Sunday, 30 August 2020

अपनी-अपनी ढपली… / मधुदीप

…अपना-अपना राग-2

(दिनांक 28-8-2020 को प्रस्तुत आलेख का शेष भाग………)



कोई भी विधा तभी जीवित रहती है जब वह अतीत को याद करते हुए आज की मूलभूत समस्याओं से जुड़े। सिर्फ घर-परिवार, सास-बहु, बाप-बेटे के अच्छे-बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी। आज जीवन में बहुत तरह के उलझाव हैं और लघुकथा को उन्हें स्वर देना है ताकि वह आमजन के दिल में प्रवेश कर सके। हमें विधा को विस्तार देने के लिए आज के समय को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाना ही होगा। कहानी यदि साहित्य की मूल धारा में रही है तो उसका यही कारण है कि उसने अपने समय की बहुत बारीकी से पहचान की है और उसे व्यक्त किया है। इस सदी की मूल विधा बनने के लिए लघुकथा को भी यही करना होगा।

     मेरी बात कुछ अधिक लम्बी होती जा रही है, इसलिए कुछ मुद्दों को मैं बहुत संक्षेप में आपके सामने रखूँगा। लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की बजाय मुंशी प्रेमचन्द की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है। यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए। आज का समय विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों या प्रोफेसरों के लिए लिखने का नहीं है।

     घटना और रचना के अन्तर को आप सब समझते हैं। मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि घटना रचना नहीं होती। घटना का विवरण प्रस्तुत करना पत्रकारिता होती है, साहित्य लेखन नहीं होता। इस बारे में कहने को बहुत समय चाहिए, इसलिए संकेत को समझें और नवोदित लघुकथाकार इस पर विशेष ध्यान दें।

     लघुकथा में पंच लाइन के बारे में बहुत संक्षेप में—

     सिर्फ पंच लाइन को ही लघुकथा का मूल समझने के भ्रम में न उलझें और न ही उसे समीक्षा का मूल आधार बनाएँ। लघुकथा को उसकी सम्पूर्णता में देखें, उसके लेखन में क्रमिक विकास का ध्यान रखें और कभी एक झटके से लघुकथा का अन्त न करें। यदि स्वाभाविक रूप से लघुकथा के अन्त में किसी विडम्बना के कारण कोई पंच आता है तो ही ठीक होगा अन्यथा वह लघुकथा में थोपा हुआ लगेगा। यह बात मैं जोर देकर इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बहुत से नवोदित साथी इस पंच लाइन शब्द की अवधारणा से भ्रमित हो रहे है जबकि 2012 से पहले ऐसा बिलकुल नहीं था।
      एक बात और,  आजकल फेस बुक पर जो लघुकथाएँ आ रही हैं उनमें कथ्य तो पुराने हैं ही, उनके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नवीनता नहीं है। हमें नए विषय तो तलाशने ही होंगे,  साथ ही लघुकथा लिखते समय शिल्प, शैली और भाषा की तरफ भी धयान देना होगा। लघुकथा के शिल्प और शैली में नए प्रयोग विधा को आगे ले जाने में सहायक होंगे। हमारे वरिष्ठ साथियों को तो लघुकथा में बेहिचक कुछ नए प्रयोग करने ही चाहियें ताकि विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके। नए लेखकों में भी नई ऊर्जा है, वे भी मेरी इस बात पर गौर करें। लघुकथा में बिम्बों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है, इसकी तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

     अन्त में एक आग्रह, लघुकथा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ें और कुछ समय तक इसका स्वाभाविक विकास होने दें। समय और स्वतन्त्र समीक्षक ही इसके सही स्वरूप की पहचान पहचान निर्धारित करेंगे।

      मेरा लघुकथाकारों से इतना ही आग्रह है—लघुकथा में पल विशेष को मजबूती से पकड़िये, उसे आज से जोड़कर रखिये। लघुकथा साहित्य की मुख्य विधा के रूप में पाठक के सामने आ रही है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।

    मेरे इस आलेख से पाठकों को लघुकथा के विषय में मेरी अवधारणाओं के बारे में काफी-कुछ जानकारी मिल सकेगी, ऐसी मुझे आशा है ।

