Monday, 21 September 2020

लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में…9 / डॉ॰ उमेश महादोषी

दिनांक 20-9-2020 से आगे

लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में आत्मिक और दैहिक अस्तित्व का तात्विक विवेचन

समापन कड़ी

 10. तार्किकता

विश्वसनीयता के साथ लघुकथा में तात्विक तार्किकता भी आवश्यक है। यह तार्किकता वैचारिक स्तर के साथ वातावरण, भाषा और प्रस्तुतीकरण में होनी चाहिए। भीषण गर्मी में किसी पात्र को अकारण आप कोट नहीं पहना सकते। एक अनपढ़ पात्र से सामान्य स्थिति में संस्कृतिनिष्ठ हिन्दी नहीं बुलवा सकते। मैंने इसी आलेख में वातावरण पर बात करते हुए अपनी रचना ‘उस खतरनाक मोड़ पर’ के जिस प्रसंग की चर्चा की है, उसे तार्किकता के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है।

      विमर्श से जुड़ी वैचारिक चीजें जब लघुकथा का हिस्सा बनती हैं, तो कई बार उनमें तार्किकता खण्डित होती दिखाई देती है। महिला विमर्श और दलित विमर्श के सन्दर्भ में प्रायः ‘‘तेरे दादा के दादा ने मेरे दादा के दादा का अपमान किया था इसलिए मुझे तेरा अपमान करने का अधिकार है’’ की तर्ज पर चीजों का समर्थन किया जाता है, जिसे तार्किक नहीं माना जा सकता। सृजनात्मक लेखन बेहद जिम्मेवारीपूर्ण कार्य होता है। किसी भी रूप में समाज में कटुता और वैमनस्यता को निरन्तरता प्रदान करने वाले चिंतन को रचनात्मक आधार पर तार्किक नहीं माना जा सकता।

 ग. कथा-सौंदर्य

     किसी भी रचना में सौंदर्य को विशिष्ट व्यवस्था-क्रम से जनित प्रभाव-सम्प्रेषण के रूप में समझा जाना चाहिए। यह व्यवस्था-क्रम केवल दैहिक तत्वों के संयोजन यानी शिल्प की बुनावट मात्र का नहीं होता, इसमें विधागत स्वभाव के निर्वाह के साथ वैचारिक एवं भावात्मक प्रवाह का संयोजन भी शामिल होता है। बहुत अच्छे शिल्प के बावजूद रचना सौंदर्यविहीन या कम सौंदर्यबोधक हो सकती है, यदि उसमें अविश्वसनीय, अतार्किक और कालातीत विचारों/भावों को समकालीन सन्दर्भ में अभिव्यक्त किया गया है। इसके विपरीत विश्वसनीय, तार्किक और समकालीनता से सम्पृक्त सकारात्मक विचारों/भावों से युक्त रचना भी सौंदर्यविहीन या कम सौंदर्यबोधक हो सकती है, यदि उसके शिल्प की सजावट उपयुक्त ढँग से नहीं की गई है। 

      लघुकथा में उसके कथा-सौंदर्य की नींव रचना की प्रेरणा यानी विषय और कथानक की परिकल्पना के लेखक की सृजनात्मक शक्ति के दायरे में आने के साथ ही पड़ जाती है। इसी के साथ चिंतनरत लेखक की सृजनात्मक शक्ति के दायरे में कथा-सृजन के तमाम वैचारिक और दैहिक तत्व एक कोलाज की तरह आकर स्थित हो जाते हैं। कथा-सृजन की प्रक्रिया में यह कोलाज रचनात्मक रूपाकार में बदलता है। लेखक अपने लेखकीय अनुभव और दक्षता से तमाम तत्वों के अनुक्रम को आवश्यकता और रचना-प्रक्रिया के अन्दर से उभरती माँग के अनुरूप व्यवस्थित करता है। इस प्रक्रिया में कथा-सौंदर्य स्वतः निर्मित होता है, लेखक अपनी सजगता और प्रयास से उसमें कुछ वृद्धि कर सकता है। लेकिन ऐसा तभी होगा जब लघुकथाकार कथा-सौंदर्य के प्रति रुचिवान एवं सजग होगा। यह निश्चित है कि रचना की आवश्यकता और आन्तरिक माँग से स्वतः निर्मित उसके रूपाकार में लेखक अपनी दक्षता और अनुभव से रचना के प्रभाव को बढ़ाने, पाठकों की सामान्य रुचि के अपने अनुमान और दूसरे उद्देश्यों के अनुरूप परिवर्तन अवश्य करता है। इस प्रयास में वह कथा-सौंदर्य में कितनी वृद्धि कर पाता है, यह उसकी सजगता और दक्षता के साथ व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर करेगा। 

    यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि रचना के परिवर्द्धन में लेखक का प्रयास और रचना में लेखकीय प्रवेश या हस्तक्षेप नितान्त अलग चीजें हैं। लेखकीय प्रवेश/हस्तक्षेप कथा-सौंदर्य का क्षरण करता है जबकि लेखक का प्रयास उसमें वृद्धि कर सकता है। लेखकीय प्रवेश/हस्तक्षेप में लेखक की इच्छा या मोह शामिल होता है और उसकी अदक्षता झलकती है। इसके विपरीत लेखक का प्रयास रचना के प्रभाव को बढ़ाने, विषय/समस्यात्मक स्थिति के प्रतिनिधित्व को सघन व प्रभावकारी बनाने, पाठकों/समीक्षकों की अभिरुचि पर विचार करने जैसी चीजों से प्रभावित होता है और उसमें दक्षता का उपयोग होता है।

      रचनात्मक विमर्श (महिला, दलित, वृद्धावस्था, साम्प्रदायिकता, प्रकृति आदि से जुड़े) की तार्किकता, लघुकथा के विधागत स्वभाव की समझ, रचनाकार का नवोन्मेषी चिंतन, दृष्टिगत सूक्ष्मता, सामयिकता और समकालीनता से सम्पृक्त संवेदनशीलता, सामयिक परिवर्तनों के परिणामों को शामिल करने के साथ बिम्बों-प्रतीकों के प्रयोग, नेपथ्य का उपयोग, संवादों की संक्षिप्तता एवं मारकता, घटनाओं का दृश्यांकन, नाटकीयता, शब्द-योजना आदि जैसी चीजों और उनके संयुक्त प्रभाव से कथा-सौंदर्य में वृद्धि हो सकती हैं। जहाँ तक कथा-सौंदर्य के लघुकथा में महत्व का प्रश्न है, निश्चित रूप से यह रचना के प्रति पाठक की अभिरुचि को बढ़ाता है।

      समीक्षा की दृष्टि से कथा-सौंदर्य की उपस्थिति, उसके सा्रेत और पाठक में रचना के प्रति अभिरुचि पैदा करने की क्षमता की पड़ताल की जानी चाहिए। रचना में कथा-सौंदर्य की शेष संभावनाओं की चर्चा भी हो सकती है। 

