दिनांक 15-9-2020 से आगे
लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में आत्मिक और दैहिक अस्तित्व का तात्विक विवेचन
चौथी कड़ी
03. सामाजिक दायित्वों के सन्दर्भ में
मानवीय जीवन का व्यावहारिक रूप समाज होता है, जो यथार्थतः विभिन्न वर्गों में बँटा होता है। प्रत्येक वर्ग के अपने हित होते हैं, जिनके सन्दर्भ में उनका पारस्परिक व्यवहार एक दूसरे को प्रभावित करता
समकालीन लघुकथा के उदय की पृष्ठभूमि में ऐसी कई चीजें विद्यमान हैं जो उसके यथार्थ को सूक्ष्म किन्तु व्यापक चिंतन के दायरे में ले जाती हैं। इसलिए पड़ताल का यह आधार बनता है कि लघुकथाकार अपने सृजन में जीवन के यथार्थ की वास्तविक समझ के प्रति कितना सजग है। समकालीन लघुकथा की पृष्ठभूमि में शामिल राजनैतिक दमन, भ्रष्टाचार जनित उत्पीड़न, धोखाधड़ी और षणयंत्र, सामाजिक वर्ग-भेद से जनित उपेक्षा, अनादर और उत्पीड़न (नारी विमर्श, दलित विमर्श, सम्प्रदायिक विमर्श, गरीबी एवं वृद्धावस्था से जुड़ी चर्चाओं, वैयक्तिक आजादी और जीवन की विभिन्न स्थितियों से जुड़ी चर्चाओं, सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन की विसंगतियों पर चर्चा आदि को उत्प्रेरित करने वाले कारकों के रूप में) आदि की उपस्थिति उसके उदय का विशेष कारण रहे हैं। समकालीन लघुकथा इन विषयों और उनसे उद्भूत कथ्यों को पूरी तीव्रता के साथ सामने लाती है। लेकिन समीक्षात्मक दृष्टि से प्रश्न यह है कि रचनात्मक विमर्श या चर्चा में वास्तविकता के साथ तार्किकता व समग्रता आ पाती है या नहीं। उदाहरण के लिए महिला विमर्श के तहत लघुकथा में कई बार महिला और पुरुष दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में लघुकथाकार तभी सफल माना जा सकता है, जब उसके उद्देश्य में महिलाओं की सुरक्षा, समानता और सम्मान का प्रश्न शामिल हो। इसके विपरीत भूतकाल की कुछ चीजों को लेकर महिला और पुरुष को दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा करने या उनके मध्य अनपेक्षित संघर्ष को प्रेरित करने के उद्देश्य से कोई रचना लिखी जाती है तो उसे उचित नहीं माना जा सकता। यही स्थिति दलित विमर्श और साम्प्रदायिक विमर्श के सन्दर्भ में भी है। समाज का कोई वर्ग पीड़ित रहा है, उसके प्रति संवेदनात्मक दृष्टि और उसको बराबरी का सम्मान और समान अवसर देने का समर्थन निसंदेह न्यायसंगत है। लेकिन जिन वर्गों को शोषण के लिए जिम्मेवार माना गया, उनकी वर्तमान पीढ़ियों के साथ अकारण सामाजिक संघर्ष को प्रेरित करना ठीक नहीं हो सकता। लघुकथा (साहित्य) समाज में उपस्थित विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को उजागर करे और विध्वंसात्मक शक्तियों को हतोत्साहित करे, यह उसके उद्देश्य में निहित है। लेकिन रचना में सामाजिक विध्वंस को प्रेरित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
इस सन्दर्भ में डॉ. संध्या तिवारी की लघुकथा ‘चप्पल के बहाने’ (अविराम साहित्यिकी: अप्रैल-जून 2017) रेखांकित करने योग्य है। लघुकथा में एक फैक्ट्री कर्मी, मनोज, एक मोची को लंच टाइम में अपनी चप्पल गाँठने को देता है। मोची सामान निकालने के लिए अपना जूता-चप्पल गाँठने वाला सामान रखने का डिब्बा खोलता है तो मनोज डिब्बे के ढक्कन के ऊपरी हिस्से में रामकृष्ण परमहंस, उनकी पत्नी शारदा देवी और देवी काली के चित्र देखकर भड़क उठता है। वह भगवान को ऐसे स्थान पर रखने के लिए मोची को हड़काता है। तब तक मोची अपना काम कर चुका होता है और मेहनताने के दस रुपये माँगता है। मनोज पैसे देने की बजाय उसे आदेश देता है- ‘‘हटाओ अभी के अभी। हटाओ ये चित्र इस डिब्बे से।’’ लेकिन मोची हड़काने में आने की बजाय बड़े इत्मीनान से अपना डिब्बा बन्द करते हुए अपनी जाति के गौरवपूर्ण इतिहास और आस्था के बारे में शालीन और साहसिक टिप्पणी करता है। मोची का मनोज से न डरना और न ही उसके हड़काऊ व्यवहार के प्रति उत्तेजित होना, साथ ही अपने व्यवहार में इत्मीनान का प्रदर्शन करना उसके परिपक्व और निडर आचरण को दर्शाता है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। साथ ही रैदास का उदाहरण सामने रखते हुए उसका यह कहना- ‘‘और महाराज सच्च पूछौ, तो इहे कौम ठीक से समुझि पाई कि ईसुर कहाँ नहीं है।’’ उसके आत्मगौरव को दर्शाता है। यह आत्मगौरव ही किसी कौम और व्यक्ति को ऊपर उठाता है। मुझे लगता है कि कोई भी विमर्श ऐसे ही विश्वास भरे तत्वों से पूर्णता प्राप्त कर सकता है। इस लघुकथा के नेपथ्य में झाँककर देखिए, मनोज मोची को अपमानित करके भी क्या अपमानित कर पाया? क्या मोची के आचरण के सम्मुख बौना होकर स्वयं अपमानित नहीं हुआ? इस लघुकथा में कथ्यात्मक विचार की स्थापना बेहद महत्वपूर्ण है।
यहाँ एक और स्थिति को देखें। एक ओर दलित और पिछड़ा वर्ग के विमर्श के नाम पर जातिवाद का उन्माद उभारा जा रहा है और कथित निम्न और उच्च जातियों के मध्य वैमनस्य को बढ़ाया जा रहा है। दूसरी ओर अन्तर्जातीय (कथित निम्न और उच्च जातियों के मध्य) सम्बन्धों (वैवाहिक) पर बलात् स्थिति तक जाकर जोर दिया जा रहा है। तीसरी ओर नारी सशक्तीकरण का उभार समय की आवश्यकता बन गया है। चूँकि समकालीन लघुकथा इस स्थिति के मूल में बैठे तथ्यों का समर्थन करती है, इसलिए प्रश्न उठता है कि इन तीनों के मध्य जो काम्प्लेक्स उभरकर सामने आ रहा है या आने वाले समय में आयेगा, क्या उस पर विचार नहीं होना चाहिए? थोड़ा और स्पष्ट करते हैं। मान लीजिए एक हरिजन का बेटा एक ब्राह्मण की बेटी से विवाह करता है। वह हरिजन परिवार ब्राह्मणों को अपनी जाति के शोषण का जिम्मेवार मानकर उनसे नफरत करता है। यह नफरत समय-समय पर परिवार में शब्दवाणों के रूप में उफनती रहती है। ऐसे में क्या होगा? घर में बहू/पत्नी बनी ब्राह्मण की बेटी इस स्थिति को वास्तव में तथा कितना बर्दास्त करेगी? लघुकथाकार किसके पक्ष में खड़ा होगा- पुरुष विरुद्ध महिला के या ब्राह्मण विरुद्ध दलित के? समाज में ऐसी स्थितियाँ आने लगी हैं। दलित या महिला विमर्श के नाम पर सृजनात्मक चिंतन हमेशा दलित के पक्ष में जाये या महिला के, यह हमेशा आवश्यक और उचित नहीं हो सकता। लेखक ऐसी स्थितियों में सृजन करते हुए किस तरह परिस्थिति सापेक्ष दृष्टिकोंण अपनाता है, यह चीज समीक्षक को देखनी होगी।
04. सामयिक परिवर्तनों के प्रभाव: नई सदी की लघुकथा
समकालीन लघुकथा जिस पृष्ठभूमि पर उदित हुई है, उसके दृष्टिगत उसकी बहुत बड़ी आवश्यकता यह है कि वह स्वयं को अद्यतन रखे। किसी भी रचना एवं विचार के अद्यतन होने की समान्य प्रक्रिया सामयिक परिवर्तनों के प्रतिबिम्बों को आत्मसात करते हुए चलती है। समकालीन लघुकथा का यह मानक होना चाहिए कि लघुकथा अपने समय से कितना करीबी रिश्ता बनाकर चल रही है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाती है तो समकालीन होने के बावजूद उसमें ठहराव आ जायेगा। सामयिक परिवर्तन सामान्य जीवन में पैठ बनाते हुए समकालीनता का हिस्सा बनते हैं, इसलिए सृजन में उनके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। परिवर्तन अल्पजीवी हैं या दीर्घजीवी, इससे अन्तर नहीं पड़ता। कोई परिवर्तन दीर्घजीवी नहीं होगा, इसलिए उसको प्रतिबिम्बित करने वाली रचना भी स्थाई या सार्वकालिक महत्व की नहीं होगी, ऐसा सोचकर सृजन करना उचित नहीं। सृजन परिवर्तनों का परीक्षण करता है, उस पर चिंतन और चर्चा को प्रेरित करता है। इस सन्दर्भ में सृजन का महत्व इस बात में होता है कि वह परिवर्तनों को प्रतिबिम्बित करने के अपने उद्देश्य में कितना सफल है। यदि अन्य तात्विक चीजें ठीक हैं तो तात्कालिक परिवर्तनों को प्रतिबिम्बित करने वाली रचना सार्वकालिक हो न हो, रचनात्मकता को प्रतिपादित करने में अवश्य सफल हो सकती है।
