Sunday, 30 August 2020

अपनी-अपनी ढपली… / मधुदीप

…अपना-अपना राग-2

(दिनांक 28-8-2020 को प्रस्तुत आलेख का शेष भाग………)



कोई भी विधा तभी जीवित रहती है जब वह अतीत को याद करते हुए आज की मूलभूत समस्याओं से जुड़े। सिर्फ घर-परिवार, सास-बहु, बाप-बेटे के अच्छे-बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी। आज जीवन में बहुत तरह के उलझाव हैं और लघुकथा को उन्हें स्वर देना है ताकि वह आमजन के दिल में प्रवेश कर सके। हमें विधा को विस्तार देने के लिए आज के समय को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाना ही होगा। कहानी यदि साहित्य की मूल धारा में रही है तो उसका यही कारण है कि उसने अपने समय की बहुत बारीकी से पहचान की है और उसे व्यक्त किया है। इस सदी की मूल विधा बनने के लिए लघुकथा को भी यही करना होगा।

     मेरी बात कुछ अधिक लम्बी होती जा रही है, इसलिए कुछ मुद्दों को मैं बहुत संक्षेप में आपके सामने रखूँगा। लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की बजाय मुंशी प्रेमचन्द की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है। यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए। आज का समय विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों या प्रोफेसरों के लिए लिखने का नहीं है।

     घटना और रचना के अन्तर को आप सब समझते हैं। मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि घटना रचना नहीं होती। घटना का विवरण प्रस्तुत करना पत्रकारिता होती है, साहित्य लेखन नहीं होता। इस बारे में कहने को बहुत समय चाहिए, इसलिए संकेत को समझें और नवोदित लघुकथाकार इस पर विशेष ध्यान दें।

     लघुकथा में पंच लाइन के बारे में बहुत संक्षेप में—

     सिर्फ पंच लाइन को ही लघुकथा का मूल समझने के भ्रम में न उलझें और न ही उसे समीक्षा का मूल आधार बनाएँ। लघुकथा को उसकी सम्पूर्णता में देखें, उसके लेखन में क्रमिक विकास का ध्यान रखें और कभी एक झटके से लघुकथा का अन्त न करें। यदि स्वाभाविक रूप से लघुकथा के अन्त में किसी विडम्बना के कारण कोई पंच आता है तो ही ठीक होगा अन्यथा वह लघुकथा में थोपा हुआ लगेगा। यह बात मैं जोर देकर इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बहुत से नवोदित साथी इस पंच लाइन शब्द की अवधारणा से भ्रमित हो रहे है जबकि 2012 से पहले ऐसा बिलकुल नहीं था।
      एक बात और,  आजकल फेस बुक पर जो लघुकथाएँ आ रही हैं उनमें कथ्य तो पुराने हैं ही, उनके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नवीनता नहीं है। हमें नए विषय तो तलाशने ही होंगे,  साथ ही लघुकथा लिखते समय शिल्प, शैली और भाषा की तरफ भी धयान देना होगा। लघुकथा के शिल्प और शैली में नए प्रयोग विधा को आगे ले जाने में सहायक होंगे। हमारे वरिष्ठ साथियों को तो लघुकथा में बेहिचक कुछ नए प्रयोग करने ही चाहियें ताकि विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके। नए लेखकों में भी नई ऊर्जा है, वे भी मेरी इस बात पर गौर करें। लघुकथा में बिम्बों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है, इसकी तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

     अन्त में एक आग्रह, लघुकथा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ें और कुछ समय तक इसका स्वाभाविक विकास होने दें। समय और स्वतन्त्र समीक्षक ही इसके सही स्वरूप की पहचान पहचान निर्धारित करेंगे।

      मेरा लघुकथाकारों से इतना ही आग्रह है—लघुकथा में पल विशेष को मजबूती से पकड़िये, उसे आज से जोड़कर रखिये। लघुकथा साहित्य की मुख्य विधा के रूप में पाठक के सामने आ रही है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।

    मेरे इस आलेख से पाठकों को लघुकथा के विषय में मेरी अवधारणाओं के बारे में काफी-कुछ जानकारी मिल सकेगी, ऐसी मुझे आशा है ।

