघुकथाए   विदेशी परिवेश की है ।उन्हें इस बात का एहसास है कि अच्छे लेखन हेतु निरंतर अच्छे साहित्य के अध्ययन से बेहतर कोई दूसरा उपाय नहीं है ।उनके अनुसार लघुकथाए उपदेश देने वाली ना होकुछ सिखाने के लिए  जबरन संदेश न देती हो। सिर्फ संकेत भर काफी होता है। मतलब लघुक था की प्रकृति से वे भलीभांति परिचित हैं। सोच लघुकथा में स्त्री पुरुषों की सोच में स्थित गुणात्मक अंतर को बहुत खूबसूरती के साथ पेश किया गया है। दो सहेलियां अपने अपने भाइयों के स्वभाव या सौंदर्य को लेकर जब बोलती हैं तब वे बुरा नहीं मानती ।उल्टे अपने भाई की तारीफ सुनकर उन्हें अच्छा लगता है। परंतु दो दोस्त एक दूसरे की बहन के सौंदर्य को लेकर अगर बोलेंगे तो दोनों में मारपीट शुरू हो जाती है ।बेचैनी और पानी लघु कथाओं में मनुष्य  की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है ।भाषा और कद्र लघुकथा में विदेशी परिवेश है। यहां भी मनुष्य की विभिन्न प्रवृत्तियों का पर्दाफाशहै। रेजर के ब्लेड में बदलते खून के रिश्ते का पर्दाफाश किया गया है। जंगल का कानून प्रतीकात्मक लघुकथा है । खरगोश के माध्यम से इस देश के आम आदमी के साथ व्यवस्था जिस संवेदन शून्यता के साथ कानून की ओट में क्रूरता का व्यवहार करती है उसे उद्घाटित किया गया है। इनकी अधिकांश लघुकथाओं में व्यवस्था की असंवेदनशीलता व्यक्त होती है। कभी घटनाओं के माध्यम से ,कभी प्रतीकों के माध्यम से, तो कभी पारिवारिक जीवन के माध्यम से। इन की लघुकथाएं नई पीढ़ी के लघुकथा लेखन से आश्वस्त होने का संदेश देती है। मैं इनके भविष्य के लेखन के प्रति एक शुभकामनाएं देता हूं।
संपादक श्री अशोक भाटिया के लेखन और संपादन को लेकर मैं अपनी प्रतिक्रिया यहाँ-वहाँ दे चुका हूं । इस संकलन के प्रति मेरी एक शिकायत है कि इसमें एक भी लघुकथा लेखिका नहीं है। हिंदी की अन्य विधाओं में स्त्रियां खूब लिख रही हैं और बहुत स्तरीय लिख रही हैं । उनके पास तो अनुभव का खजाना है। और स्त्रियां यू भी बातचीत में तेजतर्रार होती ही है। लघुकथा लेखन उनकी प्रकृति के निकट की विधा है। हो सकता है वे इस विधा में लिख भी रही हो। मैं हिंदी प्रदेश से काफी दूर हूं । मेरे पास जो 10-15 हिंदी पत्रिकाएं आती है, उनमें जो थोड़ी-बहुत लघुकथाएं  छपती भी है तो अपवाद रूप में ही लेखिकाएं  होती हैं । श्री अशोक भाटिया तो नई प्रतिभाओं को एक मंच उपस्थित करके दे रहे हैं। मैं उनसे उम्मीद करता हूं कि भविष्य में अगर किसी लघुकथा संग्रह का संपादन कर रहे हो तो उसमें प्रतिभा संपन्न लेखिकाओं को भी जगह वे दें अर्थात वह केवल महिला है इसलिए नहीं,  उनकी रचनाएं स्तरीय हो तो ही।
फिर से एक बार संपादक श्री अशोक भाटिया जी को तथा संकलन में जिनकी लघुकथाएं है उन सब लेखकों को बधाई देता हूं । प्रकाशक को भी मैं बधाई देना चाहता हूं । अत्यंत आकर्षक रूप में बिना किसी गलती के शुद्ध रूप में यह पुस्तक प्रकाशित है। मुखपृष्ठ आकर्षक है। इसलिए  उन्हे भी बधाई। इन सभी लेखकों के भविष्य के लेखन के प्रति अनेक शुभकामनाएं।

पुस्तक:  कथा समय   दस्तावेजी लघुकथाएं ; संपादन श्री अशोक भाटिया;
प्रकाशक   : अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नंबर 1ई , वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
द्वितीय संस्करण : 2020 ; मूल्य : ₹ 300/-