     मन की बात में अभी आपसे कुछ और बातें करने की इच्छा है । मैं कई बार इस बात को दोहरा चुका हूँ की लघुकथा एक शब्द है और हमें इसे एक साथ मिलाकर ही लिखना चाहिए । कई मित्र और कुछ पत्र-पत्रिकाएँ लघुकथा को अलग करके लघु कथा लिखते हैं। इस बारे में फेसबुक पर बहुत बार चर्चा हो चुकी है लेकिन अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। मेरा सभी मित्रों से आग्रह है की वे लघुकथा को एक शब्द के रूप में सही तरीके से लिखें और उन पत्र-पत्रिकाओं को विरोधपत्र अवश्य लिखें जो इसे गलत रूप से लिखते हैं। आप लघुकथा के पाठक हैं, लघुकथा-प्रेमी हैं, लघुकथा-लेखक हैं, इतना दायित्व तो आप और हम सबका बनता ही है कि विधा के लिए सही शब्द का प्रयोग करें और करवाएँ। कुछ पत्र-पत्रिकाएँ लघुकथा विधा की रचनाएँ किसी अन्य शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित करती हैं । इस विषय में मैं 'नया ज्ञानोदय' का उदाहरण विशेष तौर पर देना चाहता हूँ जोकि लघुकथा को 'कथा मुख्तसर' शीर्षक के तले प्रकाशित करती है । इस बात का क्या औचित्य है जबकि विधा का एक नाम निर्धारित है । बिना इस बात की चिन्ता किए कि वे हमारी रचनाएँ प्रकाशित नहीं करेंगी, हमें उनको विरोध दर्ज करवाना चाहिए । क्या वे कहानी या कविता को किसी अन्य शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित करते हैं, नहीं ना ! तो फिर लघुकथा के साथ यह अन्याय क्यों ? लघुकथा शब्द में ऐसा क्या है जो वे इससे परहेज करते हैं ? और हाँ, अब तो कुछ लेखक भी अपने आपको लघुकथाकार कहलाने से परहेज करने लगे हैं । जब वे खुद ही अपने को लघुकथाकार नहीं कहलाना चाहते या अपनी रचनाओं को लघुकथा नहीं मानते तो हम ही क्यों उन्हें लघुकथाकार बनाने पर तुले हैं या उनकी रचनाओं को लघुकथा कहने की होड में लगे हैं । मैं एक बात साफ तौर पर कह देना चाहता हूँ कि विधा से ऊपर कोई नहीं होता, चाहे वह कितना ही बड़ा या चर्चित लेखक क्यों न हो । मैं ऐसे कुछ नाम यहाँ लिखकर विवाद पैदा नहीं करना चाहता लेकिन इस विषय में हमें गम्भीरता से विचार तो अवश्य करना होगा । हाँ, 1970 से पहले के लेखन की बात और है क्योंकि उस समय लघुकथा शब्द प्रचलन में ही नहीं आया था लेकिन आठवें दशक के लेखन के साथ तो यह बात लागू नहीं होती । शायद कुछ साथियों को इसके 'लघु' से डर लगता है कि कहीं उन्हें लघु यानी छोटा लेखक न समझ लिया जाये । ऐसी छोटी सोच के लेखक को हम लघुकथाकार ही क्यों इतना महत्व दें ?

