Wednesday, 7 October 2020

समीक्षा की सान पर लघुकथा-6 / डॉ॰ शील कौशिक

 दिनांक 08-10-2020 से आगे

 

समीक्षा की सान और लघुकथा-6

 

6ठी समापन कड़ी

 

9.  फैंटसी शैली

       

फैंटसी एक प्रकार की कल्पना है जो वास्तव में घटित नहीं होती परंतु लघुकथा में नवीनता का भाव लगती है और लघुकथा को उद्देश्य तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण रोल अदा करती है। खलील जिब्रान की लघुकथाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं। भारत में फेंटेसी पर बहुत कम लघुकथाएं लिखी गई हैं। कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैंसुकेश साहनी की 'गोश्त की गंध' समाज में परंपरागत बिगड़ैल दामादों की खबर लेती है। जगदीश कश्यप की 'भूख',  चित्रा राणा राघव की 'डंपयार्ड', मधुदीप की 'दौड़' 'रात की परछाइयां' फेंटेसी टच लिए हुए हैं।

10.  डायरी शैली

      इस शैली का बहुत कम लेखकों ने प्रयोग किया है। दरअसल डायरी लेखन में लेखक अपने वैयक्तिक चिंतन की अवधारणा को व्यापक संदर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है, जो कि समय- सापेक्ष होता है। इस संदर्भ में सुकेश साहनी की 'बॉलीवुड डेज़' लघुकथा है।

11. नाट्य शैली

      अलग-अलग दृश्यांकन  व संवाद अदायगी हो सकना, नाट्य शैली लघुकथाओं की पहली शर्त है। मधुदीप की 'समय का पहिया घूम रहा है', व वीणा वत्सल सिंह की 'शादी' लघुकथाएं नाट्य शैली की बेहतरीन लघुकथाएं हैं।  वीणा वत्सल की लघुकथा शादी में दो दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं और एक रोचक व नया मोड़ लघुकथा को पठनीय बनाता है। मधुदीप की 'समय का पहिया' नाट्य शैली में लिखी शायद पहली लघुकथा है। चारों दृश्यों में एक कथा चलती है जो शुरू होती है मुगल काल से और समाप्त होती है संसद भवन पर। लघुकथा का स्पष्ट संदेश है कि जिस तरह कभी विदेशियों को भारत में व्यापार करने की अनुमति दी गई और उन्होंने भारत पर कई वर्षों तक राज किया, उसी तरह की स्थिति कहीं फिर से उत्पन्न न हो जाए। इसे प्रयोगात्मक लघुकथा की श्रेणी में रखा जाना अनुकूल है।

12.  पद्य शैली

 कविता को लघुकथा का अभिन्न अंग मानकर, भाषा में काव्यात्मक व्यवहार के प्रयोग से लघुकथाएं लिखी गई हैं। चैतन्य त्रिवेदी, मुकेश वर्मा व संध्या तिवारी की 'कविता' लघुकथा में यह प्रयोग देखा जा सकता है। 'कविता' लघुकथा में वर्षों से चली आ रही भेदभाव की नारी-पीड़ा को कविता के पंक्तियों में बखूबी उकेरा है-- "मैं मुख्य द्वार के सांकल/ सबकी सुविधा और सुरक्षा के लिए खुलती और बंद होती हूं/ मैं समूचा घर हूं/ बस घर की नेम प्लेट नहीं।"  इस लघुकथा के प्रकाश में कहा जा सकता है कि सक्षम लघुकथाकार अपने अनुभवों के सापेक्ष और चिंतन में सूक्ष्मता व परिपक्वता को काव्यात्मक लघुकथा में सफल अभिव्यक्ति दे सकता है। कविता के प्रयोग से लघुकथा के लोच व सौंदर्य में नि:संदेह वृद्धि होगी और वह सपाटबयानी से बच पाएगी।