Monday, 23 November 2020

लघुकथा : साहित्य के आकाश पर/कमलेश भारतीय

सन् 1974 के बाद फिर मैदान में भगीरथ परिहार-नये लघुकथा संग्रह मैदान से वितान की ओर । सन् 1974 में संपादित संग्रह दिया था--गुफाओं से मैदान की ओर । इतने सालों बाद मैदान से वितान की ओर । दोनों नाम बहुत सार्थक । पहले गुफा काल था लघुकथा का । अब लघुकथा साहित्य के आकाश पर पहुंच चुकी है । सभी विधाओं के बीच अपना आकाश पा चुकी है । हालांकि यह शीर्षक बलराम अग्रवाल ने दिया है पर सोच विचार सांझी रही । 

आधुनिकता के बोध और अपने समय की युग चेतना से युक्त माना और कहा है बलराम अग्रवाल ने लघुकथा को  । यह बहुत आसान विधा भी नहीं , जैसे कि इसके लघु आकार को देख कर नये लेखक उछल पड़ते हैं । इसमें सकारात्मक मानवीय दृष्टि होना भी बहुत जरूरी है । इस संकलन में 115 लघुकथाएं संकलित हैं जो ज़िंदगी की बुनियादी  सच्चाइयों से टकराती हैं । हमारा सामना करवाती हैं । यह भूमिका में कहा बलराम अग्रवाल ने । 

भगीरथ परिहार का चयन का आधार कि जब जब कोई लघुकथा पसंद आई वे इसे अलग से रखते गये और इस  पसंद में मेरी लघुकथा किसान भी शामिल । मेरे लिए खुशी की बात । पर इतने दिन इस संग्रह को मिले हो गये । मैं सुबह सवेरे उठकर इनको पढ़ता और आनंद के साथ साथ लघुकथा की यात्रा को जानता रहा । बहुत अलग लघुकथाएं हैं । कुछ लघुकथाएं अपनी धर्मपत्नी को जगा जगा कर सुनाईं और वह जल्दी जगाने से नाराजगी भूल गयी । सचमुच हेमंत राणा की दो टिकट एक अलग तरह की प्रेम कथा है । अरूण कुमार की स्कूल हमारी आधुनिक शिक्षा पर चोट करती है । अंजना अनिल हो या अंतरा करवड़े , अपराजिता अनामिका, अर्चना तिवारी, चंद्रेश कुमार छतलानी, चित्रा मुद्गल, चित्रा राणा राघव , चैतन्य त्रिवेदी, सुरेंद्र मंथन , सुकेश साहनी , बलराम अग्रवाल कितने नये पुराने रचनाकारों ने अलग से कहा और अपनी बात पाठक तक पहुंचाने में सफल रहे । बहुत सार्थक लघुकथा संग्रह । साबित कर दिया कि लघुकथा आकाश क्यों छू रही है । 

बहुत बहुत बधाई भगीरथ और बलराम अग्रवाल ।

Monday, 9 November 2020

दीपावली पर कमलेश भारतीय की लघुकथाएं

#और मैं नाम लिख देता हूं 

दीवाली से एक सप्ताह पहले अहोई माता का त्योहार आता है । 

तब तब मुझे दादी मां जरूर याद आती हैं । परिवार में मेरी लिखावट दूसरे भाई बहनों से कुछ ठीक मानी जाती थी । इसलिए अहोई माता के चित्र  बनाने व इसके साथ परिवारजनों के नाम लिखने का जिम्मा मेरा लगाया जाता।

दादी मां एक निर्देशिका की तरह मेरे पास बैठ जातीं । और मैं अलग अलग रंगों में अहोई माता का चित्र रंग डालता । फिर दादी मां एक कलम लेकर मेरे पास आतीं और नाम लिखवाने लगतीं । वे बुआ का नाम लिखने को कहतीं । 

मैं सवाल करता - दादी, बुआ तो जालंधर रहती है । 

- तो क्या हुआ ?  है तो इसी घर की बेटी । 

फिर वे चाचा का नाम बोलतीं । मैं फिर बाल सुलभ स्वभाव से कह देता - दादी... चाचा तो...

- हां , हां । चाचा तेरे मद्रास में हैं । 

- अरे बुद्धू । वे इसी घर में तो लौटेंगे । छुट्टियों में जब आएंगे तब अहोई माता के पास अपना नाम नहीं देखेंगे ? अहोई माता बनाते ही इसलिए हैं कि सबका मंगल , सबका भला मांगते हैं । इसी बहाने दूर दराज बैठे बच्चों को माएं याद कर लेती हैं । 

बरसों बीत गए । इस बात को । अब दादी मां रही नहीं । 

जब अहोई बनाता हूं तब सिर्फ अपने ही नहीं सब भाइयों के नाम लिखता हूं । हालांकि वे अलग अलग होकर दूर दराज शहरों में बसे हुए हैं । कभी आते जाते भी नहीं । फिर भी दीवाली पर एक उम्मीद बनी रहती है कि वे आएंगे। 

...और मैं नाम लिख देता हूं । 


#परदेसी पाखी 

-ऐ भाई साहब,  जरा हमार चिट्ठिया लिख देवें...