     मैं लघुकथाकार, लघुकथा सम्पादक के साथ लघुकथा की पुस्तकों का प्रकाशक भी हूँ । मेरे कुछ 'आत्मीय मित्रों' का मानना है कि हमें लघुकथा लिखनी चाहिए, उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करवाना चाहिए लेकिन उन्हें विक्रय करने की बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करते ही हम व्यापारी बन जाते हैं और न जाने क्यों यह उन्हें अनुचित लगता है । यदि प्रकाशक पुस्तकें विक्रय नहीं करेगा तो वह उन्हें प्रकाशित क्यों करेगा ? तो क्या वे सभी पुस्तकें मुफ्त वितरित कर दी जानी चाहियेँ ? क्या पुस्तक के प्रकाशन पर कहीं किसी दान खाते से राशि मिलती है ? मैं उन प्रकाशकों की बात करना नहीं चाहता जो लेखक से पैसा लेकर पुस्तकें प्रकाशित करते हैं क्योंकि यह अनुचित परम्परा है और इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए । छपास की भूख इस गलत परम्परा का मूल कारण है, यह बिलकुल सत्य है । हमें अपनी कच्ची-पक्की रचनाओं को पुस्तक रूप में छपवाने का इतना मोह होता है कि हम प्रकाशक के मुँह खून लगा देते हैं । कभी इस बात पर अवश्य गौर करें कि क्या प्रकाशक किसी लेखक के घर जाकर पुस्तक छापने के लिए पैसे की माँग करता है ? नहीं, हम ही अपनी कमजोर रचनाओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने के लिए उसे प्रलोभन देते हैं और फिर प्रकाशक तो प्रकाशन करता ही लाभ कमाने के लिए है । मित्रो, मेरे बात कड़वी अवश्य है, लेकिन मेरा आग्रह है कि इस पर गम्भीरता से विचार अवश्य करें । चलिये, अब हम अपनी मूल बात पर आते हैं । पुस्तकों का प्रकाशन ही बिक्री के लिए होता है । क्या लघुकथा की पुस्तकों को बिक्री करके पाठकों तक पहुँचाना उचित है या फिर लघुकथा की पुस्तकों का प्रकाशन लघुकथाकारों से सहयोग राशि लेकर ही किया जाना चाहिए ? आप किसे उचित मानते हैं ? या फिर कोई अन्य तरीका हो तो वह भी आप मुझे सुझा सकते हैं ।

     एक बात और, नवोदितों को वारिष्ठों के दो सुझाव अब अखरने लगे हैं—

     (1) लिखने से पहले खूब पढ़िए,

     (2) लिखने से पूर्व उस विषय पर खूब मन्थन कीजिए ।

     अब वारिष्ठों को चाहिए कि वे किसी को ऐसा परामर्श न दें और उन्हें अपनी समझ के अनुसार और अपनी गति से लिखने दें। जो कुछ सामने आ रहा है उसे आने दें। लघुकथा कोई छुई-मुई नहीं है जो इस नई धारा से मुरझा जाएगी। हो सकता है, इस सब से विधा में कोई नई धारा विकसित हो जाये। और फिर सही-गलत का निर्धारण करने के लिए समीक्षक और समय तो है ही। इस पुस्तक का मूल उद्देश्य भी तो लघुकथा की समीक्षा के बिन्दु तय करना ही तो है जिससे भविष्य में लघुकथाओं और तथाकथित लघुकथाओं की सही पड़ताल हो सके।

     प्रस्तुत पुस्तक (लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु) इस उद्देश्य से तैयार की गई है ताकि लघुकथा की समीक्षा के लिए कुछ बिन्दु निश्चित किए जा सकें । अभी तक लघुकथा समीक्षा में अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाली स्थिति चल रही है । इस पुस्तक में लघुकथा के 12 विद्वानों ने लघुकथा समीक्षा के विभिन्न बिन्दुओं पर विस्तार से लिखा है । हालाँकि ये सभी विद्वान अनेक बिन्दुओं पर एकमत नहीं हैं लेकिन फिर भी ऐसे अनेक बिन्दु ऐसे हैं जिनके बारे में सभी एकमत हैं। इन सभी के जो विचार हैं उनके बारे में मेरा अधिक कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इनके विचारों के बारे में सुधी पाठक तथा अन्य समीक्षक इन्हें पढ़कर अपनी स्वतन्त्र राय बनाएँ, यही उचित होगा । आप इनके विचारों से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन इन्हें खारिज कतई नहीं किया जा सकता। इनमें से प्रत्येक लेख एक स्वतन्त्र पुस्तक बन सकने की क्षमता रखता है और मुझे पूरा विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसा होगा भी। यह एक शुरुआत है, मुझे लगता है कि यह सही दिशा में शुरुआत है। इन सभी ने इस पुस्तक के लिए आलेख लिखने में अपना 100 प्रतिशत दिया है और बिना किसी आर्थिक प्राप्ति के दिया है। इस पुस्तक में मेरा शायद कुछ भी नहीं है, जो है इसमें संकलित लेखकों का है। इन सभी के प्रति मैं दिल से आभार व्यक्त  करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक (लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु) के मेरे सपने को साकार किया है ।