घ. शीर्षक : संगतता, प्रभाव और रचना के साथ संबंध

      शीर्षक किसी भी रचना की तरह लघुकथा में भी उसका प्रतिनिधि होता है। अन्य कथात्मक रचनाओं- उपन्यास एवं कहानी के सापेक्ष लघुकथा में शीर्षक से रचना का प्रभाव बढ़ाने और सम्प्रेषण में सहायक होने की भी अपेक्षा की जाती है। ऐसे में शीर्षक को लघुकथा के विषय और कथ्य के अनुरूप होने के साथ सुगठित और प्रतीकात्मकता से सम्पृक्त होना चाहिए। सामान्यतः शीर्षक को लघुकथा की दैहिक संरचना का अभिन्न हिस्सा माना जाता है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूँ। वास्तविकता यह है कि ‘शीर्षक’ ‘लघुकथा की पहचान’ का अभिन्न हिस्सा होता है, उसकी दैहिक संरचना का नहीं। यदि शीर्षक को लघुकथा की दैहिक संरचना का हिस्सा माना जायेगा तो रचना शीर्षक पर निर्भर हो सकती है। यह निर्भरता इतनी अधिक भी हो सकती है कि शीर्षक रचना की बैशाखी बन जाये। क्षणिका के अन्तर्गत लिखी गई अनेकानेक रचनाओं में मैंने यह चीज देखी है, कई लघुकथाओं में भी। ऐसी रचनाओं को पढ़कर कई बार ऐसा भी लगता है, जैसे शीर्षक की व्याख्या करने मात्र के लिए रचना लिखी गई हो। ऐसी रचनाएँ प्रभावशाली नहीं मानी जा सकतीं।

      एक उदाहरण के माध्यम से मैं अपनी बात को रखना चाहूँगा। एक कागज, जिस पर एक लघुकथा छपी हुई है, रद्दी बनकर किसी समोसे वाले के पास पहुँच जाती है। वह समोसे वाला उस पर समोसा रखकर मुझे दे देता है। समोसा खाते हुए मेरी दृष्टि लघुकथा के शब्दों पर पड़ती है। मैं पूरी लघुकथा पढ़ जाता हूँ, लेकिन वह कागज इस तरह फटा हुआ है कि लघुकथा का शीर्षक रचना से विलग हो चुका है। मेरे हाथ में रचना है, उसका शीर्षक नहीं। रचना इस प्रकार लिखी गई है कि शीर्षक के अभाव में समझी नहीं जा सकती। क्या यह स्थिति ठीक है?

      शीर्षक लघुकथा की पहचान बने, उसके बारे में जिज्ञासा जगाये, यहाँ तक ठीक है। लेकिन शीर्षक के बिना भी लघुकथा समझ में आनी चाहिए। शीर्षक को लघुकथा की बैशाखी बनाना रचनागत कमजोरी ही होगा।

ङ. मौलिकता की पड़ताल

      संचार क्रान्ति के इस युग में मौलिकता का प्रश्न आँधी में उड़ रहा है, लघुकथा और कविता की लघ्वाकारीय विधाओं (क्षणिका, हाइकु आदि) के क्षेत्र में विशेषतः। मौलिकता से जुड़े कुछ मूल प्रश्न हैं, यथा- लेखन के मात्रात्मक विस्तार और अभिव्यक्ति की कथित आजादी के इस युग में मौलिकता किसे कहा जाये? एक रचनाकार मौलिकता का निर्वाह उन परिस्थितियों में कैसे करे, जहाँ चिंतन, मनन और विचार के स्तर पर ही नहीं संवेदना के स्तर पर भी सामान्यतः अनेक बुद्धिजीवी समान (किसी-किसी सन्दर्भ में तो एक ही) धरातल पर खड़े हैं? यदि कुछ समधर्मा रचनाकारों ने समान विषय पर एक जैसा चिंतन-मनन करते हुए रचना लिखी है तो उनमें से संसाधनों और आर्थिक विषमताओं के कारण प्रचार में पिछड़ने वाला व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति और विचारों की मौलिकता (यदि किसी सीमा/परिभाषा और परिस्थितियों में अक्षुण्य रख पाया हो तो) को कैसे प्रमाणित करे? प्रश्न और भी हैं। लघुकथा में विषय विशेष पर लघुकथा लेखन की प्रतियोगिताओं ने तो इस मसले को और भी पेचीदा बना दिया है। मुझे नहीं लगता कि किसी भी चिंतक के पास इन प्रश्नों के ठोस और सर्वमान्य उत्तर होंगे। 