भारत में 1970 के बाद के मानवीय परिवेश के लिए जिम्मेवार परिवर्तन दो तरह के हैं, एक वे, जो भारत की आजादी के संघर्ष के अंतिम दौर (जिसे असल में ब्रिटिश हुकूमत का अवसान काल कहा जाना चाहिए) के बाद से ही आरम्भ हो गए थे लेकिन उनकी प्रभावी सघनता वर्षों बाद, यहाँ तक कि बीसवीं सदी के अंत या इक्कीसवीं सदी में देखने को मिली। जैसे कि विधवा विवाह की पहल और सामाजिक स्वीकार्यता। जातीय और लैंगिक आधार पर सामाजिक बराबरी के प्रयासों के परिणाम अभी भी धीरे-धीरे आ रहे हैं। दूसरे वे, जो 1970 या उसके बाद के विभिन्न उपकाल खण्डों में ही सामने आए और प्रभावी हो गए। नई सदी के दूसरे दशक तक ऐसे बहुत सारे परिवर्तन परिवेश में आ गए हैं और लघुकथा में प्रतिबिम्बित भी हो रहे हैं।
महिला विमर्श, दलित विमर्श, जातीय एवं साम्प्रदायिक विमर्श, मानवीय चरित्र में आये बदलाव, सामाजिक-पारिवारिक जीवन में वृद्धाश्रमों एवं बाल-छात्रावासों आदि का प्रवेश और उनसे जनित परिवर्तन, पारिवारिक विघटन के परिणामस्वरूप एकल परिवारों का अस्तित्व और उनसे जनित परिवर्तन, भौगोलिक परिवर्तन, विज्ञान एवं नव-तकनीक उद्भूत परिवर्तन, मानवीय स्वास्थ्य और मानसिक स्तर से जुड़े परिवर्तन, पीढ़ी अन्तराल और नई पीढ़ियों के चिंतन व सोच में परिवर्तन आदि अनेक चीजें हैं, जो मानवीय जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित कर रही हैं। इनमें कई सकारात्मक यानी जीवन की सहजता और निर्वाधता को बढ़ाने वाली हैं तो कई जीवन के लिए संकट का कारण बनने वाली भी। मनुष्य की स्वार्थपरकता, संवेदनहीनता और चारित्रिक विसंगतियों के अनेक नये रूप सामने आ रहे हैं। पारिवारिक रिश्तों के रूप-स्वरूप के साथ उनकी समझ-स्वीकृति में व्यापक अन्तर आ रहा है। एकाकी जीवन के परिणाम नई सदी में तीव्रता के साथ अनुभव किये जा सकते हैं। इन तमाम परिवर्तनों के पारस्परिक प्रभावस्वरूप जीवन से जुड़ी कई जटिलताएँ भी सामने आ रही हैं। लघुकथा जिस पृष्ठभूमि पर जन्मी है और जैसा चरित्र उसने अपने उद्भव के मूल में पाया है, उसके दृष्टिगत इन परिवर्तनों को आत्मसात करने से वह बच नहीं सकती। इसलिए मानव-मनोविज्ञान के अनुरूप इनके प्रभावपूर्ण प्रतिबिम्बों की उपस्थिति होना समकालीन लघुकथा की समीक्षा का एक आधार बनता है। समीक्षक को देखना होगा कि लघुकथाकार अपनी रचना में इन तमाम परिवर्तनों को कितने प्रभावी और भाव-चिंतन से युक्त रूप-स्वरूप में प्रस्तुत करता है। लेखक अन्ततः रचनात्मक परिवेश का एक प्रेक्षक और मानव-व्यवहार से जुड़े प्रेक्षणों का सृजनात्मक प्रस्तोता होता है। उसका प्रस्तुतीकरण यथार्थ के मर्म का जितना प्रतिनिधित्व कर पाता है, समीक्षा की दृष्टि से वह उतना ही सफल लेखक होता है।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जो रचनाएँ कुछ आदर्शपरक स्थितियों के सन्दर्भों या रुटीन जीवन का हिस्सा बन चुकी बिडम्बनाओं के सामान्य प्रतिबिम्बन तक सीमित रह जाती हैं, वे लघुकथा होते हुए भी समकालीनता के आकर्षण से रहित हो जाती हैं। उन्हें सामयिक तो कहा ही नहीं जा सकता।
शेष आगामी अंक में जारी…
आदरणीय महादोषी जी के आलेखों में लघुकथाओं की अत्यन्त उत्कृष्ट, गम्भीर, जानकारी! धन्यवाद!
ReplyDeleteआदरणीय महादोषी जी के आलेखों में लघुकथाओं की अत्यन्त उत्कृष्ट, गम्भीर, जानकारी! धन्यवाद!
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