     मेरा यह प्रयास कितना सार्थक हुआ है, यह जानने की मेरी उत्कट इच्छा रहेगी । अपनी राय से अवश्य ही अवगत कराएँ ताकि भविष्य में और अधिक सार्थक कारी किया जा सके ।

                                                                         मधुदीप

138/16, ओंकार नगर-बी, त्रिनगर, दिल्ली-110 035

मोबाइल : 93124 00709, 8130070928

E-mail : madhudeep01@gmail.com

Friday, 28 August 2020

अपनी-अपनी ढपली… / मधुदीप

…अपना-अपना राग-1

(लम्बे लेख की पहली कड़ी) 

प्रस्तुत लेख मधुदीप के संपादन सद्य:प्रकाशित आलोचना पुस्तक 'लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु' के संपादकीय के रूप में लिखा गया विचारोत्तेजक लेख है। लघुकथा के सुधी पाठकों, आलोचकों और शोधार्थियों के अध्ययन एवं विचारार्थ यहाँ साभार प्रस्तुत है दो कड़ियों में समाप्य उक्त लम्बे आलेख की पहली कड़ी…
इस पुस्तक (लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु) के प्रकाशित होते-होते समकालीन हिन्दी लघुकथा पचास वर्ष की प्रौढ़ा (1971-2020) हो चुकी होगी। मगर जितने विवाद इसके रंग-ढंग को लेकर हैं उतने विवाद किसी नवयौवना के रंग-ढंग को लेकर भी नहीं होते। जितनी ढपलीउतने राग। जितने विद्यालय उतने ही अलग-अलग पाठ्यक्रम। दरअसल, यह सब इसलिए होता रहा है क्योंकि इस विधा को अभी तक सही, स्वतन्त्र और सशक्त समीक्षक प्राप्त ही नहीं हुए हैं। जो इस विधा के लेखक हैं वे ही अधिकतर  इस विधा के समीक्षक हैं। उन लघुकथाकारों ने अपनी-अपनी या अपने चहेते लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अनुरूप या उन्हें आदर्श लघुकथाएँ मानकर तथा तदनुसार इस विधा की समीक्षा के मापदण्ड बनाकर समीक्षा करने की या समीक्षात्मक आलेख लिखने की चेष्टा अधिक की है। किसी भी विधा के साथ उसके प्रारम्भ में ऐसा ही होता है, लेकिन अब यह समकालीन हिन्दी लघुकथा का प्रारम्भकाल नहीं है । पचास वर्ष का समय कम नहीं होता लेकिन अभी भी यह विधा अपने स्वरूप को लेकर विवादों से मुक्त नहीं हो पाई है। मैंने लघुकथा-शृंखला पड़ाव और पड़ताल के माध्यम से स्वतन्त्र समीक्षकों की जो तलाश शुरू की थी उसमें मुझे आंशिक सफलता ही हाथ लगी और इस शृंखला में पड़ताल का 60 प्रतिशत कार्य लघुकथाकारों से ही करवाना पड़ा। मैं इस बात को बहुत ही साफगोई से स्वीकार करता हूँ कि लघुकथा की जिस ऊँचे दर्जे की और सर्वांगीण पड़ताल मैं करवाना चाहता था उसमें मैं कामयाब नहीं हुआ; लेकिन वह कहावत है ना कि माँ नहीं तो मौसी ही सही’, मैं यह मानता हूँ कि इस शृंखला ने लघुकथा की पड़ताल के लिए एक राह तो प्रशस्त की ही है। कुछ स्वतन्त्र समीक्षक भी इस शृंखला के माध्यम से सामने आए हैं और उन्होंने बहुत ही श्रेष्ठ कार्य किया है। उनकी पहचान भी लघुकथा के समीक्षक के रूप में स्थापित हुई है। लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु इस दिशा में मेरा एक और विनम्र प्रयास है जिसमें मैंने 6-6 स्वतन्त्र समीक्षकों और लघुकथाकार-समीक्षकों को लघुकथा की समीक्षा के लिए कुछ बिन्दु तय करने का आग्रह किया था जिसे उन्होंने बहुत ही गम्भीरता से स्वीकारा और पूरा किया। यह इस दिशा में सामूहिक रूप से किया जानेवाला पहला प्रयास है। इसके बाद और भी गम्भीर प्रयास होंगे जोकि लघुकथा की समीक्षा को एक नई दिशा देंगे। मुझे पूरी आशा है कि यह पुस्तक लघुकथा की समीक्षा के मापदण्ड तय करने के लिए अपनी महती भूमिका निभाएगी।