13. लोककथात्मक या पंचतंत्र शैली

    लोककथाएं सामान्य लोकजीवन पर आधारित होती हैं और ये लोक के अनुभवों, संवेदनाओं और भाव सारणियों से गुजर कर सर्वस्वीकृत रूप में हमारे सामने आती हैं। कुछ प्रयोगधर्मी लघुकथाकारों ने इन लोककथाओं का सहारा लेकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लघुकथाएं लिखी हैं जो लोकथात्मक शैली में हैं। डॉ. अशोक भाटिया की 'अखबार' पंचतंत्र शैली में लिखी हुई आद्यंत प्रतीक कथा है।

14.  प्रतीकात्मक शैली

       कई बार जहां अनेक शब्द और वाक्य लघुकथा के मर्म को प्रकट नहीं कर पाते वहां प्रतीक के प्रयोग से लघुकथा अत्यंत प्रभावशाली बन जाती है। लघुकथा के शीर्षक और निर्वाह दोनों स्तरों पर प्रतीकों का सटीक प्रयोग हो रहा है। रमेश बत्रा की 'सूअर',  जगदीप कश्यप की 'ब्लैक हॉर्स',  शिवनारायण की 'जहर के खिलाफ' आदि प्रतीकात्मक शैली की लघुकथाएं हैं।

15. तुलनात्मक शैली

      इसमें किन्हीं दो प्रसंगों, दो स्थितियों या दो युगों की तुलना करके लघुकथा का ताना-बाना बुना जाता है। पृथ्वीराज अरोड़ा की 'दया' लघुकथा में इस शैली का सजीव उदाहरण है। शिक्षा पद्धति के खोखलेपन व तर्कहीनता को उजागर करती इस लघुकथा में एक राजा और  एक आम आदमी का दृष्टिकोण दयाभाव को लेकर अलग है।

      समग्रत: अधिकतर लघुकथाओं को वर्णनात्मक और समाज शैली की दरकार रहती है। व्यंग्यात्मक, संवाद और प्रतीक शैलियां लघुकथा के आभामंडल को द्विगुणित करती हैं। उपरोक्त वर्णित अन्य शैलियों के लिए भी विकल्प खुले रहने चाहिए ताकि लघुकथा को विकास के पंख मिल सकें। प्रयोगों से ही परंपरागत जमीन टूटती है।

समापन बिंदु या अंत

    लघुकथा के अंत को आजकल पंच लाइन भी कहते हैं। सातवें, आठवें दशक या इससे पूर्व की लघुकथाओं का अंत व्यंग्यीय होता था परंतु अब यह जरूरी नहीं। लघुकथा का अंत ऐसा होना चाहिए कि वह पाठक को निशब्द कर देवह रो पड़े या कह उठे मुझे मिल गया रास्ताफैसला कर ले कि उसे अब क्या करना है। ऐसी कचोट पैदा करें कि वह चैन से न बैठ सके। उसे अगला-पिछला एक पल में सब याद आ जाए... उसके मर्मस्थल पर चोट करे... करंट की तरह झटका दे... जागरूक करे।

लघुकथा का अंत क्योंकि लघुकथा का चरमोत्कर्ष होता है इसीलिए उसे किसी हाल में उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता। कुछ लघुकथाओं के अंत यहां दृष्टव्य हैं---युगल की 'डूबते लोग' के अंतिम पंक्तियों में यहां एक और घनीभूत पीड़ा है वहीं परिवार को बचाने की का हौसला भी है। जरा देखिए--"इस तरह घबराओगे तो...मैं मर तो नहीं गई हूं। वैसे जीने के लिए जाने कितनी बार मरना पड़ता है।“ इसी तरह डॉ बलराम अग्रवाल की 'बिना नाल का घोड़ा' की अंतिम पंक्तियों में शहरी जीवन की घुटन इस तरह व्यक्त होती है"हंटरों और चाबुकों के बल पर अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोके ही घोड़ों को घिसे जा रहे हैं...।‘ यह कहते हुए अपने दोनों पैर चादर से निकाल कर उसने मां के आगे फैला दिए, " लो देख लो।"

चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा 'खुलता बंद घर' रचनात्मक कौशल का बेहतरीन उदाहरण है और इसकी अंतिम पंक्तियां मन के तार झंकृत कर देती हैं, " घर जो घर के भीतर नहीं पाया मैंने, वही घर दरवाजे के आस-पास बिखरा पड़ा था। चाबी मिल नहीं रही थी, लेकिन घर खुलता जा रहा था।"

     आधुनिक हिंदी लघुकथा के समीक्षा-बिंदुओं के संदर्भ में प्रस्तुत उपरोक्त अध्ययन, विश्लेषण एवं मनन के उपरांत कहा जा सकता है कि जैसे सभी उंगलियों से मिलकर एक ताकतवर मुट्ठी बनती है वैसे ही उपरोक्त वर्णित समीक्षा-बिंदुओं को संगठित करके संपूर्ण व सशक्त लघुकथा शास्त्र बनाया जा सकता है। यह इतना समृद्ध और विश्वसनीय होना चाहिए कि जिसे साहित्य के अन्य सिद्धांतों की कसौटी पर भी परखा जा सके। समीक्षा/आलोचना के जल में नित नई हिलोरें उठती रहनी चाहिएं ताकि धाराएं निर्मित हों और नई फसलों को पानी मिलता रहे। यह तय है कि जिस विधा की आलोचना पद्धति जितनी अधिक समृद्ध होगी, विधा उतनी ही ऊंचाइयों को छुएगी। यहां यह भी नितांत आवश्यक है कि यह परंपरागत शास्त्र न होकर, ऐसा लचीला, तर्कसम्मत और उपयोगी हो, जो प्रत्येक समीक्षक व लघुकथाकार की कसौटी पर खरा उतरे, तभी लघुकथा के विकास को नए आयाम मिल पाएंगे। यहां समीक्षा-बिंदुओं को किसी पर लादने का अभिप्राय भी नहीं है और न ही फार्मूलाबद्ध लेखन को प्रोत्साहित करने का मंतव्य बल्कि वैचारिक कूपमंडूकता से अलहदा स्वतंत्र चिंतन को आगे बढ़ाना है।

         प्रयोगधर्मी लघुकथाकार लघुकथा को एक औजार की तरह प्रयोग कर रहे हैं जिससे जीवन दृष्टि भी मिल रही है और दिशा भी। नए-नए प्रयोग किसी विधा की सजगता के द्योतक होते हैंउसमें ताजगी लाते हैं, उसमें प्राण फूंकते हैं तथा उसे बहुआयामी आधार देते हैं। लघुकथाकारों की मौलिक उदभावना और नवीन नजरिए का ही प्रतिफलन है कि लघुकथा सृजन की चक्की में अनेक स्रोत होते हुए भी चक्की से बाहर आए मसालों में प्रत्येक लघुकथाकार की अपनी महक होती है।

लेखक अपनी ग्रहणशीलता में पूर्वाग्रह की सांकल न लगाए, परंतु हद दर्जे की अराजकता भी बर्दाश्त के बाहर है। अराजकता को रोकने के लिए ही लघुकथा नियमन या सिद्धांतों या समीक्षा-बिंदुओं की जरूरत है जिसके इर्द-गिर्द परिक्रमा करके लघुकथाकार अपनी रचना को परख सकें।

         

संदर्भ

1. मधुदीप (संपादक); पड़ाव और  पड़ताल खंड 1, 2 , 26, 27

2. डॉ अशोक भाटिया; समकालीन हिंदी लघुकथा (लघुकथा आलोचना)

3.उलझते- सुलझते प्रश्न, प्रोफेसर रूप देवगुण 

4. मधुदीप; समय का पहिया (लघुकथा संग्रह)

5. बलराम अग्रवाल; पीले पंखों वाली तितलियाँ (लघुकथा संग्रह)

6. कपिल शास्त्री; जिंदगी की छलांग (लघुकथा संग्रह) 

7. डॉ बलराम अग्रवाल; हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान (लघुकथा आलोचना)

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