      इसके बावजूद किसी न किसी दृष्टि से मौलिकता पर भी दृष्टि रखनी पड़ेगी। लेखन एक कलात्मक अभिव्यक्ति है और कला अत्यंत व्यापक है। किसी न किसी दृष्टि से हर लेखक अपनी रचना को दूसरों से अलग रखने का प्रयास कर सकता है। लघुकथा के सन्दर्भ में उसके विभिन्न तत्वों के पारस्परिक अनेकानेक युग्म बनते हैं, उन सभी के आधार पर किन्हीं दो रचनाओं में पूर्ण एवं समग्र समानता से बचा जा सकता है। इसे ‘अवशेष मौलिकता’ कहा जा सकता है। आज अनेक लघुकथाओं को इसी ‘अवशेष मौलिकता’ के आधार पर स्वीकार किया जा रहा है। समीक्षक यदि कोई अन्य आधार तलाश सकें तो लघुकथा के लिए अच्छा होगा क्योंकि अभी लघुकथा में संख्यात्मक/मात्रात्मक लेखन अनेक गुना अधिक होने वाला है। लेकिन कोई अन्य आधार नहीं तलाशा जाता है तो ‘अवशेष मौलिकता’ को समझना और उसके आधार पर लघुकथा की पड़ताल और स्वीकार्यता तय की जा सकती है।

      अपनी बात को विराम देने से पूर्व तीन-चार बातें कहना आवश्यक है कि समीक्षा एक व्यापक विषय है, जिसे कुछ यंत्रों के निर्धारण से हम सीमित तो कर सकते हैं, सम्पूर्ण नहीं। इसलिए कोई भी समीक्षा पूर्ण हो सकती है, मैं स्वीकार नहीं कर सकता। दूसरी बात, समीक्षक रचना की पड़ताल करते हुए जितना पाठक का प्रतिनिधि होता है उतना ही रचनात्मक आवश्यकताओं से परिपूर्ण परिवेश का भी। यहाँ उसे अपनी सम्यक दृष्टि का उपयोग दोनों के समस्तर पर रचना की पड़ताल करने में करना होगा। तीसरी बात, एक पाठक और एक लेखक में विचार, चिंतन और समझ के स्तर पर अन्तर होता है। यह अन्तर रचनात्मक भाव-विचार के सम्प्रेषण के स्तर पर भी होगा ही। इसलिए आवश्यक नहीं कि किसी लेखक की हर रचना पाठक उसी दृष्टि से और उसी स्तर पर समझ सके, जिस पर लेखक ने उसे सृजित किया है। कई बार पाठक कुछ मिथ्या धारणाओं से ग्रस्त भी हो जाता है। ऐसे में लेखक सदैव पाठक के स्तर को ध्यान में रखकर ही लेखन करे, यह संभव नहीं है। समीक्षक को भी इसे समझना चाहिए और पाठकीय परिष्कार को अपने दायित्व में शामिल करना चाहिए। अंतिम बात, कई मित्र समीक्षा में विश्वास नहीं करते और उसे भ्रामक और रचनाकार के अधिकारों में हस्तक्षेप मानते हैं। मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि समीक्षा न तो कोई फतवा है और न ही आदर्श की ओर ले जाने वाला कोई व्याख्यान। समीक्षा तमाम रास्तों और उनके मध्य रचनाकार के संभावित सही रास्ते की स्थिति का संकेतक है। रेड लाइट की तरह रचनाकार को ठहरकर सोचने का थोड़ा समय देती है समीक्षा। ठहरकर तमाम रास्तों में से वह अपने गन्तव्य की ओर जाने वाले रास्ते का चयन करे और सुरक्षा की दृष्टि से सचेत होकर गमन करें। होगा तो वही, जो रचनाकार चाहेगा। निसंदेह वह अधिकार सम्पन्न है और उसकी सार्वभौमिक सत्ता है। लेकिन उसे भी एक बात ध्यान रखनी है, आखिर अपनी जगह (रचनाकार के रूप में) वह भी एक आलोचक है, जीवन व्यवहार का आलोचक! 

संपर्क - डॉ॰ उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र. / मो. 09458929004

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