     अब हमेशा की तरह आपसे अपने मन की बात साझा करने का समय है। मैंने लघुकथा पर या इस विधा की समीक्षा पर कोई अधिक अग्रलेख नहीं लिखे हैं क्योंकि मैं स्वयं को इसके लिए आधिकारिक विद्वान न मानकर मात्र लघुकथाकार या लघुकथा का सम्पादक ही मानता हूँ। मैं लघुकथा के बारे में जो कुछ भी महसूस करता हूँ उसे लघुकथा शृंखला पड़ाव और पड़ताल के अपने सम्पादकीयों में अपने मन की बात के अन्तर्गत व्यक्त कर देता हूँ। इसलिए जो भी पाठक लघुकथा के बारे में मेरे विचार जानना चाहते हैं उन्हें इस शृंखला के सम्पादकीय पढ़ने होंगे।

     कुछ समय पहले तक मैं लघुकथा में ‘कथा’ की अनिवार्यता पर बल दिया करता था और कहा करता था की हमें लघुकथा शब्द के कथा शब्द को नहीं भूलना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘लघु’ कहने के चक्कर में रचना में से ‘कथा’ ही गायब हो जाये । मैंने हर मंच से यह बात कही है और पूरा जोर देकर कही है। यही बात मैंने अपने आलेख लघुकथा : रचना और शिल्प में भी कही है,  मगर पिछ्ले दिनों के कुछ घटनाक्रम से मैं यह कहने पर विवश हो गया हूँ कि हमें लघुकथा में ‘लघु’ शब्द की मर्यादा का पालन भी अवश्य करना होगा। 1000 से अधिक शब्दों की रचना को लघुकथा मानना शायद अतिवाद होगा और हमें इस अतिवाद से बचना होगा। आदर्श लघुकथा वही है जो अधिकतम 1.5 पृष्ठ में सिमट जाए । अपवादों को विधा का मूल स्वरूप कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैसे कहानी में 40 से 80 पृष्ठ की रचना को लम्बी कहानी कहकर प्रस्तुत किया गया था, क्या हम 1000 से 1500 शब्दों की रचना को लम्बी लघुकथा कहकर प्रस्तुत करना चाह रहे हैं? लेकिन ‘लघु’ और ‘लम्बी’ दोनों विरोधाभाषी शब्द हैं और शब्दों की अपनी गरिमा होती है। लघुकथा की आदर्श शब्द सीमा 500-550 शब्दों से अधिक नहीं होनी चाहिए । यदि किसी रचना का कथ्य 1000-1500 शब्दों की माँग करता है तो यह आवश्यक नहीं है कि उस कथ्य पर लघुकथा ही लिखी जाए, उस कथ्य पर कहानी भी लिखी जा सकती है ।

     मैं लघुकथा में हमेशा ‘प्रयोगों का पक्षधर’ रहा हूँ और मेरे मित्र मुझे प्रयोगधर्मी लघुकथाकार कहते हैं; लेकिन हमें किसी भी तरह के अतिवाद से तो बचना ही होगा। अति सर्वत्र वर्जयेत। 'लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु'  पुस्तक के सम्पादकीय में मैं इस बात का उल्लेख कुछ विशेष कारण से कर रहा हूँ । इस पुस्तक में मेरा कोई आलेख नहीं है लेकिन जो बिन्दु मुझे महत्वपूर्ण लगे हैं उनका उल्लेख मैं अपने सम्पादकीय और मेरे मन की बात में अवश्य करना चाहूँगा। आप इन्हें ही मेरी ओर से समीक्षा के बिन्दु भी मान सकते हैं। मेरा मानना है कि विमर्श के दरवाजे हमेशा खुले रहने चाहिए क्योंकि हठधर्मिता किसी भी विधा के हित में नहीं होती। 