     मन की बात में अभी आपसे कुछ और बातें करने की इच्छा है । मैं कई बार इस बात को दोहरा चुका हूँ की लघुकथा एक शब्द है और हमें इसे एक साथ मिलाकर ही लिखना चाहिए । कई मित्र और कुछ पत्र-पत्रिकाएँ लघुकथा को अलग करके लघु कथा लिखते हैं। इस बारे में फेसबुक पर बहुत बार चर्चा हो चुकी है लेकिन अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। मेरा सभी मित्रों से आग्रह है की वे लघुकथा को एक शब्द के रूप में सही तरीके से लिखें और उन पत्र-पत्रिकाओं को विरोधपत्र अवश्य लिखें जो इसे गलत रूप से लिखते हैं। आप लघुकथा के पाठक हैं, लघुकथा-प्रेमी हैं, लघुकथा-लेखक हैं, इतना दायित्व तो आप और हम सबका बनता ही है कि विधा के लिए सही शब्द का प्रयोग करें और करवाएँ। कुछ पत्र-पत्रिकाएँ लघुकथा विधा की रचनाएँ किसी अन्य शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित करती हैं । इस विषय में मैं 'नया ज्ञानोदय' का उदाहरण विशेष तौर पर देना चाहता हूँ जोकि लघुकथा को 'कथा मुख्तसर' शीर्षक के तले प्रकाशित करती है । इस बात का क्या औचित्य है जबकि विधा का एक नाम निर्धारित है । बिना इस बात की चिन्ता किए कि वे हमारी रचनाएँ प्रकाशित नहीं करेंगी, हमें उनको विरोध दर्ज करवाना चाहिए । क्या वे कहानी या कविता को किसी अन्य शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित करते हैं, नहीं ना ! तो फिर लघुकथा के साथ यह अन्याय क्यों ? लघुकथा शब्द में ऐसा क्या है जो वे इससे परहेज करते हैं ? और हाँ, अब तो कुछ लेखक भी अपने आपको लघुकथाकार कहलाने से परहेज करने लगे हैं । जब वे खुद ही अपने को लघुकथाकार नहीं कहलाना चाहते या अपनी रचनाओं को लघुकथा नहीं मानते तो हम ही क्यों उन्हें लघुकथाकार बनाने पर तुले हैं या उनकी रचनाओं को लघुकथा कहने की होड में लगे हैं । मैं एक बात साफ तौर पर कह देना चाहता हूँ कि विधा से ऊपर कोई नहीं होता, चाहे वह कितना ही बड़ा या चर्चित लेखक क्यों न हो । मैं ऐसे कुछ नाम यहाँ लिखकर विवाद पैदा नहीं करना चाहता लेकिन इस विषय में हमें गम्भीरता से विचार तो अवश्य करना होगा । हाँ, 1970 से पहले के लेखन की बात और है क्योंकि उस समय लघुकथा शब्द प्रचलन में ही नहीं आया था लेकिन आठवें दशक के लेखन के साथ तो यह बात लागू नहीं होती । शायद कुछ साथियों को इसके 'लघु' से डर लगता है कि कहीं उन्हें लघु यानी छोटा लेखक न समझ लिया जाये । ऐसी छोटी सोच के लेखक को हम लघुकथाकार ही क्यों इतना महत्व दें ?

     मैं लघुकथाकार, लघुकथा सम्पादक के साथ लघुकथा की पुस्तकों का प्रकाशक भी हूँ । मेरे कुछ 'आत्मीय मित्रों' का मानना है कि हमें लघुकथा लिखनी चाहिए, उन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करवाना चाहिए लेकिन उन्हें विक्रय करने की बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करते ही हम व्यापारी बन जाते हैं और न जाने क्यों यह उन्हें अनुचित लगता है । यदि प्रकाशक पुस्तकें विक्रय नहीं करेगा तो वह उन्हें प्रकाशित क्यों करेगा ? तो क्या वे सभी पुस्तकें मुफ्त वितरित कर दी जानी चाहियेँ ? क्या पुस्तक के प्रकाशन पर कहीं किसी दान खाते से राशि मिलती है ? मैं उन प्रकाशकों की बात करना नहीं चाहता जो लेखक से पैसा लेकर पुस्तकें प्रकाशित करते हैं क्योंकि यह अनुचित परम्परा है और इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए । छपास की भूख इस गलत परम्परा का मूल कारण है, यह बिलकुल सत्य है । हमें अपनी कच्ची-पक्की रचनाओं को पुस्तक रूप में छपवाने का इतना मोह होता है कि हम प्रकाशक के मुँह खून लगा देते हैं । कभी इस बात पर अवश्य गौर करें कि क्या प्रकाशक किसी लेखक के घर जाकर पुस्तक छापने के लिए पैसे की माँग करता है ? नहीं, हम ही अपनी कमजोर रचनाओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने के लिए उसे प्रलोभन देते हैं और फिर प्रकाशक तो प्रकाशन करता ही लाभ कमाने के लिए है । मित्रो, मेरे बात कड़वी अवश्य है, लेकिन मेरा आग्रह है कि इस पर गम्भीरता से विचार अवश्य करें । चलिये, अब हम अपनी मूल बात पर आते हैं । पुस्तकों का प्रकाशन ही बिक्री के लिए होता है । क्या लघुकथा की पुस्तकों को बिक्री करके पाठकों तक पहुँचाना उचित है या फिर लघुकथा की पुस्तकों का प्रकाशन लघुकथाकारों से सहयोग राशि लेकर ही किया जाना चाहिए ? आप किसे उचित मानते हैं ? या फिर कोई अन्य तरीका हो तो वह भी आप मुझे सुझा सकते हैं ।