-हां , लाओ , कहो , क्या लिखूं ? 

-लिखें कि अबकि दीवाली पे भी घर नाहिं आ पाएंगे ।

-हूं । आगे बोलो ।

-आगे लिखें कि हमार तबीयत कछु ठीक नाहिं रहत । इहां का पौन-पानी सूट नाहिं किया । 

-बाबू साहब । इसे काट देवें । 

-क्यों ? 

-जोरू पढ़ि  के उदास होइ जावेगी। 

- और क्या लिखूं ? 

- दीवाली त्यौहार की बाबत रुपिया पैसे का बंदोबस्त करि मनीआर्डर भेज दिया है । बच्चों को मिठाई पटाखे ले देना और साड़ी पुरानी से ही काम चलाना । नयी साड़ी के लिए जुगत करि रह्या हूं । 

-हूं । 

-काम धंधा मिल जाता है । थोड़ा बहुत लोगन से पहिचान बढ़ गयी है । बड़के को इदर ई बुला लूंगा ।  दोनों काम पे लग गये तो तुम सबको ले आऊंगा । दूसरों के खेतों में मजूरी से बेपत होने का डर रहता है । अखबार सुनि के भय उपजता है । इहां चार घरों का चौका बर्तन नजरों के सामने तो होगा । नाहिं लिखना बाबूजी । अच्छा नाहिं लगत है ।

-क्यों ? 

-जोरू ने क्या सुख भोगा ? 

- और तुमने ? 

- ऐसे ई कट जाएगी जिंदगानी हमार । लिख दें सब राजी खुशी । थोडा लिखा बहुत समझना । सबको राम राम । सबका अपना मटरू। पढने वाले को सलाम बोलना । 


#चौराहे का दीया 

दंगों से भरा अखबार मेरे हाथ में है पर नजरें खबरों से कहीं दूर अतीत में खोई हुई हैं । 

इधर मुंह से लार टपकती उधर दादी मां के आदेश जान खाए रहते । दीवाली के दिन सुबह से घर में लाए गये मिठाई के डिब्बे और फलों के टोकरे मानों हमें चिढ़ा रहे होते । शाम तक उनकी महक हमें तड़पा डालतीं । पर दादी मां हमारा उत्साह सोख डालतीं,  यह कहते हुए कि पूजा से पहले कुछ नहीं मिलेगा । चाहे रोओ, चाहे हंसो । 

हम जीभ पर ताले लगाए पूजा का इंतजार करते पर पूजा खत्म होते ही दादी मां एक थाली में मिट्टी के कई  दीयों में सरसों का तेल डालकर जब हमें समझाने लगती - यह दीया मंदिर में जलाना है , यह दीया गुरुद्वारे में और एक दीया चौराहे पर...

और हम ऊब जाते । ठीक है , ठीक है कहकर जाने की जल्दबाजी मचाने लगते । हमें लौट कर आने वाले फल , मिठाइयां लुभा ललचा रहे होते । तिस पर दादी मां की व्याख्याएं खत्म होने का नाम न लेतीं । वे किसी जिद्दी ,प्रश्न सनकी अध्यापिका की तरह हमसे प्रश्न पर प्रश्न करतीं कहने लगतीं - सिर्फ दीये जलाने से क्या होगा ? समझ में भी आया कुछ ? 

हम नालायक बच्चों की तरह हार मान लेते । और आग्रह करते - दादी मां । आप ही बताइए । 

- ये दीये इसलिए जलाए जाते हैं ताकि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे से एक सी रोशनी , एक सा ज्ञान हासिल कर सको। सभी धर्मों में विश्वास रखो । 

- और चौराहे का दीया किसलिए , दादी मां ? 

हम खीज कर पूछ लेते । उस दीये को जलाना हमें बेकार का सिरदर्द लगता । जरा सी हवा के झोंके से ही तो बुझ जाएगा । कोई ठोकर मार कर तोड़ डालेगा । 

दादी मां जरा विचलित न होतीं । मुस्कुराती हुई समझाती... 

- मेरे प्यारे बच्चो । चौराहे का दीया सबसे ज्यादा जरूरी है। इससे भटकने वाले मुसाफिरों को मंजिल मिल सकती है। मंदिर गुरुद्वारे  को जोड़ने वाली एक ही ज्योति की पहचान भी । 

तब हमे बच्चे थे और उन अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ। नगर आज हमें उसी चौराहे के दीये की खोजकर रहे हैं , जो हमें इस घोर अंधकार में भी रास्ता दिखा दे ।

मोबाइल : 9416047075