     कुछ समय पहले मैंने एक आलेख लघुकथा : रचना और शिल्प फेसबुक पर लिखा था । उसे भी मैं इस पुस्तक की अपनी भूमिका में प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि इस पुस्तक के पाठक  मेरे विचारों से अवगत हो सकें । 

लघुकथा : रचना और शिल्प

लघुकथा कथा परिवार का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जैसे कि उपन्यास, कहानी या नाटक। परिवार में जिस तरह हर व्यक्ति के गुण-धर्म अलग-अलग होते हैं उसी तरह लघुकथा के भी गुण-धर्म अन्य विधाओं से अलग हैं। लघु में विराट को प्रस्तुत करना ही लघुकथाकार का कौशल है। हमारे समक्ष पूरी सृष्टि है। इस सृष्टि में पृथ्वी है, पृथ्वी पर मनुष्य, मनुष्य का पूरा जीवन और उस जीवन का एक पल। यह विस्तृत से अणु की ओर यात्रा है और उस अणु का सही, सटीक वर्णण करना ही लघुकथा का अभीष्ट है। वही लघुकथाकार सफल माना जाता है जो उस पल को सही तरीके से पकड़कर उसकी पूरी संवेदना के साथ पाठक तक प्रेषित कर सके। सृष्टि का अपना विशद महत्त्व है लेकिन हम अणु के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँक सकते। मानव के पूरे जीवन में कितने ही महत्वपूर्ण पल होते हैं जो कि उपन्यास या कहानी लिखते समय लेखक की दृष्टि से ओझल रह जाते हैं क्योंकि उस समय लेखक की दृष्टि समग्र जीवन पर होती है मगर एक लघुकथाकार की दृष्टि में वे ही पल महत्वपूर्ण होते हैं जो एक कहानीकार या उपन्यासकार से उपेक्षित रह जाते हैं। उन पलों की कथा ही लघुकथा होती है और यही गुण-धर्म इस विधा को विशिष्ट भी बनाता है और अन्य विधाओं से अलग भी करता है ।

      मैं आपके सामने एक बहुत पुरानी बात दोहरा रहा हूँ। लघुकथा एक शब्द है। इसे एक-साथ लिखना ही चाहिए; मगर इसके दो भाग हैं, ‘लघु’ तथा ‘कथा’ और ‘लघुकथा’ लिखते समय हमें इन दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिए। शुरू में तथा कुछ आग्रही अभी भी, इसके पहले भाग ‘लघु’ को लेकर बहुत आग्रही हैं। वे भूल जाते हैं कि इसमें ‘कथा’ भी जुड़ा हुआ है और यदि लघुकथा में कथा नहीं होगी तो इसके लघु का क्या अर्थ रह जाएगा! साहित्य में कथारस की अनिवार्यता से हम कतई इंकार नहीं कर सकते। इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप विधा को बहुत अधिक लघु की सीमा में न बाँधें। उसे कथ्य की अनिवार्यता के अनुसार थोडा फैलाव लेने की आजादी अवश्य दें। कुछ आग्रही 250 शब्दों की सीमा पार करते ही उसे लघुकथा (के सीमा-क्षेत्र) से बाहर कर देते हैं; लेकिन मेरा मानना है कि यदि विषय और कथ्य की माँग है तो शब्द सीमा को 500-600  शब्दों तक यानी डेढ़-पौने दो पृष्ठ तक जाने दें; लेकिन साथ ही मेरा कहना है कि लघुकथाकार अतिरिक्त विस्तार के मोह से बचें। भाई सतीशराज पुष्करणा और अन्य वरिष्ठों की बहुत-सी ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं जो मेरी इस शब्द-सीमा को छूती हैं। हाँ, कहानी के सार-संक्षेप को लघुकथा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 लघुकथा का मूल स्वर