     एक बात और, नवोदितों को वारिष्ठों के दो सुझाव अब अखरने लगे हैं—

     (1) लिखने से पहले खूब पढ़िए,

     (2) लिखने से पूर्व उस विषय पर खूब मन्थन कीजिए ।

     अब वारिष्ठों को चाहिए कि वे किसी को ऐसा परामर्श न दें और उन्हें अपनी समझ के अनुसार और अपनी गति से लिखने दें। जो कुछ सामने आ रहा है उसे आने दें। लघुकथा कोई छुई-मुई नहीं है जो इस नई धारा से मुरझा जाएगी। हो सकता है, इस सब से विधा में कोई नई धारा विकसित हो जाये। और फिर सही-गलत का निर्धारण करने के लिए समीक्षक और समय तो है ही। इस पुस्तक का मूल उद्देश्य भी तो लघुकथा की समीक्षा के बिन्दु तय करना ही तो है जिससे भविष्य में लघुकथाओं और तथाकथित लघुकथाओं की सही पड़ताल हो सके।

     प्रस्तुत पुस्तक (लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु) इस उद्देश्य से तैयार की गई है ताकि लघुकथा की समीक्षा के लिए कुछ बिन्दु निश्चित किए जा सकें । अभी तक लघुकथा समीक्षा में अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग वाली स्थिति चल रही है । इस पुस्तक में लघुकथा के 12 विद्वानों ने लघुकथा समीक्षा के विभिन्न बिन्दुओं पर विस्तार से लिखा है । हालाँकि ये सभी विद्वान अनेक बिन्दुओं पर एकमत नहीं हैं लेकिन फिर भी ऐसे अनेक बिन्दु ऐसे हैं जिनके बारे में सभी एकमत हैं। इन सभी के जो विचार हैं उनके बारे में मेरा अधिक कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इनके विचारों के बारे में सुधी पाठक तथा अन्य समीक्षक इन्हें पढ़कर अपनी स्वतन्त्र राय बनाएँ, यही उचित होगा । आप इनके विचारों से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन इन्हें खारिज कतई नहीं किया जा सकता। इनमें से प्रत्येक लेख एक स्वतन्त्र पुस्तक बन सकने की क्षमता रखता है और मुझे पूरा विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसा होगा भी। यह एक शुरुआत है, मुझे लगता है कि यह सही दिशा में शुरुआत है। इन सभी ने इस पुस्तक के लिए आलेख लिखने में अपना 100 प्रतिशत दिया है और बिना किसी आर्थिक प्राप्ति के दिया है। इस पुस्तक में मेरा शायद कुछ भी नहीं है, जो है इसमें संकलित लेखकों का है। इन सभी के प्रति मैं दिल से आभार व्यक्त  करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक (लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु) के मेरे सपने को साकार किया है ।

     मेरा यह प्रयास कितना सार्थक हुआ है, यह जानने की मेरी उत्कट इच्छा रहेगी । अपनी राय से अवश्य ही अवगत कराएँ ताकि भविष्य में और अधिक सार्थक कारी किया जा सके ।

                                                                         मधुदीप

138/16, ओंकार नगर-बी, त्रिनगर, दिल्ली-110 035

मोबाइल : 93124 00709, 8130070928

E-mail : madhudeep01@gmail.com

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