अब मैं आपके समक्ष इस विषय में अपने विचार रखना चाहता हूँ। मेरे विचार से पूरा साहित्य तीन बिन्दुओं पर टिका हुआ है—यथार्थ, संवेदना और विडम्बना यानी विसंगति। जीवन के यथार्थ का कलात्मक चित्रण ही साहित्य है। यथार्थ के कलात्मक चित्रण का मूल आधार हैं—संवेदना और विडम्बना। संवेदना लघुकथा के साथ ही पूरे साहित्य का मूल आधार है लेकिन विडम्बना लघुकथा का मूल स्वर है। हालाँकि व्यंग्य पर भी विडम्बना या विसंगति का प्रभाव देखने को मिलता है लेकिन उसमें अतिश्योक्ति का भी प्रभाव होता है जिससे कि लघुकथा में बचना होता है। विडम्बना लघुकथा की तीव्रता को बहुत तीखा बना देती है। कहानी या उपन्यास में विडम्बना उतनी तीव्रता या तीखेपन से नहीं आ पाती क्योंकि उनके विवरण उसमें बाधक बन जाते हैं और विडम्बना का तीखापन खो जाता है। लघुकथा का फोर्मेट यानी आकार लघु होता है इसलिए इसमें जीवन की किसी भी विडम्बना को पूरी शिद्दत और तीखेपन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। इसलिए यह लघुकथा की मूल प्रवृत्ति के के रूप में सामने आता है। इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाए कि संवेदना का लघुकथा में महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। मैं पहले ही साफ कर चुका हूँ कि संवेदना समूचे साहित्य का मूल आधार है। हाँ, जीवन के यथार्थ पलों का विडम्बनात्मक चित्रण प्रस्तुत करके मानव संवेदना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया जा सकता है। यही साहित्य का प्राप्य है और लघुकथा का मूल स्वर भी।

     मेरे कुछ लघुकथाकार साथी लघुकथा में कालदोष को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं। ऊपर मैंने भी कहा है कि लघुकथा पल का कलात्मक चित्रण होती है मगर वह पल कितना बड़ा हो सकता है इसमें आकर हम उलझ जाते हैं। बात कुछ पलों, घंटों की ही होती है मगर उसे सही तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमें कई बार पूर्व-दीप्ति (फ्लैश-बैक) में उस घटना को भी प्रस्तुत करना होता है जिससे ये पल सम्बन्धित होते हैं। कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए हमें घटना का फलक कुछ बड़ा लेना होता है और उसे देखकर हम भ्रमित हो जाते हैं कि यह लघुकथा कालदोष का शिकार हो गई। मेरी अपनी एक लघुकथा समय का पहिया घूम रहा है’, अशोक भाटिया की लघुकथा नमस्ते की वापिसीतथा भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा सन्तूको लेकर काफी पाठक और नवोदित लघुकथाकार भ्रमित हो चुके हैं लेकिन ये सभी बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, सब इस बात को स्वीकार करते हैं। यदि हमें लघुकथा के माध्यम से किसी बड़े फलक की कोई महत्वपूर्ण बात कहनी है तो हमें इस विषय में थोड़ा लचीला रुख अपनाना होगा। फ्लैश-बैक या अन्य तरीकों से और लघुकथाकार अपने कौशल से इसे बाखूबी साध सकता है। इसके कुछ उदाहरण हमें वरिष्ठों की बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं में देखने को मिल सकते हैं। इस विषय में जितनी शंकाएँ हैं,  उन्हें कुछ समय के लिए अलग रखकर हम लघुकथा में कुछ बड़ी बात कहें और अपने कौशल से उस रचना में कालदोष का निवारण करें। कहीं हमारी लघुकथा घर-परिवार के विषयों में ही उलझकर या सिमटकर न रह जाए। हमें आज के समय को पकड़ना है, आज की बड़ी-बड़ी समस्याओं को पूरी शिद्दत से लघुकथा में प्रस्तुत करना है तभी लघुकथा इस सदी की विधा बन सकेगी।

                                                               (शेष आगामी कड़ी में………)